बुधवार, 22 जनवरी 2025

संस्कृति को नियंत्रित कैसे करते हैं?

मानव समूहों को नियंत्रित कैसे करें, एक अहम सवाल हैकोई भी मानव समूह अपनी संस्कृति से नियंत्रित, नियमित एवं संचालित होता हैं। अतः मानव समूहों को नियंत्रित करने और मनमाफिक दिशा एवं स्थिति में ले जाने के लिए  ‘संस्कृति’ को ही परिमार्जित करने की आवश्यकता होती है। ऐसे सफल प्रयासों के उदाहरणों से मानव का इतिहास भरा पडा हुआ है|  

हमें सांस्कृतिक परिवर्तन एवं सांस्कृतिक रूपांतरण के विविध उदाहरणों से इसकी क्रिया विधि समझनी है और बड़ी सजगता से इच्छित दिशा में ले जाना है| हमलोग यदि किसी भी संस्कृति को नियंत्रित करना चाहते हैं, यानि उसे अपेक्षित दिशा में मोड़ना चाहते हैं, या उसमे कोई संशोधन या परिमार्जन करना चाहते हैं, या उसे संवर्धित करना चाहते हैं, तो उसकी स्थिति, प्रकृति एवं उसकी क्रियाविधि को समझना होगा| वर्तमान में तेजी से बदलती इस दौर में संस्कृति ‘और गतिमान’ हो गयी है, तो इस ‘गतिमान संस्कृति’ (Dynamic Culture) को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है, हालाँकि संस्कृतियाँ सदैव गतिमान ही रहती है| संस्कृति की गतिशीलता विज्ञान एवं तकनीक, बाजार की शक्तियों एवं अन्य स्थापित संस्कृतियों के संपर्क में आने या रहने के समय अवधि एवं उसके गति से प्रभावित होती रहती है| इस तरह हर संस्कृति चेतन अवस्था में रहती है, और उस संस्कृति के मानव स्वाभाव एवं मनोवृति के अनुसार सदैव गतिशील भी रहती है|

कुछ लोग किसी तंत्र (System), या व्यवस्था (Organisation), या समाज (Society), या संस्कृति (Culture), यानि मानसिकता (Attitude/ Mentally) या किसी यन्त्र (Machine) पर नियंत्रण करना चाहते हैं, और सबकी ‘नियत्रण विधि’ एक सी ही रहती है| जिस पर नियंत्रण पाना है, उस पर नियंत्रण विधि को जानने समझने में हमें उसके कई स्वभावों, स्थितियों, संरचनाओं एवं ढांचों के स्वरूपों आदि का ध्यान रखना होता है| वह चीज जिस पर नियंत्रण पाना है, वह चेतन या अचेतन हो सकता है, वह स्थिर या गतिमान हो सकता है, उसका द्रव्यमान कम या अधिक हो सकता है, उसका ढाँचा खोखला या ठोस हो सकता है, आदि आदि| यहाँ संस्कृति के सन्दर्भ में उसका द्रव्यमान से तात्पर्य उसमे समाहित आबादी की मात्रा, उस आबादी की गुणवत्ता यानि उनकी बौद्धिक स्तर एवं उसकी व्यापकता से है| किसी संस्कृति को उस समय ‘खोखला’ कहा जा सकता है, जब उस संस्कृति के सभी तत्व, आधार एवं संरचना सिर्फ “आस्था” (Faith) पर टिकी हुई होती है| ‘आस्था’ के लिए किसी भी तर्क, साक्ष्य, तथ्य एवं विज्ञान की आवश्यकता नहीं होती, सिर्फ ‘कुतर्को’ के आधार पर सत्य मान लेना होता है| किसी संस्कृति को उस समय ‘ठोस या मजबूत’ कहा जा सकता है, जब उस संस्कृति के सभी तत्व, आधार एवं संरचना सिर्फ “विज्ञान, तर्क एवं सक्ष्यात्मक प्रमाण” पर टिकी हुई होती है|

हमलोग यहाँ ‘संस्कृति’ पर नियंत्रण चाहते हैं, और अन्य व्यवस्था, या तंत्र, या यन्त्र पर नही| इसीलिए यहाँ इसी संस्कृति तक ही सीमित रहेंगे| संस्कृति पर नियंत्रण पाना है, और संस्कृति चेतनशील है, तब इसकी नियंत्रण विधि को समझने में सम्बन्धित आबादी के सामान्य ‘मन’ को ‘मनोविश्लेषणवाद’ (Psychoanalysis) से अवश्य समझना होगा| लेकिन अचेतन चीजों में इसकी आवश्यकता ही नहीं होती है| संस्कृति पर नियंत्रण पाना है, और यह गतिमान अवस्था में होता है, इसीलिए उस संस्कृति के आवेग (Momentum) को भी ध्यान में रखना चाहिए, और यदि स्थिरावस्था में है, तो उसके जड़त्व (Inertia) को ध्यान में रखना है| यदि गतिमान संस्कृति में लोगो की मात्रा यानि संख्या अधिक है, और ज्यादा लोग अतार्किक और आस्थावादी हैं, तो उस ‘मूढ़ता’ और ‘बहुसंख्य्ता’ के कारण उस संस्कृति का आवेग भी ज्यादा होगा| ध्यान रहे कि चलती हुई ट्रेन से उतरना और ट्रेन की गति के विपरीत दिशा में होना अत्यन्त घातक होता है, आपको उसी दिशा में दौड़ पड़ना सुरक्षित होता है| यदि गतिमान वस्तु गुणवत्ता या मात्रा में खोखला होगा, तो उसका आवेग भी कम होगा, और स्वभाव भी अलग ही होगा| ज्यादा आवेग की संस्कृति को नियंत्रित करने में ज्यादा संसाधन एवं ऊर्जा चाहिए| लेकिन “नियंत्रण के उपगम” (Approach to Control) को बदल कर नियंत्रण को सरल, साधारण एवं सुविधाजनक बनाया जा सकता है|

आज संस्कृतियों के स्वरुप में परिवर्तन हो रहा है, और उसके लिए कुछ तथाकथित आदोलनकारी अपनी वाहवाही लेना चाहते हैं| उन्हें इसका ध्यान ही नहीं है कि ये सांस्कृतिक परिवर्तन ज्ञान, तकनीक एवं बाजारी शक्तियों के प्रभाव में ही हो रहा है| ये तथाकथित आन्दोलनकारी सिर्फ सतही तर्क रखना जानते हैं, और इनकी रणनीति में मानव मन के ‘मनोविज्ञान’ का कोई भी तत्व या पक्ष नहीं होता है| वैसी कोई सांस्कृतिक वाहन, जो सामान्य हितों के विपरीत लक्ष्य रखता हो, के सामने चीख चिल्ला कर उस वाहन की दिशा को नियंत्रित नहीं कर सकता है| सामान्य हितों के विपरीत लक्ष्य से तात्पर्य होता है – न्याय, स्वतंत्रता, समता (एवं समानता) एवं बंधुत्व का भाव या मान नहीं रखना|

ऐसे सांस्कृतिक वाहन को नियंत्रित करने का तरीका यह नहीं हो सकता है कि आप सिर्फ आवाज देकर उस वाहन को नियंत्रित करें, क्योंकि वाहन चालक आपके लक्ष्यों के विपरीत की मानसिकता रखता है| आप यदि उस वाहन में सवार हैं, और यदि आपकी पहुँच उस वाहन के ‘चालक सीट’ होती है, तो उस प्रभावकारी वाहन को आपके द्वारा नियंत्रण में रखना सरल और साधारण बात होगी| ‘सांस्कृतिक वाहन’ के ‘चालक सीट’ पर नियंत्रण करना ‘संस्कृति’ के नियंत्रण का सबसे सरल, साधारण, सहज एवं सबसे उत्तम तरीका होता है| अर्थात आप जिस सांस्कृतिक वाहन को अपनी इच्छानुसार मोड़ना या बदलना चाहते हैं, तो सबसे पहले आप उसमे सवार हो जाएँ, और फिर उस वाहन के ‘संचालन सीट’ (Driving Seat) पर नियंत्रण कर लें|

 "सांस्कृतिक वाहन" (Cultural Vehicle) के 

‘संचालन सीट’ (Driving Seat) पर बैठा व्यक्ति ही 

अपने मनचाहे 'कथानकों' (Narratives) के सहारे  

अपने श्रोताओं के "विश्वास तंत्र" (Belief System) को बदल सकता है, दूसरा कोई नही| 

‘सांस्कृतिक रूपांतरण या परिवर्तन’ की यह प्रक्रिया मानव इतिहास की सबसे प्रचलित विधि रही है, क्योंकि यह सरल होती है, साधारण होती है, मामूली परिवर्तन दिखता है, और इस परिवर्तन का कोई विरोध भी नहीं होता है|

‘सांस्कृतिक वाहनों’ को अपने प्रभाव में लेने का एक साधारण तरिका है, कि उस वाहन के मौलिक सिद्धांत में परिवर्तन कर देना, या उसके कुछ या सभी प्रमुख पार्ट - पुर्जों को ही गलत साबित कर देना होता है| जिस सांस्कृतिक वाहन के यंत्र को सामान्य हितों के विपरीत जाने के लिए ही डिजायन किया गया है, उन्ही सिद्धांतों एवं पार्ट - पुर्जों को सही मान कर उसमे सुधार करते रहना भी एक स्पष्ट मूर्खता है| इसे तीन बार पढ़ें, यह बहुत ही महत्वपूर्ण है| ऐसी मूर्खता के उदाहरण आधुनिक युग में भरे पड़े हैं| इस विधि में उनकी मौलिक अवधारणाओं की पहचान कर ‘उसे ध्वस्त करना” भी एक सरल एवं सुगम तरीका है|

समाज के कमजोर वर्गों को आर्थिक लाभ देकर या आर्थिक लाभ का प्रलोभन देना भी औपनिवेशिक काल के इतिहास के उदाहरण माने जाते हैं| राजनीतिक विजय एवं राजनीतिक शासन के लिए भी सांस्कृतिक परिवर्तन मध्य युग की एक ख़ास विधि के उदाहरण मिलते हैं| अपमानित एवं दयनीय स्थिति में रहने वाले सांस्कृतिक लोगों को मानवीय गरिमा सुनिश्चित कराता हुआ सांस्कृतिक ढांचा एवं संरचना भी उन्हें आकर्षित करता रहा है| कुछ लोग भारत में जातीय समानता स्थापित कर भी सांस्कृतिक ढांचा एवं संरचना में परिवर्तन कर पाने में सफल रहे हैं, जबकि उस संदर्भित काल में ‘जाति व्यवस्था’ के कोई भी प्राथमिक प्रमाणिक प्रमाण नहीं हैं|

अब तो आर्थिक यानि भौतिक सम्पन्नता से मुखर संस्कृतियाँ भी ‘अन्य संस्कृतियों’ के लिए मानक उदाहरण दे रहे हैं और उन्हें आकर्षित ही कर रहे हैं| यही आधुनिक संस्कृतियों को वैश्विकता भी दे रही है| यहाँ ‘अन्य संस्कृतियों’ से तात्पर्य में आर्थिक रूप से कमजोर संस्कृतियों से है| इस विधि में अपनी संस्कृतियों को आर्थिक एवं तकनिकी रूप में इतना मुखर बनाना होता है, कि अन्य संस्कृतियों के लोग भी इस मुखर संस्कृतियों का अनुकरण करें|

तो हमलोग अपनी महान विरासत की संस्कृतियों के ध्वजवाहक बने, और अपनी संस्कृतियों को मानवतावादी बना कर सबके लिए अनुकरणीय बनाएँ|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

मंगलवार, 21 जनवरी 2025

क्या कर्मकाण्ड को समाप्त किया जा सकता है?

क्या ‘कर्मकाण्ड’ (Ritualism) को मानव जीवन में समाप्त  किया जा सकता है, या समाप्त नहीं किया जा सकता है? इस प्रश्न के सम्यक उत्तर पर पहुँचने से पहले हमें कर्मकाण्ड की अवधारणा को समझना होगा, इसकी प्रकृति और क्रियाविधि को भी समझना चाहिए। इसके ही साथ हमें यह भी समझना चाहिए कि क्या इसकी कोई सामाजिक सांस्कृतिक अनिवार्यता भी है? यदि कर्मकाण्ड की सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनिवार्यता है, तो इसे कम किया जा सकता है, लेकिन शायद एकदम ‘शून्य’ नहीं किया जा सकता है|

‘कर्मकाण्ड’ एक स्थापित ऐसी ‘सामाजिक सांस्कृतिक’ ‘प्रक्रिया’ (Process) है, जो किसी भी ‘सामाजिक सांस्कृतिक’ ‘संस्थाओं’ (Institutions) के सम्बन्ध में एक अनिवार्य ‘उद्घोषणा’ (Declaration) करने से सम्बन्धित है। यह एक ‘काण्ड’ (Event) है, यानि एक घटना है, और इसमें एक निश्चित एवं स्थापित कर्म यानि विधि तथा व्यवहार किया जाता है। तो प्रश्न यह उठता है कि एक सुनिश्चित एवं स्थापित कर्म को किसी खास समय में क्रियान्वित करने की आवश्यकता या अनिवार्यता क्यों है? इसे समझना चाहिए|

यह ‘कर्मकाण्ड’ “सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं” की घोषणा का ‘काण्ड’ है, जो एक निश्चित एवं निर्धारित क्रियाविधि से सम्बन्धित होता है। अर्थात कर्मकाण्ड किसी भी सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से संबंधित ‘सामाजिक घोषणा’ (Social Declaration) करती है। यह या तो किसी नवनिर्मित संस्थाओं के निर्माण से संबंधित घोषणा हो सकती है, या किसी पूर्ववर्ती संस्थाओं में संशोधन, परिमार्जन, संवर्धन या समापन संबंधित या इनका मिश्रण घोषणा हो सकती है। तो इन सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के कुछ उदाहरण के साथ स्पष्ट किया जाना चाहिए।

सामाजिक सांस्कृतिक जीवन में कई प्रकार के संस्थाओं का निर्माण होता है, या नए सदस्यों का आगमन या सम्मिलन के कारण पूर्व से स्थापित संस्थाओं का पुनर्गठन होता है, या किसी पुराने सदस्यों की मृत्यु के उपरान्त भी ‘उत्तराधिकारी’ सम्बन्धी सामाजिक संस्थाओं के पुनर्गठन की आवश्यकता होती है| संस्थाओं के इन स्वरूपों की समाज में विधिवत घोषणा करनी होती है, और इसी क्रम में इन कर्मकान्डों की आवश्यकता हो जाती है| इसे और स्पष्टता से समझते हैं| किसी भी समाज में एक स्त्री और एक पुरुष के बिना किसी औपचारिकता (कर्मकाण्ड) के मिलने और एक साथ रहने से भी ‘यौन इच्छाओं’ की पूर्ति किए जा सकते हैं, बच्चे पैदा किए जा सकते हैं, उनका पालन पोषण भी जा सकता है| तब इसमें किसी भी कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं होगी| ध्यान रहे कि किसी कार्यालय में विवाह सम्बन्धी ‘वैधानिक घोषणा’ करना यानि वैवाहिक ‘निबंधन’ कराना भी एक कर्मकाण्ड (औपचारिकता) ही है|

लेकिन यदि इन दोनों स्त्री पुरुष के एक साथ रहने, एवं बच्चे सहित समाज के अन्य सदस्यों के प्रति कुछ निश्चित कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को जानने, समझने एवं स्वीकार्य करने की सामाजिक घोषणा करना आवश्यक है, तो यही ‘विवाह’ नामक सामाजिक संस्था का निर्माण होता है, और समाज में घोषणा सम्बन्धित एक निश्चित एवं स्थापित कर्मकाण्ड किया जाना होता है| ‘विवाह’ नामक संस्था के निर्माण सम्बन्धी घोषणाओं के साक्षी बनने एवं जानने के लिए परिवार, रिश्तेदार, मित्र- बंधू एवं समाज के मान्य गणमान्य लोगों की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है| किसी दो व्यक्ति के ‘विवाह’ नामक संस्था का निर्माण हुआ, के घोषणा में शामिल लोगों को ठहराने, खिलाने एवं अन्य सम्मान की व्यवस्था भी किया जाना भी अपेक्षित हो जाता है| इसी तरह समाज के सन्दर्भ में कई कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की घोषणाएँ प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में करनी होती है, ताकि समाज के प्रति और उस परिवार या व्यक्ति के प्रति समाज की सामाजिक एवं सांस्कृतिक कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की सामाजिक समझ व्यापक हो सके| किसी परिवार का कोई सदस्य यदि मृत्यु को प्राप्त होता है, तो इनके जाने की और इनके प्रतिस्थानी की विधिवत सूचना यानि घोषणा समाज में करनी होती है| इन सभी में कुछ निश्चित कर्म एवं विधि किए जाने होते हैं, और इन्हें ही कर्मकाण्ड कहा जाता है| ये तथाकथित घोषणाएँ अति संक्षिप्त हो सकती है, या उपस्थित लोगों की सुविधानुसार लम्बी भी हो सकती है| पुराने समय में, कृषि प्रधान व्यवस्था में समय की उपलब्धता अनुसार, परिवहन के धीमी साधनों के कारण उपस्थित लोगों को व्यस्त रखने के लिए भी व्यापक कर्मकाण्ड होता था, जो आज की बदली हुई समय में अनुकूल नहीं रह जाता है|   

ये सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाएं ही सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र एवं व्यवस्था की ढांचे भी है और आधार भी है। यदि ये सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाएं ही नहीं हो, तो हमारा वर्तमान आधुनिक मानव जीवन का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है, और तब सामान्य पशु से हालत भिन्न नहीं हो सकता है| कुछ तथाकथित बौद्धिकों को लगता है कि सरकारी कार्योलयों में इन सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के गठन के लिए निबंधन करा लेना इन ‘कर्मकांडों’ का विकल्प है, जैसे विवाह का निबंधन करा लेना| परन्तु ऐसे बौद्धिकों को यह समझना चाहिए कि यह ‘निबंधन’ की प्रक्रिया भी एक कर्मकाण्ड (औपचारिकता) ही है| अत: एक कर्मकाण्ड सामाजिक सांस्कृतिक जीवन का एक अनिवार्य क्रिया या विधि है|

इस तरह यह स्पष्ट होना चाहिए कि ‘कर्मकाण्ड’ एक सापेक्षिक, लेकिन अनिवार्य घटना है| अर्थात कोई कम कर्मकाण्ड से काम चला सकता है, और कोई विस्तृत एवं व्यापक कर्मकाण्ड भी करता है| कोई सरल एवं साधारण तरीके से भी कम खर्च कर कर्मकाण्ड की औपचारिकताएँ पूरी कर सकता है| दरअसल लोग ‘अंधविश्वास’, ‘ढोंग’ एवं ‘पाखंड’ की अवधारणाओं से भ्रमित हो जाते हैं| ये तीनो ‘अंधविश्वास’, ‘ढोंग’ एवं ‘पाखंड’ किसी के अज्ञानता या मूर्खता से सम्बन्धित हो सकता है, लेकिन एक कर्मकाण्ड सामाजिक संस्थाओं की अनिवार्यता हो जाती है| किसी व्यक्ति का ‘अंधविश्वास’ उसके द्वारा बिना कोई तर्क या विचार कर सत्य के रूप में ‘विश्वास’ कर लिया जाना है, और यह इस तरह जल्दबाजी का परिणाम, या अज्ञानता के कारण या तार्किकता के अभाव में हो सकता है| ‘ढोंग’ करना वह अवस्था है, जिसमे कोई ‘व्यक्ति’ अपने को ‘वह’ दिखाना चाहता है, जो वह वास्तव में नहीं होता है, जैसे कोई फर्जी अधिकारी| इस तरह ‘ढोंग’ किसी व्यक्ति विशेष का होता है| इसी तरह ‘पाखंड’ किसी कर्मकाण्ड से सम्बन्धित अवांछित एवं अवैज्ञानिक क्रिया या विधि है| स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति या समाज या संस्कृति से सम्बन्धित ‘अंधविश्वास’, ‘ढोंग’ एवं ‘पाखंड’ को कम या समाप्त करने के लिए उस सम्बन्धित को तार्किक यानि ज्ञानी बना कर ही संभव करा सकते हैं, लेकिन मात्र आन्दोलन चला कर इसे समाप्त नहीं किया जा सकता है|

सामान्यत: लोग ‘कर्मकाण्ड’ के ‘संस्थानिक पक्ष’ (Institutional Aspects) समझे बिना विरोध करने लगते हैं| किसी ‘कर्मकाण्ड’ में खर्च करना या अनावश्यक दिखावा करना एक सापेक्षिक आवश्यकता हो सकता है, लेकिन ‘कर्मकाण्ड’ को समाप्त नहीं किया जा सकता है| मानव जीवन में सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं का विकल्प नहीं हो सकता है| मानव एक सामाजिक प्राणी है, और ‘समाज’ “संबंधों का जाल” होता है, जो पशुओं में नहीं होता है|

मानव जीवन ‘सम्बन्धों का जाल’ (Web of relations) ‘भावना’ (Emotion) प्रधान होता है, और यह ‘कार्य- कारण’ (Cause n Effect) प्रधान नहीं हो सकता है|

ठहरिए, और इस पर विचार कीजिए| इसलिए सांस्थानिक आवश्यकताओं के कारण ‘कर्मकाण्ड’ समाज में बना रहेगा|

इसीलिए

इसके ‘संस्कारक’ भी अपने विविध स्वरूपों में  समाज में बनें रहेंगे|

और इसीलिए

इसके ‘संस्कारक’ बनिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान


मंगलवार, 7 जनवरी 2025

राष्ट्र का विखंडन और संस्कृति

कोई भी राष्ट्र विखंडित होता है, या विखंडन की ओर अग्रसर है, तो क्यों? संस्कृति इतनी सामर्थ्यवान होती है कि किसी भी देश को एकजुट रख कर एक सशक्त राष्ट्र बना दे सकती, या किसी देश को खंडित कर कई खंडों में विभाजित भी कर दे सकती है| भारत को ही यदि आधुनिक युग में देखा जाय, तो यह देश भारत और पकिस्तान में खंडित हुआ| यहाँ राष्ट्र निर्माण का मूलाधार धर्म आधारित संस्कृति को ही माना गया| लेकिन यह पकिस्तान भी संस्कृति के दूसरे ही आधार पर फिर से खंडित होकर ‘बंगलादेश’ बना| हालाँकि विभाजित होने वाले अपना सांस्कृतिक आधार खोज ही लेते हैं| कोई संस्कृति का मूल आधार ‘भाषा’, कोई ‘धर्म’ या ‘पंथ’ या कोई क्षेत्र ही मान लेता है, लेकिन अधिकतर लोग ‘प्राकृतिक न्याय’ को संस्कृति का आधार नहीं मान पाते हैं| ‘प्राकृतिक न्याय’ का सामान्य अर्थ ‘मानवतावादी’ होना होता है|

यदि वैश्विक राजनीति को संस्कृति के नजरिए से देखा जाए, तो अनेक वैश्विक राजनीतिक विचित्रताएं उभर आती है। कई वैश्विक संघर्षों का होना या किसी ऐतिहासिक राष्ट्र का विखंडित हो जाना, यह सब संस्कृतियों की समझदारी और उसके प्रबंधन की सफलता या असफलता का खेल है। किसी ने रोमन साम्राज्य की, किसी ने आटोमन साम्राज्य की स्थापना की, तो प्राचीन काल में किसी ने भारतीय साम्राज्य की भी स्थापना की थी, यह सभी संस्कृतियों का ही प्रबंधन रहा| आज फिर ‘बाजार की शक्तियाँ’ एक ‘वैश्विक संस्कृति’ का सृजन करने लगी है| ‘भूगोल’ पर ही ‘आर्थिक शक्तियों’ की क्रिया से ‘संस्कृतियों’ का सृजन होता है| फिर यह भी आश्चर्यजनक है कि इतने महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली सामाजिक सांस्कृतिक साफ्टवेयर यानि संस्कृति का इन संदर्भों में सम्यक अध्ययन नहीं किया गया है, या नहीं किया जा रहा है।

यदि किसी भी व्यक्ति या समाज  की उपलब्धि में उसके व्यक्तित्व का अध्ययन किया जाए, तो संस्कृति की ही महत्वपूर्ण भूमिका उभर कर स्पष्ट हो जाती है। यह संस्कृति ही व्यक्ति एवं समाज की अभिवृति, मानसिकता और दिशा –दशा निर्धारित एवं नियमित करती रहती है| कोई भी व्यक्ति अपने विचारों के सृजन में, भावनाओं की अभिव्यक्ति में, और व्यवहार यानि क्रिया करने में स्वत: स्फूर्त रुप में संस्कृति से ही संचालित होता है। कोई भी व्यक्ति अपने प्राप्त सूचनाओं को अपनी सांस्कृतिक समझ में उसे संसाधित (Process) कर ही उसके अनुरूप कार्य करता है। मतलब कि इसमें पहला चरण सूचनाओं का आगमन है, दूसरा चरण उन सूचनाओं का अपने समझ के अनुसार संसाधित करना या होना है और अंतिम चरण में उन संसाधित सूचनाओं के अनुसार ही कार्यान्वयन किया जाना होता है। इसीलिए किसी भी कर्ता के द्वारा कुछ भी किया जाना ही पर्याप्त नहीं होता है, बल्कि  कर्ता के विषयों (व्यक्ति या जनता) की संस्कृति को सम्यक रुप में समझना और उसके अनुरूप ही कार्य किया जाना भी अपेक्षित होता है। यहाँ व्यक्ति की समझ से आशय उसकी संस्कृति से ही है|

जोसेफ स्टालिन समझाते हैं कि “ऐतिहासिक रुप से एक साथ रहने से उत्पन्न एकापन की भावना ही राष्ट्र है”, अर्थात ऐतिहासिक रुप से एक साथ रहने समझने की साझेदारी से ही राष्ट्रीयता की भावना जन्मती है और मजबूत भी होती है। ध्यान रहे कि संस्कृति का भी यही आधार है, अर्थात राष्ट्र और संस्कृति का आधार एक ही है| स्पष्ट है कि एक सशक्त राष्ट्र के निर्माण में सिर्फ संस्कृति की ही भूमिका महत्वपूर्ण है। यदि यह भावना खंडित कर दिया गया, तो कोई शक्ति देश को तो बचा ले सकती है, लेकिन एक राष्ट्र को नहीं बचा सकता है। यह ‘तथाकथित राष्ट्रीयता की भावना’ अपना उचित मौका देख कर कभी भी विस्फोट कर जाता है|

यदि सोवियत संघ के सर्वोच्च सत्ता  के विचारक -मंडल पूर्व के सोवियत राजनीतिज्ञ जोसेफ स्टालिन की राष्ट्र संबंधित भावना और अवधारणा को बेहतर ढंग से समझते होते, तो सांस्कृतिक आधार पर सोवियत संघ का राष्ट्रीय विखंडन नहीं होता। ये विचारक -मंडल कभी भी उच्चतर संस्कृतियों में व्याप्त सामान्य तत्वों की पहचान करने और उसे मजबूत करने पर गंभीर नहीं रहे। वे शुरु से ही सांस्कृतिक एकीकरण पर सजग, सतर्क और समर्पित प्रयास नहीं किया। और इसी कारण एक सशक्त राष्ट्र का खंड खंड विभाजन हो गया। आज भी विश्व के कई तथाकथित विकासशील और अविकसित देशों में ऐसा ही संकट गहराता जा रहा है। इन राष्टों में विचारक -मंडल राष्ट्र की अवधारणा संस्कृति के सापेक्ष समझते ही है और इनके द्वारा अपनी जाति और धर्म को ही राष्ट्र समझने की भयानक भूल कर दी जा रही है। इन विचारक -मंडल  के सदस्य गण अपनी जाति/ कबीले और धर्म आधारित "सामाजिक पूँजी" (Social Capital) को और  मजबूत करने के लक्ष्य में अपने राष्ट्र को ही बर्बाद कर रहे हैं। ऐसे देश एक राष्ट्र बनने को छटपटा रहा है। ऐसे देशों में विचारक -मंडल अपनी अपनी जाति/ कबीले और पंथ/ धर्म के ही प्रति समर्पित है। यह समस्या उन सभी  देशों में है, जहॉ की संस्कृति अपने ऐतिहासिक विरासत के परिणामस्वरूप आज विशिष्ट स्वरुप में मौजूद है। इसी कारण भारतीय संविधान की ‘उद्देशिका’ (Preamble) में भी ‘राष्ट्र’ (Nation) की एकता एवं अखंडता की बात की गयी है, किसी ‘देश’ (Country), या ‘प्रान्त’ (Province), या ‘राज्य’ (State) की एकता एवं अखंडता की बात नहीं की गयी है। इसका एकमात्र कारण संस्कृति का राष्ट्र  से जुडा होना है। 

वैसे सभी संस्कृतियों को उनके भौगोलिक, ऐतिहासिक और वैज्ञानिक मानसिक विरासत के अनुरूप होने के कारण तुलनीय नहीं माना जाना चाहिए, लेकिन यह तो स्पष्ट है कि सभी संस्कृतियों को 'न्यायवादी' होना ही चाहिए, अन्यथा उन संस्कृतियों को एक साथ नहीं रहना चाहिए। 'न्यायवादी' का अर्थ हुआ कि वह संस्कृति अपने सभी सदस्यों को स्वतंत्रता, समता व समानता और बंधुत्व की भावना के साथ साथ मानवीय गरिमा सुनिश्चित करता हुआ होता है। इस तरह हर संस्कृति को आधुनिक और वैज्ञानिक होना ही चाहिए। यहॉ संस्कृति क्या है, बड़ा ही बहुत महत्वपूर्ण है। संस्कृति किसी भी समाज की मानसिक निधि है, जो ऐतिहासिक काल में विकसित होता है और यह सामाजिक सदस्य के रुप में सभी को प्राप्त होता है। इस तरह संस्कृति समाज को स्वत: स्फूर्त  संचालित और नियमित करने वाले साफ्टवेयर की तरह होता है। अतः ऐसे महत्वपूर्ण साफ्टवेयर को संशोधित और परिमार्जित करने की ज़रूरत होती है।

यदि हम अपने राष्ट्र को आगे ले जाना चाहते हैं और सशक्त, समृद्ध एवं विकसित बनाना चाहते हैं, तो हमें सजगता, सतर्कता और समर्पण से राष्ट्र का अध्ययन संस्कृति के संदर्भ में अवश्य करना चाहिए। ऐसा ही अपील विश्व के सभी जनगण से है।

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

शनिवार, 4 जनवरी 2025

विकास, अमर्त्य सेन एवं संस्कृति

‘विकास’ और ‘संस्कृति’ एक दूसरे से इतना गुंथा हुआ है, कि ‘संस्कृति के संवर्धन’ के बिना कोई भी विकास अपनी सम्पूर्णता को कभी नहीं प्राप्त कर सकता है| फिर भी यह आश्चर्यजनक है कि ‘विकास’ के सन्दर्भ में शायद ही ‘संस्कृति’ का अध्ययन किया गया हो? शायद इस सन्दर्भ में महान अर्थशास्त्री प्रो० अमर्त्य सेन भी चूक गए लगते हैं| यहाँ हमें ‘विकास’, ‘संस्कृति’, ‘संस्कृति का संवर्धन’ और ‘प्रो० अमर्त्य सेन की विकास अवधारणा’ का विश्लेष्णात्मक एवं समीक्षात्मक मूल्याङ्कन करना चाहिए|

मैं यहाँ सामान्य विकास की बात करूँगा, किसी विशेषीकृत विकास जैसे शारीरिक विकास, आर्थिक विकास, भौतिक विकास आदि की बात नहीं करूँगा| वैसे विकास के सामान्य अर्थ में किसी भी वस्तु या विषय में उसके वर्तमान अवस्था, या दशा, या दिशा, या व्यवस्था, या क्रियाविधि के सापेक्ष में वृद्धि, प्रगति, सम्यक सकारात्मक परिवर्तन या योग (जोड़) से लिया जाता है| यह एक बेहतर होने की अवस्था में रुपांतरित होने की गत्यात्मकता की तरह समझा जाता है| यह विकास किसी के विचारों, या क्रियाविधि, या व्यवस्था के सन्दर्भ में मानवता एवं प्रकृति को लक्षित कर भविष्य को भी समाहित करता हुआ एक प्रक्रिया होता है| यह सामान्य लोगो के जीवन स्तर में बेहतरी उपलब्ध कराने का एक उपागम (Approach) माना जा सकता है| इसीलिए यह धारणीय (Sustainable) भी होगा और संवर्धित (Improved) जीवन सुविधाओं को उपलब्ध करता हुआ भी होगा| इस तरह यह एक गतिशील और बहु आयामी संकल्पना होता है, जो मानव जीवन, समाज, संस्कार, संस्कृति, अर्थव्यवस्था या पर्यावरण के विभिन्न आयामों में सकारात्मक एवं रचनात्मक सुधार लाता हुआ रहता है| यह विकास अपनी प्रक्रिया में वर्तमान आबादी की आवश्यकताओं के साथ साथ भविष्य की पीढ़ियों की भी आवश्यकताओं का ध्यान रखती होती है|

तय है कि यह विकास अपनी सम्पूर्णता में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक ढाँचा, संरचना, गठन, विन्यास में मौलिक बदलाव उत्पन्न करता हुआ एक स्थायी प्रगतिशीलता का आधारभूत ‘पारिस्थितिकी’ (Ecosystem) बनाता है| विकास के सम्यक पक्षों पर एक विहंगम दृष्टि डालने से ऐसा लगता है कि विकास का प्रत्यक्ष सम्बन्ध प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि या प्रति व्यक्ति की खरीद क्षमता में वृद्धि से है, लेकिन यह पूरी तरह से भ्रामक है| बहुत सी सरकारें समाज के विशेष एवं विशेष वर्गों के कल्याण के नाम पर  विभिन्न योजनाओं के रुप में कई प्रकार के दान, अनुदान, सहयोग दे कर उनकी ‘आय’ बढाते हुए विकास का दावा करता हुआ दिखता है| यह सब ‘वोट बैंक’ के लिए उचित हो सकता है, लेकिन जनता की क्षमताओं के निर्माण के लिए घातक ही होता है|

विकास किसी एक ख़ास दिशा में मात्र वृद्धि नहीं है, बल्कि यह सर्वदेशीय एवं सम्यक वृद्धि होती है, या हो सकती है| इसीलिए विकास को मात्र सीमेंट की खपत में वृद्धि से, यानि मात्र आधारभूत संरचनात्मक ढाँचे के बनावट में वृद्धि से नहीं समझा जा सकता है| यह विकास सामाजिक सांस्कृतिक संबंधों में संरचनात्मक बदलाव के बिना संभव ही नहीं है| इसीलिए सामाजिक सांस्कृतिक संरचनात्मक बदलाव के बिना किसी भी विकास का दावा विकास के नाम महज एक ‘तमाशा’ ही है| आपने भी देखा होगा कि बहुत से केन्द्रीय, क्षेत्रीय एवं स्थानीय सरकारें भी सिर्फ सड़के, पूल, भवन, आदि आदि का निर्माण कर वास्तविक विकास करने का दावा करता दिखता है, जबकि उनमे विकास की सम्यक दृष्टि का अभाव झलकता है|

प्रो० अमर्त्य सेन की ‘विकास अवधारणा’ में किसी को “अपने जीवन के विभिन्न पक्षों के संबंधों में निर्णय लेने की स्वतन्त्रता में वृद्धि” से माना है| प्रो० अमर्त्य सेन की इसी ‘विकास अवधारणा’ के लिए उन्हें 1998 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार भी मिला है| इसी कारण विकास के मानकीकरण में ‘स्वास्थ्य’, ‘बौद्धिकता’ यानि ज्ञान स्तर, एवं ‘जीवन स्तर’ को शामिल किया जाता है| इनका ‘मानव विकास सूचकांक’ (HDI – Human Development Index) तो वैश्विक संगठन ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (UNDP) ने भी अपनाया है| प्रो० अमर्त्य सेन ने इसीलिए विकास को ‘सक्षमता उपागम’ (Capability Approach) के रुप में देखा है| इसी कारण विकास के कारक में वैज्ञानिक ज्ञान एवं तकनीकी कौशल अवश्य ही शामिल रहता है, और इसके लिए ‘विज्ञान आधारित शिक्षा’ की आवश्यकता होती है| इस ‘विकास’ में ‘आस्थाओं’ पर आधारित ज्ञान या शिक्षा की भूमिका तो नकारात्मक ही नहीं होती, अपितु विध्वंसक ही होती है|

अर्थात विकास के लिए सामान्य जनों में ऐसी ही सकारात्मक एवं रचनात्मक मानसिकता या अभिवृति बनानी होती है| इस तरह विकास व्यक्ति को 'उच्च विभव की क्षमता' तथा 'आत्म- विश्वास' पैदा करने के साथ साथ 'जीवन को गरिमामयी' बनाने के साथ साथ 'जीवन की आकांक्षाओं को साकार' करने वाला भी बनाता है| इस तरह यह किसी भी आवश्यकता (Need) से और किसी भी प्रकार के शोषण के भय से मुक्ति दिलाती है| इस रुप में यह व्यक्ति एवं समाज को स्वतन्त्रता, समता (एवं समानता), एवं बंधुत्व पर आधारित “न्याय” सुनिश्चित कराता है, जिससे वह व्यक्ति और समाज अपने को गरिमामयी महसूस करता हो|  

अब यदि प्रो० अमर्त्य सेन की ‘विकास अवधारणा’ के नजरिये से तथाकथित विकासशील एवं अविकसित देशों की सरकारों और वहां की बौद्धिकों की विचारधारा को देखा समझा जाय, तो बहुत अफ़सोस होता है| इनके किसी भी उपागम में सामाजिक सांस्कृतिक संरचना एवं विन्यास को बदलता हुआ कोई भी सजग, सतर्क एवं समर्पित प्रयास नहीं दिखता है| कभी भी ऐसा नहीं लगता है कि सरकार या व्यवस्था ने कभी भी जन मानस की अभिवृति (Attitude) यानि मानसिकता (Mentality) को संवर्धन की दिशा में बदलना चाहा हो| सरकारों का ध्यान सिर्फ आय में वृद्धि की रही है, जो उन्हें एक सस्ती लोकप्रियता तो दिलाती है, लेकिन उन व्यक्तियों की उत्पादकता बढ़ाने की ओर गंभीर नहीं दिखती है| दरअसल किसी बौद्धिक समूह ने भी स्पष्ट रुप में ऐसा रेखांकन नहीं किया है| यही मानसिकता, यानि अभिवृति, यानि स्थायी सोच –विचार ही तो संस्कृति है, जो कोई भी एक सामाजिक सदस्य होने के कारण समाज में सीखता है|

संस्कृति मानवीय व्यवहारों, मूल्यों, विश्वासों, विचारों, अभिवृतियों इत्यादि का एक जटिल आव्यूह (Matrix) है, जो एक व्यक्ति सामाजिक सदस्य के रूप में समाज से स्वत: ग्रहण करता है| यह सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र का एक साफ्टवेयर की तरह होता है, जो अदृश्य रह कर भी मानव जीवन को नियमित एवं नियंत्रित करता रहता है| संस्कृति का सकारात्मक एवं रचनात्मक भूमिका की दिशा में आगे बढना ही ‘संस्कृति का संवर्धन’ (Improvement of Culture) कहलाता है|  ध्यान रहे कि मैंने संस्कृति में किसी बदालव की यानि किसी मौलिक उलटफेर की बात नहीं किया है| जब यह संस्कृति मानव जीवन में इतना महत्वपूर्ण भूमिका में होता है, तब स्पष्ट है कि यह मानव के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका में रहेगा| फिर भी विकास के सन्दर्भ में संस्कृति का विश्लेषण एवं समीक्षात्मक मूल्यांकन नहीं किया जाना रहस्यमयी लगता है| पता नहीं क्यों प्रो० सेन ने संस्कृति को विकास से प्रत्यक्षतः नहीं जोडा? 

वैसे ‘सत्ता’ सदैव ‘रूपान्तरण’ विरोधी होती है, यानि ‘यथा स्थितिवादी’ होती है| वैसे ऐसा लगता है कि ‘सत्ता’ कोई व्यक्ति समूह नहीं है, लेकिन यह तो ‘व्यक्तियों का समूह’ ही होता है, और उसके निहित स्वार्थ भी होता है| किसी भी समाज के सांस्कृतिक गठन में कोई समूह प्रभावशाली रहता है, और उसी पर राष्ट्र निर्माण एवं विकास की सारी जबावदेही रहती है| अधिकतर तथाकथित विकासशील एवं अविकसित देशों में तथाकथित बौद्धिक लोगों को अपनी समूह, जाति, पंथ एवं धर्म में ही इतना समर्पण होता है, कि वे अपने इसी ‘विश्वास’ को अपना ‘राष्ट्र’ समझ लेते हैं| शायद इन्हें ‘राष्ट्र’ की समझ ही नहीं है, या ये अपने दोहरे चरित्र से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं| ये तथाकथित सत्तासीन बौद्धिक लोग अपने ही समूह, जाति, पंथ एवं धर्म को अपना ‘सामाजिक पूंजी’ (Social Capital) समझते हैं, और उसी को मजबूत करने में सक्रिय हैं और समर्पित हैं|

ऐसे में किसी भी देश की गौरवपूर्ण सांस्कृतिक विरासत का पुनरोद्धार कैसे होगा?

यह एक गंभीर और विचारणीय प्रश्न है| आप भी विचार कीजिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष,

भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

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मैं कौन हूँ? , एक बड़ा ही सहज और स्वाभाविक प्रश्न है। लेकिन इसका उत्तर सरल (Simple) भी नहीं है , और साधारण (Ordinary) भी नहीं है। मतलब इसका...