शनिवार, 29 जून 2024

आपका सबसे शक्तिशाली धर्म

 प्यारे युवा दोस्तों,

भारत की प्राचीनतम भाषा में कहा गया है - "धारेती ति धम्मों"  अर्थात 'जो धारण करने योग्य हैवहीं धर्म है' तो आज की दुनिया में धारण करने योग्य धर्म क्या है, अर्थात आज़ का सबसे उत्तमसबसे प्रभावशालीसबसे शक्तिशाली और सबसे महत्वपूर्ण धर्म क्या है?

 ..... आप भी इस पर सोचिए  ......

जरा रुकिए! आज़ के सामाजिकसांस्कृतिकआर्थिकशैक्षणिक और राजनीतिक जीवन में आपको कौन नियमितनियंत्रित और संचालित कर रहा हैआज़ लगभग सभी राष्ट्रों के कार्यपालिका प्रधान भी अपने अपने राष्ट्रों में मैनेजर मात्र रह गए हैं। आज़ वैश्विक वित्तीय शक्तियां जो चाहती हैंजैसा चाहती हैंसभी वैश्विक संगठन और सभी राष्ट्र उसी के अनुरूप कार्य कर रहे हैं। 

पहले आवश्यकता के अनुसार उत्पादन किया जाता रहालेकिन अब उत्पादन करने के लिए आवश्यकताओं को पैदा किया जा रहा है। इसे  समझिए। अब ऐसी आवश्यकताएं मानवता के नाम परप्रकृति संरक्षण के नाम पर और भविष्य में सस्टेनेबिलिटी के नाम पर उत्पन्न किए जाते हैं। मैं अभी इसका विश्लेषण भी नहीं करुंगा। और जब आवश्यकताएं महसूस होगीतो इसके लिए उत्पादन होगा ही और फिर बाजार की क्रियाविधि तेज हो जाएगी।

पहले परिवार और समुदाय सबसे प्रभावशाली संस्था होता था और व्यक्ति एवं राज्य कमजोर होता था। लेकिन अब परिवार एवं समुदाय अपेक्षाकृत कमजोर हो गया है और व्यक्ति एवं राज्य ज्यादा मजबूत हो गया है। वर्तमान युग में बाजार सभी कोचाहे आप व्यक्ति हैंपरिवार हैंसमुदाय हैं या राष्ट्र ही हैंअपना उपभोक्ता ही समझता है और उसी अनुरूप उससे संबंध भी बनाता हैउसे  नियंत्रित भी करता है और संचालित भी करता है।

तो आज सबसे प्रभावशालीसबसे शक्तिशालीऔर सबसे महत्वपूर्ण कारक “वित्तीय शक्तियां” ही हो गई है। जब आप अपनी बुद्धि कोअपने ज्ञान कोअपने कौशल को और अपनी सम्पत्ति को उत्पादक पूंजी बना देते हैंतो आप सफल हो जाते हैं। वैसे ‘पूंजी’ ‘उत्पादक सम्पत्ति’ को ही कहा जाता है। 

अतः आपका वित्तीय शक्ति बनना ही आपका सर्वोत्तमसर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च धर्म होना चाहिए।

बाकी आपकी और समाज की सभी विशेषताएं आपके आगे पीछे रहेगा।

ऐसे सभी सफल समुदायों को देखिएसमझिए और इसका अनुकरण भी कीजिए। लेकिन इन समुदायों का विश्लेषण कभी भी धर्मजातिभाषाक्षेत्र और राजनीतिक चश्मे से नहीं कीजिए। कुछ तथाकथित धर्मजातिभाषाक्षेत्र और राजनीति के ठेकेदारों की मंशा भी नहीं समझनी है। इसे समझने में अपना समयधनसंसाधनउत्साहजवानी और वैचारिकी को भी नहीं लगाना हैयह सब उनके फेर में बर्बाद हो जाएगा।

इसे स्थिरता से समझिए। आप ठहरिए। जो ठहरता हैवही गहराइयों में भी उतर सकता है। जो जीवन की आवश्यकताओं के पीछे मात्र दौड़ लगाता रहता हैवह वैश्विक प्लेटफार्मों पर मात्र फिसलता रहता है।

आप तो समझदार है। 

आप आर्थिक शक्ति बनने का अभी से निर्णय कर लीजिए।

आप आगे बढ़िएऔर लोग आपसे जुड़ते जाएंगेऔर कारवां बनता जाएगा।

अब आपको यही सोचना हैयही बोलना हैयही सुनना हैयही देखना हैआपके सपनों में भी यही सब आना चाहिए। आपको इसी वैचारिकी में रहना है।

क्वांटम भौतिकी के प्रेक्षक सिद्धांत भी यही कहता है कि यही सब भौतिकता में बदल जाता है।

तब सारे धर्मजातिभाषाक्षेत्र और देश आपके साथ होंगे। आप आज ही दुनिया के सबसे शक्तिशाली धर्म – “वित्तीय धर्म” को अपनाइए।

आचार्य निरंजन सिन्हा 

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

(इस आलेख को और व्यवस्थित तरीके से पढ़ने के लिए और अन्य आलेख पढ़ने के लिए निम्न लिंक पर भी अवलोकन किया जा सकता है)

 

सोमवार, 24 जून 2024

सियासत का खेल और सफलता का राज समझो

 !!प्यारे युवा दोस्तों!! 

तुम क्यों पडे हो धर्म, जाति, और राज नेताओं की घटिया राजनिति मेंयुवाओं का तो बस एक ही धर्म होता है -  सफलता। चाहे तुमनें नौकरी का या उद्यमिता का लक्ष्य निश्चित किया हो। 

,....... बस इसी "सफलता-धर्म" को पूरा करने के लिए अपने विचारों और कर्मो के सागर में डूबे रहो। बाकी सब उनका कारोबार है,.....धन्धा है......, सियासत है..... मुखौटों का खेल है... ।। 

 ध्यान रखो - " अगर तुम्हे सफलता  नही मिली, चाहे वह तुम्हारी नौकरी हो या तुम्हारी उद्यामिता हो, फिर तो तुम न हिंदू रहोगे, न मुस्लिम, न सिख, न ईसाई और न ही कुछ और भी - - - - - - और न ही किसी राजनीतिक दल का कोई पदधारी रहोगे.... 

गरीबों, भूखे और बेरोजगारों का कोई धर्म नही होता, तब तुम्हारी जाति में भी कोई सम्मान नही होता, और राजनीति में भी सिर्फ तुम्हारी हैसियत ही झंडा उठाने तथा दरी बिछाने वाले की ही होती है। 

 तब तुम सिर्फ धर्म, जाति, और राजनीतिक दलों के ठेकेदारों का खिलौना होते हो।

"वह मस्जिद की सेवई भी खाता है, मंदिरों  का लड्डू भी खाता है। और वह प्रतिनिधित्व करने का भूखा है, बेचैन है, बाबू। ऐसे बहुतो ठीकेदारों के बच्चे तो विदेशों में रहते, और पढते है। उन्हें कहाँ चिन्ता है, भारतीय संस्कृति की विरासत की गरिमा और निरन्तरता की?

उसे मजहब, जाति और प्रतिष्ठा कहाँ समझ में आता है? उसे तो अपने राजनीतिक दलों के धर्म (सिद्धांत) भी समझ में नहीं आता है, और इसीलिए वे अपनी इच्छा अनुसार इसे कभी भी बदल लेता है। 

इसलिए सबसे पहले तुम अपना करियर बचाओ..........कैरियर बना लो। जब कुछ देने वाले बनोगे, तभी तुम्हे पद भी मिलेगा, प्रतिष्ठा भी मिलेगा, धन भी मिलेगा और तुम्हें सभी लोग पूछेंगे।

 इसिलिए देने में समर्थ बनो।

 और देने के लिए आर्थिक रूप से समर्थ बनो।

 याद रखना

 तुम्हारा आर्थिक सशक्तिकरण ही तुम्हारी पूछ बढाएगा।

........... बाकी सब गुलामी है,...... बंधन है,.......... बेडियाँ है,........Slavery है, .... इनसे तुम्हे आजाद होना है। 

तुम्हे बहुत आगे जाना है............ बहुत आगे।। 

जमीन से अन्तरिक्ष की उंचाईयों तक जाना है।.......... तुम्हें अपने परिवार, समाज, मानवता और राष्ट्र का नाम रोशन करना है।

   !!जरा ठहरकर सोचना।।

 आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक

गुरुवार, 20 जून 2024

अतीत मानवीय चेतना तथा मूल्यों का स्थायी आयाम है|

आज हमलोग जो भी कुछ हैं, अपने अतीत के आधार पर वजूद में हैं| अर्थात आज हमारी समस्त भावनाएँ, विचार, व्यवहार एवं कार्य का नियमन, नियंत्रण और सञ्चालन अतीत में तैयार सामग्रियों यानि विचारों एवं संस्कारों के द्वारा होता है| हमारे विचार और संस्कार अतीत के हमारे मानवीय चेतना तथा मूल्यों से उत्पन्न होते हैं| अतीत का साधारण अर्थ हुआ – बिता हुआ काल, जो अब नहीं है,  लेकिन यह इतिहास से कुछ अलग होता है। आधुनिक इतिहासों में सिर्फ संस्कृतियों के रुपांतरण का क्रमानुसार ब्यौरा ही होता है, जबकि अतीत में सभी, साधारण और सामान्य, घटनाओं को स्थान मिलता है। 

अतीत से हमें भौतिक और अभौतिक सामग्री प्राप्त होते हैं| भौतिक पदार्थ का तो समय के साथ क्षरण भी हो सकता है, लेकिन मानवीय चेतनाओं एवं मूल्यों में निरंतरता रहती है, भले ही समय के साथ बदलता रहे| भौतिकीय पदार्थ सभ्यता का आधार होता है, और अभौतिक सामग्री यानि मानवीय चेतना एवं सामाजिक- सांस्कृतिक मूल्य संस्कृति का आधार होता है| सभ्यता की निरंतरता समाप्त हो सकती है, जैसे सिन्धु घाटी सभ्यता और माया सभ्यता की निरंतरता तलाशना अब भी कठिन है| लेकिन किसी की संस्कृति उस मानव समाज के मन मस्तिष्क में निवास करता रहा है| हम भौतिकीय पदार्थ यानि सभ्यता को सामाजिक- सांस्कृतिक तंत्र का ‘हार्डवेयर’ कह सकते हैं और अभौतिक सामग्री यानि संस्कृति को  सामाजिक- सांस्कृतिक तंत्र का ‘साफ्टवेयर’ कह सकते हैं, जो अदृश्य रहकर भी समाज को संचालित करता रहता है|

यदि हम ठहर कर विचार करे तो हम पाते हैं कि हमारे वर्तमान चिंतन का आधार हमारे सामाजिक- सांस्कृतिक मानवीय चेतना और मूल्यों से ही नियमित एवं निर्धारित होता है| हमारा यह चिंतन वर्तमान को समझने के लिए होता है और भविष्य की तैयारी के लिए होता है| इसी चिंतन से हम वर्तमान की समस्यायों का समाधान पाते है और जीवन की सफल यात्रा कर पाते हैं| ऐसा ही अतीत के हर काल एवं क्षेत्र में होता रहा है| इसी चिंतन के परिणाम और प्रभाव से मानव जीवन विकसित होता रहा है| हमारी सोच, हमरे मानक एवं मूल्य, लोकाचार. प्रतिमान, अभिवृति, सभी कुछ हमें अपनी विरासत से मिलता है, जो अतीत का होता है|

लेकिन हमें मानवीय चेतना और मूल्यों की अवधारणा को स्पष्ट करना चाहिए| मानव की चेतना एक व्यापक शब्द है, जो मानव की समझ यानि बुद्धि को इंगित करता है| चेतना किसी भी जीवन का संवेदनशील समझ है, यानि उसकी क्रिया एवं प्रतिक्रिया देने की अवस्था है| मानव की चेतना में उसकी भावनाएँ, विचार एवं व्यवहार शामिल होता है| किसी भी जीव में व्यवहार तो शामिल होता है, लेकिन विचार करने और भावनाएँ व्यक्त करने की स्पष्ट दशा तो सिर्फ मानव में ही होती है| एक पशु सोच सकता है, लेकिन सिर्फ मानव ही अपनी सोच पर भी सोच सकता है| सोच पर ही सोचने को चिंतन कहते हैं, जिससे विचार उत्पन्न होते हैं| यही विशिष्टता एक पशु मानव को एक ‘बुद्धिमान मानव’ (होमो सेपियंस) बनाया| इसलिए मानवीय चेतना में बुद्धि का सर्वोच्च स्थान है| इसीलिए मानवीय चेतना अन्य जीवों में सर्वश्रेष्ट है|

मानवीय मूल्य हमारी भावनाओं, विचारों, व्यवहारों एवं कार्यो को नियमित करनी वाली वे सामाजिक- सांस्कृतिक मानक होते होते हैं, जिन्हें हमारी संस्कृति निर्धारित करती है| ये मूल्य अपने सदस्यों एवं समाज की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को उन मनको के अनुरूप व्यक्त किए जाने की अपेक्षा रखता है| इसे उस जीवन सिद्धांत के रूप में लिया जा सकता है, जो हमें जीवन में भावनाओं, विचारों, कार्यों एवं निर्णयों का मार्गदर्शन करते हैं| ये हमारे सामाजिक- सांस्कृतिक आदर्शों, उद्देश्यों एवं विश्वासों की अनुभूति समझाते हैं| दरअसल यह सब सामाजिक- सांस्कृतिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए उद्भूत किए जाते है और इसे विकसित किया जाता है| किसी बुजुर्ग को सम्मान दिया एक सामाजिक मूल्य है, जिसे हम कई रूपों में व्यक्त करते हैं, जो प्रतिमान के रूप में भिन्नताएं देते हैं|

इस तरह हम पाते हैं कि सभ्यता एवं संस्कृति के कई पक्ष होते हैं, या हो सकते है| सभ्यता एवं संस्कृति के विभिन्न पक्ष ही अतीत के विभिन्न आयामों को स्पष्ट करते हैं| लेकिन जब हम अतीत के स्थायी आयामों की बात करते हैं, यानि यदि हम अतीत की निरंतरता की बातें करते हैं, तो हमें स्थायी आयामों में कुछ आयाम को ही चिह्नित करना होता है| मानवीय मूल्य में सामाजिक- सांस्कृतिक प्रतिमान, परम्परा, लोकाचार, आदर्श, विश्वास, उद्देश्य आदि शामिल हो जाते हैं| इसी तरह मानवीय चेतना में मानवीय बुद्धि यानि बौद्धिकता के कई स्वरुप एवं स्तर शामिल हो जाता है| चेतना अव्यक्त चेतन यानि अवचेतन स्तर और अधिचेतन स्तर पर भी कार्य करता है| बुद्धिमता में आजकल भावनात्मक बुद्द्गिमता, सामाजिक बुद्धिमता और बौद्धिक बुद्धिमता (Wisdom Intelligence) शामिल हो गया है| इस तरह मानवीय चेतना और मानवीय मूल्य इतना व्यापक अवधारणा है कि यह लगभग समस्त मानवीय भावना, विचार एवं व्यवहार को ही अपने में समाहित कर लेता है| यह सब हमें अपने अतीत से ही प्राप्त होता है|

इसलिए यह कहना समुचित और सत्य है कि “अतीत मानवीय चेतना तथा मूल्यों का स्थायी आयाम है|” अतीत के बाकी अय्याम तो अस्थायी हो सकता है, यानि बदलते रहने वाला हो सकता है, लेकिन मानवीय चेतना और मानवीय मूल्य अतीत के नहीं बदलने वाला आयाम है|

(इसे आयोग की परीक्षाओं में निबंधको ध्यान में रख कर लिखी गयी है)

आचार्य निरंजन सिन्हा 

इतिहास स्वयं को दोहराता है, पहली बार एक त्रासदी के रूप में, दूसरी बार एक प्रहसन के रूप में|

बहुत से लोगों का मानना है कि इतिहास स्वयं को दुहराता रहता है’| लोगों का ऐसा भी मानना है कि इसके दुहराने के स्वरुप भी बदलते रह सकते हैं, लेकिन इतिहास सदैव ही अपने आपको दुहराता रहता है| कहने का तात्पर्य यह होता है कि इतिहास का कोई भी पात्र अपने अतीत के पात्रों एवं बदलाव की घटनाओं से कोई भी सीख नहीं लेता| इसीलिए ऐसा माना जाता है कि इतिहास पहली बार एक त्रासदी के रूप में, यानि एक दुर्घटना के रूप में घटित होता है और दूसरी बार एक प्रहसन के रूप में आता है, क्योंकि इससे कोई सीख नहीं ली गई| लेकिन इसके मूल्याङ्कन करने पर कई अन्य बातें उभर कर आ जाती है, जो इस मंतव्य यानि उपरोक्त कथन से भिन्न हो जाता है|  

इतिहास मनुष्य एवं उसके द्वारा निर्मित संस्थाओं के द्वारा प्रकृति एवं समाज में हस्तक्षेप से हुए सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित ब्यौरा होता है| इतिहास को संस्कृतियों का प्रवाह के रूप में भी लिया जाता है। आर्थिक शक्तियां ही बाजार को बदलने वाली महत्वपूर्ण शक्तियां होती है| यही बाजार की शक्तियां ही तत्कालीन समाज के सामाजिक एवं सांस्कृतिक बनावट (Structure) एवं ढांचा (Frame Work) को बदलता रहता है| इन बाजार की शक्तियों को समकालिक या समकालीन शक्तियां भी कहते हैं| यही समकालीन बाजार की शक्तियां ही अतीत के सन्दर्भ में ऐतिहासिक शक्तियांकहलाती है, जो इतिहास का निर्माण करता रहता है| ये बदलाव वैसे तो देखने में अति सूक्ष्म (Micro) होते हैं, और इसीलिए एक सामान्य जीवन में दृष्टिगोचर नहीं होती है| लेकिन जब इन्ही बदलावों का इतिहास के काल खंड में समेकन होता है, तो यही सब इतिहास को बदलने वाली स्थूल (Macro) प्रभाव लेकर दिखती है| इसी को सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव कहते हैं, जो समाज में इतिहास के रूप में जाना जाता है| इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या उपभोग, उत्पादन, वितरण एवं विनिमय के साधनों एवं शक्तियों के अंतर्संबंधों के आधार पर ही किया जाना उपयुक्त होता है| इस आधार पर की गई व्याख्या इतिहास के हर काल एवं क्षेत्र की प्रत्येक घटनाओं की संतोषप्रद व्याख्या कर देती है|

अब इतिहास में व्यक्तियों का विवरण और घटनाओं का ही ब्यौरा नहीं होता है, बल्कि इतिहास में उस काल की सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, धार्मिक पहलुओं को अपने में समेटता हुआ होता है| इसलिए किसी इतिकास वर्णन में किसी व्यक्तियों के विवरण और घटनाओं के ब्यौरे में यदि कोई दुहराव भी होता है, तो यह सब इतिहास ही नहीं है| सामान्य सतही इतिहास में किसी व्यक्तियों के विवरण और घटनाओं के ब्यौरे को ही प्रमुखता मिल सकता है, जैसा कि कुछ समय पहले होता रहा है, लेकिन अब ऐसा नहीं होता है| इतिहास की किसी घटना को या सभी घटनाओं को एक त्रासदी के रूप में या एक प्रहसन के रूप में लेना इतिहासकार के सन्दर्भ, पृष्ठभूमि एवं लक्ष्य के अनुसार भी बदल जाता है| अर्थात कोई एक घटना किसी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र या देश, एवं मानवता के सन्दर्भ में एक त्रासदी या प्रहसन या वरदान किसी भी रूप में हो सकता है| वही घटना किसी इतिहासकार के सन्दर्भ, पृष्ठभूमि एवं लक्ष्य के अनुसार एक सामान्य बात भी हो सकता है| यह सब सापेक्षिक माना जाना चाहिए| इसलिए इतिहास की घटनाओं को सन्दर्भ, पृष्ठभूमि एवं लक्ष्य के अनुसार बदलता हुआ मानना चाहिए|

वैज्ञानिक इतिहास कभी भी अपने आप को दोहराता नहीं है| चूँकि बाजार की शक्तियां परिवर्तन की दिशा में सदैव अग्रसर होती रहती है, इसीलिए बाजार की शक्तियां अपने पहले के प्रभावों पर पुन: नए ढंग से और नए सन्दर्भ, पृष्ठभूमि एवं लक्ष्य के अनुसार भी बदलती रहती है| ये बाजार की शक्तियां समाज की सामाजिक एवं सांस्कृतिक बनावट एवं ढांचे पर सदैव कार्य करती रहती है, और इसीलिए यह एक नए ढंग से समाज को प्रभावित करती रहती है| सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्वरुप एवं ढांचे के बदलने से ही किसी समाज की संस्कृति बदलती रहती है| और संस्कृति को कभी भी अपने को दोहराता हुआ नहीं पाया जा सकता है| हम जानते हैं कि किसी समाज की संस्कृति उस समाज के अपने इतिहास बोधसे बनती है, और वही संस्कृति समाज को संचालित एवं नियमित करने वाली समाज का साफ्टवेयरहोता है| इसीलिए लेखक जार्ज आरवेल कहते हैं कि इतिहास पर नियंत्रण कर ही समाज पर नियंत्रण किया जा सकता है

जब हम संस्कृति को दोहरा नहीं सकते, यानि हम प्राचीन संस्कृति को उसी मूल स्वरुप में इस वर्तमान युग में पुन: स्थापित नहीं कर सकते. तो किसी भी इतिहास को दोहराने की बात पहले की इतिहास की अवधारणा में सही हो सकता था, लेकिन आज के आधुनिक एवं वैज्ञानिक युग में उसे पुन: दुहराए जाने की बात ही संगत नहीं मानी जानी चाहिए| इसलिए उपरोक्त शीर्षक वक्तव्य को आज स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए|

(इसे आयोग की परीक्षाओं में ‘निबंध’ को ध्यान में रख कर लिखी गयी है)

आचार्य निरंजन सिन्हा 

इतिहास वैज्ञानिक मनुष्य के रूमानी मनुष्य पर विजय हासिल करने का एक सिलसिला है|

इतिहास एक ऐसा विषय है, जो सदैव बदलता रहता है, यानि इसके बदलने का सिलसिला जारी रहता है| नए नए शोधों, आवश्यकताओं और सन्दर्भों में इसके बदलने का सिलसिला जारी है| होमो सेपियंस. जो एक ‘पशु मानव’ से बहुत पहले ही ‘सामाजिक मानव’ (Homo socius) और ‘निर्माता मानव’ (Homo Faber) बन चुका है, अब यह एक वैज्ञानिक मानव भी बन गया है| अब इतिहास- लेखन इतिहासकारों की बेतुकी, अतार्किक और साक्ष्यविहीन रूमानी कल्पनाओं की उड़ान नहीं रह गयी है, जो पहले हुआ करती थी| अब इतिहास को विविध वैज्ञानिक आयामों पर जांचना एवं परखना पड़ता है, और तब लिखना होता है| इसलिए हमें उपरोक्त निबंध शीर्षक का विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करके ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचना होगा|

इतिहास सिर्फ अतीत के किसी व्यक्ति की कहानी या किसी घटनाओं का मात्र विवरण या ब्यौरा ही नहीं होता है, बल्कि उस काल की सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, धार्मिक पहलुओं को अपने में समेटता हुआ होता है| इस तरह एक इतिहास किसी निश्चित काल खंड का सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, धार्मिक इत्यादि के रूपांतरण का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित ब्यौरा हुआ| यह कोई साधारण बदलाव नहीं होता है, अपितु यह स्थायी और अपरिवर्तनीय बदलाव होता है, जिसे ही रूपांतरण (Transformation) कहते हैं| इस तरह एक इतिहास के दायरे, गहराई और गहनता के मायने अब बदल चुकी है| पहले इतिहास सिर्फ व्यक्तियों और घटनाओं, जिसमे युद्ध का ब्यौरा एवं शासन विवरण ही प्रमुखता लिए होता था| इसलिए अब हम इतिहास को इस वैज्ञानिक एवं आधुनिक युग के सापेक्ष में प्रस्तुत करना चाहेंगे| चूँकि यही ‘वैज्ञानिक इतिहास’ अब मान्य है, इसीलिए ही इसे इसी सन्दर्भ में समझना चाहिए|

‘वैज्ञानिक मनुष्य’ से तात्पर्य यह है कि वह मनुष्य ही वैज्ञानिक हो सकता है, जिसके विचार, भावना और व्यवहार विज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित होता है| विज्ञान विवेकपूर्ण एवं व्यवस्थित ज्ञान होता है, जिसकी जांच बार बार किये जाने पर भी एक ही परिणाम निकलते हों| मतलब जब सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, और परिस्थितियाँ एक ही सामान हो, तो उसके परिणाम भी एक समान ही मिलेंगे| स्पष्ट है कि ऐसा ज्ञान अवश्य ही तर्कपूर्ण होगा, तथ्यपरक होगा, साक्ष्यरक होगा और विवेकपूर्ण भी होगा| यदि कोई ज्ञान विवेकपूर्ण नहीं है, अर्थात समाज एवं मानवता के वर्तमान और भविष्य के उपयोगी नहीं है, तो वैसा ज्ञान वर्तमान एवं भविष्य के सन्दर्भ में उचित स्थान नहीं पाता है| 

विज्ञान की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह शंकाओं पर आधारित होता है, क्योंकि इसे सदैव सभी आयामों और पहलुओं से जांचते रहना पड़ता है| अर्थात विज्ञान में सवाल खड़ा करना, यानि इसे बदलते सन्दर्भ में, बदलते पृष्ठभूमि में, और बदलते परितंत्र में बदलना हो सकता है| वर्तमान युग का मानव विज्ञान की इन्हीं विशेषताओं से युक्त होकर ‘वैज्ञानिक मानव’ बन गया है, जो बदलते सन्दर्भ में, बदलते पृष्ठभूमि में, और बदलते परितंत्र में नयी व्याख्या चाहता है, जो सभी सम्बन्धित सवालों के उत्तर देने सक्षम हो|

लेकिन एक रूमानी व्यक्ति अपनी रूमानी यानि काल्पनिक उड़ानों की हद तक खोया हुआ हो सकता है| इनकी रूमानियत के लिए उनके ज्ञान एवं आलोचनात्मक चिंतन की क्षमता एवं स्तर, उनकी सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, यानि उनकी सामाजिक सांस्कृतिक जड़ता (Inertia) का स्तर, उनकी आवश्यकताओं और सामाजिक- राजनीतिक परिस्थितियाँ जिम्मेवार होता है| इसी कारण उनकी भावनाएँ, विचार एवं व्यवहार तर्कहीन, साक्ष्यविहीन, तथ्यहीन और विवेकहीन होते हैं| ऐसे लोगे को इतिहास और मिथक में कोई अंतर समझ में नहीं आता है| इसीलिए ऐसे तथाकथित इतिहासकारों की रचनाएँ इतिहास के नाम पर मिथक मात्र होती है, जो विज्ञान की तीक्ष्ण धार से खंडित होकर अपना अस्तित्व खोता रहता है| ऐसे इतिहासकारों को समाज पर प्रभाव ज़माने के लिए, या समाज की सामाजिक एवं सांस्कृतिक धारा को मोड़ने के लिए अपनी जरूरतों के मुताबिक कल्पनाओं को उड़ान देना होता है|

चार्ल्स डार्विन, सिगमंड  फ्रायड, कार्ल मार्क्स, अल्बर्ट आइन्स्टीन, फर्डीनांड दी सौसुरे एवं जाक देरिदा ने चिंतन की धाराएं ही बदल दी| बहुत कुछ जो कलतक सही माना जा रहा था, आज पूरी तरह बदल गया है| आज इतिहास के नाम पर रूमानी साहित्य को अमान्य किया जा रहा है| सभी लोग आज वैज्ञानिक इतिहास लिखना चाह रहे हैं, या सभी लोग अब वैज्ञानिक इतिहास ही पढ़ना चाह रहे हैं| ऐसी ही स्थिति में लेखनों की रूमानियत को अब बदल कर वैज्ञानिक हो जाने की अनिवार्यता हो गई है, और यह सिलसिला जारी है|

इसी कारण यह कहा गया है कि “इतिहास वैज्ञानिक मनुष्य के रूमानी मनुष्य पर विजय हासिल करने का एक सिलसिला है|’ यह पूर्णतया सही है|

(इसे आयोग की परीक्षाओं में ‘निबंध’ को ध्यान में रख कर लिखी गयी है)

आचार्य निरंजन सिन्हा 

बुधवार, 19 जून 2024

आर्थिक सशक्तिकरण क्यों जरुरी है?

साधारणतया सामान्य बुद्धिजीवी समाज के सम्पूर्ण बदलाव के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव को पूर्व शर्त समझते हैं। ऐसा ही पहले के सभी ज्ञानी और स्थापित विद्वान जन समझते रहे हैं। इसीलिए इन सिद्धान्तों को आज भी सही समझा जाता है, लेकिन अब परिस्थितियों में बदलाव हो जाने से बहुत कुछ बदल गया है। 

तो पहले सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव को समझते हैं। समाज संबंधों की एक सुव्यवस्थित तंत्र है| इसीलिए सामाजिक बदलाव में सामाजिक संबंधों की संरचना में बदलाव है| यदि कोई सामाजिक तंत्र यानि सामाजिक संरचना न्याय, स्वतन्त्रता, समता व समानता एवं बंधुत्व की भावना पर आधारित नहीं है, तो आधुनिक युग में उस समाज की संरचना को न्याय, स्वतन्त्रता, समता व समानता एवं बंधुत्व की भावना पर आधारित होना होगा| यही  सामाजिक बदलाव का लक्ष्य होता है| इस लक्ष्य का प्रावधान एवं इसकी प्राप्ति के लिए आवश्यक तंत्र की व्यवस्था भारतीय संविधान में समुचित रूप में कर दी गई है| आजादी के पूर्व की स्थिति में बहुत कुछ बदलाव हुए हैं, और बहुत से बदलाव अभी भी अपेक्षित है, तथापि सिर्फ उसी में ही अटका रहना अन्य विकल्पों को छिपा देता है

 बाजार की शक्तियां व्यक्ति और समाज को एक उपभोक्तामान कर इसकी भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को नियमित, संचालित, नियंत्रित एवं प्रभावित कर सम्हालती है| बाजार की उपभोक्तावाली मानसिकता ने भी सामाजिक संरचना को बहुत बदला है, और बदलाव की गति काफी तेज होती जा रही है| हमें बाजार की शक्तियों, यानि आर्थिक शक्तियों की क्रियाविधि एवं प्रभाव को समझने, सहेजने और सम्हालने के लिए अभी से तैयार रहना है|

 संस्कृति किसी भी समाज का साफ्टवेयर है, जो अदृश्य रहकर सम्पूर्ण समाज को नियमित, संचालित, नियंत्रित एवं प्रभावित करती रहती है| इसमें धर्म, सम्प्रदाय, विचार, आदर्श, आस्था, विश्वास, मूल्य, प्रतिमान आदि आदि कई तत्व शामिल रहते हैं| इस तरह संस्कृति एक मानसिकता, यानी एक माइंड सेटहोता है| यह इतना व्यापक अवधारणा है कि इसमें सम्पूर्ण जीवन जीने की विधि समाहित हो जाती है| इस तरह सांस्कृतिक बदलाव में इससे सम्बन्धित सभी संरचनाओं में बदलाव हो जाता है| अर्थात इसमें धर्म, सम्प्रदाय, विचार, आदर्श, आस्था, विश्वास, मूल्य, पतिमान आदि आदि कई तत्वों की मूलभूत बुनियाद में बदलाव होता है| इससे सम्बन्धित पर्याप्त जागरूकता कई रूपों में समाज में प्रचलित है, जिसे आधुनिक सोशल मीडिया सहित अनेक नवोदित तंत्र समर्थन दे रहे हैं

कहने का तात्पर्य यह है कि  सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव के लिए काफी कुछ किया गया है, काफी कुछ होना भी है, लेकिन सिर्फ इन्ही दोनों तत्वों तक ही सीमित नहीं रहना है| हमें फैलते वित्तीय साम्राज्यवाद के साधनों एवं शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों को समझना है, ताकि  हम उस वित्तीय तंत्र को समझ सकें और उसे सम्हाल सके

हाल तक बाजार की शक्तियों के सशक्त होने से पहले तक सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव बहुत महत्वपूर्ण होते थे| इसीलिए बहुत सामाजिक विद्वानों ने सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव को ही स्थायी एवं प्रभावशाली राजनीतिक बदलाव की पूर्व शर्त मानते रहे हैं| उन विद्वान लोगों के इस दुनिया से विदा होने के बाद इस दुनिया में बहुत से परिवर्तन हुए हैं| इसमें जनान्कीय संरचना, कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर आधारित सुचना क्रान्ति, नए सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनुसंधान एवं शोध, तकनिकी साधनों एवं शक्तियों में तीव्र विकास औए वित्तीय साम्राज्यवाद संरचना एवं क्रियाविधि में बहुत बदलाव हुए हैं, और यह बदलाव अभी भी तीव्र वृद्धि दर से हो रहे हैं| जनान्कीय संरचना के बदलाव में युवाओं की संख्यात्मक हिस्सेदारी में बढ़ोतरी और आधी आबादी, यानि महिलाओं के घर की चाहरदीवारी से बाहर निकलना सबसे प्रमुख है| जनसंख्या के इन संरचनात्मक बदलाव ने समाज के बदलाव की शक्तियों एवं क्रियाविधियों में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है

उपरोक्त सभी कारकों एवं क्रियाविधियों ने सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव के कारको एवं क्रियाविधियों के स्थापित मान्यताओं को सचमुच बदल दिया है| इसीलिए अब हमें राजीनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक बदलाव के लिए आर्थिक सशक्तिकरणपर ही केन्द्रित करना चाहिए|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

किसी देश को बरबाद कैसे किया जाता है?

यदि आपको किसी देश की प्रगति से समस्या है और आप उसे वहीं रोके रखना चाहते हैं, या उन्हें और नीचे गिराना चाहते हैं, तो आप उनकी बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आबादी को अनेकों *भावनात्मक सतही मुद्दो में* उलझा सकते हैं। पिछड़े हुए देशों की आबादी की *आलोचनात्मक चिंतन* का स्तर कम और कमजोर है, इसीलिए उन्हें भावनाओं की आंधी में उड़ा ले जाना बहुत आसान है। 

आप उनके सामने स्थानीय तथाकथित बुद्धिजीवियों के सहयोग और समर्थन से *अनेकों भावनात्मक राजनीतिक, धार्मिक, जातीय  आदि विभिन्न स्वरुपों में सतही मुद्दे* प्रस्तुत करें। इन मुद्दों को वे सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यक मुद्दे समझते हैं। इन मुद्दों पर विरोध में, समर्थन में, विश्लेषण में, अकादमिक विमर्श के रुप में प्रस्तुत करते रहे, देश का सम्पूर्ण समाज अपने *_तथाकथित हवा हवाई बुद्धिजीवियों के_* साथ *इसमें अपनी समस्त उर्जा, धन, संसाधन, समय, जवानी, उत्साह और सम्पूर्ण वैचारिकी झोंके रहेंगे।* हमें उन बुद्धिजीवियों और नौजवानों में इस ‘आपसी भिडंत’ की आदत लगा देनी है| फिर वे आपसी मामलों में दुनिया में हो रहे प्रगति को भूल कर इसी तरह समस्याओं के समाधान में आदतन भिड़ते रहेंगे| फिर देश और राष्ट्रीयता के मुद्दे गौण हो जायेंगे| आपके समर्थन में वे सभी राजनेता भी आ जायेंगे, जिनको आपसे फायदा होगा| तब आंतरिक संघर्ष का ‘चेन रिएक्सन’ शुरू हो जायगा, और फिर उस पर कोई भी चाह कर भी नियंत्रण पा नहीं सकता है| इसके अतिरिक्त वे कुछ और भी सोच समझ नहीं सकते हैं और आप सफल हो जाएंगे। वे अपनी हवाई बौद्धिकता में गोते लगाते हुए आत्ममुग्ध रहेंगे। 

 *आज बाजार की शक्तियां हीयानि आर्थिक शक्तियां ही राजनीतिकसामाजिक, सांस्कृतिक बदलाव और प्रगति के उपकरण और आधार है।* अर्थात आज बाजार की शक्तियां ही राजनीतिकसामाजिक, सांस्कृतिक बदलाव सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रभावकारी साधन यानि उपकरण हो गया है| इन सम्पूर्ण आबादी का ध्यान इस महत्वपूर्ण और अनिवार्य उपकरण, यानि बाजार की क्रियाविधियों (Mechanics) की ओर नहीं जाना चाहिए| कहने का तात्पर्य यह है कि वे समाज आर्थिक रूप में मज़बूत होने नहीं पाए| 

ऐसे समाजों, या संस्कृतियों, या देशों का ध्यान उनकी *सम्पूर्ण आबादी के आर्थिक सशक्तिकरण* की ओर नहीं जाने देना चाहिए।  इस तरह वे धार्मिक, जातीय, राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सतही मुद्दों में अपनी समस्त उर्जा, धन, संसाधन, समय, जवानी, उत्साह और सम्पूर्ण वैचारिकी झोंके रहेंगे| और बाकी मजा लेते रहिए। 

विशेष तो आप खुद समझदार है। 

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

सोमवार, 10 जून 2024

जाति व्यवस्था की अनूठी संरचना

भारत में जाति व्यवस्था एक अनूठी व्यवस्था या संरचना है, जो अपने समतुल्य विश्व में कहीं और नहीं पायी जाती| इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘Caste’ किया जाता है, जो मूलतः एक पुर्तगाली शब्द है| लेकिन पुर्तगाली शब्द ‘Caste’ में वर्ग या कार्य  विभाजन होते भी सामाजिक गतिशीलता है, यानि इस ‘Caste’ में एक ही जीवन में बदलाव की संभावना है, लेकिन वह गतिशीलता भारतीय ‘जाति’ में नहीं है| इसी कारण पश्चिमी विद्वान् ‘जाति’ का वह अर्थ नहीं समझ पाते हैं, जो इस “जाति” की संरचना में निहित होता है| इसीलिए बहुत से भारतीय विद्वानों का मानना है कि जाति शब्द का अंग्रेजी शब्द ‘Jati’ ही होना चाहिए, ‘Caste’ नहीं होना चाहिए| इससे जाति के संरचनात्मक निहित अर्थ के सम्प्रेषण  में कोई अस्पष्टता नहीं आएगी|

इस सन्दर्भ में बाबा साहेब डा० भीमराव आम्बेडकर का दिनांक 9 मई 1946 को कोलंबिया यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क, अमेरिका में पठित लेख को उद्धृत कर रहा हूँ| इसे डॉ० आम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक, न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार ने प्रकाशित किया है| इस आलेख का नाम – “भारत में जातिप्रथा: संरचना, उत्पत्ति और विकास” है| उन्होंने कहा- “यह बड़े खेद की बात है कि अभी तक इस विषय (भारत में जातिप्रथा: संरचना, उत्पत्ति और विकास) पर चर्चा नहीं हुई है और लोगों को इसके बारे में अल्प जानकारी है|डा० आम्बेडकर कई विद्वानों के परिभाषाओं को दुहराते हुए आगे कहते हैं – “अकेले देखने में कोई भी परिभाषा पूर्ण नहीं है और मूल भाव किसी में भी नहीं है| उन सब (विदेशी विद्वानों) ने एक भूल की है कि उन्होंने जाति को एक स्वतंत्र तत्व माना है, उसे समग्र तंत्र के एक अंग के रूप में नहीं लिया है|”

यह विश्व जगत के लिए उस समय भी सही था और आज भी उतना ही सही है, जितना बाबा साहेब डा० भीमराव आम्बेडकर ने उस समय कहा था| आज एक भारतीय भी जाति की संरचना, प्रकृति, प्रवृति और व्यवस्था को भारतीय सन्दर्भ एवं पृष्ठभूमि में ही ठीक से नहीं समझा है| इसे सम्यक ढंग से निम्नवत समझते हैं -

पहली, जाति व्यवस्था भारत में विश्व की एकमात्र अनूठी व्यवस्था है, जिसका कोई और समतुल्य उदाहरण और कहीं नहीं है| यह भारतीय समाज का खण्डनीकरण (Segmentation) एवं स्तरीकरण (Stratification) एक साथ ही करता है| यह वर्ण व्यवस्था के साथ मिलकर उर्घ्वाकार विभाजन भी करता है, परन्तु यह अपने आप में क्षैतिज विभाजन भी करता है| यह ‘जाति’ जन्म के परिवार के वंश पर आधारित होता है| यह जन्म से तय होता है और कभी भी परिवर्तनशील नहीं होता है| इस व्यवस्था में व्यक्ति विशेष के अर्जित गुण, योग्यता एवं कुशलता का कोई महत्त्व नहीं है|

दूसरी, जाति व्यवस्था को भाषा का ‘विखंडनवाद’ (Deconstructionism) से भी समझते हैं, जो यह कहता है कि लेखक के लिखे या कहें गये शब्दों का अर्थ एवं भाव उसके पाठकों के द्वारा समझे गए अर्थ एवं भाव से पूर्णतया भिन्न होता है, क्योंकि दोनों की मानसिक पृष्ठभूमि भिन्न भिन्न होती है| यह मानसिक पृष्ठभूमि कई प्रभावी तत्वों का समन्वित मिश्रण होता है| इसी कारण भारतीय लेखकों के लिखे या कहें गये ‘जाति’ एवं उसका अंग्रेजी अनुवाद ‘Caste’ का वही अर्थ पश्चिमी के पाठकों का नहीं होता है|,ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि पश्चिमी के पाठक Caste का वह अर्थ लेते हैं, जो उस मूल पुर्तगाली शब्द से सम्बन्धित है| इसीलिए एक ही भाव के शब्द ‘से जाति’ एवं ‘Caste’ का अर्थ पश्चिमी के पाठकों का अलग अलग हो जाता है|

तीसरी, जाति व्यवस्था का पदानुक्रमित (Hierarchichal) होना, जिसमे ब्राह्मण को सर्वोच्च स्थान दिया गया है और अन्य सभी जातियाँ  उनसे निकृष्ट (Inferior) मानी जाती है| यह जातियों के वर्ण व्यवस्था से मिलाने एवं घालमेल करने से हुआ है| दरअसल भारत में जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था को मनमाने ढंग से व्याख्यापित किया जाता है, क्योंकि यह भारत के बाहर कहीं भी नहीं है और इसकी व्याख्या का एकाधिकार परम्परागत रूप से ब्राह्मणों के पास सुरक्षित है| ब्राह्मण को छोड़ सभी जातियों के ऊपर एवं नीचे जातियाँ होती है| निचले स्तर पर ऊपर – नीचे का विवाद महत्वहीन हो जाता है, फिर भी उसमे स्तर होता है |

चौथी, जाति प्रथा में प्रत्येक वर्ग यानि समुदाय के लिए सामाजिक मेल- मिलावट और खान –पान में प्रतिबन्ध (Restriction) लगाया हुआ होता है| यह एक प्रकार से ‘सामाजिक सांस्कृतिक बिलगाव’ (Cultural Isolation) की स्थिति होती है| मतलब एक ही क्षेत्र, यानि एक ही भौगोलिक पर्यावरण, यानि एक ही परितंत्र में समाज के अन्य सदस्यों के रहने के बावजूद भी उनमे सामाजिक एवं सांस्कृतिक अलगाव होता है| अस्पृश्यता एवं छुआछुत इसी भाव की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है|

पाँचवी, जाति प्रथा का एक लक्षण यह भी है कि इसमें सामाजिक समूह, यानि वर्ग आधारित पृथकीकरण (Segregation) किया जाता है| यह जाति एवं वर्ण के आधार पर निवास –स्थान (Habitat), पानी (पीने एवं अन्य उपयोग) के स्रोत, जीविकोपार्जन के चयन और आवागमन के रास्ते के उपयोग पर प्रतिबन्ध भी लगाता है एवं निर्धारित करता है| अर्थात यह ‘जाति’ किसी के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक जीवन की दिशा एवं दशा को संचालित, निर्धारित एवं नियमित करता है| यानि जाति सभी के जीवन दर्शन को भी निर्धारित एवं नियमित करता है|  

छठवी,  इस व्यवस्था में प्रत्येक का पेशा (Occupation) निश्चित होता है, जो सामान्यत: जन्म के आधार पर परंपरा से तय होता है, या ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के लोगों द्वारा अनुदेशित होता है| इस जाति व्यवस्था में व्यक्ति की योग्यता, कौशल, कुशलता एवं दक्षता का कोई महत्व नहीं होता है| किसी का कार्य पेशा सिर्फ कार्य की प्रकृति को ही निर्धारित नहीं करता है, अपितु उस पेशा से जुड़ी पूरी संरचना को भी निर्धारित करता है| अर्थात उस पेशा से जुड़ा सम्मान, आय, कार्य परिस्थिति, जीवन दर्शन सभी कुछ निश्चित होता है| उस कार्य से जुड़ा पर्यावर्णीय स्थितियाँ यानि धुप, धूल, गर्मी, ठण्ड, पसीना, बारिस आदि को भी सुनिश्चित करता है| इस प्रकार जीनीय उदविकासीय प्रक्रियाओं को, यानि प्राकृतिक चयन, उत्परिवर्तन, अनुकूलन, समायोजन की प्रक्रियाओं को भी नियमित करता है|

सातवी, जाति प्रथा के निम्नतर समुदायों को अंत:विवाह (Endogamy) की भी बाध्यता रहती है, जिन्हें विवाह अपने जाति समूह के अन्दर ही करना होता है| इनके लिए अन्य दूसरें  जाति- समूह में विवाह प्रतिबंधित है| इससे इससे निम्नतर जातियों के समुदायों में ‘जीनीय प्रवाह” (Genetic Flow) बाधित होता है, लेकिन इनमे “जीनीय बहाव” (Genetic Drift) होता है| यह प्रतिबन्ध ऊपर के वर्ण के सदस्यों के लिए नहीं है, अर्थात उपरी वर्णों के लोग अपनी पसंद की महिलाओं से विवाह (Hypergamy) एवं प्रजनन कर सकते हैं| इसी कारण इन उच्च जातियों के सदस्यों में ‘जीनीय प्रवाह” (Genetic Flow) होता है, लेकिन इनमे “जीनीय बहाव” (Genetic Drift) नहीं होता है| एक विशेष बात यह है कि महिलाओं की अपनी जाति नहीं होती है और यह व्याख्या भ्रामक है| महिलाओं की जाति विवाह पूर्व पिता की जाति से एवं विवाह के बाद पति के जाति से निर्धारित होता है| इस तरह यह ‘जाति व्यवस्था’ यानि जातीय बाध्यता किसी भी जन समूह के ‘जीन पूल’ में ‘जीनीय प्रवाह’ एवं ‘जीनीय बहाव’ को भी प्रभावित करता है, जो जीनीय भिन्नता को विभाजन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है|

आठवी, ऊँची जातियों का स्वरुप तो अखिल भारतीय स्तर की होती है, क्योंकि यह वर्ण व्यवस्था से, यानि सामन्ती व्यवस्थापिका से, यानि राष्ट्रीय कार्यपालिका से जुड़ी हुई थी| इसी कारण इनका जीन पूल बड़ा एवं विविध होता है और इसमें जीनीय प्रवाह तो होता है, परन्तु जीनीय बहाव का प्रभाव लगभग नहीं ही होता है| दरअसल ऊँची जातियों ने भारतीय वर्ण व्यवस्था का अपहरण कर इसी वर्ण को जाति घोषित कर दिया है| वास्तव में वर्ण व्यवस्था भारतीय शासकीय सामन्ती व्यवस्था रही, जिसमे सभी जातियों का योगदान उनकी योग्यता एवं कुशलता के अनुरूप होता रहा| बाद में सामाजिक गतिहीनता के कारण ये सामन्ती पद ही जातियों के स्वरुप में घोषित कर दी गई| इसका कोई सामाजिक – राजनीतिक विरोध इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि समाज का सक्षम एवं बौद्धिक वर्ग ही इसके पक्ष में खड़ा था और उन्ही के स्वार्थों के पूर्ति करता हुआ था|

इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या करने से यह स्पष्ट होता है कि यह जाति व्यवस्था कुछ ही शताब्दी पुरानी है, यानि इन जातियों का इतिहास भी कुछ ही सताब्दी पुराणी है|

 नौवी, मध्यवर्ती, छोटी एवं अछूत जातियों की जनसंख्यात्मक आबादी तुलनात्मक रूप ने बहुत कम होती है| ब्राह्मणों की पुरे भारत में एक ही जाति है, जबकि अन्य समुदायों की छः हजार से अधिक जातियाँ हैं| इसी कारण किसी ख़ास भौगोलिक क्षेत्र में सदियों से निवास करने के कारण उस क्षेत्र विशेष के प्रति ये तथाकथित निम्न जातियों के सदस्य अनुकूलित हो जाते है और एक विशिष्ट उदविकासीय दिशा में विकसित होकर एक विशिष्ट स्वरुप को पा लेती है| छोटी जातियाँ अंतर्गामी विवाह ही करते हैं| इससे होने वाले उत्परिवर्तन, प्राकृतिक चयन, अनुकूलन के कारण उनके (अवर्ण, शुद्र एवं अछूत के) जीन पूल में ‘आनुवंशिक बहाव’ के कारण ‘जीन पूल’ में गुणों की कमी हो जाती है| जबकि ‘जीनीय प्रवाह’ के कारण ‘जीन पूल’ में गुणों की वृद्धि होती है, जो मध्यवर्ती, छोटी एवं अछूत जातियों की जनसंख्यात्मक आबादी में नहीं होती है| इन्ही कारणों से इन ब्रह्मनेत्तर जातियों के जीन पूल और सवर्ण के जीन पूल में जीनीय भिन्नता पैदा होती है|

दसवी, किसी की जाति के निर्धारण का आधार उसके पूर्व जन्म के कर्म के आधार पर माना जाता है, जिसका वाहक (Transporter) उसका ‘आत्मा’ (Soul) होता है| इस तरह यह ‘जाति व्यवस्थ’ समाज में सामाजिक एवं सांस्कृतिक यथास्थितिवाद को बनाए रखने का एक सुदृढ, व्यवस्थित एवं अपूर्व व्यवस्था है| यह किसी भी व्यक्ति या समाज के दुर्व्यवस्था या दुर्दशा के लिए वर्तमान शासन को दोषमुक्त कर देता है, इस पर विशेष ध्यान दिया जाय| इसका प्रमुख कारण यह है कि किसी की जाति, यानि किसी दुर्दशा, या सुदशा का निर्धारण उसके पूर्व जन्म के जाति के कर्म के फल के अनुसार होता है, और इसी कारण इस वर्तमान जगत में और कोई व्यक्ति या संस्था यानि शासन इस कष्ट के लिए दोषी नहीं होता है| इसी कारण इन जातियों के समुदाय के कष्टों को शासन के द्वारा निवारण करने की भी आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि यह स्वत: अगले जन्म में सुधर जाता है|

ग्यारहवीं, अब आप ‘जाति’ को “जाति के संरचनावाद” (Structralism of Jati) से समझते हैं| जाति व्यवस्था की संरचना में ‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’, ‘कर्मवाद’, ‘नित्य्वाद’ और ‘ईश्वर’ की अवधारणा एवं मान्यता सुनिश्चित है| अर्थात एक जाति व्यवस्था अपने साथ ही उपरोक्त सभी पाँचों तत्वों को समाहित किये हुए रहती है| ईश्वर इस व्यवस्था की स्थिरता एवं नियमन को सुनिश्चितता देता है| नित्यवाद इस सिद्धांत को नित्यता देता है और ईश्वर की नित्यता को भी सुनिश्चित करता है| इस गूढता को सभी नहीं समझते हैं, क्योंकि इस ओर किसी ने स्पष्ट्या ध्यान ही नहीं दिया है|

स्विस दार्शनिक ‘फर्डीनांड डी सौसुरे’ ने लिखी हुई बातों के शब्दों एवं वाक्यों को समझने के लिए एक नए उपागम (Approach) पर जोर दिया और एक नई दृष्टि दिया| इसने लिखे गए शब्दों एवं वाक्यों के शाब्दिक अर्थ एवं उसके निहितार्थ को समझने के तरीको को प्रमुखता देकर बहुत कुछ बदल डाला| इन्होंने शाब्दिक अर्थो के मकडजाल (The Web of Meaning) की अवधारणा को जन्म दिया एवं संरचनावाद (Structuralism) का सिद्धांत दिया|

इनका कहना है, कि किसी भी शब्द या वाक्य के अर्थ का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, बल्कि उसका अर्थ उसके सन्दर्भ (Reference) एवं पारितंत्र (Ecosystem) यानि पृष्ठभूमि, अन्य शब्द एवं वाक्य के सम्बन्ध में और लेखक की मंशा एवं उद्देश्य में भी होता है| इसे दूसरें  शब्दों में कहा जाय, तो किसी भी शब्द या वाक्य या वाक्य समूह का अर्थ उसकी सम्पूर्ण संरचना से स्पष्ट होता है, अर्थात उसकी समेकित संरचना में निहित होती है| इससे भाषाओं के अध्ययन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ| शब्द का स्वयं कोई अर्थ नहीं होता, और वह उस पुरे लिखावट के सन्दर्भ में तथा पुरी पारिस्थितिकी (Whole Ecosystem) (समय, स्थान, कालक्रम, परिस्थिति) के सन्दर्भ में होता है|

इस उपागम से ‘जाति व्यवस्थ’ से समझने से उपरोक्त स्थिति स्पष्ट हुई| शायद अब आप ‘जाति व्यवस्थ’ को कुछ बेहतर ढंग से समझने लगे होंगे|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

सत्ता ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ से क्यों डरता है?

‘ सत्ता ’ में शामिल लोग ही असली ‘ शासक ’ ‘ वर्ग ’ कहलाते हैं , होते हैं।   तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि   ‘ सत्ता ’   क्या है और   ‘ शासक ...