शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

समकालीन वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत की महत्ता

 (Importance of India in contemporary global perspective)   

समकालिक वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत की महत्ता का मूल्याङ्कन करना, या भारत की महत्ता को समझना बेहद आसान नहीं है| आज भारत की मीडिया में भारत की वैश्विक महत्ता का बहुत गुणगान किया जा रहा है| भारत की इस महत्ता का दौर कोई तीन दशक पहले से ही गूंज रही है| भारत सरकार की ‘वैश्वीकरण’, ‘निजीकरण’, एवं ‘उदारीकरण’ की नीति अपनाए जाने के साथ ही भारत की अभूतपूर्व महता वैश्विक पटल पर छा गयी है| आज भारत विश्व की सबसे बड़ी आबादी के साथ विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो गयी है| विश्व के आर्थिक एवं राजनीतिक पटल पर भारत की एक महत्वपूर्ण भूमिका स्पष्ट रूप में दिखती रही है|

लेकिन यह महत्ता किस प्रकृति की है? क्या यह कोई स्थायी महत्ता है, या अल्पकालिक? यह मात्र वृद्धि (Growth) का परिणाम है, या यह किसी संरचनात्मक ढाँचा का संस्थागत विकास (Development) की ओर अग्रसर है? यह सब इससे जुड़ी हुई कई प्रश्न हैं, जिसका आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन किया जाना अपेक्षित है| इससे ही भारत की महत्ता का सही परिदृश्य उभर कर सामने आ सकता है|

भारत की आबादी के समकक्ष विश्व में एक ही देश है – चीन, जिसने भारत की आजादी के दो साल बाद आजादी पायी, और आज उसकी अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था से कोई सात गुणी बड़ी है| चीन की अर्थव्यवस्था 1985 के आसपास तक भारत की अर्थव्यवस्था के बराबर थी| भारत की आबादी की आठ प्रतिशत की आबादी वाला जापान और पाँच प्रतिशत की आबादी वाला जर्मनी भी भारतीय अर्थवयवस्था से आगे है, और इतनी ही आबादी वाला ब्रिटेन एवं फ़्रांस भी भारतीय अर्थव्यवस्था के ही आसपास है| किसी भी देश की सबसे प्रमुख शक्ति वहाँ की जनशक्ति होती है, जो उसकी बौद्धिकता एवं कौशल पर निर्भर करती है| अर्थात भारत की सर्वोच्च कोई तीन प्रतिशत आबादी भी जापान, जर्मनी, रूस, ब्रिटेन, एवं फ़्रांस की सामान्य आबादी की गुणवत्ता की नहीं है, यदि शेष 97% भारतीय आबादी के योगदान को भी कुछ मान दिया जाए| स्पष्ट है कि भारतीय जनशक्ति में वैश्विक स्तर पर कोई अपेक्षित गुणात्मक सुधार नहीं हुआ है, जो विकसित देशों या समाजवादी देशों में किया गया है|

कोई भी देश शक्तिशाली तभी होती है, जब वह देश एक सशक्त राष्ट्र के रूप में मजबूत होता है| एक राष्ट्र ऐतिहासिक रूप से एकाकार होने की सशक्त भावना होती है, जबकि भारत में बहुसंख्यक अभी भी धर्म, जाति, भाषा, एवं क्षेत्रीयता के आधार पर ही सामुदायिक भावना रखता है| भारत एक देश से अभी तक एक सशक्त राष्ट्र नहीं बन सका है, और यही भावना भारतीय संविधान की उद्देशिका में भी परिलक्षित है| कोई राष्ट्र सशक्त होकर उसी समय उभर पाता है, जब वह आंतरिक रूप में सशक्त होता है, जब उसकी अर्थव्यवस्था में सभी जन गण की समुचित भागीदारी सुनिश्चित होती है, एवं जब सभी जन गण को गरिमामयी समता (Equality) एवं समानता (Equity) का अवसर मिलता है| इन मामलों में भारत अभी भी निचले पायदान पर संघर्षरत है| ऐसी स्थिति में ऐसा लगता है कि भारत की वैश्विक परिदृश्य में महत्ता कोई दिखावटी ज्यादा है| लेकिन वास्तविक दुनिया में भारत फिर भी एक महत्वपूर्ण देश है, तो प्रश्न यह है कि क्यों?

‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ समझाता है कि आर्थिक साधनों एवं शक्तियों और उनके अंतर्संबंध ही किसी भी राष्ट्र का सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं बौद्धिक रूपांतरण करता है, जो आर्थिक रूपांतरण का ही प्रतिफलन होता है| उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधन एवं शक्तियाँ ही आर्थिक साधन एवं शक्तियाँ होती है| यही शक्तियाँ ही ‘बाजार की शक्तियाँ’ कहलाती है| यही समकालिक शक्तियाँ ही किसी राष्ट्र, समाज, या संस्कृति का वर्तमान एवं भविष्य को निरुपित करती रहती है| यही समकालिक शक्तियाँ ही इतिहास के काल खण्डों में ऐतिहासिक शक्तियाँ कहलाती है, जो किसी समाज एवं राष्ट्र के इतिहास को गढ़ती, रचती एवं नियमित करती रहती है|

भारत की आबादी विश्व की सबसे बड़ी आबादी है, जिसमे सबसे बड़ी मध्यम वर्गीय आबादी भी पलती है| यह आबादी अपने मौलिक स्वरुप में विश्व की सबसे बड़ी उपभोक्ता आबादी है, जो वैश्विक बाजार का सबसे बड़ा हिस्सा है, और इसी कारण यह सभी वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए आकर्षक बनी हुई है| बाजार में ऐसे महत्वपूर्ण भूमिका के कारण ही सभी समझदार देश भारत से मधुर सम्बन्ध बनाये रखना चाहती है और भारत की तथाकथित महत्ता का गुणगान करता रहता है, ताकि उनके उत्पादन के लिए यह बाजार खुला हुआ रहे| भारत की यही  स्थिति इसकी वैश्विक महत्ता का कारण दिखती है|

‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ यह भी समझाता है कि समाज में ‘बौद्धिक एवं मीडिया’ उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं खपत भी आर्थिक शक्तियों एवं साधनों के ही नियंत्रणाधीन होता है, और यही किसी की महत्ता को रेखांकित करती रहती है| आज की वैश्विक आर्थिक शक्तियाँ ही ‘वैश्विक व्यवस्था’ (World Order) को नियमित, नियंत्रित एवं संचालित करने लगी है, और इस तरह आज सभी देशों के शासनाध्यक्ष अपने अपने देशों में इन वैश्विक शक्तियों के प्रबंधक बने हुए लगते हैं| यह सब वैश्विक प्रतिबंधों, समझौतों, संगठनों आदि के रूप व्यक्त होती है और इस तरह लगभग सभी राष्ट्रों की तथाकथित संप्रभुता भी नियमित होने लगी है|

स्पष्ट है कि समकालिक वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत की तथाकथित महत्ता से भारतियों को ज्यादा गौरान्वित होने की आवश्यकता नहीं है, और इसके लिए हमें व्यापक दृष्टिकोण के साथ कई संरचनात्मक बदलाव की शुरुआत किया जाना अपेक्षित है|

(यह निबन्ध 70 वीं बिहार लोक सेवा आयोग की मुख्य सिविल सेवा में दिनांक 25 अप्रैल 2025 को लिखना था)

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

The Mistakes in the Upbringing of Children

Upbringing is the way parents guide and treat their children to help them understand the changing world and eventually lead it. It is the p...