मैं समाज
में सकारात्मक सृजन के लिए उनसे ‘सार्थक संवाद’ करना चाहता हूँ,
लेकिन प्रश्न यह है कि ‘सार्थक संवाद’ में क्या
है और मेरे ‘समाज’ की अवधारणा में कौन
कौन शामिल हो जाता है, और कौन कौन इस दायरे से बाहर रह जाता है? तो सबसे पहले हमें ‘संवाद’
की क्रियाविधि को समझ लेना चाहिए, तब अपने समाज को समझ लेंगे|
किसी भी ‘सार्थक संवाद’ के लिए न्यूनतम एक वक्ता होना चाहिए, एक श्रोता भी होना
चाहिए, और उस संवाद प्रेषण के लिए एक माध्यम भी होना चाहिए| तय
है कि तीनों की गुणवत्ता समुचित एवं उपयुक्त भी होनी चाहिए| यानि उन सभी में पर्याप्त
गुणवत्ता के स्तर के साथ ही स्तर भी होना चाहिए, अन्यथा किसी एक भी कमी के कारण संवाद
ही सार्थक नहीं हो सकेगा| एक वास्तविक प्रसंग
बताता हूँ| 1949 में चीनी जनवादी गणराज्य (कम्युनिस्ट चीन) के उदय के बाद उनके
अन्तर्रष्ट्रीय विरोधियों ने राष्ट्रवादी चीनी गणराज्य (ताइवान) से उनके
विरुद्ध रेडिओ प्रसारण शुरू किया| यह सब उनके द्वारा कम्युनिस्ट चीन की जनता को नए
सत्ता के विरुद्ध भड़काने के लिए किया गया एक प्रयास था| एक दशक के लगभग ऐसे अभियान
के सफलतापूर्वक सञ्चालन के बाद उन अन्तर्रष्ट्रीय विरोधियों को यह पता चला कि चीनी
लोगों के पास जो रेडिओ रिसीवर सेट है, वह सिर्फ मीडियम वेव ही पकड़ता था, और शर्त
वेव नहीं पकड़ता है| इस तरह उन अन्तर्रष्ट्रीय
विरोधियों का समय, धन, संसाधन, जवानी, वैचारिकी आदि इस मुहिम में अनावश्यक बर्बाद
हो गया|
इसे हम एक
दुसरे प्रसंग से भी समझते हैं| मेरे पास एक मोबाईल
सेट हैं, जो बटन वाला (टच स्क्रीन वाला नहीं) है, जिसे दो दशक पुराना
वाला सेट भी कहा जाता है| मैंने इस मोबाईल सेट के लिए एक 5G वाला सिम ले आया हूँ, लेकिन इस मोबाईल
सेट में यह सिम काम ही नहीं कर रहा है| मेरे नजदीकी मित्र यह बता रहे हैं कि मेरा
पुराना वाला मोबाईल सेट इस नए 5-जेनेरेशन के सिम के लिए प्रोग्राम्ड ही नहीं है,
और इसीलिए यह मोबाईल सेट इसके लिए काम ही नहीं करेगा| काफी मशक्त के बाद मुझे यह
समझ में आया कि यही स्थिति मेरे उस लक्षित समाज के
लिए भी लागू है, जिन पर मैं यह आधुनिक एवं वैज्ञानिक प्रोग्राम लागू करना चाहता
हूँ, यानि समझाना चाहता हूँ|तो मुझे अपने उस तथाकथित समाज के लिए क्या करना
चाहिए, जिससे उनका भी भला हो और हमारा भी समय, धन, संसाधन, जवानी, वैचारिकी आदि इस
मुहिम में अनावश्यक बर्बाद नहीं हो?
समाज का जो हिस्सा अभी भी अर्थव्यवस्था के प्राथमिक स्तर की ही बौद्धिकता से जूझ रहा है और उसकी अगली पीढ़ियों में से कुछ हिस्सा अब अर्थव्यवस्था के द्वितीयक एवं तृतीयक प्रक्षेत्र में आना ही शुरू किया किया है, वैसे सामाजिक हिस्से को कैसे अर्थव्यवस्था के चतुर्थक एवं पंचक प्रक्षेत्र की क्रियाविधियों को समझया एवं बताया जाय? यह आपको भी ज्ञात है कि प्राथमिक प्रक्षेत्र में कृषि, पशुपालन, मत्स्य पालन, वानिकी इत्यादि शामिल है|जब समाज के उन हिस्से में अंधविश्वास, ढोंग, पाखण्ड, कर्मकांड, जाति एवं धर्म के अतार्किक एवं अवैज्ञानिक कीड़े घुसे हुए हैं, तो उन्हें चौथे एवं पांचवे स्तर की समझ कैसे विकसित की जा सकती है? कहने का तात्पर्य यह है कि मानसिक स्थिति में आदिम अवस्था वाले को कैसे उपलब्ध उच्चतर अवस्था के ज्ञान एवं कौशल से युक्त किया जाय? क्या नारों को ऊँची आवाज देकर और उनकी भावनाओं से खेल कर ऐसा पाया जा सकता है? सामान्य लोग बाजार की शक्तियों और साधनों के द्वारा हो रही सशक्त क्रियाओं से उत्पन्न अनिवार्य प्रभाव, यानि बदलाव को अपने नेतागिरी का परिणाम बता रहे हैं और लोगों को समझा भी रहे हैं।
तो हमें यह समझना होगा और यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हम
अपने जिस समाज के जिस लक्षित समूह से संवाद करना चाहते हैं, उसमे क्या हमारा समय,
धन, संसाधन, जवानी, वैचारिकी आदि अनावश्यक बर्बाद तो नहीं हो रहा है?
हमें उस लक्षित समाज में सकारात्मक, रचनात्मक एवं उत्पादक सृजन करना है| तो उसके
लिए सही आयोजन एवं क्रियाविधि क्या हो, जो समुचित भी हो, व्यवहारिक भी हो, उपयोगी
भी हो और सार्थक भी हो?
हमें सबसे
पहले अपने ‘समाज’ को समझ लेना चाहिए| समाज यदि संबंधों का एक जाल है, तो क्या इन संबंधों
में तथाकथित वास्तविक एवं आभासी सभी प्रकार के सम्बन्ध शामिल हो जाते हैं? तो
क्या इन संबंधों का आधार जाति, या प्रजाति, या धर्म, या राष्ट्रीयता हो सकता है,
या सम्पूर्ण मानवता भी हो जाता है? क्या जाति जैसे अवैज्ञानिक अवधारणा को सही
मानते हुए ही हम इसे ही अपने समाज का आधार मान लें? जाति को अपने समाज का सही घटक मान लेने पर
यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि ‘जाति’ जिस व्यवस्था एवं संरचना का एक अनिवार्य
हिस्सा है, वह सम्पूर्ण व्यवस्था एवं संरचना ही सत्य, सही, समुचित एवं वैज्ञानिक भी है| तब हम वह स्वीकार कर लेते हैं, जिसका हम सिद्धांत के रूप में विरोध करते रहे हैं?
अर्थात हम जाति को आधार बना कर किसी भी दिशा में आगे बढ़ते हैं, तो
हम ‘जाति व्यवस्था’ के जड़ यानि ब्राह्मणवाद को ही मजबूत करते हैं| यदि
हम प्रजाति को अपने समाज का वास्तविक आधार समझते हैं, तो हम नस्लवाद का समर्थन
करते हैं| तब हम विज्ञान का अनुकूलन, उत्परिवर्तन, उद्विकासवाद, जीनीय प्रवाह,
जीनीय बहाव, प्रवास आदि के सिद्धांत एवं वैज्ञानिक अनुसन्धान को नहीं समझते और नहीं
मानते होंगे| जबकि यह सब तथ्य यह बताते हैं कि
विश्व के वर्तमान सभी मानव एक ही मानव समूह की उत्पत्ति हैं, यानि एक ही मानव समूह
की संताने हैं। हम सभी लोग
होमो सेपियंस हैं|अर्थात समाज का जाति, धर्म आदि आधारित विभाजन अध्ययन के लिए या नेतागिरी जैसी अन्य
सुविधा के लिए किया जा सकता हैं| लेकिन हमारे 'समाज' में वस्तुत: सभी मानव शामिल हो जाते हैं|
समाज
के उस लक्षित हिस्से के लोग या लोगों के तथाकथित नेता बात तो नीतियों की करेंगे,
यानि अर्थव्यवस्था के पंचक प्रक्षेत्र की करेंगे, लेकिन उनकी समझ व्हाट्सएप विश्वविद्यालय
से ही निर्धारित, नियमित एवं संचालित होती है, और इसीलिए ये ज्ञानी लोग उससे ऊपर एवं अलग हो ही नहीं पाते है| ज्ञान बुद्धिमता का वह
स्तर होता है, जो किसी भी चीजों को बड़ी सूक्ष्मता से विभाजित कर विशेषता के साथ समझ
एवं समझा सकता हो| ज्ञान के स्तर को आप किसी की आलोचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक
मूल्याङ्कन क्षमता से समझ सकते है| ऐसे किसी विधि को कभी भी समुचित और उपयुक्त नहीं कहा
जायगा, जिसमें कोई दूसरों को उठाने के क्रम में आप स्वयं ही किसी अँधेरी खतरनाक कुँए में ही गिर
कर बर्बाद हो जाय? ध्यान रहे कि आपको अपनी गुणवत्ता में
कोई गिरावट भी नहीं करनी है|
तब
एक और उपाय यह है कि हमें अपने समाज का ही उपयोग (आप दुरूपयोग भी कह सकते हैं) करना
चाहिए| एक सफल सामाजिक और
राजनीतिक नेता वही होता है, जो अपने समाज का
ही उपयोग और उपभोग करता है| ऐसे नेताओं मे स्तरीय भावनात्मक
बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence) होती है| भावनात्मक
बुद्धिमत्ता के लोग अपने सामने वाले की भावना को समझता है, और उसकी भावना के समझ
के अनुसार ही अपनी भावना को अनुकूलित कर सामने वाले से व्यवहार करता है|
इससे सामने वाला भी उस नेता को एकदम अपना समझता है, और अपना दुःख दर्द को समझने
वाला समझता है| इस तरह समाज के ऐसे साधारण लोग अक्सर धोखा भी खाते रहते है|
तो हमें
भी सामने वाले की भावना के अनुसार ही सिर्फ क्रान्तिकारी बदलाव की बातें करनी है,
और उनकी यथास्थिति को यथावत रखते हुए बड़े बड़े
बदलाव की अहसास दिलाते रहना है| ध्यान रहे कि समाज के थके हुए लोगों एवं पके हुए लोगों से वैसे
भी कोई बदलाव की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए| तो ऐसे लोगों का क्या किया जाना
चाहिए? तो क्या आप समाज के ऐसे लोगों में अपना
समय, धन, संसाधन, जवानी, वैचारिकी आदि लगा कर आप यह सब अनावश्यक बर्बाद नहीं कर
रहे हैं?
कहने का तात्पर्य यह है कि आप अपनी गुणवत्ता को उच्चतर पर रखते हुए और करते हुए ही दूसरों के उत्थान के लिए व्यवहारिक रूप में सोच सकते हैं| बाकी सभी बाते बकवास है, कहने मात्र में बहुत ही अच्छा लगता है| यह सब यथार्थ नहीं है और अव्यवहारिक है| तो यही समुचित होगा, उपयुक्त होगा और सभी तरह से व्यवहारिक होगा कि
आप ही बदलाव का व्यवहारिक एवं अनुकरणीय माडल बनें|
इसके आलावा हमारे किसी
अन्य ऐसे व्यवहार से नहीं तो समाज का भला हो रहा है और नहीं ही कोई अपना ही भला कर पा रहा है| इस पर ठहर कर विचार कीजिएगा|
आचार्य
प्रवर निरंजन
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