गुरुवार, 1 मई 2025

आदमी को देवता बना देने से क्या होता है?

आपने भी अपने अपने समाज, या अपनी संस्कृति, या राष्ट्र या देश में किसी ऐतिहासिक व्यक्ति को देवता (God) बनते या बनाते हुए देखा होगा| यों तो इसका आधार उनका कृतित्व होता है, चाहे इसमें उनका कार्य शामिल हो, विचार शामिल हो, या व्यवहार शामिल हो, लेकिन उनके गुजर जाने के बाद क्या क्या होता है, यह बहुत ध्यान देने योग्य होता है| तो किसी व्यक्ति के देवता बन जाने के बाद क्या होता है?

सबसे पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि कोई व्यक्ति महान बनता है, या महान पैदा लेता है? कभी कभी किसी समाज में कोई व्यक्ति महान बन जाता हैं। मतलब वह व्यक्ति महान पैदा नहीं होता है, बल्कि अपनी सोच, समर्पण, विश्वास, दृढ़ता और दूरदर्शी दृष्टिकोण के साथ ही महान बन जाता है। अर्थात कोई भी व्यक्ति महान बन सकता है, लेकिन कोई जन्म से महान पैदा नहीं लेता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जन्म से पहले उस व्यक्ति का कोई स्वतंत्र और पूर्व से स्थापित पहचान नहीं होता है। किसी का भी गर्भधारण से पहले सिवाय किसी खास जीनीय संरचना में पुनर्गठन के आलावा कोई पहचान नहीं होता। हाँ, उस जन्मे बच्चे को ऐसा सकारात्मक एवं समृद्ध माहौल मिल सकता है, यानि उसकी चेतनता को ऐसा माहौल और अवसर मिल सकता है, जिससे कोई भी अपने को विशिष्ट एवं महान बना सके| मतलब समुचित माहौल देकर किसी भी समाज या संस्कृति में महान व्यक्तियों की संख्या बढायी जा सकती है|

स्पष्ट है कि जब कोई व्यक्ति अपने विचारों या कार्यो से महानता प्राप्त कर लेता है, तो उसके देवता बन जाने, या बनाए जाने की संभावना बढ़ जाती है। यह भी सही है कि वह व्यक्ति देवता तुल्य होता है, या किसी सर्वशक्तिमान या आदरणीय से कमतर भी नहीं होता है। लेकिन किसी भी व्यक्ति के देवता बन जाने से उसके सन्दर्भ में क्या क्या बदलने लगता है? यह विचारणीय है।

आदमी को देवता मान लेने से सामान्यत: लोगों को उन व्यक्तित्वों के विचारों से मुक्ति पायी जा सकती है, या पा ली जाती है। चूंकि समय बदलता रहता है, शोध एवं अनुसंधान के कारण पूर्व से स्थापित मान्याताएं  एवं सिद्धांत बदलते रहते हैं, परिस्थितियाँ और संदर्भ भी बदलती रहती है, इसीलिए समय, संदर्भ एवं परिस्थितियों के साथ ही विचारों को भी अनुकूल होने के लिए बदलना पड़ता है। ऐसी स्थिति में यदि कोई विचार या विधि को अनुकूल नहीं बनाया जाय, तो वह विचार ही समय एवं सन्दर्भ के सापेक्ष अनुपयुक्त हो जाता है। मार्क्सवाद को सफलता के लिए अनुकूलित होकर रूस में लेनिनवाद हो जाना पड़ा, और यही फिर चीन में अनुकूलित होकर माओवाद हो गया| यदि ऐसे किसी विचार को बेकार या अनुपयुक्त बनाना हो, यानि उस सम्बन्धित समाज का अहित करना हो और उस समाज में कोई रचनात्मक सुधार के लिए उन विचारों में कोई अनुकूलन नहीं करने देना हो, तो सर्वप्रथम उस विचारक को ही देवता बना दिया जाए। मात्र देवता बनाने देने से ही उस तथाकथित देवताओं के विचार में कोई सुधार, संशोधन एवं संवर्धन की गुंजाइश समाप्त हो जाती है। किसी व्यक्ति के विचार पर ऐसा विमर्श किया जा सकता हैं, लेकिन किसी देवता के विचार पर किसी भी सुधार, संशोधन, परिमार्जन सम्बन्धित विमर्श की गुंजाइश ही नहीं बचती। तब उस महान विचारकों के विचारों की हत्या आसानी से किया जा सकता है।

सामान्य व्यक्ति किसी महान व्यक्तित्व को अपनी शारीरिक इन्द्रियों द्वारा ही देख पाते हैं, और ये अक्सर उनके विचारों की गहराइयों में नहीं पहुँच पाते है, या पहुँचने की योग्यता ही नहीं होती है| ऐसे लोग अपने देवता स्वरूप व्यक्तित्व को मूर्तियों में ही देख पाते हैं, और उसकी पूजा भी कर अपना दायित्व को पूरा कर पाते हैं| ऐसे लोगों की संख्या अधिक होती है और उन समाजों या संस्कृतियों के लोगो के चुनावी मत (Vote) पाने के लिए नेताओं को उन महान व्यक्तित्वों का समर्थक दिखना पड़ता है| इसीलिए उनकी मूर्तियों का पूजन कर, या माल्यार्पण मात्र करके भी ऐसे नेता अपने को उनका महान अनुगामी या अनुयायी साबित कर पाते हैं। ऐसा उसी समय किया जा सकता है, जब वैसे महान व्यक्तित्वों को देवता या देवता- तुल्य बना दिया जाय| तब यह सब भावनात्मक स्तर पर करना बहुत ही आसानी से संभव हो जाता है|

ऐसा कर, यानि उन्हें देवता मान लेने मात्र से उनकी विचारों को जड़ बनाया जा सकता है, यानि उन विचारों की गतिशीलता समाप्त किया जा सकता है। उनके कोई भी विरोधी अपनी विकृत विचारों को उस दैवीय व्यक्तित्व के आवरण से ढक कर उस समाज को उलझा सकता है| विचारों के अर्थ बदल देने के लिए शब्दों की संरचना बदल दी जा सकती है, मनोवैज्ञानिक उलझन पैदा करने के लिए शब्दों के वैकल्पिक चयन और स्थान चयन में बदलाव कर दिया जाता है, और कभी सन्दर्भ बदल कर उसे प्रसंग विहीन साबित किया जा सकता है| यह सब उन्हें देवता के रूप में स्थापित करने के बाद ही आवश्यक हो जाता है| किसी भी देवता से लोगों का एक भावनात्मक श्रद्धा एवं समर्पण होता है| इस तरह उनके मौलिक विचारों में बदलते वैज्ञानिकता और बदलते परिवेश के अनुरूप अपेक्षित संशोधन, परिमार्जन और अनुकूलन को रोका जा सकता है| इससे उनके मौलिक विचारों से लोगों को विमुख करने बहुत आसनी होती है।

अक्सर ऐसा भी देखा जाता है कि किसी महापुरुष के विचारों के विरोधी भी ऐसे महापुरुषों को देवता बनाने में बढ चढ़ कर भूमिका में रहते हैं। इससे उनको उस महापुरुष के महान अनुयायी की श्रेणी का मान लिए जाने में सुविधा होती है| इसके अतिरिक्त उनको माल्यार्पण या किसी संगोष्ठी कर देने मात्र से ही उस समाज या संस्कृति का समर्थन मिल जाता है और उन नेताओं का काम पूर्ण होता है। तब उनके सामान्य अनुयायियों को भी इनके विचारों एवं आदर्शो की विवेचना और विश्लेषणात्मक मूल्यांकन के बौद्धिक अभ्यास से मुक्ति मिल जाती है।

आप भी उपरोक्त कड़ी में कुछ जोड़ सकते हैं| थोडा विचार कीजिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

महाभारत को अर्जुन ने कैसे जीता?

शिक्षक दिवस पर   .......  भारत में ‘महाभारत’ नाम का एक भयंकर युद्ध हुआ था| ऐसा युद्ध पहले नहीं हुआ था| नाम से भी स्पष्ट है कि इस युद्ध में ...