बहुत से लोगों का मानना है कि ‘इतिहास स्वयं को दुहराता रहता
है’| लोगों का ऐसा भी मानना है कि इसके दुहराने के स्वरुप भी
बदलते रह सकते हैं, लेकिन इतिहास सदैव ही अपने आपको दुहराता
रहता है| कहने का तात्पर्य यह होता है कि इतिहास का कोई भी
पात्र अपने अतीत के पात्रों एवं बदलाव की घटनाओं से कोई भी सीख नहीं लेता|
इसीलिए ऐसा माना जाता है कि इतिहास पहली बार एक त्रासदी के रूप में, यानि एक दुर्घटना के रूप में घटित होता है और दूसरी बार एक प्रहसन के रूप में आता है, क्योंकि इससे कोई सीख नहीं ली गई| लेकिन
इसके मूल्याङ्कन करने पर कई अन्य बातें उभर कर आ जाती है, जो
इस मंतव्य यानि उपरोक्त कथन से भिन्न हो जाता है|
इतिहास मनुष्य एवं उसके द्वारा निर्मित
संस्थाओं के द्वारा प्रकृति एवं समाज में हस्तक्षेप से हुए सामाजिक सांस्कृतिक
रूपांतरण का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित ब्यौरा होता है| इतिहास को संस्कृतियों का प्रवाह के रूप में भी लिया जाता है। आर्थिक शक्तियां ही बाजार को बदलने वाली
महत्वपूर्ण शक्तियां होती है| यही बाजार की शक्तियां ही
तत्कालीन समाज के सामाजिक एवं सांस्कृतिक बनावट (Structure) एवं
ढांचा (Frame Work) को बदलता रहता है| इन
बाजार की शक्तियों को समकालिक या समकालीन शक्तियां भी कहते हैं| यही समकालीन बाजार की शक्तियां ही अतीत के सन्दर्भ में ‘ऐतिहासिक शक्तियां’ कहलाती है, जो इतिहास का निर्माण करता रहता है| ये बदलाव वैसे
तो देखने में अति सूक्ष्म (Micro) होते हैं, और इसीलिए एक सामान्य जीवन में दृष्टिगोचर नहीं होती है| लेकिन जब इन्ही बदलावों का इतिहास के काल खंड में समेकन होता है, तो यही सब इतिहास को बदलने वाली स्थूल (Macro) प्रभाव
लेकर दिखती है| इसी को सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव कहते हैं,
जो समाज में इतिहास के रूप में जाना जाता है| इतिहास
की वैज्ञानिक व्याख्या उपभोग, उत्पादन, वितरण एवं विनिमय के साधनों एवं शक्तियों के अंतर्संबंधों के आधार पर ही
किया जाना उपयुक्त होता है| इस आधार पर की गई व्याख्या
इतिहास के हर काल एवं क्षेत्र की प्रत्येक घटनाओं की संतोषप्रद व्याख्या कर देती
है|
अब इतिहास में व्यक्तियों का विवरण और घटनाओं
का ही ब्यौरा नहीं होता है, बल्कि इतिहास में उस काल की सम्पूर्ण सामाजिक,
सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक,
राजनीतिक, धार्मिक पहलुओं को अपने में समेटता
हुआ होता है| इसलिए किसी इतिकास वर्णन में किसी व्यक्तियों के विवरण और घटनाओं के ब्यौरे में यदि कोई दुहराव भी होता है,
तो यह सब इतिहास ही नहीं है| सामान्य सतही
इतिहास में किसी व्यक्तियों
के विवरण और घटनाओं के ब्यौरे को ही प्रमुखता मिल सकता है, जैसा
कि कुछ समय पहले होता रहा है, लेकिन अब ऐसा नहीं होता है|
इतिहास की किसी घटना को या सभी घटनाओं को एक त्रासदी के रूप में या
एक प्रहसन के रूप में लेना इतिहासकार के सन्दर्भ, पृष्ठभूमि
एवं लक्ष्य के अनुसार भी बदल जाता है| अर्थात कोई एक घटना
किसी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र या देश,
एवं मानवता के सन्दर्भ में एक त्रासदी या प्रहसन या वरदान किसी भी
रूप में हो सकता है| वही घटना किसी इतिहासकार के सन्दर्भ,
पृष्ठभूमि एवं लक्ष्य के अनुसार एक सामान्य बात भी हो सकता है|
यह सब सापेक्षिक माना जाना चाहिए| इसलिए
इतिहास की घटनाओं को सन्दर्भ, पृष्ठभूमि एवं लक्ष्य के
अनुसार बदलता हुआ मानना चाहिए|
वैज्ञानिक इतिहास कभी भी अपने आप को दोहराता
नहीं है| चूँकि बाजार
की शक्तियां परिवर्तन की दिशा में सदैव अग्रसर होती रहती है, इसीलिए बाजार की शक्तियां अपने पहले के प्रभावों पर पुन: नए ढंग से और नए
सन्दर्भ, पृष्ठभूमि एवं लक्ष्य के अनुसार भी बदलती रहती है|
ये बाजार की शक्तियां समाज की सामाजिक एवं सांस्कृतिक बनावट एवं
ढांचे पर सदैव कार्य करती रहती है, और इसीलिए यह एक नए ढंग
से समाज को प्रभावित करती रहती है| सामाजिक एवं सांस्कृतिक
स्वरुप एवं ढांचे के बदलने से ही किसी समाज की संस्कृति बदलती रहती है| और संस्कृति को कभी भी अपने को दोहराता हुआ नहीं पाया जा सकता है| हम जानते हैं कि किसी समाज की संस्कृति उस समाज के अपने ‘इतिहास बोध’ से बनती है, और
वही संस्कृति समाज को संचालित एवं नियमित करने वाली समाज का ‘साफ्टवेयर’ होता है| इसीलिए
लेखक जार्ज आरवेल कहते हैं कि इतिहास पर नियंत्रण कर ही समाज पर नियंत्रण किया जा
सकता है|
जब हम संस्कृति को दोहरा नहीं सकते, यानि हम प्राचीन संस्कृति को
उसी मूल स्वरुप में इस वर्तमान युग में पुन: स्थापित नहीं कर सकते. तो किसी भी
इतिहास को दोहराने की बात पहले की इतिहास की अवधारणा में सही हो सकता था, लेकिन आज के आधुनिक एवं वैज्ञानिक युग में उसे पुन: दुहराए जाने की बात ही
संगत नहीं मानी जानी चाहिए| इसलिए उपरोक्त शीर्षक वक्तव्य
को आज स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए|
(इसे
आयोग की परीक्षाओं में ‘निबंध’ को ध्यान में रख कर लिखी गयी
है)
आचार्य निरंजन सिन्हा
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