मैं आज आपको “अमीर” (Rich) बनने एवं बनाने के विमर्श में शामिल करना चाहता हूँ| लेकिन यह ध्यान रहे कि मैं आपको “धनी” (Wealthy) बनने एवं बनाने के विमर्श में शामिल ‘नहीं’ करना चाहता हूँ| “अमीर” (Rich) बनने यानि ‘अमीरी’ (Richness) एक मानवीय संस्कृति है, एक संस्कार है, एक अभिवृति है, एक मानसिकता है, एक स्थायी मनोदशा है| चूँकि अमीरी एक संस्कृति है, इसीलिए इसमें पीढ़ियों का स्थायित्व भी होता है| लेकिन ‘धनी’ होना ‘धन’ (Wealth) के संग्रहण या केन्द्रण की प्रवृति को निर्दिष्ट करती है| मतलब यह स्पष्ट है कि एक अमीर के पास किसी विशेष समय या दशा में ‘धन’ का अभाव हो भी सकता है, लेकिन उसके पास धन का आगमन कभी भी एवं सदैव के लिए होने की संभावना बनी रहती है| इसी तरह एक ‘धनी’ के पास ‘धन’ होते हुए भी वह ‘अमीर’ नहीं हो सकता है, यानि एक ‘अमीर’ का संस्कार नहीं हो सकता है| इसीलिए किसी व्यक्ति को लाटरी (Lottery) लगने से प्राप्त बड़े धन राशि के बावजूद भी वह अमीर नहीं बन पाता है, और कुछ समय में फिर से दयनीय स्थिति में आ जा सकता है|
धनी बनने की राह नैतिक – अनैतिक एवं वैध – अवैध तरीको से जा
सकती है, जैसे पारिश्रमिक से प्राप्त धन नैतिक हो सकता है, लेकिन जुआ से प्राप्त
धन अनैतिक हो सकता है| इसी तरह किसी प्राधिकारी के द्वारा लिए जाने वाला ‘घूस’ (Bribe)
या किसी व्यक्ति द्वारा चोरी किए जाने या लुट लिए जाने से संग्रहीत धन से भी ‘धनी’
बना जा सकता है, लेकिन ‘अमीर’ नहीं बना जा सकता है| एक ‘अमीर’ पर किसी सरकारी धन के
गबन का आरोप नहीं लगाया जा सकता है, लेकिन उन पर कर (Tax) के अपवंचन (Avoidane) का
आरोप लग सकता है| कहने का तात्पर्य यह है कि एक अमीर को अपने कारोबारी वैश्विक
विस्तार के लिए व्यवस्थित नियमों का अनुपालन करना बहुत जरुरी हो जाता है|
एक ‘अमीर’ की राह सदैव पूँजी की सक्रियता से होकर
ही जाती है| यदि आपके पास थोडा बहुत भी धन है, तो उसे पूँजी बनाइए| पूँजी की सक्रियता बढ़ाने का संस्कार विकसित कीजिए, यानि
इसे अपनी आदतों में शुमार कीजिए| यदि अमीर
बनना एक संस्कृति है, तो हमें इसे विकसित करने के लिए अपने आसपास ऐसे
ही मानसिकता के लोग रहने चाहिए, यानि हमें ऐसे ही लोग, ऐसी ही मानसिकता, ऐसे ही संस्कार
संस्कृति में ही रहना चाहिए| पूँजी वैसी ही
सम्पत्ति या सम्पदा है, जो उत्पादक होता है, और इसीलिए पूँजी में वस्तु के अतिरिक्त
बौद्धिकता, कौशल या योग्यता, कुछ भी शामिल है| जब भी कोई चीज
उत्पादित होता है, तो उसे बेचना होता है| यह उत्पादन किसी की समस्या का समाधान
करता हुआ, या समाधान दिखाता हुआ अवश्य होगा| इसे ही “उम्मीद” या “आशा” (Hope) की बिक्री
करना होता है| किसी को ‘स्वर्ग’ में सुनिश्चित स्थान दिलाने की गारन्टी भी एक ‘उम्मीद’
की बिक्री ही है|
हमारे पास इतना धन अवश्य होना चाहिए कि हम अपना, अपने
परिवार और समाज के व्यक्तित्व की महत्तम संभावनाओं को विकसित कर सके और हम अपना
महत्तम योगदान मानवता को समर्पित कर सकें| इसीलिए हमें ‘धन’ कमाना होगा| यदि हमलोग अपने लिए, परिवार
के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए, मानवता के भविष्य के लिए कमाने चलें हैं, यानि
अमीर बनने चलें हैं या अमीरी की संस्कृति विकसित करने
चले हैं, तो हमें बेचने की ‘कला’, ‘विज्ञान’ एवं
‘सामाजिकी’ की समझ होनी चाहिए| तो
क्या ‘बेचने की कला’ ही मार्केटिंग है? नहीं, ‘मार्केटिंग’ किसी भी चीज को बेचने
की कला से बहुत अधिक विस्तृत संकल्पना है| किसी भी
मानवीय एवं सामाजिक आवश्यकताओं (Needs) की पहचान करना एवं उसकी पूर्ति करना ही
मार्केटिंग है| हम कह सकते हैं कि ‘लाभ’ के साथ आवश्यकताओं की पूर्ति
करना ही ‘मार्केटिंग’ है, या यह ‘लाभ’ के साथ समस्या का समाधान’ है|
लेकिन आजकल ‘मार्केटिंग’ मानवीय एवं सामाजिक आवश्यकताओं
की पहचान करने एवं उसकी पूर्ति करने तक ही सीमित नहीं रह गई है, अपितु ‘आवश्यकताओं
की अहसास (भ्रम) को, या आवश्यकताओं की वास्तविकताओं को उत्पन्न करके और फिर उसकी
लाभ के साथ पूर्ति करना ‘मार्केटिंग’ की एक नई प्रवृति के रूप में उभर कर सामने आई
है| मतलब यदि कोई समस्या नहीं भी हो, या कोई वास्तविक समस्या नहीं भी हो, तो
अपने लक्षित ग्राहकों को समस्यायों का अहसास करावे, और फिर निदान पेश करें| यदि
कोई समस्या नहीं भी है, तो समस्या पैदा करना और उसका कोई समार्ट समाधान के साथ
उपस्थित होना एक नया चलन है| इसे फिर से पढ़ें, यह बहुत ही महत्वपूर्ण है|
तो ‘मार्केटिंग’ किन किन चीजों का होता है?
सामान्यत: लोग मार्केटिंग की चीजों में वस्तु (Goods – माल), और सेवा (Services) को ही
शामिल करते हैं, लेकिन आज वस्तुओं एवं सेवाओं के अतिरिक्त सम्पत्ति या सम्पदा (Estate), ‘कार्यक्रमों’ (Events),
‘अनुभवों’ (Experiences), व्यक्ति (Persons), स्थान (Places), संगठन
(Organisation), आनन्द (Pleasure), सूचना (Information) यानि डाटा, विचार (Ideas),
नीति (Policy) आदि की भी मार्केटिंग किया जा रहा है| इस दृष्टिकोण से
आपका मार्केटिंग का नजरिया और विकसित होता है| ध्यान रहे कि सभी का मूल सारांश यही
है कि मार्केटिंग किसी “विचार” (Ideas) का होता
है, जो एक “उम्मीद” (Hope) लेकर आता है, और मार्केटिंग के सभी स्वरुप इसी “उम्मीद”
(आशा) की बिक्री के माध्यम बनते हैं| आप जो कुछ भी लाभ कमाने के लिए
बेचते हैं, वह एक ‘उम्मीद’ (किसी समस्या के समाधान के रूप में) के रूप में ही
ग्राहकों के पास पहुँचते हैं| इसीलिए हर समझदार
संभावित ‘अमीर’ को इस आशा का, इस उम्मीद का, इस भविष्य का ध्यान अवश्य ही रखना
चाहिए|
बाजार क्या है? बाजार एक ऐसा
भौतिक या अभौतिक स्थान होता है, जहाँ एक विक्रेता अपने संभावित ग्राहकों से मिलता
है, और उसे अपना ‘उत्पाद’ बेचता है| बाजार के भौतिक स्थान से तात्पर्य हाट, दुकान, मंडी,
प्रदर्शनी, मेला आदि कुछ भी हो सकता है| इसी तरह बाजार के अभौतिक स्थान से तात्पर्य
कोई डिजीटल पलेटफार्म हो सकता है, जो बिक्रेताओं और ग्राहकों को मिलाता है। ऐसे
स्थान में स्टाक मार्किट, वित्तीय मार्किट, आमेजन, फ्लिप्कार्ट आदि कुछ भी हो सकता
है|कुछ दशक पहले उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमंडलीकरण (LPG) ने विश्व को एक गाँव
में बदल दिया, यानि स्थानीय बाजार का स्वरुप वैश्विक कर दिया| ‘सूचनाओं के प्रसार की क्रान्ति’, ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता के
विविध प्रयोग’ और ‘इन्टरनेट का डिजीटल पलेटफार्म’ ने वैश्विक बाजार को ही हर घर तक
पहुंचा दिया है| अर्थात अब हर कोई बहुत थोड़ी तैयारी के साथ अपने
उत्पाद को अपने घर से ही वैश्विक बाजार में आसानी से बेच सकता है, जो पहले संभव नहीं
था|
हमें मार्केटिंग आदमियों के लिए करनी होती है, यानि हमें
मार्केटिंग के कोर यानि मूल बिन्दुओं को भी समझने के लिए मानवीय मनोविज्ञान से
सम्बन्धित कुछ अवधारणाओं को भी जानना चाहिए| ‘आवश्यकता’
(Needs) हमारी मूल शारीरिक जरूरतों से सम्बन्धित होती है| इसमें भोजन,
पानी, कपड़ा, मकान के अलावे अब शिक्षा, विश्राम एवं मनोरंजन को भी शामिल किया जाता
है| लेकिन हमारी आवश्यकताएँ ‘चाहत’ (Wants) के रूप
में व्यक्त होती है, और यह हमारे भूगोल, पारिस्थितिकी, संस्कृति, आर्थिक
स्थिति आदि पर निर्भर करता है| उदाहरण के लिए, भोजन की सहज एवं स्वाभाविक ‘आवश्यकता’
भी विभिन्न ‘चाहतों’ में प्रकट होती है, जैसे कोई बर्गर खाता है, कोई चावल, कोई
रोटी, कोई भूंजा या सत्तू| यह ‘चाहत’ (Wants) किसी की ‘इच्छा’
(Desire) से भिन्न होता है, जो कल्पनाओं के साथ उड़ान भरती है| तो हमें
अपनी मार्केटिंग में उनकी ‘आवश्यकताओं’ और उनकी ‘चाहतों’ को पहचान एवं समझ कर आगे बढना चाहिए|हम
आवश्यकताओं को समझने में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैसलों आदि का भी
सहारा ले सकते हैं|
यदि हम मार्केटिंग करने चलें हैं, तो हमें ‘ब्रांड’ (Brand) को भी समझ लेना चाहिए| हम एक ब्रांड के साथ अपने ग्राहकों को अपने उत्पादन के साथ
एक ‘संतुष्टि’ का अहसास देते हैं| यह संतुष्टि अपने उत्पादन के साथ ही सम्बन्धित
सेवा, सूचना, अनुभव, एवं भविष्य के लिए एक सार्थक उम्मीद भी देते हैं| एक
ब्रांड हमारे ग्राहकों से एक स्थायी सम्बन्ध बनाने में अहम भूमिका निभाता है, और हमारे
ग्राहकों का विस्तार भी करता रहता है| हमें भी ‘ब्रांड’ बनाने पर ध्यान देना चाहिए|
हमें अपनी मार्केटिंग के रणनीति में बदलती तकनीक (Technology) के उपयोग एवं प्रयोग पर बहुत
ध्यान देना चाहिए| यह समय ‘सूचनाओं का युग’ नहीं रह
गया है, बल्कि यह ‘सूचनाओं के प्रसार का युग’ हो गया है| हमें बदलती एवं
उच्चतर होती तकनीक का उपयोग एवं प्रयोग अपने उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग में
भी करना चाहिए| वैश्विक जनसांख्यिक बदलाव एवं आर्थिक बदलाव की गत्यात्मकता की पहचान
अपनी लक्षित ग्राहकों के सन्दर्भ में करना एक नई वैश्विक प्रवृति है| ‘सामाजिक उत्तरदायित्व’ की पहल में सामाजिक उत्तरदायित्व
से सम्बन्धित भावनाओं का ‘लिहाज’ (Consideration) रखना मार्केटिंग का एक नया फैशन बन गया
है| इसमें आप अपने सक्षम ग्राहकों से ‘सामाजिक उत्तरदायित्व’ के नाम पर उसे अपने
उत्पादों से जोड़ते हैं, और अपने ग्राहकों को ‘सामाजिक उत्तरदायित्व’ के निर्वहन का
अहसास दिलाते हैं|
उपरोक्त पर मनन मंथन कीजिए, और उसका अनुपालन कीजिए| यानि आप
उसके तालाब में उतर जाइए, आप तैरना सीख जाइएगा| सिर्फ सिद्धांत जानने समझने से कुछ नहीं होता है| मार्केटिंग के तालाब में उतरिए, और ‘अमीरी’ की राह पर आगे निकल
जाइए|
आचार्य प्रवर निरंजन
अमीर एवं धनी में अंतर मुझे ज्ञात हुआ। इसलिए आपके आलेख सचमुच सराहनीय है।
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