मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

युद्ध जीतने के लिए एक ही योद्धा काफी है।

जी, यह सही है कि किसी भी युद्ध (War) को जीतने के लिए एक ही योद्धा (Warrior) काफी होता है ताश के खेल में एक इक्का भी राजा को पराजित कर देता है। वैसे भी भीड़ की जरूरत तमाशा करने और तमाशा दिखाने के लिए  होती है| युद्ध जीतने के लिए भाषण की नहीं, विमर्श की आवश्यकता होती है। ध्यान रहे कि मैंने एक योद्धा शब्द लिखा है, एक सिपाही (Soldier) शब्द नहीं लिखा है। एक सिपाही के पास लक्ष्य को साधने के लिए शारीरिक आंखें ही होती है, जिसकी सहायता से ही वह लक्ष्य देखता और बेधता है। वह सिपाही अपने मानसिक दृष्टि से उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्थिति का आलोचनात्मक चिंतन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन नहीं कर सकता और इसीलिए वह किसी रणनीति पर नहीं पहुंच पाता। 

लेकिन एक योद्धा के पास लक्ष्य पाने के लिए शारीरिक आंखों के अतिरिक्त मानसिक दृष्टि भी होती है। एक योद्धा अपने लक्ष्य का उस संदर्भ में, उस पृष्ठभूमि में, उस दिक् काल में और उस वैज्ञानिकता में आलोचनात्मक चिंतन एवं विश्लेषण कर उसका मूल्यांकन करता है और वह 'संदर्भ के बाहर' (Out of Box) भी जाकर सोच पाता है। इसके साथ ही वह एक बेहतरीन रणनीति के साथ आगे आता है। इनकी मानसिक दृष्टि पैनी भी होती है, तीखी भी होती है, गहरी भी होती है, समन्वित भी होती है और व्यापक भी होती है। तय है कि एक योद्धा की यह शक्ति, क्षमता और प्रभावशीलता उसके विचारों में होती है, किसी अस्त्र-शस्त्र में नहीं होती है। इसीलिए कहा गया है कि शास्त्र (विचार) शस्त्रों से ज्यादा घातक और प्रभावशाली होता है।

एक अकेला योद्धा लड़ाईयों (Battle) में हार जा सकता है, लेकिन वह युद्ध  (War) को जीत ही लेता है। सिपाही लड़ाईयां लड़ता है, लेकिन एक योद्धा युद्ध जीतता है। लड़ाई और युद्ध में अन्तर है। लड़ाईयां तो सिपाही  ही लड़ता है, और वह हारता जीतता रहता है। लेकिन युद्ध में तो योद्धा  ही सामने आता है और इसीलिए वह युद्ध जीत ही जाता है। विश्व में विभिन्न जीवन क्षेत्रों में अनेकों योद्धा हुए हैं, जिन्होंने बहुत कुछ जीत लिया। इनमें कुछ ही उदाहरण में गोतम बुद्ध, गैलीलियो, चार्ल्स डार्विन, कार्ल मार्क्स, अल्बर्ट आइंस्टीन, अलेक्जेंडर फ्लेमिंग, आदि अनेकों का नाम लिया जा सकता है, जिन्हें ऐसे प्रमुख महान योद्धा कह सकते हैं। इन लोगों ने जीवन के कई ऐतिहासिक युद्धों में जीत हासिल किया। इन संक्षिप्त उदाहरणों की सूची को काफी विस्तारित किया जा सकता है। जिसने भी जीवन युद्ध जीता है, उसने वैचारिक क्रांति ही लाया है। ऐसे ही व्यक्तियों के विचार -कार्य प्रभाव को ही सामान्यतः "तितली प्रभाव" (Butterfly Effect) भी कहते हैं।

आप लड़ाई (Battle) या झड़प (Fight) को सेना या पुलिस की प्रत्यक्ष सहभागिता से एक सीमित अवधि, क्षेत्र एवं बल के लिए परिभाषित कर सकते हैं। लेकिन युद्ध (War) को सरकार या सरकारों की सहभागिता या इनके बिना भी इसे व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करने एवं लम्बे समय अवधि के लिए सामाजिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक रुपांतरण करने वाला अवधारणा के रूप में व्याख्यापित कर सकते हैं। इसे आप जीवन मूल्यों एवं अंतरंग सम्बन्धों की भूमिका को बदलने वाला एवं एक व्यापक, गहन और विस्तृत प्रभाव पैदा करने वाला लड़ाईयों की श्रृंखला कह सकते हैं। युद्ध किसी विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक लम्बी एवं व्यापक विचारों का अंतिम परिणाम होता है। मानवीय इतिहास में हुए दो विश्व युद्धों ने साम्राज्यवाद का स्वरूप ही बदल दिया। यह विश्व युद्ध आर्थिक और राजनीतिक हैसियत बढ़ाने के लिए भौगोलिक क्षेत्र का विस्तार करने के लिए हुआं था, हालांकि इसके और भौगोलिक विस्तार की संभावनाएं समाप्त हो गई थी। साम्राज्यवाद के नव उदित स्वरुप, अर्थात वित्तीय साम्राज्यवाद ने सारे उपनिवेशिक राजनीतिक एवं प्रशासनिक आवश्यकताओं को ही समाप्त कर दिया। यह विचारों की शक्ति का ही उदाहरण है। इस नवोदित विचार ने लड़ाईयों की श्रृंखला को ही समाप्त कर दिया।

इसीलिए ई० रुजवेल्ट कहतीं हैं कि उत्कृष्ट लोग विचारों (और आदर्शों) की बात करते हैं, मध्यम वर्गीय लोग घटनाओं के विवरण पर ही बात करते हैं, और निम्न एवं गरीब लोग किसी व्यक्ति यानि उसके व्यक्तित्व के ब्यौरे तक ही सीमित रहते हैं। विक्टर ह्यूगो ने कहा है कि जब विचारों का उपयुक्त समय आता है, तब वह विश्व की समस्त सेनाओं से भी शक्तिशाली हो जाता है। लेकिन मेरी समझ में, कभी भी विचारों का कोई उपयुक्त समय नहीं आता है, जब वह विचार विश्व की तमाम सेनाओं से भी शक्तिशाली हो जाता है। विचारों को विश्व की तमाम सेनाओं से भी शक्तिशाली होने के लिए विचारों को ही समय, संदर्भ और परिस्थितियों के लिए उपयुक्त (Appropriate) होना होता है। इसीलिए शताब्दियों का प्रभाव पैदा कर देने के लिए विचारों पर आधारित "सांस्कृतिक आवेग" (Cultural Momentum) और "सांस्कृतिक जड़ता" (Cultural Inertia) पैदा किया जाता है, जिसे हम महान सांस्कृतिक विरासत का आवरण भी देते हैं।

थामस सैम्युल कुहन भी अपनी पुस्तक The Structure of Scientific Revolution  में क्रांतिकारी बदलाव या रुपांतरण के लिए विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट (Paradigms Shift) की बात करते हैं। वे समझते हैं और मानते भी हैं कि परम्परागत विचारों के विन्यास में, संरचना में और मूल प्रवृत्ति में कोई बड़ा दोष है, जिसके ही कारण बदलाव में गतिहीनता आ जाती है। इसीलिए इस गतिहीनता यानि स्थिति की जड़ता को मिटाने के लिए ही 'नवाचारी '(Innovative) विचारों को उत्पन्न करना होता है, जो समय और दिक् काल के संदर्भ एवं पृष्ठभूमि में उपयुक्त होता है। आप भी देखते होंगे कि कोई आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में सदियों का प्रभाव पैदा करना चाहता है या करता हैवह संबंधित विचारों को ही बदलता है। वह वृहत् सांस्कृतिक आवेग पैदा करता है और उसे सफलतापूर्वक बनाए भी रखता है। अल्प समय (वर्षों या दशकों) के लिए तो लड़ाईयां ही लड़ी जाती है, जिसमें अनेक सिपाही भाग लेते हैं।

मैं नहीं जानता कि आपको आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में सदियों का प्रभाव पैदा करना है, या अल्प समय का प्रभाव पैदा करना है? आपको यदि लोगो में यानि समाज में अति अल्प समय में कोई विशेष सुविधा चाहिए होता है, या कोई पहचान बनानी है, तो आप लड़ाईयां लड़ते रहिए। हो सकता है कि आप इन  लड़ाईयों में एक सिपाही की तरह लड़कर और दिख दिखा कर शासन में या विधायिका में कोई सम्मामित और लाभान्वित करने वाली हैसियत पा लें, लेकिन युद्ध में आपकी हार भी सुनिश्चित ही है। इसीलिए कुछ संगठन विचारों पर आधारित एक संस्थागत ढांचा ही खड़ा कर देते हैं, जो एक विशिष्ट लक्ष्य को पाने के लिए प्रयासरत रहता है। ऐसे संस्था एवं संस्थान ही व्यक्ति एवं घटनाओं के बदलने से भी प्रभावित नहीं होता है। ऐसे संस्थाओं और संस्थानों का एक मूल, मौलिक और विशिष्ट दर्शन होता है, जिसके लिए ही उन संस्थाओं और संस्थानों के सभी अंग अलग अलग दिशा, मात्रा और गति में समन्वित रूप में कार्य करता है। 

चूंकि ऐसे संस्था और संस्थान एक मूल, मौलिक और विशिष्ट दर्शन के लिए ही काम करते हैं, जो पूर्णतया विचारों पर ही आधारित होता है। अतः आप यदि किसी भी संस्थागत या संस्थानगत संरचना को और मजबूत करना चाहते हैं, या उसमें बदलाव करना चाहते हैं, या उसे समूल नष्ट ही कर देना चाहते हैं, तो सबसे पहले उस संस्था या संस्थान के एक मूल, मौलिक और विशिष्ट दर्शन को पहचानिए और समझिए। फिर इस एक मूल, मौलिक और विशिष्ट दर्शन के संदर्भ, आधार और पृष्ठभूमि का आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्यांकन कीजिए। हो सकता है कि उन संस्थागत ढांचा का वह मूल, मौलिक और विशिष्ट दर्शन ही कल्पना पर यानि किसी मिथक पर आधारित हो, जिसकी कोई तार्किकता, वस्तुनिष्टता, विवेकशीलता और वैज्ञानिकता ही नहीं हो। ऐसी स्थिति में ऐसे संस्थाओं और संस्थानों को समाप्त हो कर देना, या मौलिक रूप से ही बदल देना बहुत आसान होता है। ऐसे युद्धों को जीतने के लिए एक ही योद्धा काफी होता है।

यदि संस्थाओं और संस्थानों की एक मूल, मौलिक और विशिष्ट दर्शन तार्किक है, वस्तुनिष्ठ भी है और तथाकथित वैज्ञानिक भी है, तो उस संस्थाओं के विचार- दर्शन को समझ कर और उसमें 'पैरेडाईम शिफ्ट' करके ही उसे बदला जा सकता है, या नष्ट किया जा सकता है। यह ध्यान रखें कि यह बदलाव की शक्ति सिर्फ विचारों में ही है, और विचार भी कुछ लोग पैदा करते हैं उपयुक्त विचार पैदा करना ही दुनिया का सबसे कठोरतम, श्रमसाध्य और महत्वपूर्ण कार्य है। इसीलिए उपयुक्त विचार पैदा करने का क्षेत्र सदैव खाली पड़ा रहता है। साधारण और सामान्य लोग शारीरिक श्रम को ही महत्वपूर्ण श्रम और कार्य समझते एवं मानते हैं। और इसीलिए ऐसे लोगों की मानसिकता महत्वपूर्ण बौद्धिक श्रम करने तक नहीं पहुंच पाती है। इसी कारण ऐसे सामान्य साधारण लोग शारीरिक श्रम ही करते रहते हैं और कभी भी शासन नीति निर्धारण का भाग नहीं बन पाते हैं, यानि कभी भी शासक नहीं बन पाते हैं। इन सामान्य साधारण लोगों को यही लगता है कि शारीरिक श्रम ही सबसे महत्वपूर्ण होता है और बौद्धिक श्रम बहुत हल्का होता है। इसी कारण से वे बौद्धिक लोगों को शोषक के रुप में कोसते रहते हैं।

इसीलिए आप लड़ाईयां लड़ने या जीतने के लिए सिपाही बनने के चक्कर में नहीं पड़िए, आप युद्ध जीतने के लिए योद्धा बनिए। आप अकेले इस दुनिया में बहुत कुछ बदल कर सकारात्मक, रचनात्मक और सृजनात्मक परिणाम दे सकते हैं, जैसे उपरोक्त वर्णित महान योद्धाओं ने किया है। 

आप सिर्फ एक बड़ी ही "सांस्कृतिक आवेग" पैदा कीजिये, उस आवेग में सब कुछ स्वत: बहता चला जाएगा। 

ऐसा भी होता है, यानि होता रहता है, यानि संभव हैएक बार ऐसा मान तो लीजिए। इतना ही मान लेने से और उस पर आगे बढ़ जाने से ही परिवर्तन और रुपांतरण शुरू हो जाता है। सादर।

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक

 

1 टिप्पणी:

  1. आलेख में मान्यवर सिन्हा जी ने व्यक्ति के/हमारे नजरिये, विचारों, Out of Box, Think tank के बारे में धाराप्रवाह कलम चलायी है जिससे व्यक्ति का विवेक,भाव स्वतः जाग्रत हो जाता है और पूरा आलेख "अप्प दीपों भव" की एक बेहतरीन व्याख्या हैं।

    लेखक महोदय को शुभेच्छा🙏🏻

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