रविवार, 28 जुलाई 2024

सामाजिक न्याय और आर्थिक बदलाव

‘सामाजिक न्याय’ सामाजिक ढाँचा (Framework) एवं संरचना (Structure) में समाज के सभी सदस्यों को प्राप्त ‘न्याय’ को रेखांकित करता है| ‘न्याय’ (Justice) अवधारणा में समाज में सभी सदस्यों को प्राप्त ‘स्वतन्त्रता’ (‘Liberty’ n ‘Freedom’), ‘समता’ (‘Equality’) (एवं ‘समानता’ – ‘Equity’) और ‘बंधुत्व’ (‘Fraternity’) की व्यापकता को स्पष्ट करता है| इसी तरह ‘आर्थिक बदलाव’ भी किसी व्यक्ति, पारिवार, समाज एवं राष्ट्र इत्यादि के आर्थिक ढांचा एवं संरचना में बदलाव को बताता है|

स्पष्ट है कि किसी भी व्यक्ति, पारिवार, एवं समाज का आर्थिक ढाँचा एवं संरचना ही उसकी आर्थिक स्थिति, भूमिका, खरीद क्षमता और हैसियत को ही तय नहीं करता है, अपितु उसकी सामाजिक स्थिति (Situation), प्रस्थिति (Status), भूमिका (Role), क्षमता (Capacity) के साथ साथ उसकी सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक समझ एवं स्थिति, हैसियत एवं औकात भी बदल देती है|  उदाहरण के लिए ‘अम्बानी’ एवं ‘अदानी’ को किसी भी सामाजिक न्याय की जरुरत नहीं है| इसीलिए आजकल समाज शास्त्र में बाजार के सामाजिक पक्ष का विस्तार से अध्ययन किया जाता है|

हम मानवीय मनोविज्ञान से जानते एवं समझते हैं, कि एक मानव अपने ‘आदतों’ का गुलाम होता है, यानि उसकी आदतें उसे सदैव “स्वयं -संचालित अवस्था” (Automated Mode) में रखता है| किसी के लिए आदतें बदलना बहुत आसान नहीं होता है, बल्कि यह एक दुरूह कार्य होता है| इसीलिए यह ‘आर्थिक बदलाव की आदतें’ भी अन्य आदतों की तरह ही एक सक्रिय, सजग एवं समर्पित प्रयास चाहता है| यह प्रारंभिक दौर में एक सामान्य स्थिति से विचलन होता है, और इसीलिए यह आदत बदलना एक नीरस कार्य होता है, उबाऊ प्रक्रिया होता है, और यह समय भी खाता है| आप कह सकते हैं कि यह शुरूआती अवस्था में आर्थिक क्षति भी देता हुआ लगता है| इसिलिए आपने भी देखा होगा कि ‘सामाजिक न्याय’ में सफल व्यक्ति भी ‘आर्थिक बदलाव’ में असफल ही रहते हैं| इसीलिए समाज के ‘निष्क्रिय लोग’, ‘थके हुए लोग’ एवं ‘पके हुए लोग’ से किसी भी बदलाव की उम्मीद नहीं की जाती है, अत: उनसे आर्थिक बदलाव की भी उम्मीद नहीं ही की जानी चाहिए|

कुछ लोग ‘आर्थिक बदलाव’ और ‘सामाजिक न्याय’ में ‘सामाजिक न्याय’ को ही प्राथमिकता (Preference) या वरीयता देते हैं| यह ‘सामाजिक न्याय’ किसी के ‘नेतागिरी’ करने के लिए उपयुक्त हो सकता है, लेकिन यह ‘सामाजिक न्याय’ के लिए आज सर्वथा उपयुक्त नहीं है| या ऐसी समझ वाले व्यक्तियों को ‘बाजार’ यानि ‘आर्थिक’ शक्तियों एवं प्रक्रियायों और ‘बदलाव’ की मानवीय मनोविज्ञान की समझ नहीं है| बाजार की शक्तियाँ आजकल बहुत ही प्रभावशाली एवं शक्तिशाली हो गया है| पहले ऐसा नहीं था, क्योंकि भारतीय ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था के गतिहीन होने के कारण बाजार की शक्तियों की भूमिका नगण्य या कम प्रभावशाली थी| आजकल बाजार की शक्तियों का स्वरुप एवं प्रकृति भी ‘उदारीकरण’ (Liberalisation), निजीकरण’ (Privatisation), एवं ‘भूमंडलीकरण’ (Globlisation) (संयुक्त रूप में LPG) के कारण एकदम बदल गया है| ‘कृत्रिम बुद्धिमता’ (AI) आधारित ‘सुचना क्रान्ति’ एवं ‘डिजिटलीकरण’ ने बाजार की शक्तियों के स्वरुप एवं प्रकृति की गति एवं शक्तियों को बदलने में एक ‘उत्प्रेरक’ का कार्य किया है| हमें अब बाजार की शक्तियों एवं उसकी क्रियाविधि को समझ कर ही कोई नीति या आयोजना करना चाहिए, अन्यथा हम असफल होने के लिए विवश हैं|

भारत में संविधान निर्माण के बाद ‘सामाजिक न्याय’ में बहुत कुछ बदला है, और यह भी सही है कि बहुत कुछ अभी भी बदलना बाकी है| मैंने ‘सामाजिक न्याय’ एवं ‘आर्थिक बदलाव’ में सिर्फ प्राथमिकताओं, यानि वरीयताओं को बदलने के लिए कहा है, कोई एक ही विकल्प चुनने और दुसरे को त्यागने के लिए नहीं कहा है| लोग एक एजेंडा - ‘सामाजिक न्याय’ तो चलाते हैं, लेकिन दूसरा एजेंडा – ‘आर्थिक बदलाव’ को सर्वथा त्याग ही देते हैं, जो उचित नहीं है|

आप कुछ भी कीजिए, या नहीं कीजिए, लेकिन विश्व को बदलने वाली एवं वैश्विक प्रभाव रखने वाली शक्तिशाली, प्रभावशाली एवं गतिमान ‘बाजार’ की शक्तियों एवं उसकी क्रियाविधियों को समझिए| आज सामान्य लोग अपने वयस्क बच्चों द्वारा अपने परिवार एवं समाज के प्रति किए गये व्यवहार एवं कार्यों से क्षुब्ध हैं, रोते और विलाप करते हैं, और उदास एवं हताश हैं| क्यों? इसलिए कि वे बाजार की आधुनिक एवं वर्तमान बदलती हुई शक्तियों एवं क्रियाविधियों के द्वारा उत्पन्न प्रभाव एवं विवशताओं को नहीं समझ रहे हैं| दरअसल उनका ध्यान ही उधर नहीं गया है, और वे सारा दोष उन बच्चों के संस्कार एवं पालन पोषण में खोज रहे हैं| यदि लोग वर्तमान बदलती हुई शक्तियों एवं क्रियाविधियों के द्वारा उत्पन्न प्रभाव एवं विवशताओं को समझने लगे, तो वस्तुस्थिति जान समझ कर इन समस्यायों का भी समाधान खोज ले सकते हैं|

‘बाजार’ की इसी समझ के अभाव में ‘सामाजिक न्याय’ का लक्ष्य भी प्राप्त नहीं हो रहा है| इसी अभाव के कारण हमारा समाज और राष्ट्र अभी भी वैश्विक स्तर पर बहुत ही दयनीय स्थिति में है| विश्व की सबसे बड़ी आबादी और गौरवशाली अतीत के बाबजूद भारत की यह दुर्दशा इसी कारण से है|

आप भी विचार कीजिएगा|

आचार्य प्रवर निरंजन  

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