रविवार, 30 अप्रैल 2023

शूद्र होने के खेल का मनोविज्ञान

भारत में आजकल शूद्र बनने और बनाने का अनोखा खेल बखूबी खेला जा रहा है। आज हमलोग शूद्र होने, यानि शूद्रता के खेल का आलोचनात्मक विश्लेषण कर इसे समझने का प्रयास करेंगे। ‘शूद्रता यानि ‘क्षुद्रता’ के मनोविज्ञान और उसकी क्रियाविधि का विश्लेषण कर उसे समझने का प्रयास करेंगे| दरअसल ‘क्षुद्रता’ और ‘शुद्रता’ में कोई अन्तर नहीं है| मतलब कि ‘क्षुद्र’ और ‘शूद्र’ एक ही शब्द एवं भाव की दो अभिव्यक्ति है| जब हम इसे रोमन लिपि में लिखते हैं, तो ‘Shudra’ (शुद्र) में मात्र ‘K’ लग जाने से ही यह ‘Shudra’ (शुद्र) बदल कर ‘Kshudra’ (क्षुद्र) हो जाता है, और भावार्थ बदल जाता है, या बदल दिए जाने का एक प्रयास होता है| ऐसे ही ‘खेत्तीय’ (Khettiy) बदल कर ‘क्षेत्रीय’ (Kshetriy) हुआ और फिर ‘क्षेत्रीय’ अब ‘क्षत्रिय’ (Kshatriy) हो गया| इस तरह स्पष्ट है कि ‘क्षुद्र’ जो एक गुणवाचक संज्ञा था, अब एक जातिवाचक संज्ञा ‘शुद्र’ हो गया| स्पष्ट है कि ‘शुद्रता’ और कुछ नहीं, ‘क्षुद्रता’ की ही अभिव्यक्ति है| अब हम इसके विश्लेषण के बाद इसके क्रियाविधि को समझेंगे| ‘क्षुद्रता’ यानि ‘हीनता’, ‘नीचता’, या ‘नगण्यता’ ही है|

जर्मनी का बिस्मार्क जर्मनी के बिखरे हुए विभिन्न कबीलाओं को एक ‘सर्वोच्च वर्ग’ यानि ‘सर्वोच्च जाति’ (प्रजाति) का सदस्य बता कर, यानि उनके ‘मनोबल’ को बढ़ा कर बिखरे हुए जर्मनी को एकीकृत कर दिया| जर्मनी की इसी सर्वोच्चता की उभरे हुए भावना, यानि इसी उच्च “मनोबल” के आधार पर ही हिटलर भी विश्व को रौंद सका था| इसे उनकी ‘सर्वोच्चता की भावना’, यानि ‘सर्वोच्चता की विचार’ की शक्ति, यानि ‘मनोबल’ की शक्ति और उनका वैश्विक एहसास कह सकते हैं| 

लेकिन भारत के कुछ तथाकथित क्रान्तिकारी बौद्धिक नेतृत्वकर्ता भारत की बहुसंख्यक आबादी को ही ‘शुद्र’ यानि ‘क्षुद्र’ बता कर बहुसंख्यक आबादी का मनोबल तोड़ने में सफल हो रहे हैं| पता नहीं क्यों, अधिकतर बुद्धिजीवी “शुद्र” के वर्गीकरण में अपने को शामिल किए जाने की होड़ में शामिल हैं, जो वे कभी थे ही नहीं| इन्हें ‘वर्ण व्यवस्था’ के अतिरिक, यानि इस वर्ण व्यवस्था के बाहर भी कोई ‘अवर्ण व्यवस्था’ हो सकता है, यह उनके समझ से बाहर है| ये उतना ही दूर देख सकते हैं, जितना इन्हें खुली आँखों से दिखाया जाता है। इन शारीरिक आंखों के अतिरिक्त ‘मानसिक दृष्टि’ भी होती है। ये तथाकथित बुद्धिजीवी इन ‘मानसिक दृष्टि’ का उपयोग क्यों नहीं करते हैं, पता नहीं? ये किन शक्तियों के इशारे पर ऐसा कर रहे हैं, वही जाने, लेकिन हो तो यही रहा है| हमलोग चलें हैं भारत को ‘वैश्विक शक्ति’ और ‘वैश्विक समृद्धि का नेतृत्वकर्ता’ बनाने, लेकिन हमलोग आजकल बहुसंख्यक आबादी का मनोबल ही तोड़ रहे हैं|

मनोविज्ञान बताता है कि

यदि कोई ‘हीन’ या ‘नीच’ नहीं भी हो तो,

तो एक या कई कथानक (Narrative) रच कर, 

यानि गढ़ कर, तैयार कर

उसे वैश्विक पटल पर ‘ऐतिहासिक हीन’ या ‘ऐतिहासिक नीच’ साबित कर दो|

इस तरह, यह इतिहास बन जाता है और ऐसे ही संस्कृति एवं संस्कार का निर्माण कर देता है। और संस्कार और संस्कृति दशकों या सदियों तक अपना कार्य करती रहती है। 

इसके बाद वह व्यक्ति या समूह या समाज या राष्ट्र

उस तथाकथित ‘हीनता’ या ‘नीचता’ के प्रतिबन्ध को तोड़ने या हटाने या निषेध करने के

विचार और संघर्ष में ही अपना जीवन व्यतीत कर देगा, यानि उसी में उलझ कर रह जाएगा|

इस तरह वह इस तथाकथित निकृष्टता के विरुद्ध अभियान को एक महानता, एक महान त्याग और बलिदान करने की अनुभूति में अपना सबका कुछ लगा देगा| लेकिन उस खोये हुए ‘मनोबल’ वाले व्यक्ति, या समाज, या राष्ट्र को कुछ नहीं हासिल होता| वह इसके क्रियाविधि (Mechanics) का मनोविज्ञान नहीं समझता है| उन सामान्य और साधारण लोगों को तो छोडिये, उनके सामाजिक बौद्धिक ‘प्रकाश स्तम्भ’ को भी यह समझ नहीं है| वैसे ‘अज्ञानता’ एक ऐसी धुंध पैदा कर देती हैं, जिस धुंध में कोई भी चतुर खिलाड़ी ‘अज्ञानियों’ को कुछ भी दिखा सकता है, या पढा सकता है, या समझा सकता है, | तब ‘अज्ञानियों को कुछ भी समझा लेना चतुर खिलाडियों के लिए बड़ा सरल, साधारण और सहज हो जाता है|

इसीलिए कहा जाता है कि, 

मानव के चेतना के जिस स्तर पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है,

उसके विरुद्ध का संघर्ष या विद्रोह का स्तर भी उसी प्रतिबंध के स्तर का हो जाता है और वह व्यक्ति, या समाज या राष्ट्र उसी हीन यानि निम्न स्तर में उलझ कर रह जाता है। 

इस स्तर पर संघर्ष या विद्रोह करने से उन सभी को एक बहुत अद्भुत चेतना का जागरण, यानि स्वतन्त्रता एवं समता के अद्भुत चेतना के उभार का आभास दिखता है|

उस संघर्ष या विद्रोह करने वाला वह व्यक्ति, या समाज, या राष्ट्र चेतना के उसी स्तर का बंधक हो जाता है और

उसकी वैचारिक उड़ान उसी हीन यानि नीच स्तर के सीमा से बंध भी जाता है,

जिसका आभास उसे एकदम नहीं होता|

इस तरह उसके ‘पृष्ठभूमि’ में उसका एक वैचारिक ‘सन्दर्भ’ निश्चित हो जाता है, और उसके बिना उसका अस्तित्व ही नहीं बचता है| इसीलिए महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा है कि

‘समस्या चेतना के जिस स्तर पर उत्पन्न हुआ है,

उसका समाधान चेतना के उसी स्तर पर रह कर नहीं किया जा सकता है|’

अर्थात किसी समस्या का समाधान उस चेतना के स्तर से ऊपर या अलग जाकर करना होगा, जिस स्तर पर समस्या पैदा हुआ है|

भारत के बुद्धिजीवी यानि तथाकथित विद्वान् अपनी “सांस्कृतिक जड़ता” (Inertia of Culture) या "सांस्कृतिक आवेग" (Cultural Momentum) का बुरी तरह शिकार हैं| इसे आप उनकी “बौद्धिक जड़ता” (Inertia of Thought) भी कह सकते हैं| ये लोग ‘भारत की मूल संस्कृति’ और अपने ‘सम्प्रदाय एवं क्षेत्र की वर्तमान संस्कृति’ में अन्तर नहीं समझ पाते या अन्तर नहीं करना चाहते| इनमे आलोचनात्मक चिन्तन (Critical Thinking) का स्तरीय अभाव भी है| ये लोग इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या नहीं कर सकते, या नहीं करना चाहते| इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या यानि ‘उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों’ के अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर ही किया जाना चाहिए| यह इतिहास का सब कुछ स्पष्ट कर देता है|

इसके आधार पर इतिहास की व्याख्या से भारत के कई दुसरे पक्ष उभर कर सामने आता है| अपनी स्थापना काल में ‘वर्ण व्यवस्था’ सामन्तवादी कार्यपालिका की व्यवस्था थी, जिसके सदस्य सामान्य जनता से चयनित होते थे| ‘जाति व्यवस्था’ सामान्य जनों की व्यवस्था थी, जो वस्तुओं के उत्पादक थे और सेवाओं के प्रदाता थे| इसी जाति व्यवस्था से ही सामन्तवादी कार्यपालिका यानि वर्ण व्यवस्था बनती थी, इसीलिए इतिहास में कई जातियों से शासक के क्षत्रिय पाए जाने का इतिहास है| शुद्र यानि क्षुद्र सामन्तवादी कार्यपालिका का आजकल का चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी था, जिसका अस्तित्व ब्रिटिश काल में विलुप्त हो गया| पिछली शताब्दी के प्रारम्भ में ही ‘वयस्क मताधिकार’ और लोकतान्त्रिक चुनावी प्रणाली के आग़ाज ने विकल्पहीनता की स्थिति में “हिन्दू” नाम के भौगोलिक शब्द का धार्मिक उपयोग करने को बाध्य कर दिया| इसी के बाद इसी के लिए कई संस्था या संगठन बने| इसके पहले ‘हिन्दू’ शब्द का धार्मिक उपयोग खोजे नहीं मिलेगा|

हमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का इतिहास अलग से समझना होगा| अनुसूचित जनजाति तो परम्परा से सामन्तवादी शासन से ही बाहर दूरस्थ वनों में रह रहे थे| इनको वर्ण व्यवस्था यानि सामन्तवादी कार्यपालिका से कोई लेना देना नहीं था| लेकिन ब्रिटिश काल में इसके व्यवस्था का भाग बनने और लोकतान्त्रिक निर्वाचन पद्धति का संभावित हिस्सा बनने के कारण इन्हें भी एक नए ‘सांस्कृतिक घेरे’ में शामिल किए जाने की अनिवार्यता हुई| ध्यान रहे कि भारतीय मूल संस्कृति भारत में संस्कृति के उदय से ही स्वरुप बदलता  रहा है और सब कुछ अपने में समाहित कर रुपांतरित होता रहा है|

अनुसूचित जाति का वास्तविक इतिहास को तो छुपा दिया गया है, और उनके मनोबल को तोड़ने के लिए कई घटिया कथानक रच दिए गये हैं| दरअसल अनुसूचित जाति के लोग सामन्तवादी कार्यपालिका के असनातावादी विचारों, व्यवहारों एवं व्यवस्थाओं के विरुद्ध ऐतिहासिक विद्रोही थे| ये प्राचीन काल में सामान्य जन ही थे, लेकिन बौद्धिक एवं वैचारिक रूप में सशक्त थे| ये भारत की बौद्धिक संस्कृति के प्रमुख ध्वजवाहक थे| इन सामान्य जन में से कुछ लडाका एवं अन्याय के विरोधी जन थे, जो सामान्य जन के हित में आगे रहे| बाकी जनता भी बौद्धिक संस्कृति की ही अनुयायी थे| इन इतिहासों को विलुप्त कर दिया गया है| बौद्धिक संस्कृति के बहुसंख्यक विद्वान् (जिन्हें बामण/ बाम्हण कहा जाता था, लेकिन ब्राह्मण नहीं, ध्यान दिया जाए) सामन्तवादी व्यवस्था से समझौता कर, यानि उसके भाग बन कर वर्ण व्यवस्था के ब्राह्मण बन गये| लेकिन बौद्धिक संस्कृति के बहुसंख्यक विद्वान् (बामण /बाह्मण, ब्राह्मण नहीं) सामन्तवादी व्यवस्था से समझौता नहीं कर इस नव उदित सामंती व्यवस्था के विरुद्ध हो गये। इन विद्रोही विद्वानों को सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान, समाज, समानता और शिक्षा से बाहर कर दिया गया और ये सदियों के काल थपेड़े में अपना सब कुछ भूल गए। ये ही आज अनुसूचित जाति के सदस्य हो गए। ये अपने विद्रोह के स्तर के अनुसार नामित भी किए गए, जैसे ‘सामन्तवादी कार्यपालिका का नियम ’भंग करने वाले को “भंगी” कहा गया; जिसे ‘साधना (यानि पालतू यानि अनुयायी बनाना) आसान नहीं था, बल्कि दु: साध्य था,, उन्हें “दुसाध्य” यानि ‘दुसाध’ कहा गया आदि आदि| ऐसे विद्रोही लोग सामान्य जन में कुछ ही साहसी और बौद्धिक लोग थे, जो अपने विद्रोही विचार एवं व्यवहार के कारण सामन्तवादी कार्यपालिका के लिए अवांछित हो गए थे| इन्हें ‘हीन’ एवं ‘नीच’ बताने एवं साबित करने के लिए अनेक काल्पनिक कथानक रचे गये और इसे इतिहास साबित किया गया| आप इनके ऐसे इतिहासों का प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य मांगे, एक भी प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य नहीं मिलेगा| इन बेसिर पैर के कथाओं की संरचना और भावार्थ को समझना होगा|

इस तरह इन क्रांतिकारी "स्वतंत्रता, समानता एवं बन्धुत्व" के विचार एवं आदर्श के ध्वजवाहकों को ‘ऐतिहासिक अन्याय’ का बोध करा कर ‘अन्याय के चेतना का बंधक’ बनाया गया| अब ये ‘अन्याय के चेतना का प्रतिकार’ करने वाला ‘प्रतिकार भावना के बंधक’ हो गये| चूँकि जिस तल पर ‘प्रतिकार का बंधन’ होता है, इसीलिए वह उसी तल पर ‘प्रतिकार’ करने का विचार करेगा और अपना आदर्श स्थापित करेगा| चूँकि ये इतिहास की इस गलत एवं फर्जी अवधारणा एवं परिभाषा में उलझ गए हैं, इसीलिए इन्होने ‘मुक्ति का स्तर’ यानि ‘पैमाना’ भी यही बना लिया है| 

ये अवधारणा बदल कर भाग्य या भविष्य बदलना नहीं जानते हैं। इस तरह इनका मनोबल ही सिर्फ तोडा नहीं गया है, अपितु इनको घेर कर उलझा दिया गया भी है| मनोविज्ञान के इस सूक्ष्म नियम को समझना चाहिए| इसके लिए ही ‘मूल निवासी’ की कहानी बनाई गई, ताकि इस मध्य कालीन हीनता यानि नीचता की कहानी को कई हजार साल पुरानी बताई जाय| आज इस नीचता की कहानी को सभ्यता एवं संस्कृति के उदय से बता कर इसे दया का पात्र बनाया गया है| इस तरह इनलोगों ने अपनी हीनता को अंगीकार कर लिया| यदि आप किसी को हीनता के स्तर पर प्रतिबन्धित कर देने का अहसास करा दिया गया है, तो वह उसी स्तर से निकलने में उलझा रहेगा| उसकी चेतना का विद्रोह- लक्ष्य भी उस स्तर से ऊपर नहीं हो सकेगा| इस भयानक खेल को समझिए| अब तो ये इन कथानकों पर विश्वास कर विचारों की जड़ता, संस्कृति की जड़ता और परम्पराओं की जागता में जड़ (Fix) हो गये हैं|

यदि आपको अपने  आपको बदलना है,

यदि हमको भारत को बदलना है,

तो हम इन परिभाषाओं और अवधारणाओं को बदलें,

सब कुछ स्वत: बदलने लगेगा|

हमें विचारों से पके हुए, उत्साह से थके हुए और देश के दुश्मन के हाथों बिके हुए लोगों से कोई उम्मीद भी नहीं है| अब उम्मीद सिर्फ विचारों के तार्किक एवं वैज्ञानिक मानसिकता के युवाओं से ही है|

आचार्य निरंजन सिन्हा    

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक

(आप मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर भी अवलोकन कर सकते हैं।)

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

आज बुद्ध क्यों?

“आज बुद्ध क्यों?” यह प्रश्न हम सब के मन में हमेशा कौंधता रहता है| आज विज्ञान (Science) का युग है, वैज्ञानिकता (Scientism) का युग है| फिर यह प्रश्न आता है कि इतिहास के एक अतीत का, एक विरासत का आज के विज्ञान और वैज्ञानिकता से क्या मतलब है? बुद्ध के नाम इतनी ज्ञान की बातें हैं कि यह भी प्रश्न स्वाभाविक है कि बुद्ध एक व्यक्ति (Individual) थे या एक संस्था (Institution) थे? क्या आज भी बुद्ध विज्ञान, सामाजिक विज्ञान (Social Science), मानविकी (Humanities) और जीवन दर्शन में सांदर्भिक हैं, यानि उपयोगी और महत्वपूर्ण हैं? इसका उत्तर है – हां, बुद्ध आज भी महत्वपूर्ण मार्ग दर्शक (Guide) हैं, महत्वपूर्ण हैं, उपयोगी हैं, और सांदर्भिक (Relevant) भी हैं|

विज्ञान और वैज्ञानिकता में हर बात या विचार या व्यवहार निश्चितया सम्यक तथ्य (Fact), तर्क (Logic), साक्ष्य (Evidence), विश्लेषण (Analysis) एवं विवेक (Rational) पर आधारित होता है| अन्यथा इसके किसी भी एक तत्व के अभाव में हर बात या विचार या व्यवहार बकवास मानी जाती है| आज़ इसी वैज्ञानिकता के कारण ही यह पश्चिम में लोकप्रिय होता जा रहा है। आज हर कोई हर बात में, हर विचार में, हर व्यवहार में, हर विषय में, हर सन्दर्भ में, और हर प्रसंग में विज्ञान एवं वैज्ञानिकता खोजता है, तलाशता है, देखता है| दरअसल बुद्ध उन्हीं लोगो के लिए है. जिनको अपने जीवन में, समाज में, और हर क्षेत्र में विज्ञान एवं वैज्ञानिकता की जरुरत है| बुद्ध की शिक्षाओं (Teachings) एवं दर्शन (Philosophy) में विज्ञान एवं वैज्ञानिकता का ही अवलोकन किया जाना चाहिए, गंभीर वैज्ञानिक सिद्धांत को ही रेखांकित किया जाना चाहिए| यह सब बुद्ध की शिक्षाओं में है| दरअसल बुद्ध एक संस्था थे, और गोतम बुद्ध उस परम्परा में 28वें ‘बुद्ध”थे| ‘विशिष्ट’ (Specific), ‘उत्कृष्ट’ (Excellent) एवं 'स्तरीय’ (Up to Level) बुद्धि धारण करने वाले ही “बुद्ध” घोषित हुए|   

आज हमें जीवन के हर क्षेत्र में वृद्धि (Growth) तो दिखती है, परन्तु क्या हम उसे विकास (Development) या प्रगति (Progress) कह सकते हैं? जीवन में वृद्धि तो है, परन्तु उतनी ही अशांति, असंतोष, तनाव, परेशानी एवं अवसाद (Depression) भी है| इन सबों के साथ कलह (आन्तरिक एवं बाह्य संघर्ष) भी व्यक्तिगत जीवन में, पारिवारिक जीवन में, सामूहिक जीवन में, सामाजिक जीवन में एवं वैश्विक जीवन में व्याप्त एवं गंभीर है| इसकी आवश्यकता आज़ के युवा वर्ग को सबसे ज्यादा हो गया है। आज लोगो को जीवन की सार्थकता एवं मकसद की तलाश है, पर यह समझ भी सभी लोगों में अवचेतन (Sub Consciousness) एवं अचेतन (Un Consciousness) स्तर पर ही है, चेतन अवस्था में इसे समझने वाले तो नगण्य ही हैं| 

लोग अपने जीवन मूल्यों (Values of Life) को समझना चाह रहे है और उसे स्थापित भी करना चाह रहे हैं, पर उन्हें यह समझ में नहीं आता है, कि उन्हें क्या और कैसे करना चाहिए? यहां बुद्ध पूरी वैज्ञानिकता और मानवता के साथ इसके व्यवहारिक समाधान के लिए आष्टांगिक मार्ग के साथ उपस्थित हैं। ऐसे ही तलाश कर रहे भोले भाले लोगों को पाखंडी तथाकथित धर्म गुरुओं के झांसे में आना एवं बरबाद होना पड़ता है| ऐसी कहानियां विश्व में भरी पड़ी है और आप भी अपने आस पास इसे आसानी से देख सकते हैं| ऐसी स्थिति में समाज के प्रबुद्ध जनों को बुद्ध से ही एकमात्र आशा है. जो ढोंग, पाखंड, अंधविश्वास एवं कर्मकांड से मुक्त हो, और विज्ञान पर आधारित हो|

समाज में, और राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवीय मूल्यों का पतन, मानवीय गरिमा (Human Dignity) का खुलेआम खण्डन, सामाजिक असामनता आदि को देख कर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति व्यथित हो जाता है| जीवन में दुःख, अवसाद, अशांति, तनाव और कष्ट का समाधान नहीं दिखता है| लोग समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इन सबों का क्या निदान है? कैसे इन सबों पर आसानी से विजय यानि फतह पाया जा सकता है? बुद्ध ने उपाय तो बताया था, परन्तु वह भी आज एक परंपरागत धर्म के रूप में ही प्रस्तुत है| आज के लोग विज्ञान में समाधान चाहते हैं, तथाकथित पाखंडियों के द्वारा दिए गए समाधान से बचना चाहते है| कोई भी समाधान समझने में सरल हो, करने में सहज हो, अपनाने में साधारण हो, जीवन में व्यावहारिक हो, और निश्चितया तर्क, साक्ष्य, विश्लेषण एवं विज्ञान से समर्थित हो|

‘सांस्कृतिक सामन्तवादियों’ ने जाने में या अनजाने में इनकी शिक्षाओं एवं दर्शन को ऐसे विरूपित  (Distortion) कर दिया है, कि आज यह भी अन्धविश्वास एवं पाखण्ड से भर गया है| इनकी शिक्षाओं को आज भी ऐसे प्रस्तुत किया जाता है, मानो यह बुद्ध की वैज्ञानिक एवं सामाजिक विज्ञान की शिक्षा नहीं होकर, बुद्ध द्वारा स्थापित कोई आज की परंपरागत धार्मिक शिक्षा हो, यानि साम्प्रदायिक चेतना हो| इनकी शिक्षाओं को प्रचलित धर्म एवं बुद्ध को ईश्वर बना कर इसे अन्य धर्मों की श्रेणी में ला दिया है| समाज के प्रबुद्ध जानना चाहते हैं कि बुद्ध क्यों एक वैश्विक गुरु बन सके? समाज के प्रत्येक समझदार व्यक्ति बुद्ध की वैज्ञानिक एवं सामाजिक विज्ञान की शिक्षाओं को जानना चाहता है| हमें इसी सम्बन्ध में प्रयास भी करना है|

आज बुद्ध के नादान अनुयायी इस प्रचार से बहुत खुश हो जाते हैं, कि बौद्ध धर्म को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म मान लिया गया है| मैं नहीं जानता कि इस दावे में कितनी सच्चाई है| यदि यह दावा सही है, अर्थात इसे विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म मान ही लिया गया है, तो यह बौद्ध दर्शन एवं वैज्ञानिक शिक्षा के विरुद्ध एक गहरा एवं गंभीर षड़्यंत्र है| बुद्ध की शिक्षाएँ एवं दर्शन तो शुद्ध विज्ञान है, सफल सामाजिक जीवन के प्रबंधन का तकनीक है, यह तो ‘धम्म’ है, घिसी पिटी परम्परागत ‘धर्म’ या सम्प्रदाय नहीं| किसी के द्वारा ‘धम्म’ को ‘धर्म’ के भावार्थ में अनुवाद कर और दोनों को एक दुसरे का पर्यायवाची बनाकर एक गहरा एवं खतरनाक बौद्धिक षड़्यंत्र किया गया है| इसीलिए मैं ‘धम्म’ और ‘धर्म’ को एक ही मानने के बावजूद भी बुद्ध की शिक्षाओं के लिए आज के परिवेश में ;धम्म’ का ही प्रयोग एवं उपयोग करता हूँ, इनके लिए ‘धर्म’ शब्द का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए|

बुद्ध की शिक्षाओं एवं दर्शन को सर्वश्रेष्ठ धर्म बता कर इसे पहले तथाकथित परम्परागत धर्म के श्रेणी में लाया जाता है या लाया गया है, यानि इसे “तर्क, साक्ष्य, विश्लेषण एवं विवेकशीलता की वैज्ञानिकता” के सर्वोच्च स्तर से उतार कर “आस्था (Devotion) के धर्म” के निम्न एवं काल्पनिक स्तर पर लाया गया| वही धर्म, जिसे महान दार्शनिक एवं सामाजिक वैज्ञानिक कार्ल मार्क्स ने अफीम से तुलना कर समाज के लिए घातक बताया था| एक बार जब इसे सर्वश्रेष्ठ धर्म बना दिया गया, मतलब यह कि यह वैज्ञानिकता के स्तर यानि श्रेणी में नहीं रहा और यह ‘आस्था के धर्म’ के श्रेणी में आ गया| अब यह वैसा ही धर्म हो गया, जैसा अन्य अंधविश्वास, पाखण्ड एवं कर्मकांड से भरा दूसरा धर्म है| अब इसमें भी पुरोहितवाद अपने विशिष्ट तरीकों से प्रभाव फैलाने के लिए पाखंड स्थापित कर सकता है| बुद्ध की शिक्षाओं पर धर्म का ठप्पा लगने से ऐसे लोगो का तो खुश होना स्वाभाविक ही है|

डा० भीमराव आम्बेडकर ने भी लिखा है कि कोई भी अपना धर्म नहीं बदलना चाहता, और बदलना भी नहीं चाहिए, क्योंकि धर्म किसी की आस्था का विषय होता है| और इसीलिए किसी की आस्था एवं धार्मिक विश्वास में किसी भी प्रकार का कोई भी संशोधन, अतिक्रमण यानि हस्तक्षेप होना भी नहीं चाहिए| इसी कारण किसी दुसरे धर्मावलम्बी के धर्म को बदलने की कोशिश एक घृणात्मक कार्य या घटिया कार्य की श्रेणी में माना जाता है| इसे धर्म की श्रेणी में लाने का एक दूसरा अर्थ यह भी निकालता है, कि चूँकि यह भी एक धर्म ही है, और इसीलिए इसे भी एक धर्म की ही तरह अपने व्यवहार एवं कर्तव्य को मर्यादा में नियंत्रित करने चाहिए और दुसरे धर्म में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए| सभी धर्म वाले अपने – अपने धर्म को देखें और किसी भी दुसरे के धर्म में हस्तक्षेप नहीं करें अर्थात सभी मठाधीशों का धार्मिक साम्राज्य अखंड बना रहे| मैं फिर स्पष्ट करूं कि बुद्ध की शिक्षाएं धर्म है ही नहीं, और इसीलिए यह किसी धर्म में कोई हस्तक्षेप करता ही नहीं है|

बुद्ध की शिक्षाओं को अज्ञानी एवं नादान लोग ही परम्परागत धर्म का स्वरुप देते हैं, और इसे परम्परागत धर्म मानते हैं| हाँ, कुछ भारतीयों की सांस्कृतिक विश्लेषण अवस्था एवं समझ दयनीय है, और वे परम्परागत धर्म के बिना जीवित भी नहीं रह सकते| “चूँकि सांस्कृतिक विश्लेषण क्षमता के अभाव में पिछड़ा समाज कतिपय छोटे अवधि में रूपान्तरित नहीं हो सकता और उनका बदलना या रुपान्तरित होना भी बहुत से कारणों से जरुरी हो, तो ऐसे समाज को विकल्पहीनता की स्थिति में इसे धर्म के रूप में उपयोग कर समाज के कल्याण किए जाने के ऐतिहासिक उदाहरण (14 अक्टूबर 1956 का दीक्षा समारोह) भी प्रेरणादायक है|” इसे ध्यान से और फिर से पढ़ें| बुद्ध की शिक्षाओं को किसी भी अन्य धर्म से कोई आपत्ति भी नहीं है| वास्तव में जब बुद्ध का आगमन हुआ था, उस समय ऐसा कोई तथाकथित दूसरा धर्म (वर्तमान स्वरुप में) अस्तित्व में था ही नहीं था, कि जिस पर उन्होंने किसी भी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया दिया हो|

आज भारत में बुद्ध के अनुयायिओं को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है| पहला, जिन्हें परम्परागत धर्म में मानवीय गरिमा के अनुरूप सम्मान नहीं था, इसलिए विकल्पहीनता की स्थिति में इनके अनुयायी बने| दुसरा, जिन्होंने आज की जाति व्यवस्था को ही सही मानकर बुद्ध को भी जाति की कथा में शामिल कर इसे स्वीकार कर लिया, और उनके समान जाति के नाम पर उनके अनुयायी हो गये| ध्यान रहे कि प्राचीन काल में वर्ण और जाति की व्यवस्था ही नहीं थी| तीसरे श्रेणी में वे आते हैं, जिन्होंने उनकी वैज्ञानिकता के कारण ही उन्हें अपना मार्गदर्शक माना है| भारत में ऐसे अनुयायी नगण्य है| बाकी अनुयायी उन्हें ईश्वर मान कर उनसे कृपा की उम्मीद करते हैं, और उन्हें मार्गदर्शक नहीं समझते| ऐसे अनुयायी ‘आत्मा’ और ‘पुनर्जन्म’ भी मानते हैं|

बुद्ध की उपलब्धियों में स्वयं (Self) का अवलोकन, स्वयं का नियंत्रण एवं स्वयं पर केन्द्रण करने की निष्पक्ष, सरल, सहज, व्यक्तिगत, एवं वैज्ञानिक विधि की स्थापना है, जिसे "विपस्सना" (Vipassana) कहते हैं। इसे सभी को जानना और समझना चाहिए|दुःख क्या है? जब हमारी आन्तरिक इच्छाएं अपने बाह्य जगत के अनुरूप नहीं हो सकती, दुःख होता है। यहीं दुःख का समाधान है। हमें अपने को नियंत्रित कर अपने को बाह्य जगत के अनुरूप करना ही दुःख का समाधान है, जिसे दूसरे शब्दों में "आष्टांगिक मार्ग" भी कहते हैं। यही दुःख की क्रियाविधि (Mechanism) है और यही इसका विज्ञान भी है। जब आपको स्वयं का अवलोकन (विपस्सना) करना आ गया, तो आपकी लगभग सारी समस्याएं समाप्त हो गयी| 

आज सामाजिक बुद्धिमता (Social Intelligence) एवं भावनात्मक बुद्धिमता (Emotional Intelligence) के बिना साधारण यानि संज्ञानात्मक बुद्धिमता (General or Cognitive Intelligence) भी प्रभावोत्पादक नहीं माना जाता है| आज सामाजिक बुद्धिमता को ही सफलता का सही विज्ञान बताया जा रहा है| बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग यही है, अर्थात आष्टांगिक मार्ग अपने में उपरोक्त सभी तीनों प्रकार के बुद्धिमता (संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक) को समेटे हुए है|

आप अपना कोई भी उत्पाद (Product), चाहे उसका स्वरुप वस्तु हों, सेवा हो, संपत्ति हो, व्यक्ति हो, स्थान हो, नीति हो, कार्यक्रम हो, विचार हो या आदर्श हो, बिना मार्केटिंग की समझ के आप इस संसार में सफल रूप में स्थापित नहीं हो सकते| बुद्ध का मार्केटिंग सिद्धांत विश्व का पहला सफल और व्यवहारिक मार्केटिंग (विपणन) सिद्धांत था और यह आज भी पूरा प्रासंगिक है, जिसे सभी सफल व्यक्ति या समाज जानना चाहेगा|

आप विज्ञान एवं वैज्ञानिकता समझे बिना इस विज्ञान के युग में ढंग से एक कदम भी नहीं चल सकते| बुद्ध विज्ञान एवं वैज्ञानिकता के मूल (Fundamental), मौलिक (Original), आधारभूत (Basic) एवं तर्कसंगत (Logical) अवधारणा समझाते हैं, जिससे सभी की वैज्ञानिक समझ बढ़ जाती है| बुद्ध अपने अध्यात्म में आत्म (स्वयं) को अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligence) से जोड़ने एवं उसकी शक्तियों को प्राप्त करने की समझ पैदा करते है| इसे आजकल अनन्त प्रज्ञा से ज्ञान प्राप्त करना कहते हैं, जिसे ‘अंतर्ज्ञान’ या ‘आभास’ (Intuition) भी कहते हैं|

बुद्ध प्रकृति की क्रिया विधि (Mechanics of Nature) समझाते हैं| बुद्ध यह भी समझाते हैं कि समुचित न्याय (Proper Justice) कैसे विकास एवं समृद्धि को सहारा एवं समर्थन देता है| अब आप ही बताए कि यह सब जानना कैसे किसी परम्परागत धर्म में हस्तक्षेप है, या यह किसी घिसी पिटी धर्म का हिस्सा है? क्या हम बीमार (चाहे वह मानसिक ही हो) होने पर किसी चिकित्सक से उचित दवा नहीं लेते या समुचित व्यायाम नहीं करते? यह सत्य है कि इसे किसी घिसी पिटी धर्म या आस्था या विश्वास से कोई लेना देना नहीं है, यह तो शुद्ध विज्ञान है| बुद्ध की शिक्षाएँ भी तो शुद्ध विज्ञान है|

सभी वर्तमान धर्मों (जिसमे तथाकथित बौद्ध धर्म भी शामिल है, यदि यह भी परम्परागत धर्म है तो) का तथाकथित स्वरुप मध्य काल में आया| मध्य काल, जो राजनीतिक एवं सांस्कृतिक सामंतवाद के उदय के साथ ही अस्तित्व में आया, एक बड़े आर्थिक उथल- पुथल यानि बड़े आर्थिक परिवर्तन के साथ आया| यह सामाजिक रूपान्तरण उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों और उनके अंतर संबंधों में परिवर्तन से प्रभावित एवं निर्धारित होती है| यह आधार इतिहास की सभी कालो एवं क्षेत्रो की सटीक व्याख्या भी करती है| इसी के आधार पर बुद्ध के उदय, विकास, रूपांतरण  एवं तथाकथित अंत की भी समुचित व्याख्या कर देती है|

यह हमारा दुर्भाग्य है कि 

हम अपनी सांस्कृतिक जड़ता (Cultural Inertia) यानि 

विचारों की जड़ता (Inertia of Thoughts) के कारण 

शुद्ध विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, मानवीय मूल्यों और जीवन दर्शन को भी नहीं समझना चाहते।

 इस पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए।

आचार्य निरंजन सिन्हा 

An Appeal

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Acharya Niranjan Sinha is an ‘Educationist’, an ‘Innovative Thinker’ and ‘Writer’ to transform the Society in general. He needs your kind support for improving the quality of content and for broadcasting & publishing these innovative Ideas.

So, I request you to support his activities by donating the amount as you wish (upto Rs 10000 only) in his bank account, details are given below.....                              

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Bank Account number: 2910000100019805,

Punjab National Bank, 

Simri (IFSC- PUNB0109400) branch,

at Bihta in Patna, Bihar, India.

--- Prof (Dr) Vinay Paswan,

Keshopur, Vaishali, Dist - Vaishali, Bihar, India.

Contact:  94302 88077.

शनिवार, 22 अप्रैल 2023

युवा शक्ति क्या करें?

भारत में युवा शक्तियों की आबादी विश्व में सबसे अधिक है| इन पर ही देश का वर्तमान और भविष्य टिका हुआ है| बाकी अधिकतर लोगों में बहुतायत “थके” हुए हैं,  “पके”  हुए हैं और "बिके" हुए हैं| मैंने युवाओं की प्रकृति को ध्यान में रख कर इनकी उर्जा को सकारात्मक, रचनात्मक और सृजनात्मक दिशा में उत्पादक बनाने के लिए एक पंच सूत्रीय कार्यक्रम प्रस्तुत किया है| यह इन वर्तमान युवाओं के मनोविज्ञान और समाज की आवश्यकताओं  के अनुकूल है। इस पंच सूत्रीय कार्यक्रम में ‘उद्यमिता’, ‘वित्तीय जागरूकता’, ‘सामाजिक अंकेक्षण’, ‘संस्कृति का विज्ञान’ और ‘सफलता का विज्ञान’ शामिल है।

उद्यमिता :

सबसे पहले उद्यमिता है। आज सरकारी एवं गैर-सरकारी क्षेत्रों में नौकरियों की जो स्थिति है और कई कारणों से जो भविष्य में संभाव्यताएं है; उसमें उद्यमिता ही एकमात्र विकल्प है। तकनीकी सुधार, आटोमेशन, सेवाओं का आउटसोर्सिंग आदि कई ऐसे क्षेत्र हैं, जो उद्यमिता के विकास को ही प्रेरित करते हैं। लाभ के साथ समस्या का समाधान करना ही उद्यमिता है। उद्यमिता एक नजरिया है, सोच है, तकनीक है, कौशल है और कार्य पद्धति है, जिसे कोई भी मनोयोग से सीख सकता है। यह जन्मजात प्रतिभा नहीं है। यह कोई भी खीख सकता है, वशर्ते उसमें बड़ा होने सपना हो, बड़ा जज्बा हो। बड़ा सपना क्या है? जब आप अपने सपनों में बहुत से लोगों के कल्याण को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में शामिल कर लेते हैं, तो आपका सपना बड़ा हो जाता है। इसी के साथ आपकी उद्यमिता में सफलता शुरू हो जाती है। आप अपने मेंटर (प्रणेता) उन्हें बनाए, जो धरातल पर वास्तविक सफलता पाई है। असफल और नकारात्मक, थके हारे लोगों से बचिए, वे आपको बुरु तरह संक्रमित कर सकते हैं| सदैव रोने वाले अर्थात सारा दोष व्यवस्था में देखने वाले से भी बचिए।

डा भीमराव आंबेडकर का सूत्र याद रखिए - Educate, Agitate, Organize अर्थात ईच्छित उद्यमिता का अध्ययन कीजिए, उसका मनन, मंथन कीजिए और निष्कर्ष पर पहुंचिए। इस निष्कर्ष के लिए संगठन बनाइए या पूर्व से बने संगठन में शामिल होइए, ताकि आपको यथावश्यक दिशा निर्देश मिलता रहे। यह मनोबल बढ़ाए और बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है। इसके लिए ‘Out of Box चिन्तन’ और ‘आलोचनात्मक चिन्तन’ विकसित कीजिए| इसी कारण इसे नई शिक्षा नीति में स्थान दिया गया है|

उद्यमिता के लिए आप अर्थव्यवस्था के पाँचो सेक्टर में से किसी का भी चयन कर सकते हैं| प्राथमिक (Primary) क्षेत्र वह है, जिसमें में प्रकृति प्रदत्त उत्पादों या संसाधनों का दोहन किया जाता है, जैसे इसमें कृषि, बागवानी, खनन, जलजीव उत्पादन, वनोत्पाद आदि शामिल है। द्वितीयक (Secondary) क्षेत्र में  प्राथमिक क्षेत्र से प्राप्त वस्तुओं का मूल्य संवर्धन किया जाता है, उसकी उपयोगिता को कई तरीकों से बढ़ाया जाता है। इसे औद्योगिक उत्पादन भी कहा जाता है। तृतीयक (Tertiary) क्षेत्र में सेवा क्षेत्र आता है। चतुर्थक (Quaternary)  क्षेत्र ज्ञान आधारित नया उभरता हुआ सितारा क्षेत्र है। इसमें सूचनाओं को आधार बनाकर नीचे के क्षेत्र को ज्यादा उपयोगी बनाया जाता है। प्रसिद्ध प्रबंधन चिंतक फिलिप कोटलर कहते हैं, कि यह युग “सूचनाओं के शक्तियों” से बदलकर “सूचनाओं के शेयरिंग की शक्तियों” का हो गया है| पंचम (Quinary) क्षेत्र में वे गतिविधियां शामिल हैं, जिसमें चतुर्थ क्षेत्र से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर नीतियों का निर्धारण किया जाता है। इसमें इन सूचनाओं के आधार पर आइडिया का नवनिर्माण किया जाता है, सूचनाओं का पुनर्गठन किया जाता है, नए और पुराने सूचनाओं की नई व्याख्या कर नए आईडिया का निर्माण किया जाता है, नई तकनीक विकसित की जाती है और पूर्वानुमान भी किया जाता है। यह क्षेत्र भारत में पूरी तरह से नया है, पर पूरी संभावनाओं से भरा हुआ है। विचार ही धन है। आप विचार करेंगे और संभावनाओं का दरवाजा खुल जाएगा। अब कोई भी बाजार वैश्विक हो गया है|

अब आप उद्यमिता का वैधानिक पहलू भी समझ लें। शुरुआती कारोबार में व्यवसाय एकल स्वामित्वाधीन (Proprietorship) होना चाहिए, यदि आप नए है और छोटा स्तर पर कर रहे हैं। इसमें कराधान में विशेष छूट नहीं मिलता, पर करना आसान होता है। इसमें आपमें और आपके व्यवसाय के उत्तरदायित्व में अन्तर नहीं किया जाता है। एक से अधिक व्यक्तियों के द्वारा साझेदारी फर्म (Partnership Firm) होता है, जो ‘साझेदारी अधिनियम, 1932’ के द्वारा संचालित और नियंत्रित होता है। इसमें उत्तरदायित्व का बंटवारा वैधानिक रूप से नहीं किया जाता है, जो मुख्य वैधानिक नकारात्मक पहलू है। उत्तरदायित्व के सीमित निर्धारण करने के लिए दो वैधानिक फर्म है – ‘कम्पनी’ और ‘एल एल पी’। ‘कम्पनी’ ‘भारतीय कम्पनी अधिनियम, 2013’ से और  ‘एल एल पी’ ‘सीमित उत्तरदायित्व साझेदारी अधिनियम, 2008’ से संचालित और नियंत्रित किया जाता है। सामाजिक कार्यों और अलाभकारी उद्यमिता के लिए ‘सोसायटी रजिस्ट्रेशन अधिनियम, 1860‘भारतीय न्यास (ट्रस्ट) अधिनियम, 1882, ‘सहकारिता अधिनियम, 1912, ‘कम्पनी अधिनियम, 2013 आदि के प्रावधान है। यहां यह बताना ही प्रर्याप्त है, कि आप इनकी समझदारी और जानकारी रखें; अन्यथा विधि (Law) आपको सब चीजों का जानकार मानता है और संबंधित पदाधिकारियों के “तथाकथित सहयोगात्मक यानि नकारात्मक रवैया से आप भी वाकिफ होंगे। इसमें कई विभिन्न शुभचिंतकों से राय ले सकते हैं, गूगल से भी सलाह लें सकते हैं। बाजार में कई रूपों में सलाहकार हैं, जिनकी अज्ञानता, और उनकी नियत भी ध्यान देने योग्य है।

मैंने कई सरकारी प्रशिक्षकों को देखा है, जो खुद उद्यमी नहीं बन सके और आज भी नौकर है; पर वे उद्यमिता का प्रशिक्षण दे रहे हैं। उद्यमिता एक संस्कार है, और इसका संचरण वे नहीं कर पाते, जिसमें यह संस्कार है ही नहीं। हमें प्रेरणा (Motivation) और अन्तप्रेरणा (Inspiration) में अन्तर समझना जरूरी है। प्रेरणा बाहरी कारक है और अन्तप्रेरणा आन्तरिक कारक है। प्रेरणा बाहरी सुविधाएं, अनुदान आदि से संचालित होता है, जबकि अन्तप्रेरणा आन्तरिक कारणों से जो ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसीलिए उद्यमिता के लिए कोई ठोस आन्तरिक कारणों का होना अनिवार्य है, जिसे कोई भी बना सकता है| अन्यथा इनके अभाव में उनके जल्दी टूट जाने का ख़तरा है। भावनात्मक रूप से मजबूत होना ज्यादा जरूरी है। मन के सारे हार है। इसीलिए कहा गया है कि हर दस “उद्यम” में आठ असफल हो जाते हैं, परन्तु हर दस “उद्यमी” में नौ सफल होते हैं। उद्यमिता एक नाज़ुक, परन्तु महत्वपूर्ण एवं विशाल अवधारणा है, और इसी कारण इसे पूर्णतया संतोषजनक नहीं बताया जा सकता है। इसका सतत विकास होता है, और इसलिए सरल, एवं छोटा उद्यम से शुरू कर जटिल, एवं बड़ा की ओर अग्रसर होना चाहिए।

वित्तीय जागरूकता :

यह ‘धन’ (Wealth) को ‘पूँजी’ (Capital) बनाने से सम्बन्धित है| यह धन सम्बन्धी आपकी भावनाओं को समझने और नियंत्रण करने से सम्बन्धित है| यह धन एवं पूँजी का मनोविज्ञान है| यह धन एवं पूँजी का बाजार की क्रिया विधि है| इसे अलग से विस्तार से बाद में बताया जायगा, क्योंकि यह भी काफी स्थान घेरता है|

सामाजिक अंकेक्षण :

सामाजिक अंकेक्षण सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार समाप्त करने का अमोघ अस्त्र है। इसमें कोई भी नागरिक ‘सूचना अधिकार अधिनियम, 2005’ के अन्तर्गत सरकारी धन से संचालित योजनाओं एवं कार्यक्रमों की जानकारियों को प्राप्त करता है। व्यक्ति, समिति, या संस्था को भी एक नागरिक के रूप में ही आना होता है, इसीलिए समिति या संस्था को अपना पता बताने के रूप में करना होता है| इस अधिकार अधिनियम से प्राप्त इन जानकारियों एवं प्रगति का सत्यापन उस क्षेत्र में किए गए वास्तविक कार्य का मिलान लाभार्थी एवं स्थल पर प्रत्यक्ष अवलोकन से करता है और सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य एवं प्रक्रिया के आलोक में अंकेक्षण करता है। इससे भ्रष्ट प्रक्रिया पर अंकुश लगता है, और बेहतर परिणाम के लिए सुझाव आते हैं। इसका प्रशिक्षण युवाओं में नवनिर्माण के लिए सकारात्मक और उत्पादक जोश पैदा करता है, और सरकारी तंत्र स्वस्थ्य एवं बेहतर परिणाम देता है। इस अंकेक्षण प्रतिवेदन को सरकार के साथ साथ प्रिंट और डिजिटल मीडिया में दिया जा सकता है। इसका व्यवहारिक पहलू इस अंकेक्षण को कई गुणा कर प्रसारित कर वाइरस की तरह तेजी से फैलाता है और भ्रष्ट आचरण पर रोक लगाता है। इस कार्य से युवाओं में प्रभावकारी स्थानीय नेतृत्व पैदा होता है|

संस्कृति का विज्ञान :

संस्कृति का विज्ञान को जानना हर युवाओं के लिए अनिवार्य है। विचारों की जड़ता (Inertia of Thought) और संस्कारों की जड़ता (Inertia of Encultration) को दूर करने के लिए इसे समझना चाहिए| संस्कृति समाज का वह अदृश्य साफ्टवेयर है, जो समाज को लगातार चलाता रहता है| संस्कृति हमारे समाज रुपी कम्प्यूटर का वह साफ्टवेयर है, जो समाज को अचेतन, अवचेतन और सचेतन स्तर पर संचालित और नियंत्रित करता है। संस्कृति इतिहास के बोध (Perception of History) से बनती है| यह इतिहास तथ्यों, तर्कों और वैज्ञानिक प्रविधियों पर आधारित होना चाहिए; न कि भावनाओं, आस्थाओं और मनगढ़ंत मान्यताओं पर आधारित हो। आज यदि हम रुढिवादिता, अंधविश्वास, जड़ता और पाखंड में अपना महत्तम ऊर्जा, समय, और संसाधन बर्बाद कर रहे हैं, तो उसका एकमात्र कारण हमारा दूषित संस्कृति है, जो गलत और सामंतवादी इतिहास बोध से उत्पन्न हुआ है। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो ई एच कार What is History में लिखते हैं कि ऐतिहासिक चिंतन हमेशा उद्देश्यवादी होता है।

भारत के लोग जाति, वर्ण, और धर्म के आधार पर कई वर्गो में विभक्त है। भारत का सामाजिक विकास का इतिहास अवैज्ञानिक है। भारत के इतिहास पर सामंतवाद के प्रभाव का सम्यक अध्ययन नहीं किए जाने से सामंतवादी मानसिकता को मजबूती मिली हुई है। मानव की उत्पत्ति, प्रवास और सामाजिक विकास की गाथा को यथास्थितिवाद बनाएं रखने को ही व्याख्यापित है। भारत के सशक्त और अग्रणी राष्ट्र निर्माण की पहली अनिवार्य शर्त इस कम्प्यूटर रुपी तंत्र का संस्कृति रुपी साफ्टवेयर को सुधारना है, जो इतिहास के वैज्ञानिक लेखन से ही होगा।

सफलता का विज्ञान :

सफलता का विज्ञान यानि सफलता प्राप्त करने की वह वैज्ञानिक और व्यवहारिक प्रविधि है, जिसको जानना और समझना हर भारतीय युवाओं के लिए जरूरी है। ‘ढोंग’, ‘पाखंड’, ‘अंधविश्वास’ और ‘कर्मकांड’ की वास्तविकता को समझने के लिए ‘ईश्वर’, ‘आत्मा’, पुनर्जन्म’ 'कर्मवाद', 'स्वर्ग नर्क', 'भाग्य' आदि की वैज्ञानिकता समझनी चाहिए| विचार एवं मानसिकता कैसे भौतिकता में रुपांतरित होता है और यह क्रियाओं को कैसे संचालित करता है - यह जानना जरूरी है। भारतीय बौद्धिक (बुद्धि का) दर्शन में मन यानि चेतना को सभी चीजों का केन्द्र बिन्दु स्वीकार किया है।  मन ब्रह्मांड में फैला क्वांटम फील्ड पर अतिरिक्त ऊर्जा डालकर उन चीजों को उत्पन्न करता है, जिनको मन उत्पन्न करना चाहता है (क्वांटम फील्ड थ्योरी और अवलोकर्ता का सिद्धांत)। मन यदि नियंत्रण में है, तो सब कुछ नियंत्रण में है। मन ही सभी मानसिक क्रियाओं में प्रधान है, जो सुविचारित लक्ष्यों को भौतिक तथ्यों में रुपांतरित करता है। अल्बर्ट आइंस्टीन ने इसलिए ही ‘कल्पना’ (imagination) अर्थात ‘मन की उड़ान’ को ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण माना। वैज्ञानिक सर रोजर पेनरोज ने मन एवं चेतनता के संबंधों की वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए बताते हैं, कि जब हम किसी चीज पर मन को स्थिर करते हैं अर्थात अपनी सोच को स्थिर करते हैं, तो उस वस्तु के उन तरंगीय ऊर्जा में से प्रकटीकरण की संभावना बढ़ जाती है, जिस वस्तु को हम प्रकट देखना चाहते हैं। इसके लिए मन को संकेंद्रित करना चाहिए, जो विपश्यना विधि से प्राप्त होता है। अंत में सकारात्मक मनोविज्ञान (Positive Psychology)  के जनक अब्राहम मैसलो (1908-1970), एक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक, का एक प्रसिद्ध पक्ति को दुहराना चाहूंगा, जो 1966 में प्रकाशित उनकी प्रसिद्ध पुस्तक  "The Psychology of Science" में है -

"If you have a Hammer in hand, everything looks like a Nail."

यदि आप कोई कांटी को ठोकने के लिए हथौड़ा लेकर तैयार होते हैं, तो आपके लिए सब कुछ लक्ष्य (कांटी) जैसा ही दिखता है|

अतः युवाओं से अनुरोध है कि आप तैयार रहें, निशाने पर कांटी ही होगा। आपके द्वारा समृद्ध, सुखमय और शांतिमय अग्रणी और विकसित भारत का उदय होगा।

आचार्य निरंजन सिन्हा

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Acharya Niranjan Sinha is an ‘Educationist’, an ‘Innovative Thinker’ and ‘Writer’ to transform the Society in general. He needs your kind support for improving the quality of content and for broadcasting & publishing these innovative Ideas.

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--- Prof (Dr) Vinay Paswan,

Keshopur, Vaishali, Dist - Vaishali, Bihar, India.

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