भारत में जाति व्यवस्था एक अनूठी व्यवस्था या संरचना है, जो अपने
समतुल्य विश्व में कहीं और नहीं पायी जाती| इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘Caste’ किया जाता है, जो मूलतः एक
पुर्तगाली शब्द है| लेकिन पुर्तगाली शब्द ‘Caste’
में वर्ग या कार्य विभाजन होते भी सामाजिक
गतिशीलता है, यानि इस ‘Caste’ में एक ही जीवन में बदलाव की संभावना
है, लेकिन वह गतिशीलता भारतीय ‘जाति’ में नहीं है| इसी
कारण पश्चिमी विद्वान् ‘जाति’ का वह अर्थ नहीं समझ पाते हैं, जो इस “जाति” की
संरचना में निहित होता है| इसीलिए बहुत से भारतीय विद्वानों का मानना
है कि जाति शब्द का अंग्रेजी शब्द ‘Jati’ ही होना चाहिए, ‘Caste’ नहीं होना चाहिए|
इससे जाति के संरचनात्मक निहित अर्थ के सम्प्रेषण में कोई अस्पष्टता नहीं आएगी|
इस सन्दर्भ में बाबा साहेब
डा० भीमराव आम्बेडकर का दिनांक 9 मई 1946 को कोलंबिया यूनिवर्सिटी,
न्यूयॉर्क, अमेरिका में पठित लेख को उद्धृत कर रहा हूँ| इसे डॉ० आम्बेडकर
प्रतिष्ठान, सामाजिक, न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार ने प्रकाशित किया है|
इस आलेख का नाम – “भारत में जातिप्रथा: संरचना, उत्पत्ति और विकास” है| उन्होंने
कहा- “यह बड़े खेद की बात है कि अभी तक इस विषय (भारत में जातिप्रथा: संरचना,
उत्पत्ति और विकास) पर चर्चा नहीं हुई है और लोगों को इसके बारे में अल्प जानकारी है|”
डा० आम्बेडकर कई विद्वानों के परिभाषाओं को दुहराते हुए आगे कहते हैं –
“अकेले देखने में कोई भी परिभाषा पूर्ण नहीं है और मूल भाव किसी में भी नहीं है| उन सब (विदेशी
विद्वानों) ने एक भूल की है कि उन्होंने जाति को एक स्वतंत्र तत्व माना है, उसे
समग्र तंत्र के एक अंग के रूप में नहीं लिया है|”
यह विश्व जगत के लिए उस समय भी सही था और आज भी उतना ही सही
है, जितना बाबा साहेब डा० भीमराव आम्बेडकर ने उस समय कहा था| आज एक भारतीय भी जाति की संरचना, प्रकृति, प्रवृति और
व्यवस्था को भारतीय सन्दर्भ एवं पृष्ठभूमि में ही ठीक से नहीं समझा है|
इसे सम्यक ढंग से निम्नवत समझते हैं -
पहली, जाति
व्यवस्था भारत में विश्व की एकमात्र अनूठी व्यवस्था है, जिसका कोई और समतुल्य उदाहरण
और कहीं नहीं है| यह भारतीय समाज का खण्डनीकरण (Segmentation)
एवं स्तरीकरण (Stratification) एक साथ ही करता है| यह वर्ण व्यवस्था के साथ मिलकर उर्घ्वाकार विभाजन भी करता है, परन्तु यह
अपने आप में क्षैतिज विभाजन भी करता है| यह ‘जाति’ जन्म के परिवार के
वंश पर आधारित होता है| यह जन्म से तय होता है और कभी भी परिवर्तनशील नहीं होता है|
इस व्यवस्था में व्यक्ति विशेष के अर्जित गुण, योग्यता एवं कुशलता का कोई महत्त्व
नहीं है|
दूसरी, जाति व्यवस्था को भाषा का ‘विखंडनवाद’ (Deconstructionism) से भी समझते हैं, जो यह कहता है कि
लेखक के लिखे या कहें गये शब्दों का अर्थ एवं भाव उसके पाठकों के द्वारा समझे
गए अर्थ एवं भाव से पूर्णतया भिन्न होता है, क्योंकि दोनों की मानसिक पृष्ठभूमि
भिन्न भिन्न होती है| यह मानसिक पृष्ठभूमि कई प्रभावी तत्वों का समन्वित
मिश्रण होता है| इसी कारण भारतीय लेखकों के लिखे या कहें गये ‘जाति’ एवं उसका
अंग्रेजी अनुवाद ‘Caste’ का वही अर्थ पश्चिमी के पाठकों का नहीं होता है|,ऐसा
इसलिए होता है, क्योंकि पश्चिमी के पाठक Caste का वह अर्थ लेते हैं, जो उस मूल पुर्तगाली
शब्द से सम्बन्धित है| इसीलिए एक ही भाव के शब्द ‘से जाति’ एवं ‘Caste’ का अर्थ पश्चिमी
के पाठकों का अलग अलग हो जाता है|
तीसरी, जाति व्यवस्था का पदानुक्रमित (Hierarchichal) होना, जिसमे ब्राह्मण को सर्वोच्च स्थान दिया गया है और अन्य
सभी जातियाँ उनसे निकृष्ट (Inferior) मानी
जाती है| यह जातियों के वर्ण व्यवस्था से मिलाने एवं घालमेल करने से हुआ है| दरअसल
भारत में जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था को मनमाने ढंग से व्याख्यापित किया जाता
है, क्योंकि यह भारत के बाहर कहीं भी नहीं है और इसकी व्याख्या का एकाधिकार परम्परागत
रूप से ब्राह्मणों के पास सुरक्षित है| ब्राह्मण को छोड़ सभी जातियों के ऊपर एवं
नीचे जातियाँ होती है| निचले स्तर पर ऊपर – नीचे का विवाद महत्वहीन हो जाता है,
फिर भी उसमे स्तर होता है |
चौथी, जाति
प्रथा में प्रत्येक वर्ग यानि समुदाय के लिए सामाजिक मेल- मिलावट और खान –पान में
प्रतिबन्ध (Restriction) लगाया हुआ होता है| यह एक प्रकार से ‘सामाजिक सांस्कृतिक
बिलगाव’ (Cultural Isolation) की स्थिति होती है| मतलब एक ही क्षेत्र, यानि एक ही
भौगोलिक पर्यावरण, यानि एक ही परितंत्र में समाज के अन्य सदस्यों के रहने के बावजूद
भी उनमे सामाजिक एवं सांस्कृतिक अलगाव होता है| अस्पृश्यता एवं छुआछुत इसी भाव की
प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है|
पाँचवी, जाति
प्रथा का एक लक्षण यह भी है कि इसमें सामाजिक समूह, यानि वर्ग आधारित पृथकीकरण (Segregation)
किया जाता है| यह जाति एवं वर्ण के आधार पर निवास –स्थान (Habitat), पानी (पीने
एवं अन्य उपयोग) के स्रोत, जीविकोपार्जन के चयन और आवागमन के रास्ते के उपयोग पर
प्रतिबन्ध भी लगाता है एवं निर्धारित करता है| अर्थात यह
‘जाति’ किसी के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक जीवन की दिशा एवं दशा को संचालित,
निर्धारित एवं नियमित करता है| यानि जाति सभी के जीवन दर्शन को भी निर्धारित एवं
नियमित करता है|
छठवी, इस व्यवस्था
में प्रत्येक का पेशा (Occupation) निश्चित होता है, जो सामान्यत: जन्म के आधार पर
परंपरा से तय होता है, या ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के लोगों द्वारा अनुदेशित
होता है| इस जाति व्यवस्था में व्यक्ति की योग्यता, कौशल, कुशलता
एवं दक्षता का कोई महत्व नहीं होता है| किसी का कार्य पेशा सिर्फ कार्य की
प्रकृति को ही निर्धारित नहीं करता है, अपितु उस पेशा से जुड़ी पूरी संरचना को भी
निर्धारित करता है| अर्थात उस पेशा से जुड़ा सम्मान, आय, कार्य परिस्थिति, जीवन
दर्शन सभी कुछ निश्चित होता है| उस कार्य से जुड़ा पर्यावर्णीय स्थितियाँ यानि धुप,
धूल, गर्मी, ठण्ड, पसीना, बारिस आदि को भी सुनिश्चित करता है| इस प्रकार जीनीय
उदविकासीय प्रक्रियाओं को, यानि प्राकृतिक चयन, उत्परिवर्तन, अनुकूलन, समायोजन की
प्रक्रियाओं को भी नियमित करता है|
सातवी, जाति प्रथा के निम्नतर समुदायों को अंत:विवाह (Endogamy) की
भी बाध्यता रहती है, जिन्हें विवाह अपने जाति समूह के अन्दर ही करना होता
है| इनके लिए अन्य दूसरें जाति- समूह में
विवाह प्रतिबंधित है| इससे इससे निम्नतर जातियों के समुदायों
में ‘जीनीय प्रवाह” (Genetic Flow) बाधित होता है, लेकिन इनमे “जीनीय बहाव” (Genetic
Drift) होता है| यह प्रतिबन्ध ऊपर के वर्ण के सदस्यों के लिए नहीं है,
अर्थात उपरी वर्णों के लोग अपनी पसंद की महिलाओं से विवाह (Hypergamy) एवं प्रजनन कर
सकते हैं| इसी कारण इन उच्च जातियों के सदस्यों
में ‘जीनीय प्रवाह” (Genetic Flow) होता है, लेकिन इनमे “जीनीय बहाव” (Genetic
Drift) नहीं होता है| एक विशेष बात यह है कि महिलाओं की अपनी जाति नहीं
होती है और यह व्याख्या भ्रामक है| महिलाओं की जाति विवाह पूर्व पिता की जाति से
एवं विवाह के बाद पति के जाति से निर्धारित होता है| इस
तरह यह ‘जाति व्यवस्था’ यानि जातीय बाध्यता किसी भी जन समूह के ‘जीन पूल’ में ‘जीनीय प्रवाह’ एवं ‘जीनीय बहाव’ को भी प्रभावित करता है, जो जीनीय भिन्नता को विभाजन करने
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है|
आठवी, ऊँची
जातियों का स्वरुप तो अखिल भारतीय स्तर की होती है, क्योंकि यह वर्ण व्यवस्था से,
यानि सामन्ती व्यवस्थापिका से, यानि राष्ट्रीय कार्यपालिका से जुड़ी हुई थी|
इसी कारण इनका जीन पूल बड़ा एवं विविध होता है और इसमें जीनीय प्रवाह तो होता है,
परन्तु जीनीय बहाव का प्रभाव लगभग नहीं ही होता है| दरअसल ऊँची जातियों ने भारतीय
वर्ण व्यवस्था का अपहरण कर इसी वर्ण को जाति घोषित कर दिया है| वास्तव में वर्ण
व्यवस्था भारतीय शासकीय सामन्ती व्यवस्था रही, जिसमे सभी जातियों का योगदान उनकी
योग्यता एवं कुशलता के अनुरूप होता रहा| बाद में सामाजिक गतिहीनता के कारण ये
सामन्ती पद ही जातियों के स्वरुप में घोषित कर दी गई| इसका कोई सामाजिक – राजनीतिक
विरोध इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि समाज का सक्षम एवं बौद्धिक वर्ग ही इसके पक्ष में
खड़ा था और उन्ही के स्वार्थों के पूर्ति करता हुआ था|
इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या करने से यह स्पष्ट होता है कि
यह जाति व्यवस्था कुछ ही शताब्दी पुरानी है, यानि इन जातियों का इतिहास भी कुछ ही
सताब्दी पुराणी है|
नौवी, मध्यवर्ती,
छोटी एवं अछूत जातियों की जनसंख्यात्मक आबादी तुलनात्मक रूप ने बहुत कम होती है| ब्राह्मणों
की पुरे भारत में एक ही जाति है, जबकि अन्य समुदायों की छः हजार से अधिक जातियाँ हैं|
इसी कारण किसी ख़ास भौगोलिक क्षेत्र में सदियों से निवास करने के कारण उस
क्षेत्र विशेष के प्रति ये तथाकथित निम्न जातियों के सदस्य अनुकूलित हो जाते है और
एक विशिष्ट उदविकासीय दिशा में विकसित होकर एक विशिष्ट स्वरुप को पा लेती है| छोटी
जातियाँ अंतर्गामी विवाह ही करते हैं| इससे होने वाले उत्परिवर्तन, प्राकृतिक चयन,
अनुकूलन के कारण उनके (अवर्ण, शुद्र एवं अछूत के) जीन पूल में ‘आनुवंशिक बहाव’ के
कारण ‘जीन पूल’ में गुणों की कमी हो जाती है| जबकि ‘जीनीय प्रवाह’ के कारण ‘जीन
पूल’ में गुणों की वृद्धि होती है, जो मध्यवर्ती, छोटी एवं अछूत जातियों की जनसंख्यात्मक
आबादी में नहीं होती है| इन्ही कारणों से इन ब्रह्मनेत्तर
जातियों के जीन पूल और सवर्ण के जीन पूल में जीनीय भिन्नता पैदा होती है|
दसवी, किसी की जाति के निर्धारण का आधार उसके पूर्व जन्म के कर्म
के आधार पर माना जाता है, जिसका वाहक (Transporter) उसका ‘आत्मा’ (Soul) होता है|
इस तरह यह ‘जाति व्यवस्थ’ समाज में सामाजिक एवं
सांस्कृतिक यथास्थितिवाद को बनाए रखने का एक सुदृढ, व्यवस्थित एवं अपूर्व व्यवस्था
है| यह किसी भी व्यक्ति या समाज के दुर्व्यवस्था
या दुर्दशा के लिए वर्तमान शासन को दोषमुक्त कर देता है, इस पर विशेष ध्यान दिया
जाय| इसका प्रमुख कारण यह है कि किसी
की जाति, यानि किसी दुर्दशा, या सुदशा का निर्धारण उसके पूर्व जन्म के जाति के कर्म
के फल के अनुसार होता है, और इसी कारण इस वर्तमान जगत में और कोई व्यक्ति या
संस्था यानि शासन इस कष्ट के लिए दोषी नहीं होता है| इसी
कारण इन जातियों के समुदाय के कष्टों को शासन के द्वारा निवारण करने की भी
आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि यह स्वत: अगले जन्म में सुधर जाता है|
ग्यारहवीं, अब आप ‘जाति’ को “जाति
के संरचनावाद” (Structralism of Jati) से समझते हैं| जाति
व्यवस्था की संरचना में ‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’, ‘कर्मवाद’, ‘नित्य्वाद’ और ‘ईश्वर’
की अवधारणा एवं मान्यता सुनिश्चित है| अर्थात एक जाति व्यवस्था अपने साथ ही
उपरोक्त सभी पाँचों तत्वों को समाहित किये हुए रहती है| ईश्वर इस
व्यवस्था की स्थिरता एवं नियमन को सुनिश्चितता देता है| नित्यवाद इस सिद्धांत को
नित्यता देता है और ईश्वर की नित्यता को भी सुनिश्चित करता है| इस गूढता को सभी
नहीं समझते हैं, क्योंकि इस ओर किसी ने स्पष्ट्या ध्यान ही नहीं दिया है|
स्विस दार्शनिक ‘फर्डीनांड डी सौसुरे’ ने लिखी हुई बातों के शब्दों
एवं वाक्यों को समझने के लिए एक नए उपागम (Approach) पर जोर दिया और एक नई दृष्टि दिया|
इसने लिखे गए शब्दों एवं वाक्यों के शाब्दिक अर्थ एवं उसके निहितार्थ को समझने के तरीको
को प्रमुखता देकर बहुत कुछ बदल डाला| इन्होंने शाब्दिक अर्थो के मकडजाल (The Web of Meaning) की अवधारणा को जन्म दिया एवं संरचनावाद (Structuralism) का सिद्धांत दिया|
इनका कहना है, कि किसी भी शब्द या वाक्य के अर्थ
का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, बल्कि उसका अर्थ उसके सन्दर्भ (Reference) एवं
पारितंत्र (Ecosystem) यानि पृष्ठभूमि, अन्य शब्द एवं वाक्य के सम्बन्ध में और लेखक की मंशा
एवं उद्देश्य में भी होता है| इसे दूसरें शब्दों में कहा जाय, तो किसी भी शब्द या वाक्य
या वाक्य समूह का अर्थ उसकी सम्पूर्ण संरचना से स्पष्ट होता है, अर्थात उसकी
समेकित संरचना में निहित होती है| इससे भाषाओं के अध्ययन में एक क्रांतिकारी
परिवर्तन हुआ| शब्द
का स्वयं कोई अर्थ नहीं होता, और वह उस पुरे लिखावट के सन्दर्भ में तथा पुरी
पारिस्थितिकी (Whole Ecosystem) (समय, स्थान, कालक्रम, परिस्थिति) के सन्दर्भ में होता
है|
इस उपागम से ‘जाति व्यवस्थ’ से
समझने से उपरोक्त स्थिति स्पष्ट हुई| शायद अब आप ‘जाति व्यवस्थ’ को कुछ बेहतर
ढंग से समझने लगे होंगे|
आचार्य निरंजन सिन्हा
भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक