सोमवार, 24 जून 2024

सियासत का खेल और सफलता का राज समझो

 !!प्यारे युवा दोस्तों!! 

तुम क्यों पडे हो धर्म, जाति, और राज नेताओं की घटिया राजनिति में? युवाओं का तो बस एक ही धर्म होता है -  सफलता। चाहे तुमनें नौकरी का या उद्यमिता का लक्ष्य निश्चित किया हो। 

,....... बस इसी "सफलता-धर्म" को पूरा करने के लिए अपने विचारों और कर्मो के सागर में डूबे रहो। बाकी सब उनका कारोबार है,.....धन्धा है......, सियासत है..... मुखौटों का खेल है... ।। 

 ध्यान रखो - " अगर तुम्हे सफलता  नही मिली, चाहे वह तुम्हारी नौकरी हो या तुम्हारी उद्यामिता हो, फिर तो तुम न हिंदू रहोगे, न मुस्लिम, न सिख, न ईसाई और न ही कुछ और भी - - - - - - और न ही किसी राजनीतिक दल का कोई पदधारी रहोगे.... 

गरीबों, भूखे और बेरोजगारों का कोई धर्म नही होता, तब तुम्हारी जाति में भी कोई सम्मान नही होता, और राजनीति में भी सिर्फ तुम्हारी हैसियत ही झंडा उठाने तथा दरी बिछाने वाले की ही होती है। 

 तब तुम सिर्फ धर्म, जाति, और राजनीतिक दलों के ठेकेदारों का खिलौना होते हो।

"वह मस्जिद की सेवई भी खाता है, मंदिरों  का लड्डू भी खाता है। और वह प्रतिनिधित्व करने का भूखा है, बेचैन है, बाबू। ऐसे बहुतो ठीकेदारों के बच्चे तो विदेशों में रहते, और पढते है। उन्हें कहाँ चिन्ता है, भारतीय संस्कृति की विरासत की गरिमा और निरन्तरता की?

उसे मजहब, जाति और प्रतिष्ठा कहाँ समझ में आता है? उसे तो अपने राजनीतिक दलों के धर्म (सिद्धांत) भी समझ में नहीं आता है, और इसीलिए वे अपनी इच्छा अनुसार इसे कभी भी बदल लेता है। 

इसलिए सबसे पहले तुम अपना करियर बचाओ..........कैरियर बना लो। जब कुछ देने वाले बनोगे, तभी तुम्हे पद भी मिलेगा, प्रतिष्ठा भी मिलेगा, धन भी मिलेगा और तुम्हें सभी लोग पूछेंगे।

 इसिलिए देने में समर्थ बनो।

 और देने के लिए आर्थिक रूप से समर्थ बनो।

 याद रखना

 तुम्हारा आर्थिक सशक्तिकरण ही तुम्हारी पूछ बढाएगा।

........... बाकी सब गुलामी है,...... बंधन है,.......... बेडियाँ है,........Slavery है, .... इनसे तुम्हे आजाद होना है। 

तुम्हे बहुत आगे जाना है............ बहुत आगे।। 

जमीन से अन्तरिक्ष की उंचाईयों तक जाना है।.......... तुम्हें अपने परिवार, समाज, मानवता और राष्ट्र का नाम रोशन करना है।

   !!जरा ठहरकर सोचना।।

 आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक

गुरुवार, 20 जून 2024

अतीत मानवीय चेतना तथा मूल्यों का स्थायी आयाम है|

आज हमलोग जो भी कुछ हैं, अपने अतीत के आधार पर वजूद में हैं| अर्थात आज हमारी समस्त भावनाएँ, विचार एवं व्यवहार का नियमन, नियंत्रण और सञ्चालन अतीत में तैयार सामग्रियों यानि विचारों एवं संस्कारों के द्वारा होता है| हमारे विचार और संस्कार अतीत के हमारे मानवीय चेतना तथा मूल्यों से उत्पन्न होते हैं| अतीत का साधारण अर्थ हुआ – बिता हुआ काल, जो अब नहीं है|

अतीत से हमें भौतिक और अभौतिक सामग्री प्राप्त होते हैं| भौतिक पदार्थ का तो समय के साथ क्षरण भी हो सकता है, लेकिन मानवीय चेतनाओं एवं मूल्यों में निरंतरता रहती है, भले ही समय के साथ बदलता रहे| भौतिकीय पदार्थ सभ्यता का आधार होता है, और अभौतिक सामग्री यानि मानवीय चेतना एवं सामाजिक- सांस्कृतिक मूल्य संस्कृति का आधार होता है| सभ्यता की निरंतरता समाप्त हो सकती है, जैसे सिन्धु घाटी सभ्यता और माया सभ्यता की निरंतरता तलाशना अब भी कठिन है| लेकिन किसी की संस्कृति उस मानव समाज के मन मस्तिष्क में निवास करता रहा है| हम भौतिकीय पदार्थ यानि सभ्यता को सामाजिक- सांस्कृतिक तंत्र का ‘हार्डवेयर’ कह सकते हैं और अभौतिक सामग्री यानि संस्कृति को  सामाजिक- सांस्कृतिक तंत्र का ‘साफ्टवेयर’ कह सकते हैं, जो अदृश्य रहकर भी समाज को संचालित करता रहता है|

यदि हम ठहर कर विचार करे तो हम पाते हैं कि हमारे वर्तमान चिंतन का आधार हमारे सामाजिक- सांस्कृतिक मानवीय चेतना और मूल्यों से ही नियमित एवं निर्धारित होता है| हमारा यह चिंतन वर्तमान को समझने के लिए होता है और भविष्य की तैयारी के लिए होता है| इसी चिंतन से हम वर्तमान की समस्यायों का समाधान पाते है और जीवन की सफल यात्रा कर पाते हैं| ऐसा ही अतीत के हर काल एवं क्षेत्र में होता रहा है| इसी चिंतन के परिणाम और प्रभाव से मानव जीवन विकसित होता रहा है| हमारी सोच, हमरे मानक एवं मूल्य, लोकाचार. प्रतिमान, अभिवृति, सभी कुछ हमें अपनी विरासत से मिलता है, जो अतीत का होता है|

लेकिन हमें मानवीय चेतना और मूल्यों की अवधारणा को स्पष्ट करना चाहिए| मानव की चेतना एक व्यापक शब्द है, जो मानव की समझ यानि बुद्धि को इंगित करता है| चेतना किसी भी जीवन का संवेदनशील समझ है, यानि उसकी क्रिया एवं प्रतिक्रिया देने की अवस्था है| मानव की चेतना में उसकी भावनाएँ, विचार एवं व्यवहार शामिल होता है| किसी भी जीव में व्यवहार तो शामिल होता है, लेकिन विचार करने और भावनाएँ व्यक्त करने की स्पष्ट दशा तो सिर्फ मानव में ही होती है| एक पशु सोच सकता है, लेकिन सिर्फ मानव ही अपनी सोच पर भी सोच सकता है| सोच पर ही सोचने को चिंतन कहते हैं, जिससे विचार उत्पन्न होते हैं| यही विशिष्टता एक पशु मानव को एक ‘बुद्धिमान मानव’ (होमो सेपियंस) बनाया| इसलिए मानवीय चेतना में बुद्धि का सर्वोच्च स्थान है| इसीलिए मानवीय चेतना अन्य जीवों में सर्वश्रेष्ट है|

मानवीय मूल्य हमारी भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को नियमित करनी वाली वे सामाजिक- सांस्कृतिक मानक होते होते हैं, जिन्हें हमारी संस्कृति निर्धारित करती है| ये मूल्य अपने सदस्यों एवं समाज की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को उन मनको के अनुरूप व्यक्त किए जाने की अपेक्षा रखता है| इसे उस जीवन सिद्धांत के रूप में लिया जा सकता है, जो हमें जीवन में भावनाओं, विचारों, कार्यों एवं निर्णयों का मार्गदर्शन करते हैं| ये हमारे सामाजिक- सांस्कृतिक आदर्शों, उद्देश्यों एवं विश्वासों की अनुभूति समझाते हैं| दरअसल यह सब सामाजिक- सांस्कृतिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए उद्भूत किए जाते है और इसे विकसित किया जाता है| किसी बुजुर्ग को सम्मान दिया एक सामाजिक मूल्य है, जिसे हम कई रूपों में व्यक्त करते हैं, जो प्रतिमान के रूप में भिन्नताएं देते हैं|

इस तरह हम पाते हैं कि सभ्यता एवं संस्कृति के कई पक्ष होते हैं, या हो सकते है| सभ्यता एवं संस्कृति के विभिन्न पक्ष ही अतीत के विभिन्न आयामों को स्पष्ट करते हैं| लेकिन जब हम अतीत के स्थायी आयामों की बात करते हैं, यानि यदि हम अतीत की निरंतरता की बातें करते हैं, तो हमें स्थायी आयामों में कुछ आयाम को ही चिह्नित करना होता है| मानवीय मूल्य में सामाजिक- सांस्कृतिक प्रतिमान, परम्परा, लोकाचार, आदर्श, विश्वास, उद्देश्य आदि शामिल हो जाते हैं| इसी तरह मानवीय चेतना में मानवीय बुद्धि यानि बौद्धिकता के कई स्वरुप एवं स्तर शामिल हो जाता है| चेतना अव्यक्त चेतन यानि अवचेतन स्तर और अधिचेतन स्तर पर भी कार्य करता है| बुद्धिमता में आजकल भावनात्मक बुद्द्गिमता, सामाजिक बुद्धिमता और बौद्धिक बुद्धिमता (Wisdom Intelligence) शामिल हो गया है| इस तरह मानवीय चेतना और मानवीय मूल्य इतना व्यापक अवधारणा है कि यह लगभग समस्त मानवीय भावना, विचार एवं व्यवहार को ही अपने में समाहित कर लेता है| यह सब हमें अपने अतीत से ही प्राप्त होता है|

इसलिए यह कहना समुचित और सत्य है कि “अतीत मानवीय चेतना तथा मूल्यों का स्थायी आयाम है|” अतीत के बाकी अय्याम तो अस्थायी हो सकता है, यानि बदलते रहने वाला हो सकता है, लेकिन मानवीय चेतना और मानवीय मूल्य अतीत के नहीं बदलने वाला आयाम है|

(इसे आयोग की परीक्षाओं में निबंधको ध्यान में रख कर लिखी गयी है)

आचार्य निरंजन सिन्हा 

इतिहास स्वयं को दोहराता है, पहली बार एक त्रासदी के रूप में, दूसरी बार एक प्रहसन के रूप में|

बहुत से लोगों का मानना है कि इतिहास स्वयं को दुहराता रहता है’| लोगों का ऐसा भी मानना है कि इसके दुहराने के स्वरुप भी बदलते रह सकते हैं, लेकिन इतिहास सदैव ही अपने आपको दुहराता रहता है| कहने का तात्पर्य यह होता है कि इतिहास का कोई भी पात्र के अपने अतीत के पात्रों एवं बदलाव की घटनाओं से कोई भी सीख नहीं लेता| इसीलिए ऐसा माना जाता है कि इतिहास पहली बार एक त्रासदी के रूप में घटित होता है और दूसरी बार एक प्रहसन के रूप में आता है| लेकिन इसके मूल्याङ्कन करने पर कई अन्य बातें उभर कर आ जाती है, जो इस मंतव्य यानि उपरोक्त कथन से भिन्न हो जाता है|  

इतिहास मनुष्य एवं उसके द्वारा निर्मित संस्थाओं के द्वारा प्रकृति एवं समाज में हस्तक्षेप से हुए सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित ब्यौरा होता है| आर्थिक शक्तियां ही बाजार को बदलने वाली महत्वपूर्ण शक्तियां होती है| इन्हीं बाजार की शक्तियां ही तत्कालीन समाज के सामाजिक एवं सांस्कृतिक बनावट (Structure) एवं ढांचा (Frame Work) को बदलता रहता है| इन बाजार की शक्तियों को समकालिक या समकालीन शक्तियां भी कहते हैं| यही समकालीन बाजार की शक्तियां ही अतीत के सन्दर्भ में ऐतिहासिक शक्तियांकहलाती है, जो इतिहास का निर्माण करता रहता है| ये बदलाव वैसे तो देखने में अति सूक्ष्म (Micro) होते हैं, और इसीलिए एक सामान्य जीवन में दृष्टिगोचर नहीं होती है| लेकिन जब इन्ही बदलावों का इतिहास के काल खंड में समेकन होता है, तो यही सब इतिहास को बदलने वाली स्थूल (Macro) प्रभाव लेकर आती है| इसी को सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव कहते हैं, जो समाज में इतिहास के रूप में जाना जाता है| इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या उपभोग, उत्पादन, वितरण एवं विनिमय के साधनों एवं शक्तियों के अंतर्संबंधों के आधार पर ही किया जाना उपयुक्त होता है| इस आधार पर की गई व्याख्या इतिहास के हर काल एवं क्षेत्र की प्रत्येक घटनाओं की संतोषप्रद व्याख्या कर देती है|

अब इतिहास में व्यक्तियों का विवरण और घटनाओं का ही ब्यौरा नहीं होता है, बल्कि इतिहास में उस काल की सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, धार्मिक पहलुओं को अपने में समेटता हुआ होता है| इसलिए किसी इतिकास वर्णन में किसी व्यक्तियों के विवरण और घटनाओं के ब्यौरे में यदि कोई दुहराव भी होता है, तो यह सब इतिहास ही नहीं है| सामान्य सतही इतिहास में किसी व्यक्तियों के विवरण और घटनाओं के ब्यौरे को ही प्रमुखता मिल सकता है, जैसा कि कुछ समय पहले होता रहा है, लेकिन अब ऐसा नहीं होता है| इतिहास की किसी घटना को या सभी घटनाओं को एक त्रासदी के रूप में या एक प्रहसन के रूप में लेना इतिहासकार के सन्दर्भ, पृष्ठभूमि एवं लक्ष्य के अनुसार भी बदल जाता है| अर्थात कोई एक घटना किसी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र या देश, एवं मानवता के सन्दर्भ में एक त्रासदी या प्रहसन या वरदान किसी भी रूप में हो सकता है| वही घटना किसी इतिहासकार के सन्दर्भ, पृष्ठभूमि एवं लक्ष्य के अनुसार एक सामान्य बात भी हो सकता है| यह सब सापेक्षिक माना जाना चाहिए| इसलिए इतिहास की घटनाओं को सन्दर्भ, पृष्ठभूमि एवं लक्ष्य के अनुसार बदलता हुआ मानना चाहिए|

वैज्ञानिक इतिहास कभी भी अपने आप को दोहराता नहीं है| चूँकि बाजार की शक्तियां परिवर्तन की दिशा में सदैव अग्रसर होती रहती है, इसीलिए बाजार की शक्तियां अपने पहले के प्रभावों पर पुन: नए ढंग से और नए सन्दर्भ, पृष्ठभूमि एवं लक्ष्य के अनुसार भी बदलती रहती है| ये बाजार की शक्तियां समाज की सामाजिक एवं सांस्कृतिक बनावट एवं ढांचे पर सदैव कार्य करती रहती है, और इसीलिए यह एक नए ढंग से समाज को प्रभावित करती रहती है| सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्वरुप एवं ढांचे के बदलने से ही किसी समाज की संस्कृति बदलती रहती है| और संस्कृति को कभी भी अपने को दोहराता हुआ नहीं पाया जा सकता है| हम जानते हैं कि किसी समाज की संस्कृति उस समाज के अपने इतिहास बोधसे बनती है, और वही संस्कृति समाज को संचालित एवं नियमित करने वाली समाज का साफ्टवेयरहोता है| इसीलिए लेखक जार्ज आरवेल कहते हैं कि इतिहास पर नियंत्रण कर ही समाज पर नियंत्रण किया जा सकता है

जब हम संस्कृति को दोहरा नहीं सकते, यानि हम प्राचीन संस्कृति को उसी मूल स्वरुप में इस वर्तमान युग में पुन: स्थापित नहीं कर सकते. तो किसी भी इतिहास को दोहराने की बात पहले की इतिहास की अवधारणा में सही हो सकता था, लेकिन आज के आधुनिक एवं वैज्ञानिक युग में उसे पुन: दुहराए जाने की बात ही सांगत नहीं मानी जानी चाहिए| इसलिए उपरोक्त शीर्षक वक्तव्य को आज स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए|

(इसे आयोग की परीक्षाओं में ‘निबंध’ को ध्यान में रख कर लिखी गयी है)

आचार्य निरंजन सिन्हा 

इतिहास वैज्ञानिक मनुष्य के रूमानी मनुष्य पर विजय हासिल करने का एक सिलसिला है|

इतिहास एक ऐसा विषय है, जो सदैव बदलता रहता है, यानि इसके बदलने का सिलसिला जारी रहता है| नए नए शोधों, आवश्यकताओं और सन्दर्भों में इसके बदलने का सिलसिला जारी है| होमो सेपियंस. जो एक ‘पशु मानव’ से बहुत पहले ही ‘सामाजिक मानव’ (Homo socius) और ‘निर्माता मानव’ (Homo Faber) बन चुका है, अब यह एक वैज्ञानिक मानव भी बन गया है| अब इतिहास- लेखन इतिहासकारों की बेतुकी, अतार्किक और साक्ष्यविहीन रूमानी कल्पनाओं की उड़ान नहीं रह गयी है, जो पहले हुआ करती थी| अब इतिहास को विविध वैज्ञानिक आयामों पर जांचना एवं परखना पड़ता है, और तब लिखना होता है| इसलिए हमें उपरोक्त निबंध शीर्षक का विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करके ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचना होगा|

इतिहास सिर्फ अतीत के किसी व्यक्ति की कहानी या किसी घटनाओं का मात्र विवरण या ब्यौरा ही नहीं होता है, बल्कि उस काल की सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, धार्मिक पहलुओं को अपने में समेटता हुआ होता है| इस तरह एक इतिहास किसी निश्चित काल खंड का सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, धार्मिक इत्यादि के रूपांतरण का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित ब्यौरा हुआ| यह कोई साधारण बदलाव नहीं होता है, अपितु यह स्थायी और अपरिवर्तनीय बदलाव होता है, जिसे ही रूपांतरण (Transformation) कहते हैं| इस तरह एक इतिहास के दायरे, गहराई और गहनता के मायने अब बदल चुकी है| पहले इतिहास सिर्फ व्यक्तियों और घटनाओं, जिसमे युद्ध का ब्यौरा एवं शासन विवरण ही प्रमुखता लिए होता था| इसलिए अब हम इतिहास को इस वैज्ञानिक एवं आधुनिक युग के सापेक्ष में प्रस्तुत करना चाहेंगे| चूँकि यही ‘वैज्ञानिक इतिहास’ अब मान्य है, इसीलिए ही इसे इसी सन्दर्भ में समझना चाहिए|

‘वैज्ञानिक मनुष्य’ से तात्पर्य यह है कि वह मनुष्य ही वैज्ञानिक हो सकता है, जिसके विचार, भावना और व्यवहार विज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित होता है| विज्ञान विवेकपूर्ण एवं व्यवस्थित ज्ञान होता है, जिसकी जांच बार बार किये जाने पर भी एक ही परिणाम निकलते हों| मतलब जब सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, औए परिस्थितियाँ एक ही सामान हो, तो उसके परिणाम भी एक समान ही मिलेंगे| स्पष्ट है कि ऐसा ज्ञान अवश्य ही तर्कपूर्ण होगा, तथ्यपरक होगा, साक्ष्यरक होगा और विवेकपूर्ण भी होगा| यदि कोई ज्ञान विवेकपूर्ण नहीं है, अर्थात समाज एवं मानवता के भविष्य के उपयोगी नहीं है, तो वैसा ज्ञान वर्तमान एवं भविष्य के सन्दर्भ में उचित स्थान नहीं पाता है| विज्ञान की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह शंकाओं पर आधारित होता है, क्योंकि इसे सदैव सभी आयामों और पहलुओं से जांचते रहना पड़ता है| अर्थात विज्ञान में सवाल खड़ा करना, यानि इसे बदलते सन्दर्भ में, बदलते पृष्ठभूमि में, और बदलते परितंत्र में बदलना हो सकता है| वर्तमान युग का मानव विज्ञान की इन्हीं विशेषताओं से युक्त होकर ‘वैज्ञानिक मानव’ बन गया है, जो बदलते सन्दर्भ में, बदलते पृष्ठभूमि में, और बदलते परितंत्र में नयी व्याख्या चाहता है, जो सभी सम्बन्धित सवालों के उत्तर देने सक्षम हो|

लेकिन एक रूमानी व्यक्ति अपनी रूमानी यानि काल्पनिक उड़ानों की हद तक खोया हुआ हो सकता है| इनकी रूमानियत के लिए उनके ज्ञान एवं आलोचनात्मक चिंतन की क्षमता एवं स्तर, उनकी सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, यानि उनकी सामाजिक सांस्कृतिक जड़ता (Inertia) का स्तर, उनकी आवश्यकताओं और सामाजिक- राजनीतिक परिस्थितियाँ जिम्मेवार होता है| इसी कारण उनकी भावनाएँ, विचार एवं व्यवहार तर्कहीन, साक्ष्यविहीन, तथ्यहीन और विवेकहीन होते हैं| ऐसे लोगे को इतिहास और मिथक में कोई अंतर समझ में नहीं आता है| इसीलिए ऐसे तथाकथित इतिहासकारों की रचनाएँ इतिहास के नाम पर मिथक मात्र होती है, जो विज्ञान की तीक्ष्ण धार से खंडित होकर अपना अस्तित्व खोता रहता है| ऐसे इतिहासकारों को समाज पर प्रभाव ज़माने के लिए, या समाज की सामाजिक एवं सांस्कृतिक धारा को मोड़ने के लिए अपनी जरूरतों के मुताबिक कल्पनाओं को उड़ान देना होता है|

चार्ल्स डार्विन, सिगमंड  फ्रायड, कार्ल मार्क्स, अल्बर्ट आइन्स्टीन और फर्डीनांड दी सौसुरे ने चिंतन की धाराएं ही बदल दी| बहुत कुछ जो कलतक सही माना जा रहा था, आज पूरी तरह बदल गया है| आज इतिहास के नाम पर रूमानी साहित्य को अमान्य किया जा रहा है| सभी लोग आज वैज्ञानिक इतिहास लिखना चाह रहे हैं, या सभी लोग अब वैज्ञानिक इतिहास ही पढ़ना चाह रहे हैं| ऐसी ही स्थिति में लेखनों की रूमानियत को अब बदल कर वैज्ञानिक हो जाने की अनिवार्यता हो गई है, और यह सिलसिला जारी है|

इसी कारण यह कहा गया है कि “इतिहास वैज्ञानिक मनुष्य के रूमानी मनुष्य पर विजय हासिल करने का एक सिलसिला है|’ यह पूर्णतया सही है|

(इसे आयोग की परीक्षाओं में ‘निबंध’ को ध्यान में रख कर लिखी गयी है)

आचार्य निरंजन सिन्हा 

बुधवार, 19 जून 2024

आर्थिक सशक्तिकरण क्यों जरुरी है?

साधारणतया सामान्य बुद्धिजीवी समाज के सम्पूर्ण बदलाव के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव को पूर्व शर्त समझते हैं। ऐसा ही पहले के सभी ज्ञानी और स्थापित विद्वान जन समझते रहे हैं। इसीलिए इन सिद्धान्तों को आज भी सही समझा जाता है, लेकिन अब परिस्थितियों में बदलाव हो जाने से बहुत कुछ बदल गया है। 

तो पहले सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव को समझते हैं। समाज संबंधों की एक सुव्यवस्थित तंत्र है| इसीलिए सामाजिक बदलाव में सामाजिक संबंधों की संरचना में बदलाव है| यदि कोई सामाजिक तंत्र यानि सामाजिक संरचना न्याय, स्वतन्त्रता, समता व समानता एवं बंधुत्व की भावना पर आधारित नहीं है, तो आधुनिक युग में उस समाज की संरचना को न्याय, स्वतन्त्रता, समता व समानता एवं बंधुत्व की भावना पर आधारित होना होगा| यही  सामाजिक बदलाव का लक्ष्य होता है| इस लक्ष्य का प्रावधान एवं इसकी प्राप्ति के लिए आवश्यक तंत्र की व्यवस्था भारतीय संविधान में समुचित रूप में कर दी गई है| आजादी के पूर्व की स्थिति में बहुत कुछ बदलाव हुए हैं, और बहुत से बदलाव अभी भी अपेक्षित है, तथापि सिर्फ उसी में ही अटका रहना अन्य विकल्पों को छिपा देता है

 बाजार की शक्तियां व्यक्ति और समाज को एक उपभोक्तामान कर इसकी भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को नियमित, संचालित, नियंत्रित एवं प्रभावित कर सम्हालती है| बाजार की उपभोक्तावाली मानसिकता ने भी सामाजिक संरचना को बहुत बदला है, और बदलाव की गति काफी तेज होती जा रही है| हमें बाजार की शक्तियों, यानि आर्थिक शक्तियों की क्रियाविधि एवं प्रभाव को समझने, सहेजने और सम्हालने के लिए अभी से तैयार रहना है|

 संस्कृति किसी भी समाज का साफ्टवेयर है, जो अदृश्य रहकर सम्पूर्ण समाज को नियमित, संचालित, नियंत्रित एवं प्रभावित करती रहती है| इसमें धर्म, सम्प्रदाय, विचार, आदर्श, आस्था, विश्वास, मूल्य, प्रतिमान आदि आदि कई तत्व शामिल रहते हैं| इस तरह संस्कृति एक मानसिकता, यानी एक माइंड सेटहोता है| यह इतना व्यापक अवधारणा है कि इसमें सम्पूर्ण जीवन जीने की विधि समाहित हो जाती है| इस तरह सांस्कृतिक बदलाव में इससे सम्बन्धित सभी संरचनाओं में बदलाव हो जाता है| अर्थात इसमें धर्म, सम्प्रदाय, विचार, आदर्श, आस्था, विश्वास, मूल्य, पतिमान आदि आदि कई तत्वों की मूलभूत बुनियाद में बदलाव होता है| इससे सम्बन्धित पर्याप्त जागरूकता कई रूपों में समाज में प्रचलित है, जिसे आधुनिक सोशल मीडिया सहित अनेक नवोदित तंत्र समर्थन दे रहे हैं

कहने का तात्पर्य यह है कि  सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव के लिए काफी कुछ किया गया है, काफी कुछ होना भी है, लेकिन सिर्फ इन्ही दोनों तत्वों तक ही सीमित नहीं रहना है| हमें फैलते वित्तीय साम्राज्यवाद के साधनों एवं शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों को समझना है, ताकि  हम उस वित्तीय तंत्र को समझ सकें और उसे सम्हाल सके

हाल तक बाजार की शक्तियों के सशक्त होने से पहले तक सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव बहुत महत्वपूर्ण होते थे| इसीलिए बहुत सामाजिक विद्वानों ने सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव को ही स्थायी एवं प्रभावशाली राजनीतिक बदलाव की पूर्व शर्त मानते रहे हैं| उन विद्वान लोगों के इस दुनिया से विदा होने के बाद इस दुनिया में बहुत से परिवर्तन हुए हैं| इसमें जनान्कीय संरचना, कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर आधारित सुचना क्रान्ति, नए सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनुसंधान एवं शोध, तकनिकी साधनों एवं शक्तियों में तीव्र विकास औए वित्तीय साम्राज्यवाद संरचना एवं क्रियाविधि में बहुत बदलाव हुए हैं, और यह बदलाव अभी भी तीव्र वृद्धि दर से हो रहे हैं| जनान्कीय संरचना के बदलाव में युवाओं की संख्यात्मक हिस्सेदारी में बढ़ोतरी और आधी आबादी, यानि महिलाओं के घर की चाहरदीवारी से बाहर निकलना सबसे प्रमुख है| जनसंख्या के इन संरचनात्मक बदलाव ने समाज के बदलाव की शक्तियों एवं क्रियाविधियों में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है

उपरोक्त सभी कारकों एवं क्रियाविधियों ने सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव के कारको एवं क्रियाविधियों के स्थापित मान्यताओं को सचमुच बदल दिया है| इसीलिए अब हमें राजीनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक बदलाव के लिए आर्थिक सशक्तिकरणपर ही केन्द्रित करना चाहिए|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

किसी देश को बरबाद कैसे किया जाता है?

यदि आपको किसी देश की प्रगति से समस्या है और आप उसे वहीं रोके रखना चाहते हैं, या उन्हें और नीचे गिराना चाहते हैं, तो आप उनकी बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आबादी को अनेकों *भावनात्मक सतही मुद्दो में* उलझा सकते हैं। पिछड़े हुए देशों की आबादी की *आलोचनात्मक चिंतन* का स्तर कम और कमजोर है, इसीलिए उन्हें भावनाओं की आंधी में उड़ा ले जाना बहुत आसान है। 

आप उनके सामने स्थानीय तथाकथित बुद्धिजीवियों के सहयोग और समर्थन से *अनेकों भावनात्मक राजनीतिक, धार्मिक, जातीय  आदि विभिन्न स्वरुपों में सतही मुद्दे* प्रस्तुत करें। इन मुद्दों को वे सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यक मुद्दे समझते हैं। इन मुद्दों पर विरोध में, समर्थन में, विश्लेषण में, अकादमिक विमर्श के रुप में प्रस्तुत करते रहे, देश का सम्पूर्ण समाज अपने *_तथाकथित हवा हवाई बुद्धिजीवियों के_* साथ *इसमें अपनी समस्त उर्जा, धन, संसाधन, समय, जवानी, उत्साह और सम्पूर्ण वैचारिकी झोंके रहेंगे।* हमें उन बुद्धिजीवियों और नौजवानों में इस ‘आपसी भिडंत’ की आदत लगा देनी है| फिर वे आपसी मामलों में दुनिया में हो रहे प्रगति को भूल कर इसी तरह समस्याओं के समाधान में आदतन भिड़ते रहेंगे| फिर देश और राष्ट्रीयता के मुद्दे गौण हो जायेंगे| आपके समर्थन में वे सभी राजनेता भी आ जायेंगे, जिनको आपसे फायदा होगा| तब आंतरिक संघर्ष का ‘चेन रिएक्सन’ शुरू हो जायगा, और फिर उस पर कोई भी चाह कर भी नियंत्रण पा नहीं सकता है| इसके अतिरिक्त वे कुछ और भी सोच समझ नहीं सकते हैं और आप सफल हो जाएंगे। वे अपनी हवाई बौद्धिकता में गोते लगाते हुए आत्ममुग्ध रहेंगे। 

 *आज बाजार की शक्तियां हीयानि आर्थिक शक्तियां ही राजनीतिकसामाजिक, सांस्कृतिक बदलाव और प्रगति के उपकरण और आधार है।* अर्थात आज बाजार की शक्तियां ही राजनीतिकसामाजिक, सांस्कृतिक बदलाव सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रभावकारी साधन यानि उपकरण हो गया है| इन सम्पूर्ण आबादी का ध्यान इस महत्वपूर्ण और अनिवार्य उपकरण, यानि बाजार की क्रियाविधियों (Mechanics) की ओर नहीं जाना चाहिए| कहने का तात्पर्य यह है कि वे समाज आर्थिक रूप में मज़बूत होने नहीं पाए| 

ऐसे समाजों, या संस्कृतियों, या देशों का ध्यान उनकी *सम्पूर्ण आबादी के आर्थिक सशक्तिकरण* की ओर नहीं जाने देना चाहिए।  इस तरह वे धार्मिक, जातीय, राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सतही मुद्दों में अपनी समस्त उर्जा, धन, संसाधन, समय, जवानी, उत्साह और सम्पूर्ण वैचारिकी झोंके रहेंगे| और बाकी मजा लेते रहिए। 

विशेष तो आप खुद समझदार है। 

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

सोमवार, 10 जून 2024

जाति व्यवस्था की अनूठी संरचना

भारत में जाति व्यवस्था एक अनूठी व्यवस्था या संरचना है, जो अपने समतुल्य विश्व में कहीं और नहीं पायी जाती| इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘Caste’ किया जाता है, जो मूलतः एक पुर्तगाली शब्द है| लेकिन पुर्तगाली शब्द ‘Caste’ में वर्ग या कार्य  विभाजन होते भी सामाजिक गतिशीलता है, यानि इस ‘Caste’ में एक ही जीवन में बदलाव की संभावना है, लेकिन वह गतिशीलता भारतीय ‘जाति’ में नहीं है| इसी कारण पश्चिमी विद्वान् ‘जाति’ का वह अर्थ नहीं समझ पाते हैं, जो इस “जाति” की संरचना में निहित होता है| इसीलिए बहुत से भारतीय विद्वानों का मानना है कि जाति शब्द का अंग्रेजी शब्द ‘Jati’ ही होना चाहिए, ‘Caste’ नहीं होना चाहिए| इससे जाति के संरचनात्मक निहित अर्थ के सम्प्रेषण  में कोई अस्पष्टता नहीं आएगी|

इस सन्दर्भ में बाबा साहेब डा० भीमराव आम्बेडकर का दिनांक 9 मई 1946 को कोलंबिया यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क, अमेरिका में पठित लेख को उद्धृत कर रहा हूँ| इसे डॉ० आम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक, न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार ने प्रकाशित किया है| इस आलेख का नाम – “भारत में जातिप्रथा: संरचना, उत्पत्ति और विकास” है| उन्होंने कहा- “यह बड़े खेद की बात है कि अभी तक इस विषय (भारत में जातिप्रथा: संरचना, उत्पत्ति और विकास) पर चर्चा नहीं हुई है और लोगों को इसके बारे में अल्प जानकारी है|डा० आम्बेडकर कई विद्वानों के परिभाषाओं को दुहराते हुए आगे कहते हैं – “अकेले देखने में कोई भी परिभाषा पूर्ण नहीं है और मूल भाव किसी में भी नहीं है| उन सब (विदेशी विद्वानों) ने एक भूल की है कि उन्होंने जाति को एक स्वतंत्र तत्व माना है, उसे समग्र तंत्र के एक अंग के रूप में नहीं लिया है|”

यह विश्व जगत के लिए उस समय भी सही था और आज भी उतना ही सही है, जितना बाबा साहेब डा० भीमराव आम्बेडकर ने उस समय कहा था| आज एक भारतीय भी जाति की संरचना, प्रकृति, प्रवृति और व्यवस्था को भारतीय सन्दर्भ एवं पृष्ठभूमि में ही ठीक से नहीं समझा है| इसे सम्यक ढंग से निम्नवत समझते हैं -

पहली, जाति व्यवस्था भारत में विश्व की एकमात्र अनूठी व्यवस्था है, जिसका कोई और समतुल्य उदाहरण और कहीं नहीं है| यह भारतीय समाज का खण्डनीकरण (Segmentation) एवं स्तरीकरण (Stratification) एक साथ ही करता है| यह वर्ण व्यवस्था के साथ मिलकर उर्घ्वाकार विभाजन भी करता है, परन्तु यह अपने आप में क्षैतिज विभाजन भी करता है| यह ‘जाति’ जन्म के परिवार के वंश पर आधारित होता है| यह जन्म से तय होता है और कभी भी परिवर्तनशील नहीं होता है| इस व्यवस्था में व्यक्ति विशेष के अर्जित गुण, योग्यता एवं कुशलता का कोई महत्त्व नहीं है|

दूसरी, जाति व्यवस्था को भाषा का ‘विखंडनवाद’ (Deconstructionism) से भी समझते हैं, जो यह कहता है कि लेखक के लिखे या कहें गये शब्दों का अर्थ एवं भाव उसके पाठकों के द्वारा समझे गए अर्थ एवं भाव से पूर्णतया भिन्न होता है, क्योंकि दोनों की मानसिक पृष्ठभूमि भिन्न भिन्न होती है| यह मानसिक पृष्ठभूमि कई प्रभावी तत्वों का समन्वित मिश्रण होता है| इसी कारण भारतीय लेखकों के लिखे या कहें गये ‘जाति’ एवं उसका अंग्रेजी अनुवाद ‘Caste’ का वही अर्थ पश्चिमी के पाठकों का नहीं होता है|,ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि पश्चिमी के पाठक Caste का वह अर्थ लेते हैं, जो उस मूल पुर्तगाली शब्द से सम्बन्धित है| इसीलिए एक ही भाव के शब्द ‘से जाति’ एवं ‘Caste’ का अर्थ पश्चिमी के पाठकों का अलग अलग हो जाता है|

तीसरी, जाति व्यवस्था का पदानुक्रमित (Hierarchichal) होना, जिसमे ब्राह्मण को सर्वोच्च स्थान दिया गया है और अन्य सभी जातियाँ  उनसे निकृष्ट (Inferior) मानी जाती है| यह जातियों के वर्ण व्यवस्था से मिलाने एवं घालमेल करने से हुआ है| दरअसल भारत में जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था को मनमाने ढंग से व्याख्यापित किया जाता है, क्योंकि यह भारत के बाहर कहीं भी नहीं है और इसकी व्याख्या का एकाधिकार परम्परागत रूप से ब्राह्मणों के पास सुरक्षित है| ब्राह्मण को छोड़ सभी जातियों के ऊपर एवं नीचे जातियाँ होती है| निचले स्तर पर ऊपर – नीचे का विवाद महत्वहीन हो जाता है, फिर भी उसमे स्तर होता है |

चौथी, जाति प्रथा में प्रत्येक वर्ग यानि समुदाय के लिए सामाजिक मेल- मिलावट और खान –पान में प्रतिबन्ध (Restriction) लगाया हुआ होता है| यह एक प्रकार से ‘सामाजिक सांस्कृतिक बिलगाव’ (Cultural Isolation) की स्थिति होती है| मतलब एक ही क्षेत्र, यानि एक ही भौगोलिक पर्यावरण, यानि एक ही परितंत्र में समाज के अन्य सदस्यों के रहने के बावजूद भी उनमे सामाजिक एवं सांस्कृतिक अलगाव होता है| अस्पृश्यता एवं छुआछुत इसी भाव की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है|

पाँचवी, जाति प्रथा का एक लक्षण यह भी है कि इसमें सामाजिक समूह, यानि वर्ग आधारित पृथकीकरण (Segregation) किया जाता है| यह जाति एवं वर्ण के आधार पर निवास –स्थान (Habitat), पानी (पीने एवं अन्य उपयोग) के स्रोत, जीविकोपार्जन के चयन और आवागमन के रास्ते के उपयोग पर प्रतिबन्ध भी लगाता है एवं निर्धारित करता है| अर्थात यह ‘जाति’ किसी के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक जीवन की दिशा एवं दशा को संचालित, निर्धारित एवं नियमित करता है| यानि जाति सभी के जीवन दर्शन को भी निर्धारित एवं नियमित करता है|  

छठवी,  इस व्यवस्था में प्रत्येक का पेशा (Occupation) निश्चित होता है, जो सामान्यत: जन्म के आधार पर परंपरा से तय होता है, या ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के लोगों द्वारा अनुदेशित होता है| इस जाति व्यवस्था में व्यक्ति की योग्यता, कौशल, कुशलता एवं दक्षता का कोई महत्व नहीं होता है| किसी का कार्य पेशा सिर्फ कार्य की प्रकृति को ही निर्धारित नहीं करता है, अपितु उस पेशा से जुड़ी पूरी संरचना को भी निर्धारित करता है| अर्थात उस पेशा से जुड़ा सम्मान, आय, कार्य परिस्थिति, जीवन दर्शन सभी कुछ निश्चित होता है| उस कार्य से जुड़ा पर्यावर्णीय स्थितियाँ यानि धुप, धूल, गर्मी, ठण्ड, पसीना, बारिस आदि को भी सुनिश्चित करता है| इस प्रकार जीनीय उदविकासीय प्रक्रियाओं को, यानि प्राकृतिक चयन, उत्परिवर्तन, अनुकूलन, समायोजन की प्रक्रियाओं को भी नियमित करता है|

सातवी, जाति प्रथा के निम्नतर समुदायों को अंत:विवाह (Endogamy) की भी बाध्यता रहती है, जिन्हें विवाह अपने जाति समूह के अन्दर ही करना होता है| इनके लिए अन्य दूसरें  जाति- समूह में विवाह प्रतिबंधित है| इससे इससे निम्नतर जातियों के समुदायों में ‘जीनीय प्रवाह” (Genetic Flow) बाधित होता है, लेकिन इनमे “जीनीय बहाव” (Genetic Drift) होता है| यह प्रतिबन्ध ऊपर के वर्ण के सदस्यों के लिए नहीं है, अर्थात उपरी वर्णों के लोग अपनी पसंद की महिलाओं से विवाह (Hypergamy) एवं प्रजनन कर सकते हैं| इसी कारण इन उच्च जातियों के सदस्यों में ‘जीनीय प्रवाह” (Genetic Flow) होता है, लेकिन इनमे “जीनीय बहाव” (Genetic Drift) नहीं होता है| एक विशेष बात यह है कि महिलाओं की अपनी जाति नहीं होती है और यह व्याख्या भ्रामक है| महिलाओं की जाति विवाह पूर्व पिता की जाति से एवं विवाह के बाद पति के जाति से निर्धारित होता है| इस तरह यह ‘जाति व्यवस्था’ यानि जातीय बाध्यता किसी भी जन समूह के ‘जीन पूल’ में ‘जीनीय प्रवाह’ एवं ‘जीनीय बहाव’ को भी प्रभावित करता है, जो जीनीय भिन्नता को विभाजन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है|

आठवी, ऊँची जातियों का स्वरुप तो अखिल भारतीय स्तर की होती है, क्योंकि यह वर्ण व्यवस्था से, यानि सामन्ती व्यवस्थापिका से, यानि राष्ट्रीय कार्यपालिका से जुड़ी हुई थी| इसी कारण इनका जीन पूल बड़ा एवं विविध होता है और इसमें जीनीय प्रवाह तो होता है, परन्तु जीनीय बहाव का प्रभाव लगभग नहीं ही होता है| दरअसल ऊँची जातियों ने भारतीय वर्ण व्यवस्था का अपहरण कर इसी वर्ण को जाति घोषित कर दिया है| वास्तव में वर्ण व्यवस्था भारतीय शासकीय सामन्ती व्यवस्था रही, जिसमे सभी जातियों का योगदान उनकी योग्यता एवं कुशलता के अनुरूप होता रहा| बाद में सामाजिक गतिहीनता के कारण ये सामन्ती पद ही जातियों के स्वरुप में घोषित कर दी गई| इसका कोई सामाजिक – राजनीतिक विरोध इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि समाज का सक्षम एवं बौद्धिक वर्ग ही इसके पक्ष में खड़ा था और उन्ही के स्वार्थों के पूर्ति करता हुआ था|

इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या करने से यह स्पष्ट होता है कि यह जाति व्यवस्था कुछ ही शताब्दी पुरानी है, यानि इन जातियों का इतिहास भी कुछ ही सताब्दी पुराणी है|

 नौवी, मध्यवर्ती, छोटी एवं अछूत जातियों की जनसंख्यात्मक आबादी तुलनात्मक रूप ने बहुत कम होती है| ब्राह्मणों की पुरे भारत में एक ही जाति है, जबकि अन्य समुदायों की छः हजार से अधिक जातियाँ हैं| इसी कारण किसी ख़ास भौगोलिक क्षेत्र में सदियों से निवास करने के कारण उस क्षेत्र विशेष के प्रति ये तथाकथित निम्न जातियों के सदस्य अनुकूलित हो जाते है और एक विशिष्ट उदविकासीय दिशा में विकसित होकर एक विशिष्ट स्वरुप को पा लेती है| छोटी जातियाँ अंतर्गामी विवाह ही करते हैं| इससे होने वाले उत्परिवर्तन, प्राकृतिक चयन, अनुकूलन के कारण उनके (अवर्ण, शुद्र एवं अछूत के) जीन पूल में ‘आनुवंशिक बहाव’ के कारण ‘जीन पूल’ में गुणों की कमी हो जाती है| जबकि ‘जीनीय प्रवाह’ के कारण ‘जीन पूल’ में गुणों की वृद्धि होती है, जो मध्यवर्ती, छोटी एवं अछूत जातियों की जनसंख्यात्मक आबादी में नहीं होती है| इन्ही कारणों से इन ब्रह्मनेत्तर जातियों के जीन पूल और सवर्ण के जीन पूल में जीनीय भिन्नता पैदा होती है|

दसवी, किसी की जाति के निर्धारण का आधार उसके पूर्व जन्म के कर्म के आधार पर माना जाता है, जिसका वाहक (Transporter) उसका ‘आत्मा’ (Soul) होता है| इस तरह यह ‘जाति व्यवस्थ’ समाज में सामाजिक एवं सांस्कृतिक यथास्थितिवाद को बनाए रखने का एक सुदृढ, व्यवस्थित एवं अपूर्व व्यवस्था है| यह किसी भी व्यक्ति या समाज के दुर्व्यवस्था या दुर्दशा के लिए वर्तमान शासन को दोषमुक्त कर देता है, इस पर विशेष ध्यान दिया जाय| इसका प्रमुख कारण यह है कि किसी की जाति, यानि किसी दुर्दशा, या सुदशा का निर्धारण उसके पूर्व जन्म के जाति के कर्म के फल के अनुसार होता है, और इसी कारण इस वर्तमान जगत में और कोई व्यक्ति या संस्था यानि शासन इस कष्ट के लिए दोषी नहीं होता है| इसी कारण इन जातियों के समुदाय के कष्टों को शासन के द्वारा निवारण करने की भी आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि यह स्वत: अगले जन्म में सुधर जाता है|

ग्यारहवीं, अब आप ‘जाति’ को “जाति के संरचनावाद” (Structralism of Jati) से समझते हैं| जाति व्यवस्था की संरचना में ‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’, ‘कर्मवाद’, ‘नित्य्वाद’ और ‘ईश्वर’ की अवधारणा एवं मान्यता सुनिश्चित है| अर्थात एक जाति व्यवस्था अपने साथ ही उपरोक्त सभी पाँचों तत्वों को समाहित किये हुए रहती है| ईश्वर इस व्यवस्था की स्थिरता एवं नियमन को सुनिश्चितता देता है| नित्यवाद इस सिद्धांत को नित्यता देता है और ईश्वर की नित्यता को भी सुनिश्चित करता है| इस गूढता को सभी नहीं समझते हैं, क्योंकि इस ओर किसी ने स्पष्ट्या ध्यान ही नहीं दिया है|

स्विस दार्शनिक ‘फर्डीनांड डी सौसुरे’ ने लिखी हुई बातों के शब्दों एवं वाक्यों को समझने के लिए एक नए उपागम (Approach) पर जोर दिया और एक नई दृष्टि दिया| इसने लिखे गए शब्दों एवं वाक्यों के शाब्दिक अर्थ एवं उसके निहितार्थ को समझने के तरीको को प्रमुखता देकर बहुत कुछ बदल डाला| इन्होंने शाब्दिक अर्थो के मकडजाल (The Web of Meaning) की अवधारणा को जन्म दिया एवं संरचनावाद (Structuralism) का सिद्धांत दिया|

इनका कहना है, कि किसी भी शब्द या वाक्य के अर्थ का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, बल्कि उसका अर्थ उसके सन्दर्भ (Reference) एवं पारितंत्र (Ecosystem) यानि पृष्ठभूमि, अन्य शब्द एवं वाक्य के सम्बन्ध में और लेखक की मंशा एवं उद्देश्य में भी होता है| इसे दूसरें  शब्दों में कहा जाय, तो किसी भी शब्द या वाक्य या वाक्य समूह का अर्थ उसकी सम्पूर्ण संरचना से स्पष्ट होता है, अर्थात उसकी समेकित संरचना में निहित होती है| इससे भाषाओं के अध्ययन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ| शब्द का स्वयं कोई अर्थ नहीं होता, और वह उस पुरे लिखावट के सन्दर्भ में तथा पुरी पारिस्थितिकी (Whole Ecosystem) (समय, स्थान, कालक्रम, परिस्थिति) के सन्दर्भ में होता है|

इस उपागम से ‘जाति व्यवस्थ’ से समझने से उपरोक्त स्थिति स्पष्ट हुई| शायद अब आप ‘जाति व्यवस्थ’ को कुछ बेहतर ढंग से समझने लगे होंगे|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

सोमवार, 3 जून 2024

बुद्ध उदास क्यों हैं?

बुद्ध आज जहां भी है और जैसे भी है, बहुत बहुत उदास हैं| हालांकि मुझे लग रहा था कि बुद्ध बहुत परेशान हैं, लेकिन सदैव मुस्कुराते रहने वाले बुद्ध तो परेशान हो ही नहीं सकते, इसीलिए मुझे लगा कि बुद्ध उदास ही होंगे। यह भी हो सकता है कि मेरा यह अनुमान गलत हो रहा है, और बुद्ध अभी भी मुस्कुरा रहे हैं, लेकिन क्यों? क्या यह हम भारतियों की नादानी ही उनके मुस्कुराने का कारण है? लेकिन मुझे तो लग रहा है कि इसे हम भारतीयों की मूर्खता ही माननी चाहिए, यह नादानी नहीं है। चूँकि हम भारतीयों के लिए मूर्खतापूर्ण शब्द का उपयोग करना बहुत से लोगों को आपत्तिजनक लग सकता है, इसलिए हमें नादानी शब्द से ही काम चला लेना चाहिए।

मैं यहां बुद्ध की इस उदासी का संदर्भ भारत से ले रहा हूं। बुद्ध इसलिए उदास हैं, क्योंकि उनकी बौद्धिकता को आज का भारत नहीं अपना रहा है, लेकिन विश्व के उदार विचार के लोगों ने अपनाया और वे सभी विश्व के विकसित देशों की संस्कृति बन गए हैं| कट्टरपंथी विचार के लोग और नादान लोग बुद्ध को यानि बुद्धि को समझ ही नहीं सके और इसीलिए ही ये अभी भी अविकसित देशों की संस्कृति बने हुए हैं। वैसे किसी भी संस्कृति के लोग अपनी खुशफहमी में अपने को विकासशील देश कह कर आनंदित हो सकते हैं, लेकिन ये सभी देश वास्तव में अविकसित हैं ही| बुद्ध का किसी भी  धर्म से कोई भी सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि बुद्ध के समय किसी भी परंपरागत धर्म की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी| सभी वर्तमान परंपरागत धर्मों की उत्पत्ति और विकास ही सामन्तवाद के उदय के कारण ही और इसीलिए उसी के साथ ही उदय हुआ है|

कृषि के उदय के साथ ही मानव की बुद्धि का विकास शुरू हुआ| मेहरगढ़ क्षेत्र में कृषि के व्यवस्थित उदय के साथ ही उन क्षेत्रों में बुद्धि का व्यवस्थित आगमन हो सका, और इसीलिए सिन्धु घाटी क्षेत्र में बुद्धि से जुड़े संस्थाओं (Institutions) एवं संस्थानों (Institutes) का उदय होने लगा| इसी के साथ ‘बुद्धत्व’ एवं ‘बुद्ध’ की अवधारणा स्थायी हो गई| बुद्धि के इसी परम्परा में गोतम 28वें ‘बुद्ध’ हुए| बुद्ध शब्द का संरचनात्मक अर्थ सिर्फ मानव की बुद्धि से जुड़ा हुआ है। विशिष्ट एवं उत्कृष्ट बुद्धि वाला ही “बुद्धत्व” के पद को प्राप्त कर कोई भी व्यक्ति बुद्ध बनता है, अर्थात ‘बुद्धि’ से ही ‘बुद्ध’ शब्द की उत्पत्ति हुई है| इसीलिए बुद्ध एक नहीं, अनेक हुए| किसी मानव की बुद्धि को ही परिष्कृत, उत्कृष्ट, और विवेकशील होने का तरीका यानि मार्ग ही तो बुद्ध का दर्शन है। इससे आगे बुद्ध नहीं है। आज के परम्परागत धर्म के संदर्भ में तो बुद्ध कहीं नहीं है। बुद्ध के नाम पर वर्तमान में प्रचलित परम्परागत धर्म का भी उदय भी सामन्तकाल में ही हुआ है| यही सब नाटक देख कर बुद्ध को अच्छा नहीं लग रहा है|

बुद्ध के उदासी के कारणों पर आने से पहले उनके व्यक्तिगत और संस्थागत योगदान पर नजर डाला जाय| मानवों में संज्ञानात्मक क्रान्ति, यानि बौद्धिक समझ बूझ कोई साठ हजार वर्ष पूर्व मानी जाती है| मानव के इतिहास में पहली बार इन बुद्धि के संस्थाओं ने इस संज्ञात्मक सूझ बुझ की क्रान्ति का सूत्रीकरण किया| यानि बुद्धि यानि बौद्धिक समझ के इस आविष्कार को व्यवस्थित किया, सरलीकृत किया, एवं एक सूत्र में पिरो दिया| यह सूत्र आज “बुद्धमं शरणम गच्छामि, धम्मं शरणम गच्छामि, संघं शरणम गच्छामि” के रूप में आया| अर्थात बुद्धि के शरण में आओ; उसमे में से जो धारणीय यानि धारण करने योग्य हो, उसे धारण करो; और उसे परिष्कृत एवं व्यवस्थित कने के लिए संघ यानि संगठन में जाओ|

आज लोग मानव की बौद्धिकता यानि बुद्धिमत्ता (Intelligence) के स्वरुप के बारे में बाते करते हैं| कोई बुद्धिमत्ता में सामने वाले की भावनाओं को ध्यान में रखने की बात करता है, तो कोई वर्तमान समाज के स्वरुप एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखने को रेखांकित करते हैं| बुद्ध की बुद्धि में तो इन सबो के अतिरिक्त ‘प्राकृतिक न्याय’, ‘मानवता’ एवं ‘प्रकृति’ अवश्य शामिल रहा है| कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्ध ने बुद्धिमत्ता के स्वरुप, गुणों एवं संरचना में ‘मानवता के भविष्य’ को बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान दिया है| आज वैश्विक संगठन UNDP भी अपने ‘16’ “धारणीय लक्ष्यों” में इसे शामिल किए हुए है|

बुद्धि की इसी परम्परा ने सबसे पहले ध्यान करने की एक विधि का ईजाद किया, जिसमे अपनी सांसों को नाक के माध्यम अन्दर जाने एवं बहार निकलने को स्पर्श करने की अनुभुति पर ध्यान देने की बात है| इसे ‘विससना’ कहा जाता है| कालांतर में इसी मूल स्वरुप के आधार पर कई अन्य स्वरुप विकसित होते गये| यह अपने स्वयं के अवलोकन की विधि है, जिससे मानव में संकेन्द्रण की क्षमता भी विकसित होती है| यह विधि शायद बुद्धों की परम्परा में गोतम ने सर्वप्रथम दिए| इस विधि से कोई भी अपने मूल एवं मौलिक स्वरुप को उसी अवस्था में देख, समझ एवं बदल सकता है| इससे जीवन के प्रति मानव का नजारिया बदल जाता है| यह विधि अपने ‘आत्म’ (Self) को ‘अधि’ (ऊपर) से यानि ‘अनन्त प्रज्ञा’ से जोड़ने की सरल, साधारण एवं सूक्ष्म प्रक्रिया को अपनाती है| इसी ‘आत्म’ को ‘अधि’ से जोड़ने को प्रक्रिया को “अध्यात्म” कहा जाता है|

बुद्ध ने मानव जीवन की सफलता के लिए एक आठ सूत्री (आष्टांग) मार्ग बताया. जो लोगों में “मध्यम मार्ग” के रूप में आज भी ज्ञात है| इसके प्रत्येक सूत्र का एक व्यापक, विषद एवं गहरा अर्थ निकलता है| ‘सम्यक’ एक ऐसा लचीला शब्द है, जिसे सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, वातावरण, पारितंत्र, आवश्यकता एवं ज्ञान के स्तर के अनुसार व्याख्यापित किया जा सकता है, या किया जाता है| इसके प्रत्येक सूत्र काफी ध्यान देने योग है, लेकिन इस पर इसके तथाकथित अनुयायी कभी चर्चा भी करते हों| यही सब सूत्र किसी के लिए भी व्यवहारिक सफलता के सूत्र हैं|

बुद्धों ने “विज्ञान” की नीव डाली| यदि आप लेखक फ्रांसिस बेकन पर ध्यान दें, तो आपको यह स्पष्ट होगा कि उसने बुद्धों के जीवन दर्शन को गहनता और गंभीरता से अध्ययन किया है| बुद्ध ने हर बातों एवं विचारों को तार्किकता की कसौटी पर कसने को कहा| हर घटना का कोई कारण अवश्य रहा है, जिसके परिणामस्वरूप वह घटना घटी| इसने हर विचारों एवं घटनाओं के कारणों को समझने के लिए ‘प्रश्न खड़ा करने’, यानी ‘शंका’ करने को प्रमुखता दिया| इन्होने ‘आस्था’ को महत्व नहीं दिया| यही सवाल खड़ा करना आज भी विज्ञान के विकास का मूल आधार है| इसने इसी तर्क के साथ किसी भी ‘ईश्वर’ की अवधारणा का खंडन किया| ‘ईश्वर’ एक ऐसा व्यक्ति होता है, जिसने विश्व का निर्माण किया, अभी भी सञ्चालन करता है, नियमन करता है, और कुछ अपने तथाकथित एजेंटों के माध्यम से सुनता भी है| इसी के साथ उसने किसी भी जीवात्मा’, उसके ‘पुनर्जन्म’ और ‘कर्म के किसी परिणाम का आत्मा के साथ ‘अंतरण’ यानि ‘यात्रा’ का खंडन किया हैं| इन्ही अवधारणाओं ने विज्ञान को अग्रसर होने का मार्ग प्रशस्त किया| आधुनिक विज्ञान इसके लिए बुद्धि के इस देव का आभारी है|

आधुनिक युग में तो मार्केटिंग की अवधारणा एवं तकनीक की धूम मची हुई है| आज वस्तुओं. सेवाओं, संपदाओं, व्यक्तित्व, घटनाओं, स्थलों, नीतियों, विचारों, आदर्शों, इत्यादि सभी को मार्केटिंग की आवश्यकता है| बदलते तकनिकी, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दौर में मार्केटिंग के स्वरुप बदलते जा रहे हैं, लेकिन इसकी मूल एवं मौलिक अवधारणा अभी भी स्थिर है| आधुनिक मार्केटिंग गुरु ‘फिलिप कोटलर’ ने तो मार्केटिंग के बदलते स्वरुप के आधार पर ‘मार्केटिंग -1’ से शुरू कर आज ‘मार्केटिंग -6’ की अवधारणा तक चले गये हैं| जब मैं बुद्धि के इन भारतीय सृजन कर्ताओं को देखता हूँ, तो पाता हूँ कि बुद्ध ने जिन विचारों की मार्केटिंग आज से ढाई हजार साल पहले इस तरह से की गयी थी कि हमलोग आज भी उस पर विमर्श कर रहे हैं| बुद्ध का दस ‘प्रज्ञा पारमिता’ हैं, जो सभी मार्केटिंग व्यक्तियों के अनिवार्य गुण एवं विशेषता हैं| आप कह सकते हैं कि बुद्ध मार्केटिंग के आज भी पितामह हैं| आप इनसे आज भी मार्केटिंग की विद्या ग्रहण कर अपने सफल बना सकते हैं|

बुद्ध ने ‘अनित्यवाद’ के सिद्धांत देकर सभी को यह स्पष्ट कर दिया कि कोई भी चीज नित्य या स्थायी यानि स्थिर नहीं रह सकता| आपकी सुख, दुःख, कष्ट आदि सभी कुछ बदलते रहने वाला है| इसके लिए आपको सिर्फ अपनी नजरिया बदलने हैं. सब कुछ बदलने लगता है| अल्बर्ट आइन्स्टीन ने “समय” को एक चौथा आयाम बता कर इनके अनित्यवाद को भौतिकी विज्ञान में भी स्थान सुनिश्चित कर दिया| सैद्धांतिक विज्ञानी अपनी गणितीय गणनाओं से अभी और आठ आयामों के अस्तित्व की घोषणा करते हैं, जो अभी भी भविष्य के गर्भ में है| आज भी न्यूकिलीयर वैज्ञानिक बुद्ध के ज्ञान एवं दर्शन में बहुत कुछ समझना चाहते हैं| दरअसल यह सब ज्ञान मानव के बुद्धि यानि बुद्धों के प्रारंभिक काल से संचित होता गया|    

भारतीय लोगों ने बुद्ध के यानि बुद्धि के मूल और मौलिक स्वरूप को छोड़कर बुद्ध के जीवन सिद्धांत, सफलता का विज्ञान और दर्शन को परम्परागत धर्म का स्वरूप दे दिया है। मानवीय बुद्धि के विकास में उनके योगदान को पूर्णतया छोड़ दिया है। बुद्ध की उदासी एक व्यक्ति के रूप में भी है और एक संस्था (Institution) के रूप  में है। ध्यान रहे कि मैंने एक संस्था के रूप में कहा है, किसी संस्थान (Institute) के रूप में नहीं। आज भारत में बुद्ध के दर्शन के अनुयायियों को एक ख़ास रंग के वस्त्र, एक ख़ास आकृति, कुछ कर्मकांड तक सीमित कर दिया है| आज भारत में बुद्ध के तथाकथित अनुयायियों में लगभग दो ही तरह के लोगों का बाहुल्य हैपहले में वैसे लोग हैं, जिनकी सामाजिक सांस्कृतिक स्तर ऐसा है कि वे किसी परंपरागत धर्म के बिना जी नहीं सकते और परम्परागत प्रचलित धर्म में उन्हें अपेक्षित सम्मान नहीं मिल रहा है, और दुसरे में वैसे लोग हैं जो अपने को बुद्ध के खानदान के समझ रहे हैं, यानि इनका आज की जाति बुद्ध की तथाकथित जाति से मिलती है, और इसीलिए वे उनके उपासक बनने की घोषणा किये हुए हैं| ध्यान रहे कि प्राचीन काल में किसी भी जाति या जाति की व्यवस्था का अस्तित्व ही नहीं था|

मतलब यह कि इन दोनों समूहों में से किसी ने भी बुद्ध के दर्शन, ज्ञान एवं समझ पर इनके अनुयायी नहीं हुए हैं, भले ही अब इनके बौद्धिकता के अनुयायी का गौरव मानते हैं| चूँकि इनके तथाकथित बौद्ध होने का आधार ही बुद्ध के दर्शन, ज्ञान एवं समझ नहीं है, इसलिए ये लोग कभी भी बुद्ध के दर्शन, ज्ञान एवं समझ पर विमर्श या परिचर्चा नहीं करते हैं| वे लोग सिर्फ बुद्ध के नाम पर एक पारंपरिक कथा उवाच ही करते पाए जाते हैं| चूँकि बुद्ध के नाम जोड़ लेने से ही इनको सम्पूर्ण बौद्धिकता के ज्ञान, समझ एवं अनुभव होने का गौरव प्राप्त हो गया है, इसलिए वे चाहते हैं कि भारत की बहुसंख्यक आबादी भी इनकी धारा से जुड़ जाय, लेकिन बहुसंख्यक आबादी इनसे दुरी बनाये हुए है| चूँकि एक के जुड़ाव का आधार बुद्ध के ‘शाक्य’ वंशीय होने के आधार पर है, और दुसरे का आधार परंपरागत धर्म में अपेक्षित सम्मान का अभाव है, इसलिए जिन शेष भारतियों को इन दोनों आधार की जरुरत दृष्टिगोचर नहीं होता है, वे बुद्ध के दर्शन, ज्ञान एवं समझ से दूर ही हैं| हद यह है कि ऐसे लोग अपने को समझदार भी समझते हैं, जिनके जुड़ने का आधार ही बुद्ध के दर्शन, ज्ञान एवं समझ नहीं है| अन्यथा ऐसे लोग बुद्ध के ज्ञान, विज्ञान और जीवन दर्शन पर विमर्श नहीं करते हैं, सिर्फ कथा उवाच करते रहते हैं|

इसलिए तो बुद्ध इन भारतियों की मानसिकता को देख समझ कर ही उदास हैं|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

शनिवार, 1 जून 2024

जाति जरुरी क्यों है?

सवाल यह है कि ‘जाति’ यानि ‘जाति व्यवस्था’ हमारे लिए क्यों बहुत जरुरी है? मैंने समाज में ध्यान दिया है कि यदि समाज से ‘जाति’ की व्यवस्था ही समाप्त हो जाए, तो इसके क्या क्या परिणाम हो सकता है? ‘जाति’ के समाप्त हो जाने की स्थिति में हमारे समाज में सामाजिक उत्थान करने के नाम पर कार्यरत सारे ऐसे सारे सामजिक नेता बेरोजगार हो जायेंगे, क्योंकि उनकी सारी गतिविधियाँ ही इसी ‘जाति’ और ‘जाति व्यवस्था’ के केंद्र के चारो ओर घुमती रहती है| इन्ही लोगों के रोजगार के लिए ही जाति व्यवस्था की अनिवार्यता है, अन्यथा यह मानवता के मुखड़ा पर मवाद भरा जख्म है, एक सडांध है। वे लोग कभी यह बात नहीं करते कि भारत में ‘जाति व्यवस्था’ कैसे समाप्त किया जा सकता है?  वे लोग  तो ‘जाति’ को मजबूत करने के नाम पर ‘जाति व्यवस्था’ को ही मजबूत करने पर लगे हुए हैं|

दरअसल भारत में एक जाति को एक ‘विस्तारित परिवार’ (Extended Family) ही माना जाता है| अर्थात एक ही जाति के सभी लोग एक ही विस्तारित परिवार के सदस्य माने जाते है| इसे ‘संयुक्त परिवार’ नहीं समझा जाय| अब तो ये जातिवादी सामाजिक नेता समाज के अन्य मुद्दे को भी जाति से जोड़ने लगे हैं, जिनमे सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक आदि क्षेत्र भी समाहित होता जा रहा हैं| भारत में यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सभी जातियों में ऐसे ही नेतृत्व की प्रवृति हो गई हैं| ऐसे सभी नेतागण आपको कई उदाहरण से संतुष्ट कर देंगे कि वे कोई असामाजिक और राष्ट्र विरोधी हरकत नहीं कर रहे हैं| यही जाति तो इन सामाजिक नेताओं के आगे बढ़ने की राजनीतिक सीढियाँ है| इसे आप उस जाति वर्ग का “सामाजिक पूंजी” (Social Capital) बनाना भी समझ सकते है| इन सामाजिक नेताओं के कार्य या कार्य पद्धति की एक ख़ास विशेषता यह है कि यह सब ‘जाति व्यवस्था’ को नष्ट करने और जाति मुक्त एक प्रगतिशील एवं सशक्त राष्ट्र के निर्माण के नाम पर यह सब कर रहे है| ‘जाति’ के कथाकथित समाज के ‘उत्थापक नेता’ अपने को जाति व्यवस्था’ के सख्त विरोधी भी दिखाने का भरपूर प्रयास भी करते होते हैं|

अब तो भारत में ‘जाति’ और परंपरागत ‘धर्म’ राजनीतिक हितों को साधने के महत्वपूर्ण ‘उपकरण’ (Tools) हो गये हैं| हालाँकि भारत में इसका विकास आजादी के कुछ वर्षों बाद हुआ है, पर अब यह अपने पुरे आवेग में है| अब सभी राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठन एवं दल ‘जाति’ और ‘परंपरागत धर्म’ को एक घातक ‘हथियार’ (Weapon) के रूप में प्रयोग करने लगे हैं, और इसीलिए इसे ‘उपकरण’ कहने से एक नाइंसाफी हो जाता है| आज के सभी सफल राजनीतिक संगठन एवं दल अपने उम्मीदवारों का चयन भी इसी ‘जाति’ और ‘परंपरागत धर्म’ को ध्यान में रख कर करते हैं और सफलता भी पाते हैं| सामान्य लोगों को एवं तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों को भी इस ‘जाति’ और ‘परंपरागत धर्म’ की भावनात्मक हवा में उड़ा ले जाना बहुत आसन होता है| इसके लिए भी जाति आधारित समूह और संगठन की आवश्यकता हो जाती है और इसीलिए सभी राजनीतिक दलों के लिए भी यह ‘जाति व्यवस्था’ जरुरी हो जाता है| इसीलिए भी कोई राजनीतिक दल इसे राष्ट्र के विरुद्ध होने के बावजूद भी इस ‘जाति’ और ‘परंपरागत धर्म’ की व्यवस्था को मजबूत बनाए रखना चाहते हैं|

इसीलिए समाज के तथाकथित बड़े बड़े बुद्धिजीवी और सामाजिक संगठन भी जिस राजनीतिक दल एवं संगठन का पुरे चार साल ग्यारह महीने और उनतीस दिन तक नकारात्मक आलोचना करते रहते हैं, वे सभी बुद्धिजीवी और सामाजिक संगठन चुनाव में अपने ‘मत’ के उपयोग में इसी ‘जाति’ और ‘परंपरागत धर्म’ के चश्मे का प्रयोग करते हैं और अपने तथाकथित सिद्धांतों के विरुद्ध ‘मत’ देते हैं| ‘जाति’ और ‘परंपरागत धर्म’ के सम्बन्ध में हमारा यह चरित्र अब भारत का राष्ट्रीय चरित्र बन चुका है| यही हमारा “दुहरापन” (Dual) का चरित्र भी अब राष्ट्रीय चरित्र बन गया है, लेकिन ऐसे मामलें में हम राजनीतिक नेताओं को भरपेट कोसते रहते हैं| हमारे ये तथाकथित बुद्धिजीवी और सामाजिक संगठन यह समझना ही नहीं चाहते हैं कि हमारे ये नेता भी हमारे ही राष्ट्रीय चरित्र की उपज हैं, जिसको हम आम आदमियों ने ही जन्म दिया और पाला पोसा है| इसीलिए हमारे नेतागण भी इसी दोहरेपन को लिए चलते हैं|

ये जातिगत नेता अब जमात यानि बड़े सामाजिक वर्ग की राजनीति छोड़ कर अपनी ‘जाति’ तक ही सीमित होने लगे हैं| इसीलिए वे अपनी जाति के इतिहास को गौरवमयी बनाने के लिए अपनी जाति के इतिहास को सूरज और चाँद की उत्पत्ति तक, तो कुछ तथाकथित सामाजिक विद्वान् इस इतिहास को अन्गारालैंड एवं गोंडवानालैंड की उत्पत्ति तक ले जाते हैं, मानों कि होमो सेपियंस यानि हम मानवों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी और जाति की व्यवस्था अपने अस्तित्व में आ गया था| मुझे ऐसे अतार्किक एवं तथ्यहीन बातों को कहने वाले महानुभावों पर कोई टिपण्णी नहीं करनी चाहिए| यदि कोई अपने ‘पेशा’ का इतिहास लिखे, तो उसका कोई इतिहास हो सकता है, लेकिन एक जाति का इतिहास तो प्राचीन काल में जा ही नहीं सकता|

जाति व्यवस्था भारत में कुछ शताब्दियों से व्याप्त है, लेकिन अधिकतर ग्रंथों में इसे सहस्त्राब्दी पुरानी भी बताई जाती है, जिसका कोई भी ‘प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य’ नहीं मिलता है| इसके सहत्राब्दी पुराने होने का कोई भी पुरातत्विक प्रमाण नहीं है, और इसीलिए इसका ‘द्वितीयक प्रमाणिक साक्ष्य’ भी प्रमाणिक नहीं है| इसके सहत्राब्दी पुराने होने की बात सभी ग्रंथों में बिना किसी प्रमाणिक साक्ष्य के सिर्फ मिथकों के आधार पर ही रच दिया गया है| दरअसल इस ‘जाति व्यवस्था’ की उपज ही सामन्तवादी शक्तियों के उदय एवं विकास से हुआ और इसी के साथ ही और विकसित होता गया| कोई भी ‘जाति’ प्राचीन काल में नहीं रहा है|

भारत की यह जाति व्यवस्था विश्व में और कहीं नहीं है| यह सिर्फ वर्ग विभाजन का एक समूह नहीं है, बल्कि यह कभी नहीं बदलने एक स्थायी और स्थिर वर्गगत ढाँचा भी है, जो इस जन्म में कभी भी और किसी भी परिस्थिति में नहीं बदल सकता है| इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है जी इसमें एक निश्चित ‘स्तरीकरण’ (Stratification) होता है, जिसमे एक सर्वोच्च को छोड़ कर हर कोई किसी अन्य से नीचे रहता है| ऐसी विशिष्ट व्यवस्था विश्व के अन्य किसी भी हिस्से में नहीं पाया जाता है|

दरअसल ‘Caste’ एक पुर्तगाली उत्पत्ति का एक ‘वर्ग विभाजन’ करने वाली संरचना लिए एक शब्द है, लेकिन इस Caste को कोई भी अपनी सामर्थ्य, योग्यता एवं उपलब्धि से अपने इसी जीवन में बदल सकता है| लेकिन भारत में कोई भी अपनी जन्मगत जाति को कभी भी बदल ही नहीं सकता हैं| इसी कारण कुछ समाजशास्त्री इसका अंग्रेजी अनुवाद “Caste” को “पश्चिमी जगत” को भरमाने के लिए एक गहरा और भयानक बौद्धिक षड़यंत्र भी मानते हैं| ऐसे समाजशास्त्री इसका अंगेजी अनुवाद “Jati” ही रखना चाहते हैं, जैसे भारतीय साड़ी, धोती आदि का अंग्रेजी अनुवाद होता है|

‘राष्ट्र’ हित में, ‘मानवता’ के हित में और ‘प्राकृतिक न्याय’ (Natural Justice) के हित में इस ‘जाति’ एवं ‘जाति व्यवस्था’ को समाप्त होना चाहिए| लेकिन इसके समापन के लिए भी इसकी उत्पत्ति एवं विकास के वैज्ञानिक कारण यानि सिद्धांत समझने होंगे| वैज्ञानिक यानि विज्ञान आधारित कहने का तात्पर्य इस सिद्धांत यानि कारण को तार्किक, विवेकशील. व्यवस्थित होने के साथ साथ इसे तथ्यात्मक, यानि सक्ष्यात्मक भी होना चाहिए| वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के सिद्धांतों की व्याख्या, यानि इन सिद्धांतों की उत्पत्ति की व्याख्या कई बार पहले तार्किक आधार ही होता हैं और उसके सक्ष्यात्मक आधार बाद में जुड़ते हैं| मैंने भी जाति उत्पत्ति की सैद्धांतिक व्याख्या की है, जो तार्किक भी है|

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति एवं विकास का मध्य काल में होने के सम्बन्ध एक वैज्ञानिक प्रसंग देना चाहूंगा| इस प्रसंग में मैं महान वैज्ञानिक पीटर हिग्स (Peter Higgs) का एक उदहारण पेश करना चाहूंगा| इन्होने “हिग्स बोसॉन” कणिकाओं के अस्तित्व की सैद्धांतिक व्याख्या 1964 में ही कर दी थी, जिसका प्रायोगिक प्रमाण जेनेवा के महान प्रयोगशाला सर्न (CERN) ने 2013 में अंतिम रूप से किया गया और इसके लिए ही उन्हें 2013 का भौतिकी का नोबल पुरस्कार भी मिला| आज यही कण “गाड़ पार्टीकल” (GOD PARTICLE) के नाम से विख्यात है| कहने का तात्पर्य यह हुआ कि उनकी तार्किक बातों को सैद्धांतिक रूप में भी 48 वर्षों तक नहीं माना गया, लेकिन जब उनके प्रमाणिक साक्ष्य मिले, तो  उनके सिद्धांत को मान्यता भी मिली| यही बात मेरी जाति की उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धांत की है, जिसके साक्ष्य नजरिये को बदलने से मिलेंगे| वैसे इस सिद्धांत के भी प्रमाण भारत में बिखरे पड़े हैं, सिर्फ उसे तलाशने की नजरिए से तलाशना है|

‘जाति व्यवस्था’ के विनाश के लिए एक ही “माडल” काफी है, जिसे प्रशासनिक तंत्र ही सफल करा सकता है| इस ‘जाति व्यवस्था’ को कोई भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था एक झटके से समाप्त कर सकता है, यदि वह ऐसा करने की मंशा रखता है|

आचार्य निरंजन सिन्हा

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