गुरुवार, 29 अगस्त 2024

जीवन का ‘अर्थ’ और ‘अर्थ’ की व्यवस्था

उपरोक्त शीर्षक में अर्थ का दो बार प्रयोग किया गया है, जिसमे पहले अर्थ का मतलब ही मतलब’ (Meaning) होता है, और दूसरे अन्तिम अर्थ का मतलब धन/ सम्पत्ति (Wealth) होता है| यानि इन दोनों शब्दों की उत्पत्ति एक ही भाव से, एक ही उद्देश्य से एवं एक ही साथ हुआ है, यानि इन दोनों में बहुत ही गहरा सम्बन्ध हैतो पहले वाक्यांश जीवन का अर्थ’” (Meaning) का क्या आशय है और उसके दुसरे वाक्यांश “‘अर्थ’ (Wealth)  की व्यवस्थाका क्या आशय है और यह  कैसे काम करती है, और इन दोनों में क्या सम्बन्ध है? स्पष्ट है कि अर्थ’ (Wealth) वही है, जो मानव जीवन के उद्देश्य (Purpose) की, यानि मानव जीवन के लक्ष्य की पूर्ति की व्यवस्था करता है| यानि यही अर्थही धन/ सम्पत्ति है, जो जीवन के सपनों को साकार बनाता है, आकार देता है| अत: जीवन के अर्थ’ (Meaning) को स्पष्ट करने वाली धनकी व्यवस्था ही अर्थ की व्यवस्थायानि अर्थव्यवस्थाकहलाती है| जब जीवन में यह इतना महत्वपूर्ण है, तो यह हमारी प्राथमिकता में रहनी चाहिए|

ब्रह्माण्ड में हर चीज की उपस्थिति का कोई कारण होता है और साथ ही उसका कोई स्पष्ट अर्थ भी होता है, अर्थात उसका भी कोई उद्देश्य होता है, जिसे प्रकृति ही निर्धारित करता है| इसी तरह हमारे जीवन का भी कोई एक स्पष्ट उद्देश्य होता होगा, यानि होना चाहिए| किसी भी उद्देश्य के बिना किसी का भी जीवन किसी भी एक स्पष्ट दिशा में अग्रसर नहीं होकर किसी उलझन में उलझा हुआ होता है, जैसे लक्ष्यके बिना सागर में तैरता हुआ दिशाविहीन एक नाव| और इसीलिए ऐसे उद्देश्यविहीन मानव का उत्पादकता एवं उत्पादन भी न्यूनतम स्तर पर ही होती है| जीवन के इसी अर्थ की खोज और उसको पाने के लिए जो धन आदि की व्यवस्था की जाती है, उसे ही भारतीय परम्परा और भारतीय भाषाओँ में अर्थ की व्यवस्था’ (Economy) कहते हैं, जो किसी के जीवन को कोई अर्थ देता है|

इस तरह जीवन के अर्थसे यह तात्पर्य है कि आपके जीवन का उद्देश्यक्या है? और यही जीवन का उद्देश्ययानि आपके जीवन के अर्थकी व्यवस्था ही आपकी अर्थव्यवस्था हुईयही जीवन उद्देश्य’ (Purpose of Life)  आपके जीवन को खींचने वाला’, यानि आगे ले जाने वाला’, यानि जीवन को संचालित करने वाला प्रमुख कर्षण बल” (Driving Force) साबित होता है| इस  तरह जीवन उद्देश्यकिसी के जीवन को उसके किसी मंजिल तक ले जाने वाली मुख्य शक्ति या साधन होती हैयही 'जीवन उद्देश्य' ही उसे सभी सामर्थ्य, कर्मठता, योग्यता एवं कौशल को पाने के लिए आन्तरिक शक्ति का स्रोत बनती है|

किसी का भी जीवन उसके भौतिक शरीर में ही निवास करता है, चाहे उसका जीवन शारीरिक गतिविधियों में संलग्न हो, या उसका जीवन बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों में लगा हुआ हो| कहने का तात्पर्य यह है कि किसी के भी जीवन की उपलब्धियों को प्राप्त करने का माध्यम उसका शरीर ही बनता है| और इसीलिए किसी के शरीर का सभी तरह से स्वस्थ होना भी अनिवार्य होता है| शरीर के इस स्वस्थता का आधार भी अर्थ’ (Wealth) की ही व्यवस्था होता है, अर्थात एक भौतिक शरीर को भी भौतिकता का ही आधार चाहिए होता है| इतना ही नहीं, किसी के भी व्यक्तित्व के महत्तम विकास के लिए, यानि उसकी महत्तम उपलब्धियों, यानि उसके योगदान देने के लिए भी भौतिक साधनों की ही जरुरत होती है| इन्ही भौतिक साधनों एवं सुविधाओं की व्यवस्था, संरचना एवं ढांचा खड़ा करने के लिए और उसे संचालित करने के लिए जो अनिवार्यताएं होती है, वह अर्थकी व्यवस्था ही उपलब्ध कराती हैइसीलिए ही किसी के भी जीवन का उद्देश्य एवं पूर्ति उसकी अर्थकी मजबूत, दृढ, एवं पर्याप्त व्यवस्था पर निर्भर करती हैइस पर ठहर कर ध्यान देने की जरुरत है| अर्थात आप अपनी अर्थव्यवस्था की समुचित एवं पर्याप्त व्यवस्था किए बिना किसी भी तरह शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों को प्राप्त नहीं कर सकते हैं|

आप ध्यान देंगे कि एक पशु यानि जीव- जन्तु  के अन्य प्रजातियों में कोई जीवन उद्देश्य नहीं होता है| सभी अपने अस्तित्व की निरंतरता यानि अपने प्रजाति के अमरत्व के लिए प्रजनन करते हैं, एवं प्रजनित पीढ़ियों का पालन पोषण करते हुए और उसे देखते हुए मर भी जाता हैयदि कोई मानव (जो मूलत: एक स्तनपायी पशु ही है) भी ऐसा ही करता हैं, यानि बच्चे पैदा करता है, उसको पालता पोषता है, और उसे ही देखता हुआ मर भी जाता है, तो उनमे और अन्य पशुवत जीवन में कोई अन्तर नहीं है| स्पष्ट है कि यही जीवन उद्देश्य ही इस मानव को एक सामान्य पशु की श्रेणी अलग करता है और उच्च श्रेणी में रखता है| कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन के उद्देश्य से विहीन; कोई भी प्राणी निश्चितया एक पशु ही है, भले ही वह एक लंगूर या बन्दर की तरह दो पैरो पर खड़ा होकर अपने अलगे दोनों पैरों का इस्तेमाल हाथकी तरह करना जानता होयही जीवन उद्देश्य एवं उसकी प्राप्तिकी ही मानसिकता ही उसे एक मानव बनाता है|

इसीलिए किसी का जीवन का उद्देश्यही उसे स्वस्थ रहने को प्रेरित करता रहता है, और वह इसी कारण से सजग, सतर्क, क्रियाशील एवं प्रयत्नशील भी होता है| और इसीलिए किसी का यही जीवन का उद्देश्यही उसे उच्च स्तरीय बौद्धिक एवं आध्यात्मिक बनने के लिए प्रेरित करता है और उसे प्राप्त करने के लिए आन्तरिक शक्तिभी देता हैएपल कम्पूटर के वर्तमान संचालक टीम कुक बताते हैं कि उनको अपने जीवन का उद्देश्य एक लम्बे समय के प्रयास के बाद समझ में आयाउनके अनुसार उनके जीवन का उद्देश्यही मानवता की सेवाकरना हैस्पष्ट है कि जिस व्यक्ति का जीवन उद्देश्य जितना महान होगा, वह व्यक्ति उतना ही महान होता हैबुद्ध के जीवन में मानवता, प्रकृति और भविष्य समाहित था, और इसीलिए बुद्ध इतने महान कहलाये| आप भी अपने जीवन उद्देश्य में ऐसे मुद्दों को शामिल कर महान बन सकते हैं|

कोई भी अन्य जीव जन्तु किसी को याद कर, यानि उनके कृतित्व को स्मरण कर उस व्यक्ति को यादगारबनाने की कोशिश नहीं कर सकता है| किसी को यादगारबनने के लिए मानवता की ही सेवा करनी होती है, क्योंकि कोई मानव ही किसी की कृतित्वों को याद रख सकता और यह उनके सकारात्मक, रचनात्मक एवं सृजनात्मक योगदान से ही आता है| किसी की भी धूर्ततापूर्ण कारनामे को इतिहास उसी तरह से याद करता हैअत: भविष्य यानि अगली पीढियाँ आपके मानवता के इसी सकारात्मक, रचनात्मक एवं सृजनात्मक योगदान को ही याद करेगी|

अन्तिम बातकिसी की अर्थव्यवस्था यानि उसकी ‘Economy’ उसकी मितव्ययता, यानि उसकी Economic होने की, यानि उसकी फिजूल खर्ची को रोकने की आदत से जुड़ी होती है| आप यहाँ  ‘Economy’ और ‘Economic’ में सम्बन्ध देख रहे हैं| इसीलिए किसी की भी अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता उस व्यक्ति के मितव्ययी यानि Economic बनने की प्रवृति एवं प्रकृति पर ही निर्भर करती है| इसी कारण आप मितव्ययी होकर अपनी अर्थकी व्यवस्था को मजबूत, दृढ, स्थिर कर ही इसे विकासोन्मुख बना सकते हैं| इसीलिए हर किसी को मितव्ययी बन कर, मितव्ययता की आदत डाल कर, मितव्ययता की अभिवृति पैदा कर एवं मितव्ययता की मानसिकता रख कर अपने जीवन के उद्देश्य को साकार करने के लिए अपनी अर्थकी न्यूनतम अनिवार्ताओं के लिए मजबूत, दृढ, एवं पर्याप्त व्यवस्था अवश्य करें|

तो आप भी अपना जीवन उद्देश्यनिश्चित कीजिए, स्पष्ट कीजिए और उसको प्राप्त करने के लिए अर्थकी व्यवस्था भी कीजिएअन्यथा आपके जीवन का कोई अर्थनहीं रह जायगा| आप भी कोई महान उद्देश्य को अपने जीवन का उद्देश्यबनाइए|

इसीलिए,

हर एक सामाजिक कार्यकर्ता

अपने लोगों की 'अर्थ' की व्यवस्था को सुदृढ़ कीजिए,

अन्यथा सामाजिक कल्याण करने का ढोंग बन्द कीजिए|

आप इस पर ठहर कर गंभीरता से विचार कीजिए

आचार्य प्रवर निरंजन 


गुरुवार, 22 अगस्त 2024

समाज : हमें क्या करना चाहिए?

मैं समाज में सकारात्मक सृजन के लिए उनसे ‘सार्थक संवाद’ करना चाहता हूँ, लेकिन प्रश्न यह है कि ‘सार्थक संवाद’ में क्या है और मेरे ‘समाज’ की अवधारणा में कौन कौन शामिल हो जाता है, और कौन कौन इस दायरे से बाहर रह जाता है? तो सबसे पहले हमें ‘संवाद’ की क्रियाविधि को समझ लेना चाहिए, तब अपने समाज को समझ लेंगे|

किसी भी ‘सार्थक संवाद’ के लिए न्यूनतम एक वक्ता होना चाहिए, एक श्रोता भी होना चाहिए, और उस संवाद प्रेषण के लिए एक माध्यम भी होना चाहिए| तय है कि तीनों की गुणवत्ता समुचित एवं उपयुक्त भी होनी चाहिए| यानि उन सभी में पर्याप्त गुणवत्ता के स्तर के साथ ही स्तर भी होना चाहिए, अन्यथा किसी एक भी कमी के कारण संवाद ही सार्थक नहीं हो सकेगा| एक वास्तविक प्रसंग बताता हूँ| 1949 में चीनी जनवादी गणराज्य (कम्युनिस्ट चीन) के उदय के बाद उनके अन्तर्रष्ट्रीय विरोधियों ने राष्ट्रवादी चीनी गणराज्य (ताइवान) से उनके विरुद्ध रेडिओ प्रसारण शुरू किया| यह सब उनके द्वारा कम्युनिस्ट चीन की जनता को नए सत्ता के विरुद्ध भड़काने के लिए किया गया एक प्रयास था| एक दशक के लगभग ऐसे अभियान के सफलतापूर्वक सञ्चालन के बाद उन अन्तर्रष्ट्रीय विरोधियों को यह पता चला कि चीनी लोगों के पास जो रेडिओ रिसीवर सेट है, वह सिर्फ मीडियम वेव ही पकड़ता था, और शर्त वेव नहीं पकड़ता है| इस तरह उन अन्तर्रष्ट्रीय विरोधियों का समय, धन, संसाधन, जवानी, वैचारिकी आदि इस मुहिम में अनावश्यक बर्बाद हो गया|

इसे हम एक दुसरे प्रसंग से भी समझते हैं| मेरे पास एक मोबाईल सेट हैं, जो बटन वाला (टच स्क्रीन वाला नहीं) है, जिसे दो दशक पुराना वाला सेट भी कहा जाता है| मैंने इस मोबाईल सेट के लिए एक 5G वाला सिम ले आया हूँ, लेकिन इस मोबाईल सेट में यह सिम काम ही नहीं कर रहा है| मेरे नजदीकी मित्र यह बता रहे हैं कि मेरा पुराना वाला मोबाईल सेट इस नए 5-जेनेरेशन के सिम के लिए प्रोग्राम्ड ही नहीं है, और इसीलिए यह मोबाईल सेट इसके लिए काम ही नहीं करेगा| काफी मशक्त के बाद मुझे यह समझ में आया कि यही स्थिति मेरे उस लक्षित समाज के लिए भी लागू है, जिन पर मैं यह आधुनिक एवं वैज्ञानिक प्रोग्राम लागू करना चाहता हूँ, यानि समझाना चाहता हूँ|तो मुझे अपने उस तथाकथित समाज के लिए क्या करना चाहिए, जिससे उनका भी भला हो और हमारा भी समय, धन, संसाधन, जवानी, वैचारिकी आदि इस मुहिम में अनावश्यक बर्बाद नहीं हो?

समाज का जो हिस्सा अभी भी अर्थव्यवस्था के प्राथमिक स्तर की ही बौद्धिकता से जूझ रहा है और उसकी अगली पीढ़ियों में से कुछ हिस्सा अब अर्थव्यवस्था के द्वितीयक एवं तृतीयक प्रक्षेत्र में आना ही शुरू किया किया है, वैसे सामाजिक हिस्से को कैसे अर्थव्यवस्था के चतुर्थक एवं पंचक प्रक्षेत्र की क्रियाविधियों को समझया एवं बताया जाय? यह आपको भी ज्ञात है कि प्राथमिक प्रक्षेत्र में कृषि, पशुपालन, मत्स्य पालन, वानिकी इत्यादि शामिल है|जब समाज के उन हिस्से में अंधविश्वास, ढोंग, पाखण्ड, कर्मकांड, जाति एवं धर्म के अतार्किक एवं अवैज्ञानिक कीड़े घुसे हुए हैं, तो उन्हें चौथे एवं पांचवे स्तर की समझ कैसे विकसित की जा सकती है? कहने का तात्पर्य यह है कि मानसिक स्थिति में आदिम अवस्था वाले को कैसे उपलब्ध उच्चतर अवस्था के ज्ञान एवं कौशल से युक्त किया जाय? क्या नारों को ऊँची आवाज देकर और उनकी भावनाओं से खेल कर ऐसा पाया जा सकता है? सामान्य लोग बाजार की शक्तियों और साधनों के द्वारा हो रही सशक्त क्रियाओं से उत्पन्न अनिवार्य प्रभाव, यानि बदलाव को अपने नेतागिरी का परिणाम बता रहे हैं और लोगों को समझा भी रहे हैं। 

तो हमें यह समझना होगा और यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हम अपने जिस समाज के जिस लक्षित समूह से संवाद करना चाहते हैं, उसमे क्या हमारा समय, धन, संसाधन, जवानी, वैचारिकी आदि अनावश्यक बर्बाद तो नहीं हो रहा है? हमें उस लक्षित समाज में सकारात्मक, रचनात्मक एवं उत्पादक सृजन करना है| तो उसके लिए सही आयोजन एवं क्रियाविधि क्या हो, जो समुचित भी हो, व्यवहारिक भी हो, उपयोगी भी हो और सार्थक भी हो?

हमें सबसे पहले अपने ‘समाज’ को समझ लेना चाहिए| समाज यदि संबंधों का एक जाल है, तो क्या इन संबंधों में तथाकथित वास्तविक एवं आभासी सभी प्रकार के सम्बन्ध शामिल हो जाते हैं? तो क्या इन संबंधों का आधार जाति, या प्रजाति, या धर्म, या राष्ट्रीयता हो सकता है, या सम्पूर्ण मानवता भी हो जाता है? क्या जाति जैसे अवैज्ञानिक अवधारणा को सही मानते हुए ही हम इसे ही अपने समाज का आधार मान लें? जाति को अपने समाज का सही घटक मान लेने पर यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि ‘जाति’ जिस व्यवस्था एवं संरचना का एक अनिवार्य हिस्सा है, वह सम्पूर्ण व्यवस्था एवं संरचना ही सत्य, सही, समुचित एवं वैज्ञानिक भी है| तब हम वह स्वीकार कर लेते हैं, जिसका हम सिद्धांत के रूप में विरोध करते रहे हैं?  

अर्थात हम जाति को आधार बना कर किसी भी दिशा में आगे बढ़ते हैं, तो हम ‘जाति व्यवस्था’ के जड़ यानि ब्राह्मणवाद को ही मजबूत करते हैं| यदि हम प्रजाति को अपने समाज का वास्तविक आधार समझते हैं, तो हम नस्लवाद का समर्थन करते हैं| तब हम विज्ञान का अनुकूलन, उत्परिवर्तन, उद्विकासवाद, जीनीय प्रवाह, जीनीय बहाव, प्रवास आदि के सिद्धांत एवं वैज्ञानिक अनुसन्धान को नहीं समझते और नहीं मानते होंगे| जबकि यह सब तथ्य यह बताते हैं कि विश्व के वर्तमान सभी मानव एक ही मानव समूह की उत्पत्ति हैं, यानि एक ही मानव समूह की संताने हैं। हम सभी लोग होमो सेपियंस हैं|अर्थात समाज का जाति, धर्म आदि आधारित विभाजन अध्ययन के लिए या नेतागिरी जैसी अन्य सुविधा के लिए किया जा सकता हैं| लेकिन हमारे 'समाज' में वस्तुत: सभी मानव शामिल हो जाते हैं|

समाज के उस लक्षित हिस्से के लोग या लोगों के तथाकथित नेता बात तो नीतियों की करेंगे, यानि अर्थव्यवस्था के पंचक प्रक्षेत्र की करेंगे, लेकिन उनकी समझ व्हाट्सएप विश्वविद्यालय से ही निर्धारित, नियमित एवं संचालित होती है, और इसीलिए ये ज्ञानी लोग उससे ऊपर एवं अलग हो ही नहीं पाते है| ज्ञान बुद्धिमता का वह स्तर होता है, जो किसी भी चीजों को बड़ी सूक्ष्मता से विभाजित कर विशेषता के साथ समझ एवं समझा सकता हो| ज्ञान के स्तर को आप किसी की आलोचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक मूल्याङ्कन क्षमता से समझ सकते है| ऐसे किसी विधि को कभी भी समुचित और उपयुक्त नहीं कहा जायगा,  जिसमें कोई दूसरों को उठाने के क्रम में आप स्वयं ही किसी अँधेरी खतरनाक कुँए में ही गिर कर बर्बाद हो जाय? ध्यान रहे कि आपको अपनी गुणवत्ता में कोई गिरावट भी नहीं करनी है|

तब एक और उपाय यह है कि हमें अपने समाज का ही उपयोग (आप दुरूपयोग भी कह सकते हैं) करना चाहिए| एक सफल सामाजिक और राजनीतिक नेता वही होता है, जो अपने समाज का ही उपयोग और उपभोग करता है| ऐसे नेताओं मे स्तरीय भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence) होती है| भावनात्मक बुद्धिमत्ता के लोग अपने सामने वाले की भावना को समझता है, और उसकी भावना के समझ के अनुसार ही अपनी भावना को अनुकूलित कर सामने वाले से व्यवहार करता है| इससे सामने वाला भी उस नेता को एकदम अपना समझता है, और अपना दुःख दर्द को समझने वाला समझता है| इस तरह समाज के ऐसे साधारण लोग अक्सर धोखा भी खाते रहते है|

तो हमें भी सामने वाले की भावना के अनुसार ही सिर्फ क्रान्तिकारी बदलाव की बातें करनी है, और उनकी यथास्थिति को यथावत रखते हुए बड़े बड़े बदलाव की अहसास दिलाते रहना है| ध्यान रहे कि समाज के थके हुए लोगों एवं पके हुए लोगों से वैसे भी कोई बदलाव की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए| तो ऐसे लोगों का क्या किया जाना चाहिए? तो क्या आप समाज के ऐसे लोगों में अपना समय, धन, संसाधन, जवानी, वैचारिकी आदि लगा कर आप यह सब अनावश्यक बर्बाद नहीं कर रहे हैं?

कहने का तात्पर्य यह है कि आप अपनी गुणवत्ता को उच्चतर पर रखते हुए और करते हुए ही दूसरों के उत्थान के लिए व्यवहारिक रूप में सोच सकते हैं| बाकी सभी बाते बकवास है, कहने मात्र में बहुत ही अच्छा लगता है| यह सब यथार्थ नहीं है और अव्यवहारिक है| तो यही समुचित होगा, उपयुक्त होगा और सभी तरह से व्यवहारिक होगा कि 

आप ही बदलाव का व्यवहारिक एवं अनुकरणीय माडल बनें| 

इसके आलावा हमारे किसी अन्य ऐसे व्यवहार से नहीं तो समाज का भला हो रहा है और नहीं ही कोई अपना ही भला कर पा रहा है| इस पर ठहर कर विचार कीजिएगा|

आचार्य प्रवर निरंजन 

सोमवार, 12 अगस्त 2024

इतिहास में विखंडनवाद को समझिए

(Understand the Deconstructionism in History)

किसी भी इतिहास को सही एवं समुचित तरीके से समझाने के लिए हमें ‘इतिहास के विखंडनवाद’ (Deconstructionism in History) को समझना जरुरी है| वैसे इस विखंडनवाद को सबसे पहले ‘भाषा विज्ञान’ में विस्तारित स्वरुप में फ़्रांसिसी दार्शनिक जाक देरिदा (Jacques Derrida) ने समझाया है, लेकिन मैं आपको इसे इतिहास में समझने के लिए पहली बार एक ‘अवधारणात्मक उपकरण’ (Conceptual Tool) के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ| इस नयी अवधारणा से आप किसी भी इतिहास की समझ और उसके परिणाम की बदलती गत्यात्मकता (Dynamism) को आसानी से समझ सकते हैं|

उदाहरण के लिए, भारत में ‘नाग’ शब्द बहुत प्रचलित है और सम्मानित भी है| आपने भारतीय संस्कृति में ‘नागपंचमी’ का नाम सुना ही होगा, जो पवित्र माह सावन में ही आता है| भारत में बौद्धिक समूहों के लिए सावन मास से प्रारंभ ‘वर्षावास’ की अवधारणा मनन मंथन एवं गहन विमर्श के लिए निर्धारित है| आप सावन में तो कहीं आ जा भी सकते हैं, लेकिन ‘भादों’ माह में मानसूनी बरसात की विकरालता कहीं भी जाना आना खतरनाक बना देता है| ऐसे में उन बौद्धिक विचारकों (जिन्हें देव कहा जाता रहा) को भादों मास के आगमन से पूर्व ही अच्छे एव पर्याप्त खाद्य रसद पहुँचा देना अति शुभ एवं उचित समझा जाता है| ऐसे में ही देवों एवं देवों के महादेवों के स्थल में रसद पहुंचाने (कांवड़ यात्रा) की परम्परा अपने बदले हुए स्वरुप में भारत में सावन माह में आज भी लोकप्रिय है| इसे भी समझाने में इतिहास का यही विखंडनवाद सफल एवं वैज्ञानिक व्याख्या कर पाता है|

‘नाग’ शब्द के अर्थ की गतिशीलता को इतिहास का यही विखंडनवाद स्पष्ट करता है| ‘नाग’ का अर्थ आज भारत में एक जहरीले सरीसृप के अर्थ में लिया जाता है| तो क्या इसी नाग के वंशजों के लिए ही “शेषनाग” (शेष बचे हुए नागों) कहा गया, जिस पर यह समस्त संसार (वैश्विक गतिविधियाँ) टिका हुआ है? तो क्या इसी ‘नाग’ सर्प के वंशजों के नाम पर ही ‘नागरिक’ शब्द बना है? क्या ‘नागरी’ लिपि भी इन्हीं नागों द्वारा विकसित किया गया है? क्या वास्तुकला की ‘नागर’ शैली’ भी इन्ही सर्प वंशीय लोगों द्वारा उद्विकसित है? क्या ऐसे लोगों के रहने के स्थान को ही ‘नगर’ कहते हैं और वहाँ रहने वाले को नागर कहते हैं? यह नागालैंड, नागपुर एवं छोटानागपुर इन्हीं नागों से सम्बन्धित है? इन सभी का सकारात्मक उत्तर है। नागों से सम्बन्धित वर्तमान इतिहास भी इसी विखंडनवाद का परिणाम है| आज इन नागों की वैज्ञानिक ऐतिहासिकता को यही विखंडनवाद ही स्पष्ट करेगा|

‘नाग’ प्राचीन भारत में एक बौद्धिक वर्ग समूह थे, जो समझदार भी थे, सुसंकृत भी थे, और संपन्न भी थे, और इसीलिए इन्हीं नागों से ‘नागरिक’ शब्द भी बना| अर्थव्यवस्था के प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक प्रक्षेत्र के अधिकतर लोग ग्रामीण परिवेश में भी रह सकते हैं, लेकिन बहुतायत बौद्धिक, संपन्न और नीति निर्धारक (अर्थव्यवस्था के चतुर्थक एवं पंचक प्रक्षेत्र) लोग अक्सर नगरों में ही रहते हैं, और इसी से नगर एवं नागर शब्द की उत्पत्ति हुई है| वास्तुकला की नागर शैली इन्ही नागों से सम्बन्धित हैं| इसी तरह देव नागरी लिपि भी इन्ही लोगों के द्वारा विकसित है| संस्कृति चूँकि मानसिक निधि होती है और उसका उद्विकास सदैव मानसिक प्रक्रियाओं में होता रहता है| सभ्यता मानवीय समाज का भौतिक संरचना होता है, और यह सब समय के साथ नष्ट होता रहता है, और इसीलिए सभ्यताएँ तो नष्ट होती रहती है| लेकिन संस्कृति मानसिक समझ एवं अवस्था होती है, और यह आबादी की निरंतरता के साथ किसी भी सकारात्मक या नकारात्मक दिशा में विकसित होती रहती है|संस्कृति में बदलाव की निरंतरता एक प्राकृतिक एवं नियमित स्वभाव होता है। इसीलिए किसी भी संस्कृति के उद्विकास को इसी तरह समझा जाना चाहिए|

यदि नाग ऐसे लोगों से सम्बन्धित थे, तो यह सरीसृप (सांप) से सम्बन्धित कैसे हो गये? यह कोई टोटम आदि नहीं है| इसे समझने के लिए ‘इतिहास के विखंडनवाद’ के साथ साथ ‘इतिहास के नव बोल संरचना’ की अवधारणा को समझना आवश्यक है| ‘इतिहास के नव बोल संरचना’ में किसी भी शब्द के ‘बोल’ को किसी सन्दर्भ या पृष्ठभूमि में ‘बदले हुए अर्थ’ में उपयोग एवं प्रयोग करके उस शब्द की संरचना एवं मूल अर्थ को ही बदल दिया जाता है| इसी ‘इतिहास के नव बोल संरचना’ के अनुसार भारत के उत्कृष्ट नागरिक को एक जहरीले सरीसृप के अर्थ में बदलना पडा| यह सब ऐतिहासिक शक्तियों के प्रभाव में मध्य युग में आया, जब सामन्तवाद का उदय एवं उद्विकास होना शुरू हुआ| यदि नाग एक उत्कृष्ट नागरिक थे, तो यह स्पष्ट है कि ये लोग सिर्फ बौद्धिक, सुसंकृत एवं संपन्न ही नहीं थे, बल्कि स्वतंत्रतावादी, समतावादी एवं बंधुत्व के समर्थक न्यायप्रिय नागरिक भी थे| मध्य युग में जब ‘समता (Equality) एवं समानता (Equity) का अन्त’ होने लगा, यानि ‘सामन्तवाद’ का उदय एवं उद्विकास होने लगा, तो ऐसे न्याय प्रिय एवं न्यायिक चरित्र के नीति निर्धारक उत्कृष्ट लोग सामन्तवादियों के आँखों में खटकने लगे|ऐसे सामन्तवादियों ने इन नागो को यानि नागरिकों को नाग सांप का पर्यायवाची बना दिया। ऐसे ही क्रान्तिकारी बदलाव यानि आमूलचूल बदलाव के कारण ही इतिहास में प्राचीन व्यवस्था का समापन माना जाता है और एक नए युग – 'मध्य युग' – का उदय माना जाता है| ऐसे ही ‘समता एवं समानता’ के विरोधी लोगों ने, यानि ‘सामन्तवादी’ लोगों ने अपने इतिहास विवरण में उन उत्कृष्ट नागरिकों को बदनाम करने के किए एक जहरीले सरीसृप के उपनाम से संबोधित करने लगे|

यह उपनाम सदियों के कालक्रम के प्रभाव में अपनी संरचना एवं मूल अर्थ को ही नहीं बदली, अपितु इतिहास के विखंडनवाद को भी प्रभावित किया| समझने वाले या समझाने वाले पाठक उन ऐतिहासिक लेखों को अपने समझ के अनुसार ही उन लेखों का अर्थ समझा, लेकिन उस अर्थ में नहीं, जिस अर्थ में लेखकों ने इतिहास के लेख  लिखे थे| दुर्भाग्य ऐसे लिखित इतिहास सामन्तवादियों के द्वारा मध्य काल में ही नष्ट कर दिए जाने के कारण आज उसी स्वरुप में उपलब्ध नहीं हैं| इस मध्य युग के कारीगरों, शिल्पकारों एवं मूर्तिकारों ने ‘इतिहास की विखंडनवाद’ की अवधारणा को सही साबित करते हुए प्राचीन इतिहास के लिखित पाठ्यों के बदले हुए अर्थ को समझा और अपना लिया|

अब नाग जैसे उत्कृष्ट नागरिकों का स्थान शिल्पों एवं मूर्तियों में अब के एवं तत्कालीन समय में प्रचलित जहरीले साँपों ने ले लिया| यही विखंडनवाद है| इन शिल्पकारों ने ऐसे ही सर्प को कल्याणकारी (शिव) 'देवों में महादेव' के आसपास भी दिखाए गए, और उनके गर्दनों में भी लिपटे हुए दिखाए गए| देवताओं में 'पालनकर्ता विष्णु' की तो शैया ही शेष बचे हुए साँपों (शेष नाग) की हो गयी| बुद्ध को इन्हीं नागों से संरक्षित दिखाया गया है| भगवान कृष्ण को यमुना की उफनती धारा में शेषनाग ही बारिश (संकटों की बरसात) से बचा रहे थे| क्या आपको ये नाग इन महान देवताओं को एक सूत्र में पिरोते हुए दिखते हैं? इस दिशा में, और इस नजरिए से समझने देखने का एक गंभीर प्रयास कीजिए, आपको एक सम्बन्ध दिखने लगेगा| आपको अब तक का बहुत से भ्रम छंट जाएगा, और वैज्ञानिकता दिखने लगेगी| इन संबंधों को इतिहास का विखंडनवाद ही स्पष्ट कर सकता है, कि उन सभ्य नागरिकों का उन देवताओं से कैसा सम्बन्ध था?

इस विखंडनवाद का मूल भावार्थ यह है कि लिखित पाठ्यों के लिए जो अर्थ या भावार्थ उसके लेखक के लिए होते हैं, वही अर्थ या भावार्थ पाठकों के नहीं होते हैं| अर्थात एक लेखक ने जिस अर्थ में, यानि जिस भाव सम्प्रेषण के लिए किसी शब्द को गढ़ता है, या वाक्य या वाक्य- समूह को रचता है, तो उसके पाठक उनके अर्थों को अपने समय के सन्दर्भ में, अपने बौद्धिक स्तर के अनुसार एवं अपनी संस्कृति के प्रचलित मानकों, परम्पराओं, मूल्यों, मान्यताओं एवं प्रतिमानों से संचालित, नियमित, नियंत्रित एवं प्रभावित होते हैं| नागों का अर्थ भी समय के साथ इन्हीं संदर्भो में बदलता हुआ आज के अर्थ में आ गया है| इसे ही समझना आज की वैज्ञानिकता है|

एक लेखक ने जो पाठ्य लिखा है, उसी पाठ्य का अर्थ भिन्न भिन्न पाठकों के लिए भिन्न भिन्न होता है| मतलब यह है कि एक ही शब्द या वाक्य या वाक्य-समूह को भिन्न भिन्न पाठक अपनी अपनी समझ के अनुसार उसे विखंडित करता है, और उसका अर्थ ग्रहण करता है, यानि उसका अर्थ समझता है| यह विखंडनवाद एक ही शब्द या वाक्य या वाक्य-समूह के अर्थ को कई तरह से एक साथ प्रस्तुत कर सकता है, जिसे उसका केन्द्रीय (मूल) अर्थ, सीमांत अर्थ, भावार्थ, निहित अर्थ, सतही अर्थ,आदि के रूप में लिया जा सकता है| इस तरह यह अर्थ व्यक्ति की समझ, संस्कृति की स्थिति, क्षेत्र एवं समय के सन्दर्भ  अनुसार एक ही शब्द या वाक्य या वाक्य-समूह के लिए गत्यात्मकता लिए होती है|

यद्यपि जाक देरिदा ने इसे लिखित पाठ्यों के सन्दर्भ में और भाषा विज्ञान के सन्दर्भ में लिया है, लेकिन इसे थोडा और विस्तारित कर दिए जाने से इसे इतिहास के सन्दर्भ में प्रयोग एवं उपयोग किया जा सकता है| इसे लिखित पाठ्यों के सन्दर्भ के साथ साथ व्यवहारिक दुनिया में किये जाने वाले प्रस्तुति के सन्दर्भ में भी लिया जाना चाहिए| चूँकि एक इतिहास सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि सम्बन्धित रूपान्तरण एवं बदलाव का व्यवस्थित एवं क्रमानुसार लिखित ब्यौरा होता है, इसीलिए इतिहास के विखंडनवाद में ये सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि क्षेत्र शामिल हो जाते हैं| तब इसमें सम्बन्धित सभी मान्यताएँ, परम्पराएँ, विचार, आदर्श, मूल्य एवं प्रतिमान आदि सभी विषय क्षेत्र विखंडनवाद के परिसर में आ जाते हैं| कहने का तात्पर्य यह है कि एक ही लिखित शब्द या वाक्य या वाक्य-समूह के अर्थों में गतिशीलता होती है, और यह गतिशीलता पाठकों के समझ के अनुसार बदल जाती है| चूँकि एक पाठक एक मानव या मानव द्वारा निर्मित साधन होता है, इसीलिए एक पाठक या मानव द्वारा निर्मित साधन भी मानवीय मनोविज्ञान के तत्वों एवं कार्यों से प्रभावित, संचालित एवं नियंत्रित होता है| इसी कारण एक पाठक के द्वारा समझा गया अर्थ भी इन तत्वों एवं कारकों से प्रभावित, संचालित एवं नियंत्रित होता रहता है| कभी कभी ऐसा अर्थ निकालने के लिए भी लेखक द्वारा भ्रमित किये जाने वाले दिशा निर्धारण भी कर दिया जाता है|

एक संक्षिप्त आलेख में विखंडनवाद को अन्य उदाहरणों के साथ समझाना स्थान का अभाव को रेखांकित करता है| अब आप अपनी समझ से अपने आस पास की दुनिया पर नजर डालें, आपको बहुत सी चीजें स्पष्ट दिखनी लगेगी|

आचार्य प्रवर निरंजन 

बुधवार, 7 अगस्त 2024

अमीर बनने की राह में .......

 मैं आज आपको “अमीर” (Rich) बनने एवं बनाने के विमर्श में शामिल करना चाहता हूँ| लेकिन यह ध्यान रहे कि मैं आपको “धनी” (Wealthy) बनने एवं बनाने के विमर्श में शामिल ‘नहीं’ करना चाहता हूँ| “अमीर” (Rich) बनने यानि ‘अमीरी’ (Richness) एक मानवीय संस्कृति है, एक संस्कार है, एक अभिवृति है, एक मानसिकता है, एक स्थायी मनोदशा है| चूँकि अमीरी एक संस्कृति है, इसीलिए इसमें पीढ़ियों का स्थायित्व भी होता है| लेकिन ‘धनी’ होना ‘धन’ (Wealth) के संग्रहण या केन्द्रण की प्रवृति को निर्दिष्ट करती है| मतलब यह स्पष्ट है कि एक अमीर के पास किसी विशेष समय या दशा में ‘धन’ का अभाव हो भी सकता है, लेकिन उसके पास धन का आगमन कभी भी एवं सदैव के लिए होने की संभावना बनी रहती है| इसी तरह एक ‘धनी’ के पास ‘धन’ होते हुए भी वह ‘अमीर’ नहीं हो सकता है, यानि एक ‘अमीर’ का संस्कार नहीं हो सकता है| इसीलिए किसी व्यक्ति को लाटरी (Lottery) लगने से प्राप्त बड़े धन राशि के बावजूद भी वह अमीर नहीं बन पाता है, और   कुछ समय में फिर से दयनीय स्थिति में आ जा सकता है|

धनी बनने की राह नैतिक – अनैतिक एवं वैध – अवैध तरीको से जा सकती है, जैसे पारिश्रमिक से प्राप्त धन नैतिक हो सकता है, लेकिन जुआ से प्राप्त धन अनैतिक हो सकता है| इसी तरह किसी प्राधिकारी के द्वारा लिए जाने वाला ‘घूस’ (Bribe) या किसी व्यक्ति द्वारा चोरी किए जाने या लुट लिए जाने से संग्रहीत धन से भी ‘धनी’ बना जा सकता है, लेकिन ‘अमीर’ नहीं बना जा सकता है| एक ‘अमीर’ पर किसी सरकारी धन के गबन का आरोप नहीं लगाया जा सकता है, लेकिन उन पर कर (Tax) के अपवंचन (Avoidane) का आरोप लग सकता है| कहने का तात्पर्य यह है कि एक अमीर को अपने कारोबारी वैश्विक विस्तार के लिए व्यवस्थित नियमों का अनुपालन करना बहुत जरुरी हो जाता है|

एक ‘अमीर’ की राह सदैव पूँजी की सक्रियता से होकर ही जाती है| यदि आपके पास थोडा बहुत भी धन है, तो उसे पूँजी बनाइए| पूँजी की सक्रियता बढ़ाने का संस्कार विकसित कीजिए, यानि इसे अपनी आदतों में शुमार कीजिए| यदि अमीर बनना एक संस्कृति है, तो हमें इसे विकसित करने के लिए अपने आसपास ऐसे ही मानसिकता के लोग रहने चाहिए, यानि हमें ऐसे ही लोग, ऐसी ही मानसिकता, ऐसे ही संस्कार संस्कृति में ही रहना चाहिए| पूँजी वैसी ही सम्पत्ति या सम्पदा है, जो उत्पादक होता है, और इसीलिए पूँजी में वस्तु के अतिरिक्त बौद्धिकता, कौशल या योग्यता, कुछ भी शामिल है| जब भी कोई चीज उत्पादित होता है, तो उसे बेचना होता है| यह उत्पादन किसी की समस्या का समाधान करता हुआ, या समाधान दिखाता हुआ अवश्य होगा| इसे ही “उम्मीद” या “आशा” (Hope) की बिक्री करना होता है| किसी को ‘स्वर्ग’ में सुनिश्चित स्थान दिलाने की गारन्टी भी एक ‘उम्मीद’ की बिक्री ही है|

हमारे पास इतना धन अवश्य होना चाहिए कि हम अपना, अपने परिवार और समाज के व्यक्तित्व की महत्तम संभावनाओं को विकसित कर सके और हम अपना महत्तम योगदान मानवता को समर्पित कर सकें| इसीलिए हमें ‘धन’ कमाना होगा| यदि हमलोग अपने लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए, मानवता के भविष्य के लिए कमाने चलें हैं, यानि अमीर बनने चलें हैं या अमीरी की संस्कृति विकसित करने चले हैं, तो हमें बेचने की ‘कला’, ‘विज्ञान’ एवं ‘सामाजिकी’ की समझ होनी चाहिए| तो क्या ‘बेचने की कला’ ही मार्केटिंग है? नहीं, ‘मार्केटिंग’ किसी भी चीज को बेचने की कला से बहुत अधिक विस्तृत संकल्पना है| किसी भी मानवीय एवं सामाजिक आवश्यकताओं (Needs) की पहचान करना एवं उसकी पूर्ति करना ही मार्केटिंग है| हम कह सकते हैं कि ‘लाभ’ के साथ आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही ‘मार्केटिंग’ है, या यह ‘लाभ’ के साथ समस्या का समाधान’ है|

लेकिन आजकल ‘मार्केटिंग’ मानवीय एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पहचान करने एवं उसकी पूर्ति करने तक ही सीमित नहीं रह गई है, अपितु ‘आवश्यकताओं की अहसास (भ्रम) को, या आवश्यकताओं की वास्तविकताओं को उत्पन्न करके और फिर उसकी लाभ के साथ पूर्ति करना ‘मार्केटिंग’ की एक नई प्रवृति के रूप में उभर कर सामने आई है| मतलब यदि कोई समस्या नहीं भी हो, या कोई वास्तविक समस्या नहीं भी हो, तो अपने लक्षित ग्राहकों को समस्यायों का अहसास करावे, और फिर निदान पेश करें| यदि कोई समस्या नहीं भी है, तो समस्या पैदा करना और उसका कोई समार्ट समाधान के साथ उपस्थित होना एक नया चलन है| इसे फिर से पढ़ें, यह बहुत ही महत्वपूर्ण है|

तो ‘मार्केटिंग’ किन किन चीजों का होता है? सामान्यत: लोग मार्केटिंग की चीजों में  वस्तु (Goods – माल), और सेवा (Services) को ही शामिल करते हैं, लेकिन आज वस्तुओं एवं सेवाओं के अतिरिक्त सम्पत्ति या सम्पदा (Estate), ‘कार्यक्रमों’ (Events), ‘अनुभवों’ (Experiences), व्यक्ति (Persons), स्थान (Places), संगठन (Organisation), आनन्द (Pleasure), सूचना (Information) यानि डाटा, विचार (Ideas), नीति (Policy) आदि की भी मार्केटिंग किया जा रहा है| इस दृष्टिकोण से आपका मार्केटिंग का नजरिया और विकसित होता है| ध्यान रहे कि सभी का मूल सारांश यही है कि मार्केटिंग किसी “विचार” (Ideas) का होता है, जो एक “उम्मीद” (Hope) लेकर आता है, और मार्केटिंग के सभी स्वरुप इसी “उम्मीद” (आशा) की बिक्री के माध्यम बनते हैं| आप जो कुछ भी लाभ कमाने के लिए बेचते हैं, वह एक ‘उम्मीद’ (किसी समस्या के समाधान के रूप में) के रूप में ही ग्राहकों के पास पहुँचते हैं| इसीलिए हर समझदार संभावित ‘अमीर’ को इस आशा का, इस उम्मीद का, इस भविष्य का ध्यान अवश्य ही रखना चाहिए|

बाजार क्या है? बाजार एक ऐसा भौतिक या अभौतिक स्थान होता है, जहाँ एक विक्रेता अपने संभावित ग्राहकों से मिलता है, और उसे अपना ‘उत्पाद’ बेचता है| बाजार के भौतिक स्थान से तात्पर्य हाट, दुकान, मंडी, प्रदर्शनी, मेला आदि कुछ भी हो सकता है| इसी तरह बाजार के अभौतिक स्थान से तात्पर्य कोई डिजीटल पलेटफार्म हो सकता है, जो बिक्रेताओं और ग्राहकों को मिलाता है। ऐसे स्थान में स्टाक मार्किट, वित्तीय मार्किट, आमेजन, फ्लिप्कार्ट आदि कुछ भी हो सकता है|कुछ दशक पहले उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमंडलीकरण (LPG) ने विश्व को एक गाँव में बदल दिया, यानि स्थानीय बाजार का स्वरुप वैश्विक कर दिया| ‘सूचनाओं के प्रसार की क्रान्ति’, ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता के विविध प्रयोग’ और ‘इन्टरनेट का डिजीटल पलेटफार्म’ ने वैश्विक बाजार को ही हर घर तक पहुंचा दिया है| अर्थात अब हर कोई बहुत थोड़ी तैयारी के साथ अपने उत्पाद को अपने घर से ही वैश्विक बाजार में आसानी से बेच सकता है, जो पहले संभव नहीं था|

हमें मार्केटिंग आदमियों के लिए करनी होती है, यानि हमें मार्केटिंग के कोर यानि मूल बिन्दुओं को भी समझने के लिए मानवीय मनोविज्ञान से सम्बन्धित कुछ अवधारणाओं को भी जानना चाहिए| ‘आवश्यकता’ (Needs) हमारी मूल शारीरिक जरूरतों से सम्बन्धित होती है| इसमें भोजन, पानी, कपड़ा, मकान के अलावे अब शिक्षा, विश्राम एवं मनोरंजन को भी शामिल किया जाता है| लेकिन हमारी आवश्यकताएँ ‘चाहत’ (Wants) के रूप में व्यक्त होती है, और यह हमारे भूगोल, पारिस्थितिकी, संस्कृति, आर्थिक स्थिति आदि पर निर्भर करता है| उदाहरण के लिए, भोजन की सहज एवं स्वाभाविक ‘आवश्यकता’ भी विभिन्न ‘चाहतों’ में प्रकट होती है, जैसे कोई बर्गर खाता है, कोई चावल, कोई रोटी, कोई भूंजा या सत्तू| यह ‘चाहत’ (Wants) किसी की ‘इच्छा’ (Desire) से भिन्न होता है, जो कल्पनाओं के साथ उड़ान भरती है| तो हमें अपनी मार्केटिंग में उनकी ‘आवश्यकताओं’ और उनकी ‘चाहतों’ को  पहचान एवं समझ कर आगे बढना चाहिए|हम आवश्यकताओं को समझने में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैसलों आदि का भी सहारा ले सकते हैं|

यदि हम मार्केटिंग करने चलें हैं, तो हमें ‘ब्रांड’ (Brand) को भी समझ लेना चाहिए| हम एक ब्रांड के साथ अपने ग्राहकों को अपने उत्पादन के साथ एक ‘संतुष्टि’ का अहसास देते हैं| यह संतुष्टि अपने उत्पादन के साथ ही सम्बन्धित सेवा, सूचना, अनुभव, एवं भविष्य के लिए एक सार्थक उम्मीद भी देते हैं| एक ब्रांड हमारे ग्राहकों से एक स्थायी सम्बन्ध बनाने में अहम भूमिका निभाता है, और हमारे ग्राहकों का विस्तार भी करता रहता है| हमें भी ‘ब्रांड’ बनाने पर ध्यान देना चाहिए|

हमें अपनी मार्केटिंग के रणनीति में बदलती तकनीक (Technology) के उपयोग एवं प्रयोग पर बहुत ध्यान देना चाहिए| यह समय ‘सूचनाओं का युग’ नहीं रह गया है, बल्कि यह ‘सूचनाओं के प्रसार का युग’ हो गया है| हमें बदलती एवं उच्चतर होती तकनीक का उपयोग एवं प्रयोग अपने उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग में भी करना चाहिए| वैश्विक जनसांख्यिक बदलाव एवं आर्थिक बदलाव की गत्यात्मकता की पहचान अपनी लक्षित ग्राहकों के सन्दर्भ में करना एक नई वैश्विक प्रवृति है| ‘सामाजिक उत्तरदायित्व’ की पहल में सामाजिक उत्तरदायित्व से सम्बन्धित भावनाओं का ‘लिहाज’ (Consideration) रखना मार्केटिंग का एक नया फैशन बन गया है| इसमें आप अपने सक्षम ग्राहकों से ‘सामाजिक उत्तरदायित्व’ के नाम पर उसे अपने उत्पादों से जोड़ते हैं, और अपने ग्राहकों को ‘सामाजिक उत्तरदायित्व’ के निर्वहन का अहसास दिलाते हैं|

उपरोक्त पर मनन मंथन कीजिए, और उसका अनुपालन कीजिए| यानि आप उसके तालाब में उतर जाइए, आप तैरना सीख जाइएगा| सिर्फ सिद्धांत जानने समझने से कुछ नहीं होता है| मार्केटिंग के तालाब में उतरिए, और ‘अमीरी’ की राह पर आगे निकल जाइए|

आचार्य प्रवर निरंजन  

सोमवार, 5 अगस्त 2024

असली मदारी कौन है?

मदारी तो सब जगह रहते हैं और अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में वे डुगडुगी बजाते रहते हैं, लेकिन असली मुख्य मदारी कौन है? आज हमलोग वैश्विक मुख्य मदारी के सन्दर्भ में समझेंगे| एक मदारी को अपने पात्र का ऐसा मानसिक और आध्यात्मिक नियंत्रण, नियमन, निर्देशन करना होता है कि वह पात्र उस मदारी के  इशारों पर अपना भाव, विचार, व्यवहार और कार्य करने को समर्पित करता रहे। ऐसा करते हुए एक मदारी अपने पात्र को इस जन्म या अगले जन्म में लाभ होने का लोभ भी देता है, किसी अज्ञात या ज्ञात का, वास्तविकता या काल्पनिकता का भय भी देता दिखता है। इस तरह  एक मदारी अपने पात्र का धन, संसाधन, उर्जा, उत्साह, जवानी, समय, समर्पण, वैचारिकी और भक्ति का उपयोग या दुरुपयोग करने के लिए नियंत्रित, नियमित, निर्देशित करता है। इस प्रक्रिया में अपने पात्रों से मात्र क्रिया ही करवाता हो, ऐसी बात नहीं है। वह मदारी अक्सर अपने पात्रों से प्रतिक्रिया लेकर भी उन्हें संचालित कर नियंत्रित करता है। फल के पेड़ पर बैठे बंदरों को यदि आप पत्थर या ढेला फेंकेंगे, तो वह बन्दर अपने स्वभाव के अनुसार उस पेड़ के फल को आपके पास फेंक कर प्रतिक्रिया देगा। प्रतिक्रिया लेना भी नियंत्रित करने का एक बहुत सुन्दर प्रस्तुति होता है।

स्पष्ट कहें, तो एक मदारी डुगडुगी के इशारे पर लोगों को, समाज को, और पूरे तंत्र को नचाते रहते हैं। मदारी का पात्र मदारी के इशारों पर उछल कूद कर अपने को धन्य धन्य हो जाता हुआ मानता है। आप भी उन पात्रों का समर्पण, समर्थन, और भक्ति देखकर मदारी की भूमिका में आ जाना चाहेंगे। लेकिन आज़ जमाना बदल गया है और इसीलिए मदारियों के स्वरूप, वेशभूषा, क्रियाविधि और तौर तरीके भी बदल गया है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता के साथ साथ डिजीटलीकरण ने तो मदारियों की पहचान को ऐसा बदल दिया है कि अच्छे अच्छे तथाकथित बौद्धिक भी उन  मदारियों को ढंग से नहीं पहचान पाने के कारण परेशान हैं। 

उपनिवेशवाद के समाप्ति और साम्राज्यवाद के बदलते स्वरूप ने तो मदारियों के स्वरूप और क्रियाविधियों को पूरी तरह से रहस्यमयी ही बना दिया है। वणिक साम्राज्यवाद और औद्योगिक साम्राज्यवाद की प्रकृति, स्वरुप और क्रियाविधि तो किसी भी साधारण बौद्धिकता की समझ वाले को पूरा समझ में आ जाता है, लेकिन वित्तीय साम्राज्यवाद और सूचना साम्राज्यवाद की प्रकृति, स्वरुप और क्रियाविधि तो किसी भी साधारण बौद्धिकता वाले की समझ से बाहर की ही होती है। साम्राज्यवादियों में एक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद' भी होता है, जो अपने पात्रों को स्वचालित मोड में रखता है। साम्राज्यवादी मदारियों को जानना और पहचानना बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि इनके अस्तित्व का अहसास भी बहुतों को नहीं है।

उपनिवेशवाद, वणिक साम्राज्यवाद और औद्योगिक साम्राज्यवाद की तो भौगोलिक सीमाएं भी होती थी, यानि इनका सुनिश्चित भौगोलिक क्षेत्र होता था। लेकिन आज़ वित्तीय साम्राज्यवाद, सूचना साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद' अपने स्वरूप, प्रकृति और क्रियाविधि में अदृश्य तो रहता ही है, और इसके ही साथ इन्हें भौगोलिक सीमाओं से निर्धारित नहीं किया जा सकता है। अर्थात यह सब वैश्विक प्रभाव रखता है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, आनुवांशिकी (Genetics) और डिजीटलीकरण ने  तो इन मदारियों को इतना रहस्यमयी बना दिया है कि इनके द्वारा और इनके पीछे भी कोई मदारी करामात कर रहा है, विश्वास ही नहीं होता।

इन मदारियों के कार्टेल (cartel) तो वित्तीय साम्राज्यवादियों और सूचना साम्राज्यवादियों के वैश्विक संयुक्त शीर्षस्थ नेताओं का समूह होता है। इन्हें एक गिरोह कहना अनुचित होगा, क्योंकि ये अन्ततः मानवतावादी है और प्रकृतिवादी भी है। वैसे  पूंजी की क्रियाविधि का एक आवश्यक तत्व यह होता है कि इसमें कोई मदारी यदि कोई काम अपने लाभ के लिए ही करता है, फिर भी इसका प्रभाव एवं परिणाम समस्त मानवता और प्रकृति के हितों को भी साधता हुआ होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ये मदारी मानवता के भविष्य के शुभचिंतक ही नहीं है, बल्कि ये मदारी भविष्य के नियन्ता, अभियंता और निर्माता भी हैं। इनकी गलतियों को आप अपवाद मान सकते हैं, अपने सीमित बौद्धिक स्तर का प्रभाव मान सकते हैं और उनके कार्यों को नहीं समझ पाने के कारण रहस्यमयी भी मान सकते हैं।

बहुत अधिक सम्भावना है कि ये कार्टेल वैश्विक आबादी को इस शताब्दी के अन्त तक मात्र पचास करोड़ की आबादी के पास स्थिर कर दें। आप सही पढ़ रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि विविध कारणों के बहाने विविध स्वरूपों में कोई लगभग आठ सौ करोड़ की आबादी इस शताब्दी के अन्त तक  पृथ्वी को हल्की कर देगी। यूवाल नोआ हरारी तो आनुवांशिकी की बात कर और होमो ड्यूस की अवधारणा देकर कुछ ऐसा ही कहना चाहते हैं। इतनी बड़ी आबादी अपनी तथाकथित प्राकृतिक  क्रियाओं और स्वरुपों में दुनिया से विदा हो जाएगी। यह सब इस शताब्दी के अन्त तक हो जाना है। इस विदाई अभियान को आप अपराध की श्रेणी में नहीं रख सकते हैं, क्योंकि ये सब वैधानिक रूप में मृत्यु दण्ड या हत्या की परिभाषा में नहीं आएंगे। 

एक असली मदारी सिर्फ डुगडुगी ही नहीं बजाता है, बल्कि इशारों के सहारे पूरे तंत्र को नचाता रहता है। आपके सूचनाओं से लाभ लेने की स्वाभाविक प्रकृति और प्रवृति का सदुपयोग कर हमें कई लाभ उपलब्ध कराए जाते हैं, लेकिन सूचनाओं के इसी लाभ के साथ हमारी प्रत्येक प्रकृति और प्रवृति का विश्लेषण, मूल्यांकन और अनुश्रवण कर नियंत्रित ही नहीं किया जा रहा है, बल्कि हमें नियमित, संचालित और निर्देशित भी किया जा रहा है। एलन मस्क की न्यूरालिंक की शोधों और उपलब्धियों के साथ साथ शरीर में न्यूरोन को संचालित और निर्देशित करने वाली माइक्रो चिप्स के निकट भविष्य में प्रत्यारोपण की संभावना वास्तविकता में बदल जाएगी। 

जब विश्व में ऐसे ऐसे मदारियों का कार्टेल काम कर रहा है, तो किसी देश, राज्य (इसे प्रान्त समझ  सकते हैं, या नहीं भी) और तथाकथित राष्ट्र की सीमाओं के अन्दर में उछल कूद मचाने वाले मदारियों को अपने कुशल और सफल मदारी होने का भ्रम ही है। किसी देश, राज्य और तथाकथित राष्ट्र की सीमाओं के अन्दर में  जाति, प्रजाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, संस्कृति, क्षेत्र, लिंग आदि के आधार पर तमाशा करने और तमाशा दिखाने वाले जितने भी क्षेत्रीय मदारी हैं, उन मदारियों को अपनी कुशलता, योग्यता और सफालता पर भले ही घमंड रहा हो, लेकिन यह तो स्पष्ट है कि इन  क्षेत्रीय मदारियों का अस्तित्व, महत्व और भूमिका उन वैश्विक मदारियों के सामने पूर्णतया तुच्छ है, क्षुद्र है और बेवकूफी भरा भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि उन वैश्विक मदारियों के लिए ये बेवकूफ जीव है, जिन्हें आपसी तिकड़मबाजी से फुर्सत ही नहीं है। ये क्षेत्रीय मदारी अपने अपने डुगडुगी में इतने मग्न हैं कि इन्हें यह अहसास ही नहीं है कि कोई वैश्विक मदारियों का कार्टेल भी इन क्षेत्रीय मदारियों के मन और मस्तिष्क पर ही नियंत्रण किए बैठा है। इन क्षेत्रीय मदारियों को तो साधारण शारीरिक आंखों से ही सब कुछ दिखाई देता है, इसलिए इन्हें वैश्विक मदारियों की ओर ध्यान नहीं है।

अब तो आप वैश्विक मदारियों के साथ साथ अपने क्षेत्रीय मदारियों को पहचानना, जानना और समझना शुरू कर दिया होगा। यदि आप इसे पहले से जान समझ रहे हैं, तो अन्य के लिए मुझे रेखांकित करना ही चाहिए था। 

आचार्य प्रवर निरंजन

 

गुरुवार, 1 अगस्त 2024

क्या आपकी उम्र 'पचास' की हो गई है?

यदि आपकी उम्र पचास साल की हो गई है, या होने वाली है, या इससे अधिक ही हो गई है, तो इस आलेख का अवलोकन अवश्य ही करें| यह तो सही है कि अब आपकी ढलती उम्र में आपका शरीर ही नहीं, आपका परिवार (संतानें) भी आपका साथ नहीं दे रहा है, जिस मात्रा और जिस गुणवता में आपकी उनसे अपेक्षाएं थी| आपके विचार भी इस बदलती दुनिया में ‘बकवास’ साबित हो रहे हैं| आपका समाज भी आपकी नजरों में बहुत कुछ बदल गया है| लेकिन इन बदलावों से जूझने के लिए आप “आंतरिक शक्ति” कहाँ से एवं कैसे लायेंगे? यही सबसे महत्वपूर्ण सवाल है, जिसे समझना जानना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है| और इसके बिना यह भी स्पष्ट है कि बाकी सभी बातें घिसी पिटी हुई है|

जीवन के इसी अवस्था में आपका ‘जीवन उद्देश्य” (Purpose of Life) काम आता है| एक आदमी वस्तुत: एक पशु ही होता है, लेकिन उसके ‘जीवन का उद्देश्य’ ही उसको एक पशु से अलग कर देता है| एक जीव यानि एक पशु अपना बच्चा पैदा करता है, उसे पालता पोसता है, और फिर उसे देखते निहारते हुए मर जाता है| यदि कोई भी आदमी भी ऐसा ही करता है, तो वह वस्तुत: एक पशु ही है, और उससे ऊपर या उससे अलग नहीं है| यहीं उसका ‘जीवन उद्देश्य’ काम करता है| यदि कोई आदमी अपने जीवन उद्देश्य में अपने परिवार के अलावे समाज को, मानवता को समा लेता है, तो वह महान हो जाता है| लेकिन यदि कोई अपने ‘जीवन उद्देश्य’ में इसके अतिरिक्त यानि समाज एवं मानवता के अतिरिक्त ‘प्रकृति’ एवं ‘भविष्य’ को भी समाहित कर लेता है, तो वह ‘बुद्ध’ हो जाता है| अब आपको अपने लम्बे जीवन जीने के लिए अपने जीवन उद्देश्य को अपने परिवार से भी बाहर ढूंढना होगा, यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। लेकिन इन सबका उसके बढती या ढलती उम्र में क्या जरुरत है? यह सब उसकी बढती उम्र में कैसे काम करता है?

कुछ समय पहले तक ‘बाजार’ की शक्तियाँ इतनी सशक्त, प्रभावशाली, और सर्व व्यापी नहीं थी|पहले बढती उम्र में सिर्फ शरीर साथ नहीं देता था, लेकिन परिवार, समाज और उसके विचार उसका पूरी तन्मयता से सहारा देता हुआ होता था| यानि कुछ समय पहले तक वह व्यक्ति अपने अस्तित्व में अपने परिवार, समाज एवं विचार के लिए सान्दर्भिक होता था| लेकिन आज बाजार की शक्तियों और साधनों ने सब कुछ पलट दिया है| इसने युवाओं को प्राधिकार में, भूमिका में, विचार में, आधुनिकता की संस्कृति में, अन्य बदलाव में बहुत बदल दिया है| महिलाओं को घर- आँगन से बाहर निकाल कर उनकी भूमिकाओं को ‘उलट” ही दिया है| इनके बदलने की गति भी बहुत तेज़ है। इन युवाओं और महिलाओं की नई ‘सांस्कृतिक गति’ से उत्पन्न ‘आवेग’ (Momentum) के चोट और झटके को पुराने लोगों की ‘गतिहीन’, या ‘सांस्कृतिक जड़ता’ (Inertia of Culture) में जड़ (Fix) मानसिकता इन बदले हुए पीढ़ी को बर्दास्त नहीं कर पा रहे हैं| ये बुजुर्ग अपने परिवार के बाहर के बदलाव से विचलित नहीं हैं, लेकिन यह सब तो उनके घर –आँगन का हिस्सा बन चुका है| अभी भी ये बुजुर्ग इन बदलावों के लिए इन्हें बाजार की शक्तियों के रूप में नहीं समझ कर अपने बेटे एवं बहुओं में दुष्टता के रूप में देख रहे हैं, और इसीलिए इसका समाधान भी नहीं मिल रहा है। 

अब बाजार की शक्तियों और साधनों ने ‘विस्तारित (Extended) परिवार’ (पहले संयुक्त – Joint परिवार कहा जाता था) को खंडित कर दूर दूर के स्थानों में कार्य करने और रहने को बाध्य कर दिया है| बाजार के साधनों ने उनकी हैसियत और औकात की दशा और स्थान (Position) को भी बदल दिया| आज का एक ‘नादान. बुजुर्ग ‘बाजार’ की इन शक्तियों और उनकी क्रियाविधियों को नहीं समझ पा रहा है, और सारी गड़बड़ियों का आधार अपने परिवार और समाज में खोज समझ कर परेशान हो रहा है| ऐसे में निकट का यह सम्बन्ध ‘खिन्नता’ का शिकार हो रहा है, और उनके अपने परिवार में सभी के स्वावलंबी हो जाने से उन बुजुर्ग के ही लम्बे जीवन के ध्येय को ही ध्वस्त कर दे रहा है| ऐसी ही स्थिति में ये बुजुर्ग अपने को सार्थक नहीं बना पा रहे हैं| ऐसी स्थिति में उनका समाज, मानवता, प्रकृति एवं इन सभी का भविष्य ही उनके जीवन उद्देश्य को नया आधार देता हुआ होता है| यही जीवन उद्देश्य उनको एक लम्बे एवं सार्थक जीवन व्यतीत करने का प्रेरणा का स्रोत हो जाता है| तब ही आपका डाक्टर, भोजन, व्यायाम, साधना और जीवन शैली, सब कुछ काम करने लगता है| इस जीवन उद्देश्य के बिना सब कुछ बेकार है, बकवास है, सिर्फ कहने – लिखने की बात है| इसे बड़े ध्यान से अवलोकन करें|

युवा शरीर के तेज एवं शक्तिशाली मेटाबोलिक प्रक्रिया किसी भी अस्वास्थ्यकर बाजारू एवं लापरवाह भोजन को पचा लेता है, और अस्वस्थकर आदतों को झेल भी लेता है| युवा शरीर इन सबों के दुष्परिणामों को ‘छुपा’ भी लेता है| लेकिन यह ‘छुपा’ ली गयी लापरवाही और अस्वस्थकर आदतों के दुष्परिणाम "ढलती उम्र" में अपना ‘रंग’ दिखाने लगती है| कहने का तात्पर्य यह है कि इस अवस्था में इन अस्वास्थ्यकर बाजारू एवं लापरवाह भोजन और अस्वस्थकर आदतों से आपको एकदम बचना है| लेकिन यह सब आपकी आदत में ढल चुकी होती है, और इसीलिए इस ‘पुरानी आदत’ को बदल देना बहुत सरल एवं सहज नहीं होता है| इसे बदलने के लिए बहुत सक्रिय, सजग एवं समर्पित प्रयास खोजता है| इसे आप पचास के उम्र से बदलना शुरू कर दीजिए| लेकिन इसके लिए आवश्यक इच्छा शक्ति कहाँ से आए? आपका ‘जीवन उद्देश्य’ ही आपको सब कुछ देगा, आपकी आदतों को बदल देने की प्रेरणा भी देगा, शक्ति भी देगा, और आधार भी देगा| तब ही आप अपने अच्छे स्वास्थ्य के लिए वह सब कुछ कर सकते हैं, जो आपके लिए जरुरी होगा|

एक बात और, पहले हमें यह देखना समझना है कि इस उम्र में, या इस उम्र से एक मानव में क्या क्या शारीरिक एवं मानसिक स्वाभाविक यानि प्राकृतिक परिवर्तन होने लगते हैं| इसे ही समझ कर हम सारी सम्बन्धित सावधानी रख सकते हैं| इस शारीरिक अवस्था के बाद एक व्यक्ति के शरीर में कई मेटाबोलिक प्रक्रियात्मक बदलाव होने लगता है| इसमें सबसे महत्वपूर्ण बदलाव ‘भोजन सम्बन्धित अंगों के प्रणाली’ में ‘सूखापन’ (Dryness) और शिथिलता का बढना है| अर्थात जितना पानी पहले इस तंत्र को गीला करने के लिए रिसता (Exude) था, अब यह कमतर होता जाता है|इस ढलती उम्र के साथ शरीर के कई अंगों की तत्परता से काम करने की पूर्व स्थिति बदलने लगती हैं। श्वास नली और भोजन नली के जंक्शन पर ट्रैफिक नियंत्रित करने वाला अंग भी भोजन और श्वास के ट्रैफिक को उसी तत्परता से नियंत्रित नहीं कर पाता है, जितनी तत्परता से वह अपनी जवानी के दिनों में करता रहा, और परिणामस्वरूप आदमी सरक जाता है। ऐसी अवस्था में सरकना मौत भी ला देती हैं, इसका ध्यान रखना है। 

इसीलिए यह सलाह दी जाती है कि सूखा भोजन (भुना हुआ अनाज या पावडर आदि) करने में बहुत सावधानी रखी जानी चाहिए, और गीला भोजन को प्राथमिकता देनी चाहिए| कहने का स्पष्ट तात्पर्य यह है कि ‘सरक जाने’ यानि ‘श्वास नली में किसी अनाज के अटकने’ की स्थिति भयावह होती है, या घातक (मृत्यु देने वाला) कही जा सकती है| इसीलिए ढलती उम्र में सूखे हुए भोजन के ग्रास लेने में भी कठिनाई महसूस होती है| इसके लिए हमें यह स्थायी नियम बना लेना चाहिए कि भोजन पूरे ध्यान एवं मनोयोग से करना चाहिए| भोजन करते वक्त किसी दुसरे विषय पर ध्यान नहीं करना चाहिए, नहीं बोलना चाहिए, और बीच बीच में थोडा थोडा पानी पीते रहना चाहिए| भोजन शुरू करने से पहले भी थोड़े पानी से गला को तर (पानी पी कर) कर लेना चाहिए| इस सावधानी से भोजन को श्वास नली के मिलन स्थल (जंक्शन) पर भोजन अटक नहीं पाता है, और भोजन का किसी भी अंश को श्वास नली में नहीं जाने देता है| यह बहुत ही महत्वपूर्ण सावधानी है, जिसे अन्य अवस्था वाले समझ ही नहीं पाते हैं| यह ढलती उम्र का परिवर्तन है|

यह तो सही है कि आपको नियमित स्वास्थ्य जाँच करवाना चाहिए, स्वास्थ्यवर्धक भोजन करना चाहिए, व्यायाम  एवं साधना करना चाहिए, धुम्रपान, शराब, तेल से छनी हुई चीजों से परहेज करना चाहिए, पर्याप्त नींद लेनी चाहिए,  सक्रिय रहना चाहिए, आदि आदि ‘आदते’ बदल लेनी चाहिए; लेकिन इस बदलाव के लिए “आंतरिक शक्ति” जीवन उद्देश्य से ही आता है|इस 'आन्तरिक शक्ति' का उपयोग कर आप अपने शरीर और मन को सक्रिय बनाए रखिए। और इसके बिना यह भी स्पष्ट है कि यह सब बातें घिसी पिटी हुई है, और इसीलिए ये सब बहुत ही साधारण सी बातें हैं|

एक और बात| क्या आपने अपने जीवन में कभी जैवकीय घडी” (Biological Clock) का उपयोग कर सुबह में किसी ख़ास समय में उठने के लिए किया है? इसे समझिये| इस ‘जैवकीय घडी’ का उपयोग अपने जीवन को ‘शतकीय’ बनाने में कीजिए| अपनी ‘जैवकीय घडी’ को इसी लक्ष्य के लिए निर्धारित कीजिए|  तो आइए, हमलोग अपने जीवन उद्देश्य को सार्थक बनाए, और लम्बा बनाए|

आचार्य प्रवर निरंजन 

सत्ता ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ से क्यों डरता है?

‘ सत्ता ’ में शामिल लोग ही असली ‘ शासक ’ ‘ वर्ग ’ कहलाते हैं , होते हैं।   तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि   ‘ सत्ता ’   क्या है और   ‘ शासक ...