हम किसी भी चीज़ को अपने चेतना से समझते हैं, अर्थात हम किसी भी चीज़ को अपने चेतना के विभिन्न स्तरों के अनुसार कई स्तरों पर, कई तरीकों से, कई प्रकार से, कई नजरियों से समझते हैं। मतलब, समझने के लिए विषय के एक ही होते हुए भी इसके अर्थ हमारी अपनी चेतना के स्तर के अनुसार बदलता रहता है। बच्चों के लिए, अर्थात नादानों के लिए भगवान् का अर्थ दूध, पानी, भोजन, हवा, माता पिता, कुछ भी हो सकता है, लेकिन एक स्तरीय आलोचनात्मक चिंतकों, यानि वैज्ञानिक मानसिकता वालों के लिए भगवान् का अर्थ कुछ भिन्न हो सकता है।
अतः किसी भी चीज़ को समझने के लिए, यानि भगवान् को समझने के लिए, या किसी महान व्यक्तित्व को समझने के लिए हमें अपने चेतना के स्तर के विकास करने की आवश्यकता होती है।
अतः सर्वप्रथम हमें अपने चेतना का, यानि अपनी समझदारी का, यानि अपनी वैज्ञानिक मानसिकता का, यानि अपनी आलोचनात्मक चिंतन के स्तर का विकास करना है। फिर हमें किसी और से यह समझने की आवश्यकता ही नहीं होगी कि भगवान् क्या है? तब हमें सब कुछ स्वत: ही समझ में आने लगेगा।
वैसे आप भगवान् का अर्थ जो भी समझ रहे हैं, बिल्कुल सही समझ रहे हैं, क्योंकि आपकी वर्तमान चेतना को इतनी ही समझ हैं, चेतना का स्तर इतना है। आपके बदलते चेतना के साथ ही उसका अर्थ, उसकी समझ भी बदलता जाएगा।
चूंकि किसी भी शब्द, शब्दों या वाक्य, वाक्यों के एक ही साथ कई कई अर्थ होते हैं, या हो सकतें हैं, इसिलिए इनके संरचनात्मक अन्तर विन्यास या बनाबट के अतिरिक्त इनके संदर्भों, पृष्ठभूमियों, परिस्थितियों और सापेक्षिकता के अनुसार अर्थ बदल जाते हैं। इसी कारण भगवान् कभी ईश्वर हो जाता है, तो कभी 'अपनी इच्छाओं, लोगों, द्वेष, यानि भावनाओं को भग्न करने वाला' हो जाता है, तो कभी अनन्त प्रज्ञा की वैज्ञानिक शक्तियां हो जाता है, तो कभी अपने माता पिता, या अपने पूर्वजों तक सीमित भी हो जाता है। यानि किसी भी शब्द या वाक्य, या इनके समूहों के सतही अर्थ भी होते हैं, निहित अर्थ भी होते हैं, संरचनात्मक अर्थ भी होते हैं, आदि आदि। लेकिन यह सब कुछ हमारी चेतना के स्तर से निश्चित होता है।
चेतना का विकास करना ही जीवन है, मानवता है, भविष्य है।
अतः चेतना का विकास करना है।
आचार्य प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान
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