इतिहास एक ऐसा विषय है, जो सदैव बदलता रहता है, यानि इसके
बदलने का सिलसिला जारी रहता है| नए नए शोधों, आवश्यकताओं और सन्दर्भों में इसके
बदलने का सिलसिला जारी है| होमो सेपियंस. जो एक ‘पशु मानव’ से बहुत पहले ही
‘सामाजिक मानव’ (Homo socius) और ‘निर्माता मानव’ (Homo Faber) बन चुका है, अब यह
एक ‘वैज्ञानिक मानव’ भी बन गया है| अब इतिहास- लेखन इतिहासकारों की बेतुकी, अतार्किक और
साक्ष्यविहीन रूमानी कल्पनाओं की उड़ान नहीं रह गयी है, जो पहले हुआ करती थी| अब
इतिहास को विविध वैज्ञानिक आयामों पर जांचना एवं परखना पड़ता है, और तब लिखना होता
है| इसलिए हमें उपरोक्त निबंध शीर्षक का विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करके ही किसी
निष्कर्ष पर पहुँचना होगा|
इतिहास सिर्फ अतीत के किसी व्यक्ति की कहानी या किसी घटनाओं
का मात्र विवरण या ब्यौरा ही नहीं होता है, बल्कि उस काल की सम्पूर्ण सामाजिक,
सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, धार्मिक पहलुओं को अपने में समेटता हुआ
होता है| इस तरह एक इतिहास किसी निश्चित काल खंड का सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक,
आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, धार्मिक इत्यादि के रूपांतरण का क्रमबद्ध एवं
व्यवस्थित ब्यौरा हुआ| यह कोई साधारण बदलाव नहीं होता है, अपितु यह स्थायी और
अपरिवर्तनीय बदलाव होता है, जिसे ही रूपांतरण (Transformation) कहते हैं| इस तरह
एक इतिहास के दायरे, गहराई और गहनता के मायने अब बदल चुकी है| पहले इतिहास सिर्फ
व्यक्तियों और घटनाओं, जिसमे युद्ध का ब्यौरा एवं शासन विवरण ही प्रमुखता लिए होता
था| इसलिए अब हम इतिहास को इस वैज्ञानिक एवं आधुनिक युग के सापेक्ष में प्रस्तुत
करना चाहेंगे| चूँकि यही ‘वैज्ञानिक इतिहास’ अब मान्य है, इसीलिए ही इसे इसी
सन्दर्भ में समझना चाहिए|
‘वैज्ञानिक मनुष्य’ से तात्पर्य यह है कि वह मनुष्य ही वैज्ञानिक हो सकता है, जिसके विचार, भावना और व्यवहार विज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित होता है| विज्ञान विवेकपूर्ण एवं व्यवस्थित ज्ञान होता है, जिसकी जांच बार बार किये जाने पर भी एक ही परिणाम निकलते हों| मतलब जब सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, और परिस्थितियाँ एक ही सामान हो, तो उसके परिणाम भी एक समान ही मिलेंगे| स्पष्ट है कि ऐसा ज्ञान अवश्य ही तर्कपूर्ण होगा, तथ्यपरक होगा, साक्ष्यरक होगा और विवेकपूर्ण भी होगा| यदि कोई ज्ञान विवेकपूर्ण नहीं है, अर्थात समाज एवं मानवता के वर्तमान और भविष्य के उपयोगी नहीं है, तो वैसा ज्ञान वर्तमान एवं भविष्य के सन्दर्भ में उचित स्थान नहीं पाता है|
विज्ञान की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह शंकाओं पर आधारित होता है,
क्योंकि इसे सदैव सभी आयामों और पहलुओं से जांचते रहना पड़ता है| अर्थात विज्ञान
में सवाल खड़ा करना, यानि इसे बदलते सन्दर्भ में, बदलते पृष्ठभूमि में, और बदलते
परितंत्र में बदलना हो सकता है| वर्तमान युग का मानव विज्ञान की इन्हीं विशेषताओं
से युक्त होकर ‘वैज्ञानिक मानव’ बन गया है, जो बदलते सन्दर्भ में, बदलते पृष्ठभूमि
में, और बदलते परितंत्र में नयी व्याख्या चाहता है, जो सभी सम्बन्धित सवालों के
उत्तर देने सक्षम हो|
लेकिन एक रूमानी व्यक्ति अपनी रूमानी यानि काल्पनिक उड़ानों
की हद तक खोया हुआ हो सकता है| इनकी रूमानियत के लिए उनके ज्ञान एवं आलोचनात्मक
चिंतन की क्षमता एवं स्तर, उनकी सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, यानि उनकी सामाजिक
सांस्कृतिक जड़ता (Inertia) का स्तर, उनकी आवश्यकताओं और सामाजिक- राजनीतिक
परिस्थितियाँ जिम्मेवार होता है| इसी कारण उनकी भावनाएँ, विचार एवं व्यवहार
तर्कहीन, साक्ष्यविहीन, तथ्यहीन और विवेकहीन होते हैं| ऐसे लोगे को इतिहास और मिथक
में कोई अंतर समझ में नहीं आता है| इसीलिए ऐसे तथाकथित इतिहासकारों की रचनाएँ
इतिहास के नाम पर मिथक मात्र होती है, जो विज्ञान की तीक्ष्ण धार से खंडित होकर अपना
अस्तित्व खोता रहता है| ऐसे इतिहासकारों को समाज पर प्रभाव ज़माने के लिए, या समाज
की सामाजिक एवं सांस्कृतिक धारा को मोड़ने के लिए अपनी जरूरतों के मुताबिक कल्पनाओं
को उड़ान देना होता है|
चार्ल्स डार्विन, सिगमंड
फ्रायड, कार्ल मार्क्स, अल्बर्ट आइन्स्टीन, फर्डीनांड दी सौसुरे एवं जाक देरिदा ने चिंतन
की धाराएं ही बदल दी| बहुत कुछ जो कलतक सही माना जा रहा था, आज पूरी तरह बदल गया
है| आज इतिहास के नाम पर रूमानी साहित्य को अमान्य किया जा रहा है| सभी लोग आज
वैज्ञानिक इतिहास लिखना चाह रहे हैं, या सभी लोग अब वैज्ञानिक इतिहास ही पढ़ना चाह
रहे हैं| ऐसी ही स्थिति में लेखनों की रूमानियत को अब बदल कर वैज्ञानिक हो जाने की
अनिवार्यता हो गई है, और यह सिलसिला जारी है|
इसी कारण यह कहा गया है कि “इतिहास वैज्ञानिक मनुष्य के
रूमानी मनुष्य पर विजय हासिल करने का एक सिलसिला है|’ यह पूर्णतया सही है|
(इसे आयोग की परीक्षाओं में ‘निबंध’ को
ध्यान में रख कर लिखी गयी है)
आचार्य निरंजन सिन्हा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें