हम किसी व्यक्ति, घटना, विचार, भवना, एवं व्यवहार के प्रति कुछ निश्चित धारणाएँ
(Perceptions) रखते हैं, या बना लेते हैं, या व्यवस्था या परिस्थितियों
द्वारा बना दिए जाते हैं, और उन्हीं धारणाओं के अनुरूप ही हम अपने विचार, भावनाएँ
एवं व्यवहार करते हैं| इस तरह स्पष्ट है कि ‘धारणाएँ’ ही वास्तव में वह ‘साफ्टवेयर’ है, जो अदृश्य रह कर ही सामाजिक
सांस्कृतिक एवं अन्य परिदृश्यों के प्रति अनुक्रिया करती है, या कराती है, या
प्रतिक्रिया देने को बाध्य भी कर देती है| अर्थात ‘धारणाएँ’ ही समाज के प्रत्येक
गतिविधियों को नियमित, निर्धारित, निर्देशित, नियंत्रित एवं संचालित करती है| यह
इतना महत्वपूर्ण है कि हमें यह जानना चाहिए कि ये ‘धारणाएँ’ क्यों, कैसे एवं कहाँ से
पैदा होती है?
आधुनिक
वर्तमान तेज- रफ्तार युग में सचेतनता का,
यानि सक्रिय एवं सतर्क चेतनता का ह्रास हुआ है, यानि इसकी गति मंद पड़ गयी है। वर्तमान भारत में इसकी मंद
गति की स्थिति थोड़ी ज्यादा स्पष्ट है,
यानि हमारी सक्रिय एवं सतर्क चेतनता की प्रक्रिया में ज्यादा ही ह्रास हुआ है।
अपने जीवन और अपने पारिस्थितिकी एवं परिस्थितियों के प्रति हमारी धारणाएँ कुछ
निश्चित प्रतिरुप में ढलती रहती है,
बनती रहती है और बदलती भी रहती है। लेकिन प्रश्न यह है कि यह सब क्यों, कैसे होती है और कहाँ
से आती है? इन्हीं
धारणाओं को पैदा करने या बनाने वाली पारिस्थितिकी एवं परिस्थितियों को नोबल
पुरस्कार (व्यवहारिक अर्थशास्त्र के लिए) विजेता प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक रिचर्ड
एच थेलर “NUDGE” कहते हैं, जिसे हिंदी में किसी काम या व्यवहार को करने के लिए
“उकसाना” कहते हैं| इनकी पुस्तक का नाम भी यही – “Nudge: Improving Decisions
About Health, Wealth, and Happiness” हैं|
इसके ही साथ
यह भी प्रश्न उठता है कि ये धारणाएँ हमें कहाँ ले जा रही है, या ले जाना
चाहती है? अर्थात
हमारी ये धारणाएँ हमें,
हमारे समाज, या
राष्ट्र, या
हमारी संस्कृति, या
सम्पूर्ण मानवता को किस दिशा में ले जा रही है? अब यह प्रश्न भी
उठने लगा कि क्या धन ही जीवन में सब कुछ है,
या बहुत कुछ मात्र ही है?
आज हमलोग सभी भौतिक साधनों की उपलब्धता एवं पर्याप्तता के बावजूद इतने बेचैन
क्यों हैं, इतने परेशान क्यों हैं, और इतने हताश क्यों हैं? ऐसा क्यों हो रहा है?
हमलोगों के जीवन दृष्टिकोण में वह कौन सी कमी रह गयी है, जिसका यह सब परिणाम है? इसे
ठहर कर सोचने की जरुरत है|
यदि हमलोग इस
मौलिक एवं मूलभूत मानवीय प्रकृति को समझने का प्रयास करें कि हमलोग आज एक वानर (Ape)
से एक इतने विकसित अवस्था तक कैसे पहुँच सके हैं, जबकि हमलोग मूलत: एक स्तनपायी
पशु ही हैं| हमलोग आज यहाँ तक पहुँचे हैं,
तो इसका मूल,
मौलिक और मूलभूत कारण मानव वैज्ञानिकों के अनुसार ‘चिंतन’ (Thinking)
की प्रक्रिया पर आधारित “सहयोग (Cooperation) और समरसता (Hormony)” की भावना ही है|
इसी कारण ही आज होमो सेपियंस सेपियंस विश्व
विजेता बन सका है, और
इन्हीं तत्वों के कारण ही हमने पशुओं सहित होमो की अन्य प्रजातियों और होमो
सेपियंस नियंडरथल को पराजित कर दिया| कहने का स्पष्ट तात्पर्य यह है कि हमारे ‘चिंतन’
प्रक्रिया से यह मानवीय “सहयोग (Cooperation) और समरसता (Hormony)” की भावना ही
लुप्त होती जा रही है, और ‘धन कमाने या बढ़ाने’ की भावना ही इस पर हावी या प्रभावी
होती जा रही है| मतलब हमलोग अपने मूल एवं मौलिक स्वाभाविक प्रवृति के विरुद्ध ही
जाते दिख रहे हैं| अब आप स्वयं इन सबो के दुष्परिणाम की कल्पना कर सकते हैं|
वर्तमान समय
में ही नहीं, पहले
भी हम अपने जीवन के प्रति,
समाज के प्रति, विश्व
के प्रति, और
मानवता के प्रति दृष्टिकोण,
विश्वास एवं विचारधारा को बिना किसी परीक्षण के ही उन्हें अपने अचेतन स्तर पर
ही अर्थ निर्धारित कर देते थे, और आज भी करते रहते हैं। साक्षरता, यानि बिना
प्रज्ञा के ही डिग्रियों के धारकों की दर में वृद्धि के बावजूद भी हम “आलोचनात्मक
चिंतन” (Critical Thinking) को नहीं समझते| इसीलिए इन ‘धारणाओं’ को समझने और जाँचने
में इसका अनुप्रयोग (Application),
उपयोग (Use) और
प्रयोग (Experiment) नहीं
करते हैं। इसी कारण हमारे सामने जो भी विचार, भावना, या व्यवहार आदि परोसा जाता है,
या जो भी करने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ‘उकसाया’ (Nudge) जाता है,
हमलोग उसे समझने और जाँचने का प्रयास ही नहीं करते| ऐसे लोगों में तथाकथित
पदधारियों, उपाधिधारियों, एवं धनधारियों की ही संख्या बहुतायत में हैं, और सामान्य
जन तो नादान होते ही हैं| इन पदधारियों, उपाधिधारियों, एवं धनधारियों के बारे में
इसलिए कहा गया, क्योंकि ये लोग ही समाज के ‘प्रकाश स्तम्भ’ (Light House) हैं,
जिनकी ओर सामान्य लोग ‘ताकते’ (Stare at) रहते हैं| दुर्भाग्य से ऐसे लगभग सभी बुद्धिजीवी
अपने विचारों में “जड़” होते हैं, यानि ‘पके’ हुए और ‘थके’ हुए हैं| ये लोग बदलते
हुए वैज्ञानिक परिवेश को ही समझना नहीं चाहते हैं| तब यह सब हमारे चेतना के अदृश्य
स्तर से ही निर्धारित होता है, जिसे ही अचेतन कहा जाता है|
हम कह सकते
हैं कि इन तथाकथित बुद्धिजीवियों में इनकी उपाधियों, यानि डिग्रियों में विविधता और ऊंचाइयों के बावजूद इनके प्रज्ञा
में अपेक्षित विकास एवं संवर्धन का होना अभी बाकी है। आधुनिक युग की वैज्ञानिकता, जागरण (Awareness)
और प्रबोधन (Enlightenment) भी सामान्य लोगों में समता और स्वतंत्रता उपलब्ध कराने
के बावजूद भी इनकी ‘आलोचनात्मक चिंतन’ को और ‘आउट ऑफ बाक्स’ (Out- of- Box) चिंतन
को अपेक्षित मात्रा एवं गुणवत्ता में नहीं बढ़ा सका है, और अपेक्षित
विस्तार भी नहीं कर पाया है। इसी कारण मानवीय मूल एवं मौलिक मूल्यों और गरिमा में ही
ह्रास देखकर मन व्यथित होता है। आप भी थोडा ठहरिए, आप भी व्यथित हो उठेंगे|
किसी भी
विचार की अभिव्यक्ति व्यवहार,
कर्म एवं भावनाओं के रूप में ही व्यक्त किया जाता है, और इसके लिए ही धारणाओं
को नियमित किया जाता है। इसीलिए इन धारणाओं को इस रुप में प्रस्तुत किया जाता है
कि सामान्य लोग अचेतन रुप में तात्कालिक अर्थ ग्रहण कर ले। इस प्रक्रिया में
सामान्य और तथाकथित बुद्धिजीवी (पके एवं थके हुए) लोग भी सामयिक धारणाओं में बह
जाने, या
उड़ जाने से अपने को नहीं रोक पाते है।
इन्ही धारणाओं
को बनाने या
नियमण के लिए ही वैश्विक प्रयास एवं शोध किये जाते रहे हैं, और आज भी किये जा रहे हैं|
इसी विधानों एवं क्रियाविधियों से ही सत्ता भी ग्रहण किया जाता है, सत्ता में बने
रहा भी जाता है, चाहे वह सत्ता किसी देश के अंतर्गत हो, या किसी वैश्विक स्तर की
व्यवस्था से सम्बन्धित हो| आप इन्हें गहराई से एवं पूर्ण व्यापकता से जाँचने एवं
समझने के लिए ‘इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोपेगेंडा एनालिसिस’ (Institute of Propaganda
Analysis) के अध्ययन एवं सभी सातों तकनीकों का भी अवलोकन करसकते हैं| ये आपको आमजन
के मनोविज्ञान को समझने में सहायक है।
अब आप इन ‘धारणाओं’
को बहुत कुछ समझने लगे होंगे|
आचार्य प्रवर
निरंजन जी
अध्यक्ष,
भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|
Highly Excellent Sir . एकदम सही analysis. Keep it up Sir
जवाब देंहटाएंThis is incredibly powerful and eye-opening aspect. It really made me reflect on how unconsciously we form perceptions and how they silently shape not just our actions, but the entire social fabric around us. The connection you’ve drawn between diminished critical thinking and the overwhelming influence of external nudges is striking. It’s true—we often accept ideas without questioning their roots or impact. I especially resonated with your point about how materialism is overshadowing our innate human values like cooperation and harmony. This piece is not just a commentary but It’s a call to awaken our awareness and rethink how we live, think, and influence others.
जवाब देंहटाएं‘Deeply thought provoking and insightful’
That's reality sir
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