रविवार, 28 जुलाई 2024

सामाजिक न्याय और आर्थिक बदलाव

‘सामाजिक न्याय’ सामाजिक ढाँचा (Framework) एवं संरचना (Structure) में समाज के सभी सदस्यों को प्राप्त ‘न्याय’ को रेखांकित करता है| ‘न्याय’ (Justice) अवधारणा में समाज में सभी सदस्यों को प्राप्त ‘स्वतन्त्रता’ (‘Liberty’ n ‘Freedom’), ‘समता’ (‘Equality’) (एवं ‘समानता’ – ‘Equity’) और ‘बंधुत्व’ (‘Fraternity’) की व्यापकता को स्पष्ट करता है| इसी तरह ‘आर्थिक बदलाव’ भी किसी व्यक्ति, पारिवार, समाज एवं राष्ट्र इत्यादि के आर्थिक ढांचा एवं संरचना में बदलाव को बताता है|

स्पष्ट है कि किसी भी व्यक्ति, पारिवार, एवं समाज का आर्थिक ढाँचा एवं संरचना ही उसकी आर्थिक स्थिति, भूमिका, खरीद क्षमता और हैसियत को ही तय नहीं करता है, अपितु उसकी सामाजिक स्थिति (Situation), प्रस्थिति (Status), भूमिका (Role), क्षमता (Capacity) के साथ साथ उसकी सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक समझ एवं स्थिति, हैसियत एवं औकात भी बदल देती है|  उदाहरण के लिए ‘अम्बानी’ एवं ‘अदानी’ को किसी भी सामाजिक न्याय की जरुरत नहीं है| इसीलिए आजकल समाज शास्त्र में बाजार के सामाजिक पक्ष का विस्तार से अध्ययन किया जाता है|

हम मानवीय मनोविज्ञान से जानते एवं समझते हैं, कि एक मानव अपने ‘आदतों’ का गुलाम होता है, यानि उसकी आदतें उसे सदैव “स्वयं -संचालित अवस्था” (Automated Mode) में रखता है| किसी के लिए आदतें बदलना बहुत आसान नहीं होता है, बल्कि यह एक दुरूह कार्य होता है| इसीलिए यह ‘आर्थिक बदलाव की आदतें’ भी अन्य आदतों की तरह ही एक सक्रिय, सजग एवं समर्पित प्रयास चाहता है| यह प्रारंभिक दौर में एक सामान्य स्थिति से विचलन होता है, और इसीलिए यह आदत बदलना एक नीरस कार्य होता है, उबाऊ प्रक्रिया होता है, और यह समय भी खाता है| आप कह सकते हैं कि यह शुरूआती अवस्था में आर्थिक क्षति भी देता हुआ लगता है| इसिलिए आपने भी देखा होगा कि ‘सामाजिक न्याय’ में सफल व्यक्ति भी ‘आर्थिक बदलाव’ में असफल ही रहते हैं| इसीलिए समाज के ‘निष्क्रिय लोग’, ‘थके हुए लोग’ एवं ‘पके हुए लोग’ से किसी भी बदलाव की उम्मीद नहीं की जाती है, अत: उनसे आर्थिक बदलाव की भी उम्मीद नहीं ही की जानी चाहिए|

कुछ लोग ‘आर्थिक बदलाव’ और ‘सामाजिक न्याय’ में ‘सामाजिक न्याय’ को ही प्राथमिकता (Preference) या वरीयता देते हैं| यह ‘सामाजिक न्याय’ किसी के ‘नेतागिरी’ करने के लिए उपयुक्त हो सकता है, लेकिन यह ‘सामाजिक न्याय’ के लिए आज सर्वथा उपयुक्त नहीं है| या ऐसी समझ वाले व्यक्तियों को ‘बाजार’ यानि ‘आर्थिक’ शक्तियों एवं प्रक्रियायों और ‘बदलाव’ की मानवीय मनोविज्ञान की समझ नहीं है| बाजार की शक्तियाँ आजकल बहुत ही प्रभावशाली एवं शक्तिशाली हो गया है| पहले ऐसा नहीं था, क्योंकि भारतीय ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था के गतिहीन होने के कारण बाजार की शक्तियों की भूमिका नगण्य या कम प्रभावशाली थी| आजकल बाजार की शक्तियों का स्वरुप एवं प्रकृति भी ‘उदारीकरण’ (Liberalisation), निजीकरण’ (Privatisation), एवं ‘भूमंडलीकरण’ (Globlisation) (संयुक्त रूप में LPG) के कारण एकदम बदल गया है| ‘कृत्रिम बुद्धिमता’ (AI) आधारित ‘सुचना क्रान्ति’ एवं ‘डिजिटलीकरण’ ने बाजार की शक्तियों के स्वरुप एवं प्रकृति की गति एवं शक्तियों को बदलने में एक ‘उत्प्रेरक’ का कार्य किया है| हमें अब बाजार की शक्तियों एवं उसकी क्रियाविधि को समझ कर ही कोई नीति या आयोजना करना चाहिए, अन्यथा हम असफल होने के लिए विवश हैं|

भारत में संविधान निर्माण के बाद ‘सामाजिक न्याय’ में बहुत कुछ बदला है, और यह भी सही है कि बहुत कुछ अभी भी बदलना बाकी है| मैंने ‘सामाजिक न्याय’ एवं ‘आर्थिक बदलाव’ में सिर्फ प्राथमिकताओं, यानि वरीयताओं को बदलने के लिए कहा है, कोई एक ही विकल्प चुनने और दुसरे को त्यागने के लिए नहीं कहा है| लोग एक एजेंडा - ‘सामाजिक न्याय’ तो चलाते हैं, लेकिन दूसरा एजेंडा – ‘आर्थिक बदलाव’ को सर्वथा त्याग ही देते हैं, जो उचित नहीं है|

आप कुछ भी कीजिए, या नहीं कीजिए, लेकिन विश्व को बदलने वाली एवं वैश्विक प्रभाव रखने वाली शक्तिशाली, प्रभावशाली एवं गतिमान ‘बाजार’ की शक्तियों एवं उसकी क्रियाविधियों को समझिए| आज सामान्य लोग अपने वयस्क बच्चों द्वारा अपने परिवार एवं समाज के प्रति किए गये व्यवहार एवं कार्यों से क्षुब्ध हैं, रोते और विलाप करते हैं, और उदास एवं हताश हैं| क्यों? इसलिए कि वे बाजार की आधुनिक एवं वर्तमान बदलती हुई शक्तियों एवं क्रियाविधियों के द्वारा उत्पन्न प्रभाव एवं विवशताओं को नहीं समझ रहे हैं| दरअसल उनका ध्यान ही उधर नहीं गया है, और वे सारा दोष उन बच्चों के संस्कार एवं पालन पोषण में खोज रहे हैं| यदि लोग वर्तमान बदलती हुई शक्तियों एवं क्रियाविधियों के द्वारा उत्पन्न प्रभाव एवं विवशताओं को समझने लगे, तो वस्तुस्थिति जान समझ कर इन समस्यायों का भी समाधान खोज ले सकते हैं|

‘बाजार’ की इसी समझ के अभाव में ‘सामाजिक न्याय’ का लक्ष्य भी प्राप्त नहीं हो रहा है| इसी अभाव के कारण हमारा समाज और राष्ट्र अभी भी वैश्विक स्तर पर बहुत ही दयनीय स्थिति में है| विश्व की सबसे बड़ी आबादी और गौरवशाली अतीत के बाबजूद भारत की यह दुर्दशा इसी कारण से है|

आप भी विचार कीजिएगा|

आचार्य प्रवर निरंजन  

रविवार, 21 जुलाई 2024

बदलते समाज और बाजार में आपकी भूमिका

वैसे तो बाजार (Market) एक अर्थशास्त्रीय अवधारणा है, लेकिन यह सामाजिक एवं सांस्कृतिक ढांचा (Frame work) और संरचना (Structure) को नए सिरे से गढ़ने वाला एक महत्वपूर्ण उपकरण (Tool) भी है। तो सबसे पहले 'बाजार' को समझा जाए, और इसके बाद ही इसके सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव को जाना समझा जाए। तब ही समाज को नए सिरे से गढ़ने में हम अपनी भूमिका समझ सकेंगे, या युवाओं को सोचने एवं कार्यान्वित करने के लिए आवश्यक दिशा दे सकेंगे।

वैसे सामान्यतः अर्थशास्त्रीय अवधारणा में बाजार एक वैसा स्थान होता है, जहां क्रय-विक्रय किया जाता है। लेकिन आजकल के डिजिटल दुनिया में बाजार अपने भौतकीय वास्तविक स्वरूप के अलावा 'आभासी स्वरुप' में भी कार्यरत हो रहा है। इस तरह एक बाजार मांग और आपूर्ति की कड़ी जोड़ने का स्थल (Place) या क्षेत्र (Space) होता है, और इस मांग एवं आपूर्ति में वस्तु, सेवा, सम्पदा, पूंजी और सूचना आदि शामिल रहता है। इसी अर्थशास्त्रीय बाजार की अवधारणा में आज़ व्यक्ति, परिवार, समुदाय, वर्ग, समाज और देश अपनी सक्रिय भूमिका निभाने के लिए समाजशास्त्रीय, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर रहा है और इन संबंधों एवं प्रक्रियाओं को जानने समझने का प्रयास कर रहा है।

आज़ बाजार अपने विविध स्वरूपों में, अपनी विविध भूमिकाओं में और प्रक्रियाओं में व्यक्ति, परिवार, समुदाय, वर्ग, समाज और देश को बदलने में सबसे शक्तिशाली, सबसे सक्रिय और सबसे प्रभावशाली भूमिका निभा रहा है। तब हमें व्यक्ति के रूप में और परिवार, समुदाय, वर्ग, समाज और देश के सदस्य के रूप में अपनी भूमिका समझनी है। हम इस भूमिका को जान समझ कर ही सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक ढांचा और संरचना बदल सकते हैं। बाकी सब सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक बदलाव का नारा, आन्दोलन और कार्यक्रम ढकोसला है, बकवास है, सतही है और इसीलिए एक बड़ा तमाशा भी है।

आपको एक ही जीवन मिला है, समय भी सीमित है, संसाधन एवं धन का अभाव भी है, इसीलिए आप अपनी जवानी, उर्जा और उमंग को चिल्लाने और दुहराने में बर्बाद मत कीजिए। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक बदलाव में हिस्सा नहीं लीजिए, बल्कि मैं यह कह रहा हूं कि आप इन चीजों को गहराइयों से जाने और समझें, और तब ही आगे बढ़े। व्हाट्सएप विश्वविद्यालयों के सतही, भावनात्मक और अपील करता पुकारों और आह्वानों को समझिए, मनन मंथन कीजिए और तब ही उसमें आगे बढ़िए। इसमें अपना और अपने परिवार, समुदाय, वर्ग, समाज और देश का हित भी समझिए। आपके बौद्धिक, मानसिक और आध्यात्मिक अस्तित्व भी आपके भौतिक शरीर में ही निवास करता है, या इसी पर आधारित है। इसे भी समझिए।

बाजार एक ऐसा व्यवस्था (Arrangement), या तंत्र (System), या पद्धति (Method), या क्रियाविधि (Mechanics) होता है, जिसमें शामिल सभी सदस्य यथा व्यक्ति, परिवार, समुदाय, वर्ग, समाज और देश सोचता तो अपने अपने हित के लिए ही है, लेकिन इसके परिणामस्वरूप इसमें शामिल सभी का भी हित सधता रहता है। इस बात को एडम स्मिथ ने सबसे पहले व्यवस्थित रूप में स्थापित किया था। एक बाजार में हरेक खरीददार और विक्रेता अपने निर्णय में तर्कसंगत होता है, इसलिए बाजार एक आर्थिक ढांचा एवं संरचना के अतिरिक्त एक सामाजिक, सांस्कृतिक, और राजनैतिक ढांचा और संरचना भी होता  है। अर्थात एक बाजार समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक, और राजनैतिक ढांचा और संरचना को प्रभावित और संचालित करने वाला एक नियंत्रणकारी जबरदस्त उपकरण है। इसलिए आप भी इस बाजार पर नियंत्रण करने और उसे संचालित करने वाले वर्ग या समूह में हिस्सेदार बने। तब ही आप अपने परिवार, समुदाय, वर्ग, समाज और देश के सामाजिक एवं सांस्कृतिक ढांचा और संरचना का वर्तमान और भविष्य को बदल सकते हैं।

कार्ल मार्क्स ने भी ऐतिहासिक भौतिकवाद' में समझाया है कि सभी आर्थिक व्यवस्थाएं सामाजिक व्यवस्थाएं भी है। इसलिए एक अर्थव्यवस्था में धन और पूंजी के योगदान के अतिरिक्त लोगों के रिश्तों यानि 'संबंधों' का भी योगदान होता है। इस बाजार ने श्रम और कौशल को भी एक वस्तु के रूप में, यानि 'सामान' (पण्य/  Commodity) में बदल दिया, जिसे कोई  भी खरीद और बेच सकता है। इस प्रक्रिया को पण्यीकरण (Commoditisation) भी कहते‌ हैं। भारत में एक पीढ़ी पहले के लोगों में 'पेय जल' खरीद बिक्री की अवधारणा में शामिल नहीं था, यह भी बदलाव का यानि, पण्यीकरण एक उदाहरण है। समस्या का समाधान लाभ के साथ करना, या समस्या का अहसास दिला कर लाभ के साथ समाधान करने का तंत्र ही उद्यमिता है।

आज़ बाजार उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की प्रक्रियाओं के साथ ही कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर आधारित डिजीटलीकरण के कारण बहुत बदल गया है, और बहुत प्रभावशाली हो गया है। आज़ बाजार में आपके उपयोग का स्तर, तरीका और स्थिति आपकी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक हैसियत (Capacity) तथा प्रस्थिति (Status) निर्धारित भी करती हैऔर आप एवं आपका परिवार, समुदाय, वर्ग, समाज और देश अब  बाजार में मात्र एक उपभोक्ता (Consumer) ही होते है।

चूंकि उद्यमी और व्यापार करने वाले व्यक्ति, परिवार, समुदाय, और वर्ग गतिशील रहते हैं, अपना आर्थिक महत्व रखतें हैं और सामाजिक आर्थिक वित्तीय व्यवस्था पर नियंत्रण रखते हैं, इसलिए विश्व के हर संस्कृति, तंत्र और व्यवस्था में ऐसे लोग महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसीलिए आप भी ऐसे ही महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने की दिशा में सोचिए, बढ़िए और चलिए। आपका सब कुछ बदल जाएगा। आप अब उद्यमी बन कर आगे बढिए। 

अब सारा विश्व आपका बाजार है, सारा विश्व आपका उपभोक्ता हैं। अब बहुत कुछ बदल गया है। सिर्फ रोते और चिल्लाते ही मत रहिए। फिर आपको याद दिला दूं कि आपको इसके अलावा और कोई जीवन नहीं मिलने जा रहा है। ठहरिए और विचार कीजिए।

आचार्य प्रवर निरंजन

 

गुरुवार, 18 जुलाई 2024

पेशा, जाति, एवं कास्ट का इतिहास

भारत में जाति (Jati), कास्ट (Caste) और पेशा (Profession) की अवधारणा में बहुत से भ्रम एवं त्रुटियाँ हैंयह तीनों अवधारणा अलग अलग हैं, परन्तु भारत के सम्बन्ध में, यानि भारत के सन्दर्भ में यह बड़ी सूक्षमता से एक दुसरे से गुंथा हुआ भी है| इसीलिए ही इसे समझना बहुत जरुरी है|

पेशाका उदय एवं विकास बुद्धिवादयानि बुद्धिके उदय एवं विकास के साथ साथ हुआ, यानि प्राचीन काल में हुआ| जातिका उदय एवं विकास सामन्तवादयानि समानता के अंतके उदय एवं विकास के साथ साथ हुआ, यानि मध्य काल में हुआ| ‘कास्टका उदय एवं विकास आधुनिकवादयानि आधुनिकताके उदय एवं विकास के साथ हुआ, यानि आधुनिक युग में पुर्तगालियोंके आगमन के साथ हुआ| दरअसल कास्ट एक अलग अवधारणा नहीं होते हुए भी एक बौद्धिक षड्यंत्र है, और इसके षड्यंत्र को समझना है। 

लेकिन किसी भी इतिहास को जानने एवं समझने की जो प्रविधि (Technologies) एवं क्रियाविधि (Mechanism) उपयुक्त एवं सम्यक है, वही प्रविधि एवं क्रियाविधि ही भारत में पेशा, जाति, एवं कास्ट के इतिहास को भी जानने समझने के लिए जरुरी है|किसी भी क्षेत्र के और किसी भी काल के इतिहास को उपभोग, उत्पादन, वितरण और विनिमय के साधनों एवं शक्तियों और उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर ही वैज्ञानिक ढंग से समझा जा सकता है। 

जाति भारतीय समाज को विभाजित करने वाली जन्माधारित और पेशा आधारित एक व्यवस्था है, जिसे कोई भी व्यक्ति अपने एक जन्म काल में कभी बदल नहीं सकता हैभारतीय जाति व्यवस्था एक ही साथ समाज का क्षैतिज (Horizontal) विभाजन भी करता है, और समाज का खड़ा (Vertical) विभाजन भी करता है| अर्थात यह एक दुसरे के सापेक्ष उच्चता एवं निम्नता की व्यवस्था भी है| यह जाति की मौलिक प्रकृति है| ‘कास्टाया 'कास्ट' समाज का क्षैतिज विभाजन तो करता है, लेकिन खड़ा विभाजन नहीं करता है| सामाजिक विभाजन की ऐसी कोई भी व्यवस्था, जो जाति के सामानांतर हो, का विश्व में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है, यानि यह अद्वितीय है|

इसी अद्वितीय संरचना के कारण बहुत से समाजशास्त्री जातिका अंग्रेजी अनुवाद पुर्तगाली अवधारणा "Casta" पर आधारित अंग्रेजी में ‘Caste’ को सही नहीं मानते हैं| जैसे भारतीय साड़ीएवं धोतीका अंग्रेजी ‘Sari’ एवं ‘Dhoti’ ही होता है, और कोई दूसरा शब्द नहीं हो सकता| इसी कारण पश्चिमी दुनिया जातिको पुर्तगाली ‘Casta’ के अनुरूप ही समझता है और जातिको सही ढंग से नहीं समझ पाता है| इसीलिए बहुत से समाजशास्त्री जातिका अंग्रेजी अनुवाद ‘Jaati’ (Jati) ही रखने के पक्ष में हैंइसे और अच्छी तरह समझने के लिए आप फ्रेंच दार्शनिक जाक देरिदा के विखंडनवाद’ (Deconstructionalism) का अवलोकन कर सकते हैं|

शब्द ‘Caste की संरचना वस्तुत: पुर्तगाली शब्द ‘Casta’ की अवधारणा पर आधारित है| यह पुर्तगाली संस्कृति एवं उपनिवेशवाद से व्युत्पन्न अवधारणात्मक शब्द है, जिसका भारतीय जाति से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं हैकिसी भी शब्दों की संरचना को अच्छी तरह से समझने के लिए आप स्विस दार्शनिक फर्दिनांड दी सौसुरे की संरचनावाद’ (Structuralism) का अवलोकन कर सकते हैं| इसलिए भारतीय जाति के लिए अंग्रेजी में ‘Jati’ के स्थान पर ‘Caste’ लिखने, यानि प्रयोग करने से पश्चिम की दुनिया मानवता के इस वीभत्स चेहरे का अनुमान भी नहीं लगा पाते हैं| इस शब्द का प्रचलन पुर्तगालियों के भारत आगमन से शुरू हुआ, लेकिन इसे अब इस यथास्थिति में बनाये रखने के लिए तत्कालीन भारतीय बौद्धिक ही दोषी हैं|

जाति एवं वर्ण का कोई भी पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य प्राचीन काल से सम्बन्धित नहीं है, अर्थात किसी भी तथाकथित जाति एवं वर्ण का कोई भी अस्तित्व प्राचीन काल में नहीं था| प्राचीन काल में पेशा आधारित सामाजिक विभाजन था, जो सात पेशा में वर्गीकृत थेप्रारंभिक सामन्ती काल में सर्वव्याप्त पेशा आधारित गतिशील जाति व्यवस्थाही थी| प्राचीन काल के समापन पर यही पेशा अपने अपने क्षेत्रों की संस्कृतियों, भाषाओं एवं बोलियों के अनुरूप गतिहीन अर्थव्यवस्था में विभिन्न जातियों में नामित होकर वर्तमान स्वरुप ले लियाएक ही जाति के एक ही पेशा होने के बावजूद भी भिन्न भिन्न शब्दावली का प्रयोग इन्हीं आधार पर किया जाता है|

वस्तुत: जाति एवं वर्ण की उत्पत्ति ही मध्ययुगीन है, जिसे ऐतिहासिक सामन्ती शक्तियों की क्रियाविधियों ने ही मध्य काल में जन्म दिया है| मध्य काल में जाति व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था एक दुसरे के पूरक और एक दुसरे पर आधारित सामानांतर व्यवस्था थी| "वर्ण व्यवस्था" उस समय की "सामन्ती शासन की कार्यपालिका व्यवस्था" थी, जो आधुनिक युग के कार्यपालिका व्यवस्था की ही तरह थी| सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण की इस क्रियाविधि की गत्यात्मकता (Dynamism of Mechanics) को समझे बिना 'जाति' के इतिहास को नहीं समझा जा सकता है| इस तरह यह स्पष्ट है कि किसी भी जाति का इतिहास मध्य युग के पहले, यानि प्राचीन काल में नहीं जा सकता है| अत: किसी भी जाति एवं वर्ण के इतिहास को प्राचीन काल में बताना गलत और अवैज्ञानिक है|

जातियों का इतिहास को पेशा के रूप में प्राचीन काल में ले जाया जा सकता है, क्योंकि प्राचीन काल में तो पेशागत कार्यों का विभाजन था, और यही पेशा ही मध्य काल में जातियों के कार्य का आधार भी बनायही जातियाँ वर्ण व्यवस्था के लिए, यानि सामन्ती कार्यपालिका के लिए उपयुक्त उम्मीदवार देता रहा, जो बाद में स्थायी वर्ण व्यवस्था बन गया।

पाषाण युग में आधुनिक वर्तमान मानव के पूर्वज पहाड़ों पर रहते थे, और वे पूर्णतया पत्थरों पर ही निर्भर थे| उन्हें अपनी एवं अपने समूह की शारीरिक आवश्यकताओं से ही फुर्सत नहीं थी और इसीलिए पाषाण काल में किसी भी सभ्यता एवं संस्कृति का उद्भव नहीं हो सका था|

दरअसल सभ्यता एवं संस्कृति का उद्भव ही कृषि कार्य के प्रारंभ से ही और कृषि कार्य के कारण ही हुआकृषि कार्य कोई 12000 साल पहले, यानि दस हजार साल ईसा पूर्व में प्रारंभ होना इतिहास में स्थापित है| जब लोग पत्थरों की निर्भरता से मुक्त होकर और धातुओं के उपयोग के साथ पहाड़ों से उतर कर नदी घाटी के मैदानों में आ गये, तो कृषि कार्य प्रारंभ हो गयाकृषि कार्य सबसे पहले नदियों के कछारों में शुरू हुआ| इस तरह वर्तमान मानव, यानि होमो सेपियंस सेपियंस का पहला पेशा कृषि कार्य हुआ| कृषि कार्यों से कृषि कार्यों में लगे हुए लोगों के अतिरिक्त वैसे लोगों के लिए भी भोजन की सुनिश्चित व्यवस्था हो गयी, जो कृषि कार्य नहीं कर रहे थेइस तरह समुदाय में अर्थव्यवस्था के द्वितीयक एवं तृतीयक सेक्टरों के अतिरिक्त ज्ञान सृजन का चौथा सेक्टर एवं नीतियों के निर्धारण का पंचम सेक्टर का भी उदय हो गयाऔर उसका विकास होने लगा| इसी के साथ ही सभ्यता एवं संस्कृति का उद्भव एवं विकास होने लगा|

कृषि कार्य एक ही साथ नदियों के कछार में स्थलीय खेती और जलीय खेती के रूप में शुरू हो गया| अनाज उत्पादन के अतिरिक्त स्थलीय खेती के साथ साथ पशुओं, शाक - सब्जी तथा जल से खाद्य उत्पादन शुरू हो गया| एक ही मानव समूह में, यानि एक समुदाय में, यानी एक ही समाज में एक ही साथ अनाज उत्पादन, पशुपालन, शाक- सब्जी, मछली एवं अन्य जलोत्पादन करने वाला पेशाओं का उदय हो गया| कालांतर में और बढती एवं गतिशील आबादी की यही पेशा मध्य काल में जाति का स्वरुप ले लिया, जो आज भी मौजूद है| कालांतर में कोई समुदाय अनाजकी प्रमुखता से उत्पादन में लगे रहे। इसी तरह पशुपालन की विविध जातियाँ बनी, जो कृषि कार्य का ही एक प्रमुख हिस्सा रहा। इसी तरह जल उत्पादन से सम्बन्धित जातियाँ बनी। अत: कृषक, पशुपालक, एवं मत्स्य पालक आदि पेशा एक ही मानव समूह या समुदाय से उत्पन्न हुआ|  

शेष भारतीय सभी जातियों का उद्भव इसी एक ही समुदाय से हुआ, जब इन समुदायों ने इतना भोजन का उत्पादन सुनिश्चित कर दिया कि इस खाद्य उत्पादन के अतिरिक्त अन्य कार्य किए जा सके। इसी से अर्थव्यवस्था में प्राथमिक प्रक्षेत्र (Primary Sector) के अलावे द्वितीयक प्रक्षेत्र (Secondary Sector), तृतीयक प्रक्षेत्र (Tertiary Sector), चतुर्थक प्रक्षेत्र (Quaternay Sector) और पंचम प्रक्षेत्र (Quinary Sector) को जन्म दिया और विकसित होने का आधार दिया।

आपकी जातियों का जन्म विश्व में कहीं भी हुआ और कभी भी हुआ है, उसका वास्तविक आधार यही है, भले ही आप अप्राकृतिक और कल्पनीय मनमानी कहानियाँ गढ़ लीजिए। इसी प्रक्रियाओं ने और इन्हीं पेशाओं ने ही सभ्यता एवं संस्कृति को जन्म का आधार दिया|| इन आधारों पर ये उपरोक्त सभी पेशागत जातियाँ ही शेष अन्य जातियों का पिता जाति” (Parent Jati) हुआ| इसे आप चार्ल्स डार्विन के उद्विकासवाद’ (Theory of Evolution) से समझ सकते हैं|

अब आप पेशा’, ‘जातिएवं कास्टकी संकल्पना समझ गए होंगे| इसके ही साथ आप जातीय इतिहास को भी समझ गये होंगे, जो अपने में जाति, कास्ट, एवं पेशाओं के इतिहास को समेटे हुए हैयही वैज्ञानिक एवं मानवीय इतिहास है, इसे ध्यानपूर्वक समझिए|

आचार्य प्रवर निरंजन

 

बुधवार, 17 जुलाई 2024

भारतीय आवारा भीड़ की दिशा

भीड़ यदि आवारा हो, तो उसकी दिशा निश्चित ही नकारावादी और विध्वंसकारी होगी। ऐसी भीड़ चाहे भारतीय हो, या अमेरिकी हो, या पाकिस्तानी हो, आवारा भीड़ तो दिशाहीन होगी ही, और फिर ऐसी भीड़ की दिशा के बारे में क्यों पूछना? कहने का तात्पर्य यह है कि आवारा भीड़ तो उपरोक्त विशिष्टता के अलावे अपनी उपयोगिता और रचनात्मकता में बेकार भी होगी, हताशा भरी भी होगी और उस समाज, राष्ट्र, एवं मानवता को भी बर्बाद करता हुआ होगा। अर्थात एक आवारा भीड़ वर्तमान में जो कुछ भी बना हुआ होगा, उसको भी नष्ट करता हुआ होगा और भविष्य की बुनियाद को भी नष्ट करता हुआ होगा।

यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि भेड़ और भीड़ में भी एक गहरा संबंध है। शायद भेड़ की दशा को ही देख समझ कर ही भीड़ का नामकरण हुआ होगा। इन दोनों की प्रवृत्ति और प्रकृति भी एक ही समान होता है। भीड़ भी भक्त की तरह ही अंधभक्त होता है और भेड़ की ही चलती भी है। इसीलिए एक भीड़ को हांकने के लिए एक गडेरिया का स्वभाव चाहिए। अंधभक्तो की भीड़ को भी एक गडेरिया ही हांक ले जाने के लिए चाहिए होता है। 

हिटलर ने ऐसी ही आवारा भीड़ को नेतृत्व प्रदान किया था। हिटलर का अन्त तो नकारा के रूप में हुआ ही, साथ ही बिस्मार्क के एकीकृत जर्मनी को भी खण्डित हो जाना पड़ा। यदि आवारा भीड़ को हांक लिए जाने का आधार सम्प्रदाय (अधिकतर लोग इसे परम्परागत धर्म के नाम से जानते है) होता है, या जाति या प्रजाति होता है, या संस्कृति होता है, तो हांक लिए जाना बहुत आसान होता है। इन आधारों को तथाकथित बौद्धिकता के ठेकेदार राष्ट्रीयता भी कहते हैं। अर्थात इन सम्प्रदायों, जातियों, प्रजातियो एवं संस्कृतियों पर राष्ट्रीयता का मुलम्मा चढ़ा दिया जाता है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए, तो इसे ही राष्ट्रवाद भी कहा जाता है। आप लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुमत के आधार पर इसे तथ्यात्मक और प्रामाणिक भी साबित कर दे सकते हैं।

वैसे मैं समझता हूं कि आप इस आवारा भीड़ को नेतृत्व देने के लिए प्रयुक्त शब्द "हांक लिए जाने" को आपत्तिजनक शब्द कह सकते हैं, क्योंकि यह पशुओं के लिए उपयुक्त शब्द है। लेकिन थोड़ा ठहरिए, वर्तमान आदमी, यानि होमो सेपियंस सेपियंस भी तो मूलतः एक स्तनपायी पशु ही तो है। पशुओं के व्यवहार के नियंत्रण का प्रमुख आधार, यानि एक मात्र आधार ' स्वत: स्फूर्त क्रिया' (Reflex Action) होता है, जबकि एक होमो सेपियंस सेपियंस इसके साथ ही 'मस्तिष्क' (दिमाग/ Brain) और मन (Mind) का भी उपयोग करता है। एक मानव अपनी इसी चिन्तन प्रक्रिया और क्षमता के कारण ही होमो सोशियस (सामाजिक मानव), होमो फेबर (निर्माता मानव), और होमो साइंटिफिक (वैज्ञानिक मानव) बन गया। कहने का तात्पर्य यह है कि मस्तिष्क और मन का उपयोग करने वाला ही मानव हुआ और रिफ्लेक्स एक्सन (Reflex Action) देने वाले पशु हुए। अर्थात पैरों की संख्या पशुओं और मानव के विभाजन का आधार नहीं हो सकता। अतः ऐसे लोगों के लिए 'हांक लिए जाने' पर आपत्तियां नहीं होनी चाहिए।

आवारा का अर्थ होता है - निरर्थक इधर-उधर घूमने वाला। यदि इसकी अवधारणा को और स्पष्ट किया जाए, तो यह सीधे, समुचित, उपयुक्त और सार्थक रास्ते से भटक जाने वाले के लिए प्रयुक्त किया जाता है। मतलब कि आप आवारा शब्द में वैसे लोगों को शामिल कर ले सकते हैं, जो अपने जिम्मेदारियों के रास्तों से भटक गए हैं, विचलित हो गए हैं, उतर गए हैं, या छोड़ दिए हैं। भारत में यदि ऐसे लोगों का विश्लेषण करेंगे, तो पाएंगे कि इनमें बहुलता, या अधिकता युवाओं की ही है। 

युवाओं को इस उम्र में अपने परिवार, समाज, राष्ट्र और मानवता को आधार देने की तैयारी करनी चाहिए, लेकिन वे इस अवस्था में आवारागर्दी कर रहे हैं। इन युवाओं में से इनके 'होश' को तो उड़ा दिया जा रहा है, और सिर्फ इनके 'जोश' का 'उपयोग' किया जा रहा है। हालांकि इसके लिए "दुरुपयोग" करना ज्यादा समुचित शब्द है, और इतिहास 'उपयोग' शब्द पर आपत्तियां दर्ज कर सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि इन युवाओं को अपने परिवार, समाज, राष्ट्र और मानवता को सशक्त करने के लिए बाजार की शक्तियों के अनुरूप अपने को आर्थिक आधार देना चाहिए, लेकिन ये राजनीति, जाति और धर्म के नाम पर आवारागर्दी कर रहे हैं।

मुझे तो भारतीय युवाओं की वर्तमान स्थितियों और गतिविधियों को देखकर कष्ट होता है। आपको भी इनकी स्थितियों को देखकर मानवीय संवेदनाओं के अनुरूप कष्ट और दर्द हो रहा होगा। युवाओं की सृजनात्मकता, रचनात्मकता, जोश, उमंग, उत्साह, समर्पण आदि की दिशा को आधारहीन भावनात्मक राष्ट्रीयताओ के नाम पर भटका कर आवारा भीड़ में तब्दील कर देने का परिणाम चिन्ताजनक है। मानवता के सफरनामा के इतिहास में यह बहुत ही बेहूदा और दागदार अध्याय के रूप में लिखा जाएगा।

भीड़ का एक अलग मनोवैज्ञानिक होता है। यह भीड़ समाज नहीं होता। आवारा भीड़ व्यवस्था में अव्यवस्था पैदा करने के अलावा बहुत कुछ गडबड करता है। युवाओं के लिए उपलब्ध शिक्षा रोजगार की गारंटी नहीं देता। स्वरोजगार के लिए सचेत प्रयास भी नहीं किया जाता है। वित्तीय समझदारी बढ़ाने के लिए भी समुचित प्रयास नहीं किया जा रहा है। युवाओं में धर्म, जाति और राजनीति का नशा चढ़ा देना कोई समाधान नहीं देता है। यह युवाओं के लिए कभी भी प्राथमिक और प्रमुख मुद्दा नहीं हो सकता है।

आज बाजार की शक्तियां ही सबसे ज्यादा प्रभावशाली, शक्तिशाली और नियंत्रणकारी साधन है, और इसीलिए विकसित समाजों में परम्परागत राष्ट्रीयताओ के परम्परागत आधार सरक रहे हैं, ध्वस्त हो गए हैं। फिर भी पिछड़ी हुई संस्कृतियों में ये जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र या अन्य परम्परागत राष्ट्रीयताओ का स्वरूप लेकर बड़ी भीड़ को बहुत ही जल्दी इकट्ठी कर लेती है, और इसमें आवारा युवाओं की हिस्सेदारी सबसे बड़ी हो जाती है। यदि आप विश्व की सभी पिछडी हुई अर्थव्यवस्थाओं का विश्लेषण करेंगे, तो आप पाएंगे कि इन देशों में जाति, प्रजाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र या अन्य स्थानीय मुद्दों को राष्ट्रीयता से जोड़ कर वे देश अपने मे उलझे हुए हैं और बरबाद हो रहें हैं। ऐसे देशों में एशियाई और अफ्रीकी देशों के अतिरिक्त सभी पुरानी संस्कृतियों के देश ज्यादातर होते हैं। 

इन आवारा भीड़ को लेकर कोई भी चतुर चालाक व्यक्ति या संगठन उन्माद और तनाव पैदा कर देता है, तो कोई इनसे विध्वंसक कार्य करा लेता है। ऐसा करने वाले जन समर्थन तो पा ले सकते हैं, लेकिन बहुत जल्द ही वे अपने ही समाज, संस्कृति, देश को बरबाद कर रहे होते हैं। इतिहास बताता है कि यही भीड़ फ़ासिस्टों की शक्ति बनती है। इस भीड़ से कोई लोकतंत्र को तोड़ देता है, कोई राष्ट्र को ही खंडित करा देता है, तो कोई मानवीय संवेदनाओं को ही नष्ट करा देता है।

भारत में ऐसी आवारा भीड़ बढ़ रही है। सारे भीड़ों की प्रवृत्ति, और सारे आवारा भीड़ों की प्रकृति वैश्विक स्तर पर एक ही होती है। सभी एक ही मानवीय मनोवैज्ञानिक संवेदनाओं के द्वारा संचालित होता है और इसीलिए सभी की प्रवृत्ति और प्रकृति एक ही होती है। लेकिन आप इसके बारे में भी सोचिए। यह एक गम्भीर समसामयिक विषय है।

आचार्य प्रवर निरंजन

 


रविवार, 14 जुलाई 2024

भारत "राष्ट्र-राज्य" बने, या "राज्य-राष्ट्र"?

सवाल यह है कि भारत को एक "राष्ट्र-राज्य (Nation-State)" बनना चाहिए, या एक "राज्य-राष्ट्र (State-Nation)"? भारत के संदर्भ में यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जो सान्दर्भिक भी है और इसीलिए एक गम्भीर विमर्श का विषय भी है।

यह  "राष्ट्र-राज्य " और "राज्य-राष्ट्र" दो अलग-अलग राजनीतिक और सामाजिक - सांस्कृतिक अवधारणाएं हैं। लेकिन इसे समझने से पहले हमें देश, राज्य और राष्ट्र की अवधारणा को समझ लेना चाहिएऔर इसके साथ ही इसकी बदलती गत्यात्मकता (Dynamism) की क्रियाविधि (Mechanism) को भी समझा जाना चाहिए। 

एक देश (Country) वह निश्चित भौगोलिक क्षेत्र होता है, जो अपनी आबादी की एक निश्चित सामाजिक एवं सांस्कृतिक विन्यास (बनाबट/ Matrix) का बोध कराता है। अतः एक देश एक राज्य भी हो सकता है, और साथ ही एक राष्ट्र भी हो सकता है, यानि तीनों स्वरूप एक साथ भी हो सकता है, या नहीं भी हो सकता है। एक राज्य (State) एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में एक स्थिर आबादी का एक निश्चित सरकार होती है और वह संप्रभु भी होता है। एक राष्ट्र (Nation) ऐतिहासिक रूप से गठित, लोगों का एक स्थिर समुदाय है, जो एक क्षेत्र, एक आर्थिक जीवन और एक आम एवं विशिष्ट संस्कृति में प्रकट मनोवैज्ञानिक संरचना के आधार पर बनता है। 

भारत 1947 से पहले भी एक देश था और आज भी एक देश है। लेकिन भारत 1947 से पहले एक राज्य नहीं था, क्योंकि भारत देश में सम्प्रभुता का अभाव था, जो राज्य के लिए एक अनिवार्य तत्व है। ज्ञातव्य है कि एक राज्य के आवश्यक तत्व में भौगोलिक क्षेत्र, स्थिर आबादी, सरकार और सम्प्रभुता शामिल होता है। भारत एक राष्ट्र के रूप में ब्रिटिश काल में उभरना शुरू हुआ था, और यह प्रक्रिया अभी भी चल रही है, मतलब इसके पहले भारत एक देश तो था, लेकिन एक राज्य भी नहीं था, और एक राष्ट्र भी नहीं था। स्पष्ट है कि उपरोक्त तीनों अवधारणाएँ अलग अलग तो हैं, परन्तु इनकी अवस्थाएँ एक दूसरे में रुपांतरित होने के लिए गतिशील भी रहती है। यह भी स्पष्ट है कि कोई एक देश वर्तमान में एक साथ सिर्फ एक देश ही हो सकता है, या तीनों अवस्था – देश, राज्य और राष्ट्र का संयुक्त स्वरूप भी हो सकता है। सभी देश कालान्तर में राज्य तो बनना ही चाहते हैं, परन्तु कोई राष्ट्र- राज्य ही बनता है, तो कोई राज्य - राष्ट्र। 

इसी उपरोक्त सन्दर्भ में अहम सवाल यह है कि भारत को क्या बनना चाहिए - "राष्ट्र-राज्य " या "राज्य-राष्ट्र"? आपने देश और राज्य की अवधारणा को स्पष्टतया समझ लिया, क्योंकि यह दोनों ही एक तथ्यात्मक अवधारणा है। राष्ट्र की अवधारणा को स्पष्टतया समझ लेना थोड़ा कठिनतर होता है, क्योंकि यह अवधारणा मूलतः मानवीय भावनाओं पर आधारित होता है और इसीलिए इन भावनाओं के आधार कईं कारकों को अपने में समेटे हुए होता है। इन कारकों में सम्प्रदाय (जिसे अधिकतर लोग धर्म समझ लेते हैं), भाषा, संस्कृति, इतिहास बोध, क्षेत्र, आर्थिक और राजनीतिक एकता सबसे प्रमुख है। अब हम "राष्ट्र-राज्य " और "राज्य-राष्ट्र" को भी उदाहरण के साथ समझते हैं। 

"राष्ट्र-राज्य" (Nation-State) एक राष्ट्रीय राजनीतिक इकाई है, जो एक सांस्कृतिक, भाषा, इतिहास और जातीयता के साझा तत्वों वाले समूह से निर्मित होता है। और इसके साथ ही, यह  स्वतंत्र सम्प्रभुता की सरकार और भौगोलिक क्षेत्र से निर्मित एक ही इकाई के रुप में एक राज्य भी होता हैं। इसके स्पष्ट उदाहरण जापान, जर्मनी, इजरायल और फ्रांस हैं। ये सभी "राष्ट्र-राज्य" हैं, क्योंकि वहां के लोग सांस्कृतिक, भाषाई और ऐतिहासिक पहचान के साथ एकजुट हैं, और उनके पास अपनी स्वतंत्र सरकार है। इसकी मुख्य विशेषताओं में एकल राष्ट्रीय पहचान और एकल सरकार होती है।

जबकि एक "राज्य-राष्ट्र" (State-Nation) की अवधारणा उपरोक्त से अलग हो जाता है। यह एक ऐसा राज्य है, जिसमें कई राष्ट्र या सांस्कृतिक समूह एक साथ शामिल होते हैं और वे एकसाथ एक राज्य की रूप में कार्य करते हैं। इसके स्पष्ट उदाहरण में भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, स्विट्जरलैंड आदि 'राज्य-राष्ट्र' हैं, जहां विभिन्न सांस्कृतिक, भाषाई और जातीय समूह एक ही राज्य के अंतर्गत आते हैं। इसकी मुख्य विशेषताओं में विभिन्न राष्ट्रीय पहचान होते हुए भी एकल सरकार होती है, जो अपनी विशिष्ट विविधताओं को स्वीकार करते हुए एकता बनाए रखती है। इसकी अवधारणा राष्ट्रीयता की परिभाषा के साथ ही गत्यात्मक रहती है। 

इस प्रकार, "राष्ट्र-राज्य" में एक राष्ट्र और एक राज्य का संयोजन होता है, यानि दोनों एक ही होता है। वहीं "राज्य-राष्ट्र" में विभिन्न राष्ट्रों का एक राज्य में संगठित होना शामिल होता है, और ऐसा ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के द्वारा होता हुआ रहता है। हालांकि दोनों अवधारणा गलत नहीं है, परन्तु "राज्य - राष्ट्र" की अवधारणा आज वर्तमान वैज्ञानिक युग में ज्यादा सफल, समुचित और व्यवहारिक माना जाता है। अपनी विशिष्ट शर्तों के कारण “राष्ट्र - राज्य” एक छोटे भौगोलिक क्षेत्र, छोटी आबादी, और एक निश्चित संस्कार में सीमित होते हैं| वहीं “राज्य – राष्ट्र” का भौगोलिक क्षेत्र विस्तृत होता है, अपने में विविध आबादी को समाहित किए होती है, उसमे सांस्कृतिक विविधताएँ होती है, और इसका मूल एवं प्राथमिक आधार ‘मानवीयता’ ही होता है| ऐसे ही राज्य वैश्विक शक्तियाँ बनती है, या बन सकती है|

आज की बाजार की शक्तियां, यानि आर्थिक शक्तियां, यानि ऐतिहासिक शक्तियां "राज्य- राष्ट्र" के पक्ष में जा रही है, क्योंकि यह "मानवता" को उभार रही है और अन्य सांस्कृतिक पहचान को उपेक्षित कर रही है। इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह एक गम्भीर ऐतिहासिक प्रक्रिया है, जिस पर भारत में अभी तक विमर्श शुरू नहीं हुआ है। 

आप यदि इस "राज्य- राष्ट्र" अवधारणा के विरोधी हैं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप 'राष्ट्र- राज्य' की अवधारणा के समर्थक हैं। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट अर्थ निकलता है कि आप विभिन्न राष्ट्रीयताओं के सह - अस्तित्व के विरोधी हैं। लेकिन इनमें बहुत सी राष्ट्रीयताएँ वैश्विक स्तर की हैं, सशक्त भी है, संपन्न भी है, बौद्धिकता के स्तर में उच्चतर भी है, और बहुलता में भी है, और इसीलिए आप इसके अस्तित्व एवं सह- अस्तित्व से इंकार नहीं कर सकते। सह - अस्तित्व के विरोध की आपकी ऐसी भावना भारत के न्यायिक चरित्र को नुकसान भी पहुंचाती है, और भारतीय गरिमामयी पौराणिक विरासत की छवि को भी दागदार बनाती है। 

इसका यह भी स्पष्ट अर्थ निकलता है कि आप राष्ट्रियता के नाम पर, या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर अपने देश और राज्य को ही खंडित करना चाहते हैं। यह आपकी मान्यताओं का एक खतरनाक भावार्थ है, और इसीलिए आपको सावधान हो जाना चाहिए। 

आप खुद समझदार है। अब आप समझ गए होंगे कि भारत को एक "राष्ट्र-राज्य (Nation-State)" बनना चाहिए, या एक "राज्य-राष्ट्र (State-Nation)"?

आचार्य प्रवर निरंजन

शनिवार, 13 जुलाई 2024

बौद्धिक बकवास बंद कीजिए

प्यारे युवा दोस्तों

लोग 'बकवास' करते हैं और यह समझते हैं कि वे "बौद्धिक विमर्श" कर रहे हैं। लेकिन बकवास किसे कहते हैं? विमर्श का तो कोई मूल मुद्दा होता है, जो व्यक्ति हित में, समाज हित में, या मानवता हित में उपयोगी होता है और जिसके इर्द-गिर्द  ही सारे विचार चक्कर लगाते हैं। इस तरह यदि किसी विमर्श का मूल ही, यानि यदि अपने मूल मुद्दे की स्थापना में ही अपने परिणाम में अपने हितों के विरुद्ध हो जाता है, तो वह 'बौद्धिक विमर्श' नहीं है, सिर्फ "बकवास" है। और ऐसे बकवास पर तथाकथित बौद्धिकता का मुलम्मा चढ़ा देने से वह बौद्धिक नहीं हो जाता। ध्यान रहे कि किसी की बौद्धिकता का कोई प्रत्यक्ष संबंध उसके पद, पदवी यानि डिग्री एवं धन से नहीं होता है।‌ 

बुद्धि के ज्ञाता मानते हैं कि किसी भी चीज को देखने समझने के लिए पांचों इंद्रियों के अतिरिक्त मानसिक दृष्टि अति महत्वपूर्ण और प्राथमिक होता है। किसी की मानसिक दृष्टि उसके आलोचनात्मक चिंतन के स्तर और गहराई से विकसित होता है और निखारता है। अधिकांश लोग बिना ‘आलचनात्मक दृष्टि’ (Critical Vision) के ही होते हैं और वे पांचों इंद्रियों के द्वारा ज्ञात जानकारी को ही अंतिम प्रमाण और अंतिम सत्य मान लेते हैं। ऐसे लोगों में अधिकतर ज्ञाता व्हाट्सएप दुनिया के ही होते हैं। इसी कारण ऐसे लोग सतही होते हैं और वे किसी सकारात्मक परिणाम के नहीं होते हैं।

किसी भी व्यक्ति का तीन ही स्वरुप क्रियाशील हो सकता है, यानि कार्यान्वित हो सकता है - शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। अंतिम दोनों स्वरुप, यानि मानसिक और आध्यात्मिक भी उस व्यक्ति के शारीरिक स्वरुप पर ही आश्रित होता है। और किसी का भी शारीरिक स्वरुप भी पूर्णतया भौतिक ही होता है। और भौतिकता की पूर्ति भी सिर्फ भौतिक पदार्थों के ही मूल पर ही आधारित है। और इसके लिए धन की ही आवश्यकता होती है। अतः जिन विमर्शों के मूल में ही आपके शारीरिक अस्तित्व के आधार को ही नकार दिया जाता है, वैसे ही विमर्श को "बकवास" मान लिया जाना चाहिए, या मान लिया जा सकता है। 

कहने का स्पष्ट तात्पर्य यह है कि किसी के व्यक्तित्व के महत्तम विकास के लिए एक न्यूनतम एवं निरंतर आर्थिक संरचना एवं आधार चाहिए, तभी ही उसकी मानसिक और आध्यात्मिक उपादेयता भी व्यवहारिक रूप में क्रियान्वित हो सकता है। और यदि किसी भी विमर्श में यही मूल मुद्दा उपेक्षित है, तो वैसे सभी विमर्श  'बकवास' है, 'बेतुका' है, 'बेहुदा' है। इसीलिए राजनीति, जाति और साम्प्रदायिकता का नशा उतारिए, यह आपके लिए बहुत खतरनाक है। 

अर्थात कोई भी विमर्श, यानि कोई भी विचार, भावना, व्यवहार और कार्य यदि आपके मूल आधार, यानि आपके शारीरिक अस्तित्व की उपेक्षा कर देता है, या गौण कर देता है, तो वह विचार, भावना, व्यवहार और कार्य सिर्फ "बकवास" है। इस तरह यह स्पष्ट होता है कि किसी भी विचार, भावना, व्यवहार और कार्य के लिए विमर्श का 'फलदाई' या 'बकवास' होना एक सापेक्षिक स्थिति है। यानि किसी भी विचार, भावना, व्यवहार और कार्य के लिए विमर्श का 'फलदाई' या 'बकवास' स्थापित होना उसके संदर्भ, पृष्ठभूमि, परिस्थिति, वातावरण, समय, एवं अवस्था के अनुसार बदल जा सकता है। यानि एक ही विचार, भावना, व्यवहार और कार्य के लिए विमर्श आपके लिए, या किसी के लिए एक समान उद्देश्य का और सदैव स्थिर नहीं हो सकता।

इसीलिए यदि कोई विमर्श वर्तमान में आपके शारीरिक न्यूनतम हितों के स्थायित्व एवं निरंतरता की उपेक्षा करता है, या इसे गौण करता है, तो आप सावधान और सतर्क हो जाएं। यह सब आपके अस्तित्व के विरुद्ध एक षड्यंत्र है, धूर्तता है, बेहूदा मजाक है। 

विज्ञान के अनुसार इस जीवन के परे कोई अस्तित्व नहीं है। यदि इस जीवन के परे भी बहुत कुछ अच्छा है, तो ऐसा कहने और मानने वाले अपनी भौतिक सुविधाओं एवं आकांक्षाओं को त्याग कर अपने पूरे परिवार के साथ उसकी तैयारी क्यों नहीं करते, या अविलम्ब क्यों नहीं चले जातेऐसे लोग सिर्फ दूसरों को प्रवचन एवं उपदेश ही देते हैं| ऐसा बकवास 'बौद्धिक विमर्श' के नाम पर आपके समय, संसाधन, धन, ऊर्जा, योग्यता, वैचारिकी, जवानी, क्षमता और उपयोगिता को नष्ट कर रहा है, और आप अब सावधान हो जाएं। ऐसे लोग आपकी कीमत पर सिर्फ अपनी नेतागिरी चमका रहे हैं।

अतः आपको भी यदि अपनी नेतागिरी चमकानी हो, तो भी सबसे पहले अपनी न्यूनतम भौतिकता की स्थायी व्यवस्था कर लीजिए, अन्यथा आप जीवन भर मात्र झंडा ढोने वाले बनकर रह जाएंगे। इसके ही बाद, आपको जाति की, आपके  मूल निवासी या आपकी नृवंशतता की, आपके सम्प्रदाय की, आपकी राजनीति की, भाषा की, संस्कृति की, क्षेत्र की बौद्धिकता भरी विमर्श शोभा देगा। इसलिए सबसे पहले, यानि प्राथमिकता के साथ अपनी आर्थिक आधार और संरचना को मजबूती दे, स्थायित्व दे, निरंतरता दे और सम्पन्नता दें। यही आपको काम देगा। यही आपके व्यक्तित्व और उपयोगिता को महत्तम उंचाई देगा।

आप इस पर थोड़ा ठहर कर विचार करें, मनन करें, मंथन करें। आपको अपने व्यक्तित्व का क्षैतिज विस्तार भी मिलेगा और उर्ध्वगामी गहराई के साथ उंचाई भी मिलेगा। आपको एक सुखद अहसास भी होगा।

आचार्य प्रवर निरंजन

 


संघर्ष करना' जीवन लक्ष्य नहीं होना चाहिए

कभी भी ' संघर्ष करना ' किसी के लिए भी जीवन लक्ष्य नहीं होना चाहिए। आपने कभी अमरुद का फल पाने के लिए कभी आम का पौधा नहीं लगाया। भले...