प्रसंग यह था
कि मैं एक वेबिनार में मुख्य वक्ता था| उसमे मैं यह बता रहा था कि मैं आजतक जो भी
किताबें लिखा हूँ, वह सभी किसी भी अन्य किताबों के सहयोग के बिना ही लिखा हूँ|
लेकिन मैं अपनी प्रथम किताब – “बुद्ध दर्शन एवं रूपांतरण” में डॉ भीमराव आम्बेडकर
द्वारा रचित किताब – ‘बुद्ध एवं उसका धम्म’ को ही सन्दर्भ ग्रन्थ बनाया था| इसी
वक्तव्य पर एक श्रोता मुझसे यह जानना चाहते थे कि इस किताब – ‘बुद्ध एवं उसका धम्म’
में पुनर्जन्म एवं कुछ ऋषियों के भविष्यवाणियों की भी चर्चा है| तो क्या मैं इन
अवधारणाओं को सत्य एवं सही मानता हूँ? मैंने उन्हें इस सम्बन्ध में जो समझाया, वह
विस्तार से निम्न था|
किताबों में
क्या लिखा होता है? किताबों में बहुत कुछ लिखा होता है, लेकिन एक पाठक उसमे जो कुछ
पढता समझता है, दूसरा उसे ही कुछ अलग अर्थ में लेता है, और अन्य उसे कोई और भिन्न
भिन्न अर्थ देता हुआ पढता एवं समझता है| प्रसिद्ध फ्रेंच दार्शनिक ज़ाक देरिदा भी
कहते हैं कि किताबों में शब्द लेखक का अपना होता हैं, अर्थात लेखक की समझ के
अनुसार होता है, लेकिन उन शब्दों के अर्थ पाठकों के समझ एवं पृष्ठभूमि के अनुसार भिन्न
होते हैं| अर्थात किताबों के एक ही शब्द के अर्थ अलग अलग पाठकों के अनुसार बदल
जाता है| तो ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि एक ही “तथ्य” (Facts)
के कई “सत्य” (Truths) होते हैं, जो उस पाठक के बदलते हुए दृष्टिकोणों, सन्दर्भों
एवं पृष्ठभूमियों के साथ ही उसका अर्थ बदलता रहता है| क्या आपने यह ध्यान दिया है
कि एक वस्तु पर विभिन्न कोणों से उस पर प्रकाश डाला जाता है, तो उसकी छाया अलग अलग
आकार (Size) एवं आकृति (Shape) की बनाती है? अर्थात एक ही तथ्य (वस्तु) के अनेक
सत्य होते हैं| फ्रांसीसी दार्शनिक ज़ाक देरिदा के इस अवधारणा को “विखंडनवाद” (Theory of Deconstruction)
कहते हैं| मतलब एक ही तथ्य, या शब्द, या वाक्य का एक ही सत्य नहीं होता है, उसका वास्तविक
सच्चा अर्थ भी बदलता रहता है| अब आप किसी किताब में अपनी चेतना के स्तर के अनुसार क्या
समझ पा रहे हैं, आप ही जानते हैं|
इसके आलावा
एक किताब में बहुत कुछ लिखा होता है, और कोई भी उनमे से किसी ख़ास अंश पर ज्यादा
ध्यान देता है, और अन्य कोई किसी दूसरे अंश पर ज्यादा ध्यान देता है| ये अंश या
अर्थ पाठकों के चेतना के स्तर के अनुसार भिन्न भिन्न हो जाता है| प्रसिद्ध अमेरिकी
राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूज़वेल्ट की पत्नी एल्योनॉर रूज़वेल्ट लोगों के चेतना के स्तर एवं समझ के
सम्बन्ध में कहती है – निम्नतर सोच के लोग व्यक्तियों (Individuals) का विवरण (Description)
ज्यादा देते लेते हैं, मध्यम स्तरीय सोच के लोग घटनाओं (Incidence) का ब्यौरा (Details)
ज्यादा देते लेते हैं, और उच्च स्तरीय सोच के लोग विचार एवं आदर्श (Ideas) पर
विमर्श (Discuss) ज्यादा करते हैं| इन तीनों – ‘Individuals’ , ‘Incidence’ , एवं ‘Ideas’
को 3 I ‘s भी कहते हैं| कहने का तात्पर्य यह है कि एक ही किताब को लोग अपनी समझ
यानि अपनी चेतना के स्तर से समझते हैं, और उन किताबों से ग्रहण करते हैं| मतलब
किताब एक ही होता है, लेकिन उन किताबों से लोग अपनी अपनी चेतना, यानि अपनी अपनी
समझ के अनुसार ही सीखते समझते हैं| मैंने उस श्रोता को बताया कि मैंने डॉ आम्बेडकर
की उस किताब से ‘विचार’ एवं ‘आदर्श’ को समझा, अपनाया, और उसे मैंने अपनी उस किताब
में समुचित स्थान दिया| आपने उस किताब से क्या ग्रहण किया, वह आप ही जाने? लेकिन डॉ
आम्बेडकर ने तो अपनी किताब में अपने सभी श्रेणी यानि स्तर के पाठको को ध्यान में
रख कर उस किताब को लिखा और चेतना के तीनों स्तर के पाठकों के लिए एक साथ एक ही
किताब में समुचित स्थान दिया, ताकि पाठक उसे अपनी अपनी रूचि के अनुसार समझें एवं
ग्रहण करें|
यदि हम
किताबों के प्रयुक्त शब्दों, या वाक्यों, या वाक्य समूहों का सही एवं सान्दर्भिक अर्थ
जानना एवं समझना चाहते हैं, तो प्रसिद्ध दार्शनिक सौसुरे की चर्चा के बिना यह
प्रसंग अधूरा रह जायगा| प्रसिद्ध स्विट्ज़रलैंड निवासी भाषा वैज्ञानिक फर्डीनांड दी
सौसुरे का “संरचनावाद” (Theory of Structure) यही समझाता है| इसके अनुसार किताबों के
प्रयुक्त शब्दों, या वाक्यों, या वाक्य समूहों का सही एवं सान्दर्भिक अर्थ उसकी
संरचना में निहित होता है| अर्थात किताबों के प्रयुक्त शब्दों, या वाक्यों, या
वाक्य समूहों का सही एवं सान्दर्भिक अर्थ सतही (Superficial) भी होते हैं, और एक
ही साथ उसके निहित (Implied) अर्थ भी होते हैं, जो उसके सतही अर्थ से भिन्न होता
है| इसका अर्थ यह हुआ कि किताबों में प्रयुक्त शब्दों, या वाक्यों, या वाक्य
समूहों का सही एवं सान्दर्भिक अर्थ उसकी बाह्य संरचना या ढाँचा, यानि उसके सन्दर्भ,
पृष्ठभूमि, दृष्टिकोण, आदि पर भी निर्भर करता है, और उसकी आंतरिक संरचना पर भी निर्भर
करता है| एक पाठक को किसी भी शब्द या वाक्य का अर्थ निष्पक्ष भाव से देखना आना
चाहिए|
किताब हम
क्यों पढ़ते हैं? हम किताबें इसलिए पढ़ते हैं, ताकि हम “और बुद्धिमान” (More Intelligent)
बन सके| ‘बुद्धिमान’ उसे कहते हैं, जो बदलते हुए परिस्थिति एवं पारिस्थितिकी के
अनुकूल होकर उस माहौल में उसे नेतृत्व भी दे सके, यानि ‘आगे’ रह सके| ध्यान रहें
कि कोई भी परिस्थिति एवं पारिस्थितिकी समय के सापेक्ष कभी भी ‘नित्य’ यानि स्थिर
कभी नहीं रहता है, अपितु सदैव बदलता रहता है, और इसे ही बुद्ध का “अनित्यवाद” कहते
हैं| हमें इस बदलते परिवेश के अनुरूप ही ‘अनुकूलन’ (Adaptation) करना होता है| हम
किताबे इसलिए भी पढ़ते हैं ताकि हम ‘प्रज्ञावान’ (Wise man) बन सके, जिससे हम
मानवता को सँवार सकें, प्रकृति को सक्रिय एवं जीवंत रख सके, और मानव प्रजाति के भविष्य
को सुरक्षित एवं संरक्षित रख सकें| यही तीनों तत्व ‘UNDP’ (संयुक्त राष्ट्र विकास
कार्यक्रम) के सभी ‘धारणीय लक्ष्यों’ (Sustainable Goals) में समाहित है| इसलिए
किताबें हमें सिर्फ ‘साक्षर’ (Literate) या ‘शिक्षित’ (Educated, यानि डिग्रीधारी)
ही नहीं बनाती है, बल्कि हमें प्रज्ञावान भी बनाती है| हम जिस क्षेत्र, यानि जिस
विषय का ज्ञाता बनना चाहते हैं, उसी विषय से सम्बन्धित किताबें पढ़ते हैं|
अब आप समझ गए
होंगे कि किताबों में क्या क्या लिखा हुआ होता है?
आचार्य प्रवर
निरंजन जी
अध्यक्ष,
भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|
बेहतरीन संदेश आप ने दिया है सर। विद्यालय के वर्ग में किताबें सभी विद्यार्थियों के लिए एक ही होता है, परन्तु अलग अलग नंबर लाकर विभिन्न रेंक पाते हैं।
जवाब देंहटाएंपर लक्ष्य तो बच्चों को प्रज्ञावान बनाना ही है।।
आप को बहुत बहुत धन्यवाद।