शनिवार, 17 जून 2023

विचार जीवन का आधार है|

(यह निबंध बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा वर्ष 2023 में आयोजित मुख्य परीक्षा से है, लेकिन इस सीरिज में आगे के निबंध इसके अतिरिक्त संघ लोक सेवा आयोग के भी होंगे| यह इस सीरीज का चौथा निबन्ध है|)

‘विचार करना ही मनुष्यता है’, और यही विचार करना ही हमें पशुओं से अलग करता है। हमारे विचार के स्तर से ही हमारे जीवन का भी स्तर निर्धारित होता है। तो हमें ‘विचार’ को समझना चाहिए| विचार क्या है? यह ‘सोच’ पर स्थिरता से ‘सोचना’ है, यानि यह अपनी ‘सोच’ पर फिर से ‘सोच’ करना ही विचार है| अर्थात ‘स्थिर सोच’ ही विचार कहलाता है| एक पशु भी चेतनशील होने के कारण ‘सोच’ सकता है, लेकिन वह अपनी सोच पर भी फिर से सोच करना नहीं जानता है, और इसी कारण वह एक पशु है| यही विचार करना ही एक पशुवत मानव को, जिसे होमो सेपियंस कहते हैं, को मनुष्य यानि होमो सोसिअस (Socious) और सृजनशील मानव यानि होमो फेबर (Faber) बनाया|

लेकिन क्या यही विचार जीवन का आधार है? यदि हम होमो सेपियंस यानि पशुवत मानव की बात करे, तो विचार जीवन का आधार नहीं है| ऐसा इसलिए क्योंकि वैसे जीव भी अपना जीवन जी ले रहे हैं, जो विचार नहीं करते हैं या नहीं कर सकते हैं| लेकिन जब बात एक मानव की हो रही है, तो यह स्पष्ट है कि ‘विचार’ ही जीवन का मूल आधार है| यही विचार मानव जीवन में संस्कार एवं संस्कृति के स्वरुप में आता है|

विचार जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है, और इसीलिए बुद्ध कहते हैं कि

‘हम वही बन जाते हैं, जो विचार हम उत्पन्न करते हैं,

उन्ही विचारों के अनुरूप हम अपनी दुनिया बना लेते हैं’|

और बोद्ध साहित्य में कहा गया है कि ‘मानव जीवन बैल गाडी की तरह उसी तरह चलता है, जैसे मन रूपी बैल आगे आगे चलता है’| हम जानते हैं कि विचार का उत्पादन केंद्र उसका ‘मन’ हो होता है| इसीलिए मन पर ध्यान देना, मन का अवलोकन करना. मन को स्थिर करना और मन का संकेन्द्रण करना ही जीवन की सफलता है| दरअसल यह अपने विचारों का अवलोकन है, उसका संकेन्द्रण है, और उसकी गहराइयों में उतरना है|

किसी का आधार वह पृष्ठभूमि होता है, या वह नीव होता है, जिस पर वह टिका हुआ होता है| यदि वह भवन है, तो यह आधार उसका नीव होगा, और यदि यह जीवन है, तो यही से उसका भोजन पानी एवं सब कुछ प्राप्त होता रहता है, यानि उसका परितंत्र उसी आधार पर अवस्थित होता है| इस तरह कोई आधार ही उसके कार्यात्मक जीवन को संपोषित करता है और उसके अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराता है|

यदि हम मानव जीवन के शुरू से अब तक के इतिहास का विश्लेषण करेंगे, तो मानव जीवन की सम्पूर्ण यात्रा का सूत्र मानव के विचारों में ही सिमट जाता है| मानव विज्ञानी बताते हैं कि यही विचार की शक्ति थी, जिसके बदौलत एक होमो सेपियंस ने अपने समकालीन शारीरिक रूप से अधिक शक्तिशाली होमो इरेक्टस और नियंडरथल को पराजित किया और उसको मिटा भी दिया| कोई पचास हजार साल पहले मानव को ‘संज्ञानात्मक समझ’ (Cognitive Understanding) आई| किसी चीज को देखना, समझाना और निष्कर्ष निकलना ही संज्ञानात्मक समझ है| यह सब विचारों की प्रक्रिया से ही संभव हुआ| इस तरह विचार ही मानव जीवन का वह ‘मोड़’ है, जिसने मानव प्रगति की शुरुआत किया|

इसी विचारों के क्रमबद्ध प्रक्रम ने मानव के अर्थव्यवस्था में प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक प्रक्षेत्र के बाद चौथे एवं पाँचवें प्रक्षेत्र के स्तर पर पहुँच गया है| आज ज्ञान एवं नीतियों का निर्धारण प्रक्षेत्र सिर्फ शुद्ध विचारों की  कलाकारी ही है| इसी विचारो की शक्ति को Soft Power कहते हैं|

इसीलिए कहा गया है कि हमें इस मामले में सदैव सचेत रहना चाहिए कि कोई नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक विचार हमारे मन में कभी नहीं आए| हमें सचेतन होकर सिर्फ सकारात्मक एवं सृजनात्मक विचार ही मन में जाने देना चाहिए| मन तो विचारों का निरपेक्ष उत्पादन केंद्र है, अर्थात जैसा भी विचार मन में जायगा, वैसा ही विचारों का वह उत्पादन करता है| और यह विचार उनकी कल्पनाओं में आता है| इसीलिए महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा है कि कल्पनाशीलता ही सृजन का आधार है| यही सत्य को उद्घाटित करने का उपक्रम है| यही कल्पना विचारों को उत्पन्न करता है|

आजकल भौतिकी का क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत कहता है कि हम जिस चीज का अवलोकन करना चाहते हैं और यदि उसके प्रकटीकरण की संभावना है, तो वही वास्तविकता में बदल जाती है| इसे सूक्ष्म कणों के सन्दर्भ में सही पाया गया है| भौतिकी का अवलोकनकर्ता का सिद्धांत यही है| जब हम किसी सोच पर स्थिर हो जाते है, अर्थात अपने विचार को स्थायी एवं स्थिर कर देते हैं, और उसके प्रकटीकरण के लिए आवश्यक माहौल बना लेते हैं, तो हम कल्पनाओं को अतिरिक्त ऊर्जा का सम्प्रेषण करने लगते हैं, और वह भौतिकता में बदलने लगता है|

इसीलिए कहा गया है कि जो हम सोचते हैं यानि स्थिरता से विचार करते हैं और उस पर विश्वास करते हैं, वह भौतिकता में हमारे जीवन में उपलब्ध हो जाता है| अब यह वैज्ञानिक सिद्धांत हो गया है| इस तरह स्पष्ट है कि विचार ही जीवन का आधार है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी 

उत्कृष्ट कला हमारे अनुभव को प्रकाशित करती है या सत्य को उद्घाटित करती है|

(यह निबंध बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा वर्ष 2023 में आयोजित मुख्य परीक्षा से है, लेकिन इस सीरिज के आगे के निबंध इसके अतिरिक्त संघ लोक सेवा आयोग के भी होंगे| यह इस सीरीज का तीसरा निबन्ध है|)

अक्सर लोग एक उत्कृष्ट कला को सत्यता का पर्याय मान लेते हैं। एक कला की अभिव्यक्ति कलाकार का अनुभव भी होता है। लेकिन उपरोक्त के किसी भी अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले उत्कृष्टता, कला, अनुभव एवं सत्य को समझना चाहिए| इसके लिए इन सबका एक सम्यक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करना होगा| कला किसी व्यक्ति के ‘विचारों’ एवं ‘भावनाओं’ की ‘अनुभव जन्य’ ‘सुन्दर’ एवं ‘बाह्य अभिव्यक्ति’ है| अर्थात किसी भी व्यक्ति के विचारों एवं भावनाओं की ऐसी ‘सुन्दर’ अभिव्यक्ति है, जिसे दूसरा कोई भी अपने ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव कर सके| ‘सुन्दर’ का अर्थ आनन्दित यानि आह्लादित करने वाला है| यह रेखा, रंग, मूर्ति, ताल, शब्द आदि के सहयोग से अभिव्यक्त होता है, तथा रेखाचित्र, मूर्तिकला, नृत्य, संगीत, कविता एवं साहित्य आदि के विविध रूप में समाज में प्रस्तुत होता है|

इस तरह यह एक ऐसा मानवीय कौशल है, जो मनुष्य को आनन्दित कर सके| प्लेटो ने तो यह भी कह दिया कि ‘कला सत्य की अनुकृति है’| अत: कला एक क्रिया है, एक तकनीक है, एक कौशल है, एक अनुकृति है, एक कल्पना है, एक अभिव्यक्ति है, एक सौन्दर्य है, एक सृजन है, शिक्षण का बोधगम्य माध्यम है, ज्ञान का सम्प्रेषण है और उस कलाकार के व्यक्तित्व का परिचायक भी है| लेकिन यह ‘उत्कृष्ट कला’ अनुभव को प्रकाशित करती है, या सत्य को उद्घाटित करती है? यह जानने एवं समझने के लिए हमें उत्कृष्टता, अनुभव एवं सत्य को भी समझना चाहिए|

प्रत्यक्ष ज्ञान ही अनुभव है, चाहे यह शारीरिक स्तर पर प्राप्त किया गया है, या मानसिक या आध्यात्मिक स्तर पर| यह प्रत्यक्षण यानि ‘Perceive करना’ यानि किसी चीज को कैसे समझते हैं, इस पर निर्भर करता है| शारीरिक स्तर पर अनुभव हम अपने पाँचों परंपरागत ज्ञानेन्द्रियों के उपयोग से प्राप्त करते हैं, लेकिन मानसिक एवं आध्यात्मिक स्तर का अनुभव हम अपने मन से करते हैं, यानि हम अपनी कल्पनाओं से करते हैं| आधुनिक युग में महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन और स्टीफन हाकिन्स ने जो भो अनुभव प्राप्त किया, वह मानसिक एवं आध्यात्मिक अनुभव ही था, जो उन्होंने अपनी कल्पनाओं में ज्ञात किया|

किसी की उत्कृष्टता उसकी स्पष्टता, गहनता, गहराई को समेटे हुए मानवीय मूल्यों के अनुरूप होता है| चूँकि उत्कृष्टता के स्तर को समाज ही स्थान देता है, यानि यह समाज की समझ के सापेक्ष स्तर का होता है| अर्थात यह उस समाज के मूल्य, आदर्श, अभिवृति, संस्कार एवं संस्कृति आदि के समझ एवं स्तर के अनुसार ही कोई चीज ‘उत्कृष्टता’ का स्थान पा सकता है|  सिद्धांतत: ‘सत्य’ उसे कहते हैं, जो स्थान एवं समय के सापेक्ष स्थिर हो, यानि निरपेक्ष हो| अर्थात सत्य एक ही होता है और वह अटल होता है||

लेकिन जब ‘सत्य’ का विश्लेषण करते हैं, तो हम पाते हैं ‘सत्य’ एक नहीं होता है, बल्कि एक समय एवं स्थान में भी अनेक सत्य होता है| यह निरपेक्ष भी नहीं होता है| वैसे अब विज्ञान के अनुसार स्थान यानि आकाश (Space) एवं समय में भी विरूपण (Distortion) आता रहता है, यानि इसकी आकृति में बदलाव आता रहता है, इसलिए ब्रह्माण्ड को भी अटल नहीं माना जाता| अर्थात एक ही सत्य ब्रह्माण्ड में सापेक्षिक है, निरपेक्ष नहीं है| एक ही सत्य अवलोकनकर्ता के अनुसार बदलता रहता है, इसलिए एक ही तथ्य के लिए अनेक सत्य होते हैं| कहा गया है कि किसी सुनी गयी बात का अर्थ सुनने वाले के समझ के अनुसार होता है, एवं देखी गयी कोई वस्तु का सत्य उसके नजरिया से निश्चित होता है| इसलिए कोई भी एक निश्चित सत्य नहीं है|

इसके बाद भी, कोई भी व्यक्ति अपनी संस्कृति, समझ, ज्ञान के स्तर, पृष्ठभूमि और सन्दर्भ में अपने अनुभव प्राप्त करता है| किसी का यह अनुभव किसी सत्य के कितना निकट है, यह सब उसके नियामक कारको पर निर्भर करता है| एक कलाकार अपने किसी भी कलात्मक अभिव्यक्ति में पूर्णतया ईमानदार होता है| अत: किसी भी कलाकार के कलात्मक अभिव्यक्ति में उसकी सत्यनिष्ठा पर शंका नहीं किया जा सकता है| एक उत्कृष्ट कलाकार अपनी अभिव्यक्ति में अपना सब कुछ समर्पित कर अपना उत्कृष्ट प्रदर्शन करना चाहता है| इसके उत्कृष्टता के स्तर में जो भी कमियाँ है, यदि है भी, तो वह उस कलाकार के पृष्ठभूमि एवं संस्कृति की कमी होगी या यह आलोचना करने वाले के स्तर या संस्कृति के कारण होगी|

चूँकि किसी कलाकार का सत्य भी उसके अनुभाव से निश्चित एवं निर्धारित होता है, और सत्य भी सापेक्षिक होता है, इसलिए यह स्पष्ट है कि कथन ‘उत्कृष्ट कला हमारे अनुभव को प्रकाशित करती है या सत्य को उद्घाटित करती है’, में कोई एक पूर्ण सत्य प्रतीत नहीं होता है| अत: हम कह सकते है कि एक "उत्कृष्ट कला हमारे अनुभव को भी प्रकाशित करती है और सत्य को भी उद्घाटित करती है"|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

 

गुरुवार, 15 जून 2023

मूस मोटइहें , लोढा होइहें , ना हाथी , ना घोड़ा होइहें |

मूस मोटइहें , लोढा होइहें , 

ना हाथी , ना घोड़ा होइहें |

(यह निबंध बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा वर्ष 2023 में आयोजित मुख्य परीक्षा से है, लेकिन इस सीरिज के आगे के निबंध इसके अतिरिक्त संघ लोक सेवा आयोग के होंगे|)

यह बिहार की ग्रामीण संस्कृति में प्रचलित एक प्रमुख लोकोक्ति है| इस लोकोक्ति का हिंदी भावार्थ यह है कि एक मूस , जो चूहा की एक प्रजाति है, कितना भो मोटा हो जाए, वह लोढा की तरह ही गोल मटोल हो सकता है, परन्तु वह हाथी एवं घोड़े जैसे पशुओं की तरह बड़ा, महत्वपूर्ण एवं सम्मानित नहीं हो सकता| इसका अर्थ काफी साधारण भी हो सकता हैं, और इसका अर्थ काफी गंभीर एवं प्रेरणादायक भी हो सकता है| यह किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के स्तर एवं गहराई को रेखांकित करता है|

हम समाज के वैसे लोगों की तुलना एक मूस से कर सकते हैं, जो सिर्फ एक मूस की तरह ही अपने धन को संग्रहीत करने की ही प्रवृति रखते हैं और समाज की उपेक्षा करते हैं| इस लोकोक्ति के अनुसार ऐसे लोगों को कोई ‘मुसहर’  की तरह आता है, और इनके द्वारा सारा संग्रहीत धन को भी लुट ले जाता है और उसको मार भी देता है| एक मूस की प्रवृति सिर्फ अपने भोजन संग्रहण तक सीमित होती है, और उसके अतिरिक्त उसकी कोई और उपयोगिता नहीं होता है| ऐसे ही जो मानव अपने सोच यानि मानसिकता में सिर्फ अपने ‘उपभोग’ का ही ध्यान रखता है और अपने सोच में समस्त समाज एवं मानवता को शामिल नहीं करता है, वह कितना भी बड़ा हो जाय, तो भी वह महत्वपूर्ण एवं सम्मानीय नहीं हो सकता है| वह मात्र एक सिलबट्टे का ‘लोढा’ ही जैसा तुच्छ एवं महत्वहीन ही रहेगा|

कोई भी व्यक्ति तभी महान एवं आदरणीय होता है, जब वह समस्त समाज, राष्ट्र एवं मानवता के लिए उपयोगी होता है| एक पशु और एक मानव में सिर्फ संस्कार का अंतर होता है| एक पशु अपने बच्चे पैदा करता है, उसे पालता पोसता है और फिर उसे ही देखते हुए अपना सारा जीवन समाप्त कर लेता है| यदि कोई मानव प्रजाति में जन्म लिया एक व्यक्ति भी एक पशु की तरह ही सिर्फ बच्चे को जन्म देता हो, उसे पालता पोसता हो और फिर उसे ही देखते हुए अपना जीवन समाप्त कर लेता हो, तो वह एक पशु से कतई भिन्न नहीं होता है| तो कोई व्यक्ति महान एवं आदरणीय कब हो जाता है? जब कोई व्यक्ति अपने सोच एवं मानसिकता में अपने समाज, राष्ट्र, मानवता, और प्रकृति को भी समा लेता है, यानि शामिल कर लेता है, तो वह भी महान एवं आदरणीय हो जाता है|

तो हमें इस महत्वपूर्ण लोकोक्ति का विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करने से पहले ‘मूस’ का सटीक अर्थ जानना चाहिए और ‘लोढ़ा’ का सही तात्पर्य समझना चाहिए| इसके साथ ही हमें हाथी एवं घोड़े जैसे पशुओ के उदाहरण दिए जाने के पीछे इन पशुओं के इन विशिष्ट प्रकृति, गुण एवं उपयोगिता को भी देखना होगा| मूस खेतों में रहता है और चूहा घरों में रहता है| मूस को अंग्रेजी में ‘Rat’ कहते हैं, और घरों में यानि House में पाए जाने वाले को अंग्रेजी में ‘Mouse’ कहते हैं| दरअसल दोनों में जैविक भिन्नता के साथ साथ इनकी प्रकृति, गुण एवं आदत भी भिन्न रहता है|

इन मूसो को पकड़ने वाले समुदाय को ‘मुसहर’ (मूस को हरने वाला) कहते हैं| ये समुदाय बिहार में एक जाति के रूप में स्थापित हैं, जो अनुसूचित जाति के सदस्य होते हैं| अनाज यानि गेहूँ, धान, मडुआ आदि फसल के खेतो में ही मूस पाए जाते हैं| ये मूस फसल पकने पर इस फसलों की बालियों को अपने बिलों में संग्रहीत कर लेते हैं| इन संग्रहीत अनाजों को पाने के लिए मूसहर समुदाय के सदस्य इन बिलों को खोदकर इन मुसो को पकड़ते एवं खाते हैं और उन अनाजों को भी निकाल लेते हैं|

‘लोढा’ ग्रामीण घरों में सिलबट्टे पर पिसने वाला एक बेलनाकार पत्थर का ही एक भाग होता है| ग्रामीण क्षेत्रों में एक मूस के अत्यधिक मोटे हो जाने पर प्राप्त आकार एवं आकृति की तुलना उसी लोढ़े से करते हैं, क्योंकि ऐसे मूस के आकार एवं आकृति उसी अनुरूप हो जाती है| हाथी एक विशालकाय, शक्तिशाली, प्रभावशाली एवं उपयोगी पशु है| इसी तरह एक घोड़ा भी मूस की तुलना में बहुत बड़ा, फुर्तीला, एवं उपयोगी होता है| यह दोनों भी एक मूस की तरह ही शाकाहारी भी होता है| हाथी एवं घोड़े का सामरिक महत्व भी होता है और इसलिए उच्चतर समाज में महत्वपूर्ण भी होता हैं|

इसलिए किसी व्यक्ति को एक ‘मूस’ की प्रकृति, प्रवृति एवं अभिवृति नहीं रखनी चाहिए| किसी को अपनी सोच एवं मानसिकता में सम्पूर्ण समाज, राष्ट्र, मानवता एवं प्रकृति को भी समाहित कर लेना चाहिए, अन्यथा वह एक ‘मूस’ की तरह ‘अत्यधिक धन की प्रवृति’ से लोढा हो सकता है, लेकिन वह एक हाथी या घोड़ा की तरह सम्मान एवं महत्व नहीं पा सकता है| यह आज भी मानवीय जीवन मूल्यों की महत्ता को गहराई से रेखांकित करता है|

आचार्य निरंजन सिन्हा 

बुधवार, 14 जून 2023

हम इतिहास निर्माता नहीं हैं, बल्कि हम इतिहास द्वारा निर्मित है|

लोग अक्सर सोचते और मानते हैं कि हम लोग ही इतिहास का निर्माण करते हैं, यानि हम ही इतिहास बनाते हैं, यानि हम जैसा सामाजिक सांस्कृतिक संरचना बनाना चाहते हैं, वैसा ही बनाते हैं। लेकिन हम इतिहास निर्माता नहीं हैं, बल्कि हम इतिहास द्वारा निर्मित हैं| इस गंभीर कथन के विश्लेषण एवं निष्कर्ष के लिए हमें सबसे पहले 'इतिहास' को परिभाषित करना चाहिए| इससे ही हम इतिहास की अवधारणा का सम्यक विशेषण कर सकेंगे और उनके सन्दर्भ में आलोचनात्मक समीक्षा भी कर सकते हैं| इसी विधि से हम इस कथन की सत्यता की जांच कर सकते हैं और सत्य के करीब पहुंच सकते हैं

'इतिहास' क्या है? पारंपरिक रूप में, यानि घिसे पिटे स्वरूप में इतिहास ऐतिहासिक स्मारकों का अनोखा भंडार है|लेकिन जब इसकी व्यापक परिभाषा होती है, तो इसकी गहराई एवं व्यापकता समझ में आती है| सामाजिक एवं सांस्कृतिक रुपांतरण का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित ब्यौरा ही इतिहास है| इस प्रकार, इतिहास में समाज एवं उसकी संस्कृति का स्थिर और स्थायी परिवर्तन का विवरण है, जो हमारी बुद्धि एवं विवेक को भी बढाती हो|

इसे सभ्यता एवं संस्कृति की उद्विकासीय कहानी भी कह सकते हैं। यदि सभ्यता सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र, अर्थात व्यवस्था तंत्र का 'हार्डवेयर' है, तो संस्कृति वह सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र का 'सॉफ्टवेयर' है| अर्थात् सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र का दृश्य भौतिक स्वरुप एवं स्मारक 'सभ्यता' है, और सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र का अदृश्य विचार, मूल्य, प्रतिमान, अभिवृत्ति, संस्कार, परंपरा, रीति रिवाज आदि ही 'संस्कृति' है| अर्थात संस्कृति एक विचार है| सभ्यता का तो उद्भव एवं पतन होता रहता है, लेकिन संस्कृति में निरंतरता होती है, उसके स्वरूप में बदलाव हो सकता है| यानि संस्कृति बदल सकती है, विरूपित हो सकती है, लेकिन संस्कृति हमेशा अपनी स्वाभाविक प्रकृति के अनुकूल बदलती रहती है|

इसी तरह, संस्कृति हमारे समाज का अंतर्निहित मानसिक निधि होती है| यह समाज के आलौकिक काल का अनुभव, संस्कार, मूल्य, परंपरा एवं प्रतिमान का समेकन होता है| यह सब हम अपने समाज से ही सिखते हैं, जो हमें संस्कृति के रूप में सिखाती है| हम कहते हैं कि हम संस्कृति के रूप में अपने विचार, मूल्य, प्रतिमान, अभिवृत्ति, संस्कार, परंपरा, रीति रिवाज आदि निश्चित करते हैं, सीखते हैं और उसका संचालन करते हैं| 

इस प्रकार हमारी संस्कृति ही हमें एक पशुवत मानव से एक संस्कारित मनुष्य बनाती है, जो हमारी संस्कृति की पहचान भी है| हमारी पहचान आज एक प्रतिष्ठित मानव, एक संस्कारित मानव, एवं एक सभ्य सामाजिक मानव के रूप में है, यानि आज जो कुछ भी हैं, हम अपनी संस्कृति के कारण हैं| यह संस्कृति किसी को भी सामाजिक विरासत के रूप में मिलती है, अर्थात सांस्कृतिक समाज के सदस्यों के होने का कारण ही है| इस संस्कृति के अभाव में ही कोई होमो सेपियन्स "मोगली' बन जाता है और कोई अरस्तु बन जाता है|

सामाजिक तंत्र को संचालित, नियंत्रित, नियमित एवं प्रभावित करने वाली 'साफ्टवेयर' के रूप में महत्वपूर्ण संस्कृति हमारी 'इतिहास बोध' से निर्मित है| यह इतिहास बोध हमारी अपने इतिहास के प्रति समझ है, जिसे हम स्वीकार करते हैं| संस्कृति अदृश्य रह कर अचेतन स्तर पर मानव समाज को संचालित करता रहता है। वैसे किसी भी यथास्थितिवादी व्यवस्था या तंत्र या शासन इसी संस्कृति को अपनी मानसिकता के अनुरूप बनाए रखना चाहता है या उसे बदलने के लिए इतिहास को ही बदलना है| इसीलिए प्रसिद्ध लेखक जार्ज ऑरवेल ने कहा था कि, "जो इतिहास पर नियंत्रण रखता है, वह वर्तमान और भविष्य को भी नियंत्रित करता है"| इस प्रकार इतिहास संस्कृति के रूप में हमारा ही निर्माण होता है। 

लेकिन एक व्यक्ति की भूमिका भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण में होती है, अर्थात एक व्यक्ति की भूमिका भी इतिहास की धारा को प्रभावित करती है| हमें किसी व्यक्ति के 'टिटली इफेक्ट' यानी "बटर फ्लाई इफेक्ट्स" को नहीं भूलना चाहिए, जो बदलाव का एक नया दौर शुरू कर देता है| वह एक 'उत्प्रेरक' अर्थात एक उत्प्रेरक की भूमिका भी निभाता है| बुद्ध, मार्क्स, अल्बर्ट आइंस्टीन, सिगमंड फ्रायड, आदि कई नाम हैं, इतिहास की धारा प्रभावित है| 

हालाँकि आधुनिक एवं वैज्ञानिक इतिहासकारों का मानना ​​है कि इतिहास का वास्तविक निर्माण आर्थिक शक्तियाँ ही करती हैं, अर्थात् ऐतिहासिक शक्तियाँ ही करती हैं, और इनमे व्यक्तिगत विशेष का कोई विशेष महत्व नहीं होता है| ऐतिहासिक शक्तियों में उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोक्ता के साधन एवं शक्तियों के अंतर्संबंध शामिल हैं| इस प्रकार स्पष्ट है कि एक इतिहास के निर्माण में एक व्यक्ति के रूप में हमारी भूमिका नहीं होती है, और इसीलिए अब इतिहास के किताबों में से व्यक्ति विशेष का नाम हटता जा रहा है|

अत: हम स्वीकार कर सकते हैं कि हम इतिहास निर्माता नहीं हैं, बल्कि हम इतिहास द्वारा निर्मित हैं| इसीलिए हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि यही सत्यता के करीब  है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

(यह निबंध बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा वर्ष 2023 में आयोजित मुख्य परीक्षा में निबंध पत्र का निबंध है, जिसमें 100 अंक निधारित है।) 

 

 

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