सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

क्या श्रमिक वर्ग कभी भी शासन कर सकता है?

 अर्थातक्या श्रमिक कभी शासक हो सकते हैं?

यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण और बहुत प्रचलित है, लेकिन इसका उत्तर बहुत भ्रमित भी है। भारत में बड़े बड़े बौद्धिकता रखने वाले गणमान्य जनों के प्रचलित धारणाओं के कारण ही मुझे यह आलेख लिखना पड़ रहा है। इस संबंध में जो भी आलेख देखने को मिलते हैं, वे सभी बड़े ही भावनात्मक होते हैं, लेकिन तथ्यात्मक और तार्किक नहीं होते हैं। इनकी  चित्रात्मक एवं कल्पनात्मक प्रस्तुति ऐसी होती है कि वे भावनाओं की ऐसी दरिया बहा देते हैं, कि उसमें सभी तथाकथित बौद्धिक आसानी से शारीरिक श्रम को ही एकमात्र श्रम समझने में डूबते उतरते हुए बहने लगते हैं, या यह कहें कि बह ही जाते हैं।

तो मूल प्रश्न यह है कि क्या कोई श्रमिक या श्रमिक वर्ग  कभी भी शासक बन सकता है, या कभी भी इतिहास के पन्नों में शासन किया हैशासन करने वाले ही शासक कहलाते हैं। यानि कभी भी श्रमिक वर्ग शासक रहा हैसामान्य व्यक्ति और समाज के जीवन पद्धति (Ways of Life), प्रतिरूप (Pattern) और प्रणाली (System) को नियमित करना, तथा नियंत्रित और संचालित करना ही शासन करना हुआ होता है और ऐसा करने वाला ही शासक कहलाता है। तो इस मूल प्रश्न का स्पष्ट उत्तर निम्न हैं -

हां, श्रमिक वर्ग कभी भी शासक बन सकते हैं।

नहीं, श्रमिक वर्ग कभी भी शासक नहीं बन सकते हैं।

तब, क्या दोनों ही कथन एक साथ सत्य हो सकता है ? या इनमें से कोई एक ही कथन सत्य हो सकता है, लेकिन दोनों कथन एक ही साथ सत्य नहीं हो सकता है? इसका सम्यक उत्तर इसमें निहित है कि हम श्रमिक या श्रमिक वर्ग से क्या समझते हैं और शासक वर्ग से क्या समझते हैं। स्पष्ट है कि उपरोक्त कथनों की सम्यक मूल्यांकन के लिए हमें श्रमिक और शासक वर्ग को परिभाषित करना होगा, यानि श्रमिक और शासक वर्ग की अवधारणाओं को समझ लेना चाहिए। 

तो प्रश्न यह उठता है कि शासक या शासक वर्ग कौन होता है? आप भी जानते हैं कि आधुनिक युग में शासन के चार स्तम्भ होते हैं - विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और संवादपालिका। जिन लोगों का, या जिन वर्गों का इन चारों मौलिक क्षेत्रों पर सम्यक, यानि समुचित एवं पर्याप्त बौद्धिक नियंत्रण होता है, वास्तविक शासक वही होते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रत्येक नागरिक विधायिका के सदस्यों को या/ एवं कार्यपालिका प्रमुख को निर्वाचित करते हैं। इसीलिए हर नागरिक को एक वोट के आधार पर विधायिका में श्रमिक वर्ग का अच्छा खासा प्रतिनिधित्व दिख जाता है, लेकिन लगभग सभी प्रतिनिधि प्रखर बौद्धिकता के अभाव में असली शासक नहीं बन पाते हैं। कार्यपालिका भी प्रखर बौद्धिकता के नियंत्रण में होता और न्यायपालिका की सीमाओं के अन्तर्गत होता है। अर्थात कार्यपालिका और न्यायपालिका पर भी बौद्धिक नियंत्रण एवं नियमन ही होता है। और कार्यपालिका ही विधेयकों के मजमून के नियमन और निर्धारण कर विधायिका को भी नियंत्रित करता हैं। संवादपालिका यानि प्रचलित मीडिया सामान्यतः प्रत्यक्ष सरकारी नियंत्रण से बाहर होता है और वह ही सामान्य जनमानस को अपने तरीकों से संचालित और नियमित करता हुआ होता है।  ये सभी चारों अंग अपने को सरकार के नियंत्रण में दिखते हैं, या दिखाते तो है, लेकिन इनका नियंत्रण कुछ बौद्धिक लोग ही करते हैं। ऐसे  शासन संचालक लोगों को किस तरह का श्रमिक माना जाय - शारीरिक श्रमिक या बौद्धिक श्रमिक?

श्रम करने वाले को ही श्रमिक कहा जाता है। लेकिन श्रम तो शारीरिक भी होता है और श्रम बौद्धिक भी होता है। जिनके पास  देखने के लिए सामान्यतः शारीरिक आंखें ही होती है और बौद्धिक आंखें  यानि बौद्धिक दृष्टि यानि मानसिक दृष्टि काम नहीं करती, उनको शारीरिक श्रम करने वाला ही मात्र श्रमिक दिखता है। उनकी दुनिया में बौद्धिक श्रम का कोई वजूद भी होता है, यह उनकी मानसिकता से बाहर होता है। ये शारीरिक श्रमिक बौद्धिक श्रम करने वाले यानि बौद्धिक श्रमिक को शोषक समझते और इसीलिए बौद्धिक होने की अचेतन स्तर पर कोई इच्छा भी नहीं होती।  ये बौद्धिक श्रम को श्रम नहीं मानते और इसीलिए इन बौद्धिक श्रमिकों को ये शारीरिक श्रमिक किसी भी प्रकार का श्रमिक भी नहीं मानते। शारीरिक श्रम तो पशु भी कर लेता है, लेकिन एक पशु मानसिक श्रम नहीं कर पाता। स्पष्ट है कि मानसिक श्रम की प्रक्रिया कठिनतर होती है और इसीलिए बहुत कम लोग ही बौद्धिक श्रम कर पाते हैं। इसीलिए शासक वर्ग सदैव अल्पसंख्यक होते हैं, क्योंकि बौद्धिक श्रम करना सबके वश की बात नहीं होती। मात्र शारीरिक श्रम करने वाला कभी भी शासक नहीं रहा है और भविष्य में कभी भी शासक नहीं बन सकता। वैसे कल्पनाओं में जीने के लिए हर कोई स्वतंत्र हैं।

भारतीय प्राचीन इतिहास में श्रम करने वालों के संबंध में कुछ स्पष्ट भ्रम जमा हुआ है। भारतीय प्राचीन इतिहास में "बमण या बाह्मण" वर्ग और "शमण" वर्ग सम्मानित वर्ग रहा, जिसे चालाक और नादान इतिहासकारों ने इन्हें क्रमशः "ब्राह्मण" और "श्रमण" बना दिया या समझ लिया। यही अनुवाद यानि इसी भावार्थ ने सारा भ्रम पैदा करने में कामयाब रहा। प्राचीन भारत के इतिहास में वमण या बाह्मण एक विद्वतापूर्ण उपाधि रही है, जो सामंतवाद के काल में जाति का रुप ले लिया, अर्थात इसके पहले जाति एवं वर्ण व्यवस्था नहीं था। इसी तरह शमण वर्ग में वे सभी लोग शामिल थे, जो अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को शमित कर समाज कल्याण को समर्पित थेजबकि शमण को श्रमण बना कर श्रम करने वाला समझा दिया गया। यह पूर्णतया ग़लत हुआ। यह शमण वर्ग को आज का  साधु या सन्त समाज समझा था, लेकिन शमण वर्ग कभी भी श्रमिक वर्ग नहीं रहा। बामण या बाह्मण से ब्राह्मण और शमण से श्रमण होना भाषाओं के संस्कृतिकरण का प्रभाव है, जिसे सामंतवाद की ऐतिहासिक शक्तियों ने पैदा किया। इसे भी समझना जरूरी है। 

आजकल इसी “शमण” वर्ग को “श्रमण” वर्ग समझना सारे भ्रम का आधार बन गया है। इसी भ्रम की सहायता से यह भी मान लिया जाता है कि प्राचीन भारत में कभी श्रमिक वर्ग का शासन रहा है। यह सभी को स्पष्ट रहें कि शारीरिक श्रम करने वाला ही यदि श्रमिक हैं, तो यह श्रमिक वर्ग कभी भी इतिहास के पन्नों में शासक वर्ग नहीं बना है और भविष्य में भी यह वर्ग कभी भी शासक नहीं बन सकता। यह सभी को स्पष्ट रहना चाहिए, वैसे मानसिक विभ्रम में रहने को सभी स्वतंत्र भी है।

मैंने पहले ही लिखा है कि श्रम मुख्यतः दो प्रकार का होता है - शारीरिक श्रम और बौद्धिक श्रम। शारीरिक श्रम तो शरीर से किया जाता है, जिसमें सामान्यतः शरीर से पसीना भी बहता है, यानि शरीर की अत्यधिक उर्जा की खपत होती है। बौद्धिक श्रम में मानव का दिमाग और मन यानि चेतना संयुक्त रुप में काम करता है, यानि दिमाग और मन यानि चेतना एक अलग तरह का श्रम करता है। इस बौद्धिक श्रम में आध्यात्मिक श्रम बहुत महत्वपूर्ण होता है और यह  प्रकार उत्कृष्ट एवं उच्च स्तरीय भी होता है। आध्यात्म का अर्थ होता है - अपने 'आत्म' को अधि यानि अनन्त प्रज्ञा से जोड़ कर उससे ज्ञान प्राप्त करना। इसमें बौद्धिक आभास (Intuition) आते हैं, यानि अन्तर्ज्ञान आता है।  ऐसे ही बौद्धिक श्रमिक में प्राचीन काल में गोतम बुद्ध का नाम लिया जाता है और आधुनिक युग में अल्बर्ट आइंस्टीन और स्टीफन हॉकिंग का नाम लिया जाता है। ये तीनों उदाहरण उत्कृष्ट बौद्धिक श्रमिक के लिए है।

बौद्धिकता उनमें होती है, जिन्हें आलोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking) करने आता है और उसका विश्लेषणात्मक मूल्यांकन (Analytical Evaluation) भी करने आता है। स्पष्ट है कि इसके लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific Temper) यानि मानसिकता अनिवार्य होती है, जो कार्य -कारण संबंध, तथ्य, निष्पक्षता (Neutrality/ Objectivity) तथा विवेकशीलता (Rationality) पर आधारित होती है। इसी के साथ विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट (Paradigm Shift) यानि आउट आफ बाक्स विचार (Out of Box Thinking) भी अनिवार्य हो जाता है। यह बौद्धिकता मानव और मानव समाज पर कार्य करता है, अर्थात उसे '"मानवीय मनोविज्ञान" (Human Psychology)' की समझ होनी चाहिए। मानव और मानव समाज को संचालित करने वाला अदृश्य साफ्टवेयर उसकी संस्कृति होती है, जिसकी समझ उसके इतिहास बोध (Perception of History) से आती है। इसके लिए इतिहास का पारम्परिक और घिसा-पिटा व्याख्या के स्थान पर "इतिहास" (History) की वैज्ञानिक व्याख्या करना और समझना होगा। और अपने समझ को मानव और समाज के हित में व्यापक बनाने के लिए "दर्शन" (Philosophy) की समझ अनिवार्य हो जाता है। यही तीन समझ यानि  मनोविज्ञान, इतिहास और दर्शन की गहरी समझ एक शासक बनने के लिए अनिवार्य है।

शासित वर्ग अपने को सदैव शोषित और पीड़ित ही समझता है, लेकिन इस शोषण को दूर करने के लिए कोई तैयारी नहीं करता है। वह सदैव शारीरिक श्रम करने का रोना रोता रहता है, मानो वह बौद्धिक श्रम से ज्यादा कठिनतर कार्य कर रहा होता है। ऐसा शारीरिक श्रमिक बौद्धिक श्रमिकों को शोषक समझते हुए कोसता रहता है। वह सजगता से कभी भी अपनी बौद्धिक विकास की बातें नहीं करेगा और बिना अपेक्षित बौद्धिकता लाए शासक बनने का दावा करता रहेगा। ऐसा दावा शाय़द शारीरिक श्रमिकों की सहानुभूति और समर्थन लेने के लिए भी कुछ राजनीतिक नेताओं के द्वारा किया जाता है 

अन्त मेंफिर से स्पष्ट किया जाता है कि मात्र शारीरिक श्रम करने वाला कभी भी शासक नहीं रहा है और आगे कभी भी शासक नहीं बनेगा। शारीरिक श्रम करने वाला यदि अपेक्षित बौद्धिक संपदा, कुशलता एवं योग्यता पा लेता है, तो फिर वह श्रमिक या श्रमिक वर्ग बौद्धिक श्रमिक के श्रेणी में आ जाता है और वह शासक बनने की राह मे अग्रसर हो जाता है। फिर वह शारीरिक श्रमिक की श्रेणी में नहीं रह जाएगा। आप भी अपनी बौद्धिक संपदा, कुशलता एवं योग्यता विकसित करने, उसे बढ़ाने एवं सम्वर्धित करने पर ध्यान दें, आप भी शासक बन जाएंगे।

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक

 


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