रविवार, 30 अप्रैल 2023

शूद्र होने के खेल का मनोविज्ञान

भारत में आजकल शूद्र बनने और बनाने का अनोखा खेल बखूबी खेला जा रहा है। आज हमलोग शूद्र होने, यानि शूद्रता के खेल का आलोचनात्मक विश्लेषण कर इसे समझने का प्रयास करेंगे। ‘शूद्रता यानि ‘क्षुद्रता’ के मनोविज्ञान और उसकी क्रियाविधि का विश्लेषण कर उसे समझने का प्रयास करेंगे| दरअसल ‘क्षुद्रता’ और ‘शुद्रता’ में कोई अन्तर नहीं है| मतलब कि ‘क्षुद्र’ और ‘शूद्र’ एक ही शब्द एवं भाव की दो अभिव्यक्ति है| जब हम इसे रोमन लिपि में लिखते हैं, तो ‘Shudra’ (शुद्र) में मात्र ‘K’ लग जाने से ही यह ‘Shudra’ (शुद्र) बदल कर ‘Kshudra’ (क्षुद्र) हो जाता है, और भावार्थ बदल जाता है, या बदल दिए जाने का एक प्रयास होता है| ऐसे ही ‘खेत्तीय’ (Khettiy) बदल कर ‘क्षेत्रीय’ (Kshetriy) हुआ और फिर ‘क्षेत्रीय’ अब ‘क्षत्रिय’ (Kshatriy) हो गया| इस तरह स्पष्ट है कि ‘क्षुद्र’ जो एक गुणवाचक संज्ञा था, अब एक जातिवाचक संज्ञा ‘शुद्र’ हो गया| स्पष्ट है कि ‘शुद्रता’ और कुछ नहीं, ‘क्षुद्रता’ की ही अभिव्यक्ति है| अब हम इसके विश्लेषण के बाद इसके क्रियाविधि को समझेंगे| ‘क्षुद्रता’ यानि ‘हीनता’, ‘नीचता’, या ‘नगण्यता’ ही है|

जर्मनी का बिस्मार्क जर्मनी के बिखरे हुए विभिन्न कबीलाओं को एक ‘सर्वोच्च वर्ग’ यानि ‘सर्वोच्च जाति’ (प्रजाति) का सदस्य बता कर, यानि उनके ‘मनोबल’ को बढ़ा कर बिखरे हुए जर्मनी को एकीकृत कर दिया| जर्मनी की इसी सर्वोच्चता की उभरे हुए भावना, यानि इसी उच्च “मनोबल” के आधार पर ही हिटलर भी विश्व को रौंद सका था| इसे उनकी ‘सर्वोच्चता की भावना’, यानि ‘सर्वोच्चता की विचार’ की शक्ति, यानि ‘मनोबल’ की शक्ति और उनका वैश्विक एहसास कह सकते हैं| 

लेकिन भारत के कुछ तथाकथित क्रान्तिकारी बौद्धिक नेतृत्वकर्ता भारत की बहुसंख्यक आबादी को ही ‘शुद्र’ यानि ‘क्षुद्र’ बता कर बहुसंख्यक आबादी का मनोबल तोड़ने में सफल हो रहे हैं| पता नहीं क्यों, अधिकतर बुद्धिजीवी “शुद्र” के वर्गीकरण में अपने को शामिल किए जाने की होड़ में शामिल हैं, जो वे कभी थे ही नहीं| इन्हें ‘वर्ण व्यवस्था’ के अतिरिक, यानि इस वर्ण व्यवस्था के बाहर भी कोई ‘अवर्ण व्यवस्था’ हो सकता है, यह उनके समझ से बाहर है| ये उतना ही दूर देख सकते हैं, जितना इन्हें खुली आँखों से दिखाया जाता है। इन शारीरिक आंखों के अतिरिक्त ‘मानसिक दृष्टि’ भी होती है। ये तथाकथित बुद्धिजीवी इन ‘मानसिक दृष्टि’ का उपयोग क्यों नहीं करते हैं, पता नहीं? ये किन शक्तियों के इशारे पर ऐसा कर रहे हैं, वही जाने, लेकिन हो तो यही रहा है| हमलोग चलें हैं भारत को ‘वैश्विक शक्ति’ और ‘वैश्विक समृद्धि का नेतृत्वकर्ता’ बनाने, लेकिन हमलोग आजकल बहुसंख्यक आबादी का मनोबल ही तोड़ रहे हैं|

मनोविज्ञान बताता है कि

यदि कोई ‘हीन’ या ‘नीच’ नहीं भी हो तो,

तो एक या कई कथानक (Narrative) रच कर, 

यानि गढ़ कर, तैयार कर

उसे वैश्विक पटल पर ‘ऐतिहासिक हीन’ या ‘ऐतिहासिक नीच’ साबित कर दो|

इस तरह, यह इतिहास बन जाता है और ऐसे ही संस्कृति एवं संस्कार का निर्माण कर देता है। और संस्कार और संस्कृति दशकों या सदियों तक अपना कार्य करती रहती है। 

इसके बाद वह व्यक्ति या समूह या समाज या राष्ट्र

उस तथाकथित ‘हीनता’ या ‘नीचता’ के प्रतिबन्ध को तोड़ने या हटाने या निषेध करने के

विचार और संघर्ष में ही अपना जीवन व्यतीत कर देगा, यानि उसी में उलझ कर रह जाएगा|

इस तरह वह इस तथाकथित निकृष्टता के विरुद्ध अभियान को एक महानता, एक महान त्याग और बलिदान करने की अनुभूति में अपना सबका कुछ लगा देगा| लेकिन उस खोये हुए ‘मनोबल’ वाले व्यक्ति, या समाज, या राष्ट्र को कुछ नहीं हासिल होता| वह इसके क्रियाविधि (Mechanics) का मनोविज्ञान नहीं समझता है| उन सामान्य और साधारण लोगों को तो छोडिये, उनके सामाजिक बौद्धिक ‘प्रकाश स्तम्भ’ को भी यह समझ नहीं है| वैसे ‘अज्ञानता’ एक ऐसी धुंध पैदा कर देती हैं, जिस धुंध में कोई भी चतुर खिलाड़ी ‘अज्ञानियों’ को कुछ भी दिखा सकता है, या पढा सकता है, या समझा सकता है, | तब ‘अज्ञानियों को कुछ भी समझा लेना चतुर खिलाडियों के लिए बड़ा सरल, साधारण और सहज हो जाता है|

इसीलिए कहा जाता है कि, 

मानव के चेतना के जिस स्तर पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है,

उसके विरुद्ध का संघर्ष या विद्रोह का स्तर भी उसी प्रतिबंध के स्तर का हो जाता है और वह व्यक्ति, या समाज या राष्ट्र उसी हीन यानि निम्न स्तर में उलझ कर रह जाता है। 

इस स्तर पर संघर्ष या विद्रोह करने से उन सभी को एक बहुत अद्भुत चेतना का जागरण, यानि स्वतन्त्रता एवं समता के अद्भुत चेतना के उभार का आभास दिखता है|

उस संघर्ष या विद्रोह करने वाला वह व्यक्ति, या समाज, या राष्ट्र चेतना के उसी स्तर का बंधक हो जाता है और

उसकी वैचारिक उड़ान उसी हीन यानि नीच स्तर के सीमा से बंध भी जाता है,

जिसका आभास उसे एकदम नहीं होता|

इस तरह उसके ‘पृष्ठभूमि’ में उसका एक वैचारिक ‘सन्दर्भ’ निश्चित हो जाता है, और उसके बिना उसका अस्तित्व ही नहीं बचता है| इसीलिए महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा है कि

‘समस्या चेतना के जिस स्तर पर उत्पन्न हुआ है,

उसका समाधान चेतना के उसी स्तर पर रह कर नहीं किया जा सकता है|’

अर्थात किसी समस्या का समाधान उस चेतना के स्तर से ऊपर या अलग जाकर करना होगा, जिस स्तर पर समस्या पैदा हुआ है|

भारत के बुद्धिजीवी यानि तथाकथित विद्वान् अपनी “सांस्कृतिक जड़ता” (Inertia of Culture) या "सांस्कृतिक आवेग" (Cultural Momentum) का बुरी तरह शिकार हैं| इसे आप उनकी “बौद्धिक जड़ता” (Inertia of Thought) भी कह सकते हैं| ये लोग ‘भारत की मूल संस्कृति’ और अपने ‘सम्प्रदाय एवं क्षेत्र की वर्तमान संस्कृति’ में अन्तर नहीं समझ पाते या अन्तर नहीं करना चाहते| इनमे आलोचनात्मक चिन्तन (Critical Thinking) का स्तरीय अभाव भी है| ये लोग इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या नहीं कर सकते, या नहीं करना चाहते| इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या यानि ‘उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों’ के अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर ही किया जाना चाहिए| यह इतिहास का सब कुछ स्पष्ट कर देता है|

इसके आधार पर इतिहास की व्याख्या से भारत के कई दुसरे पक्ष उभर कर सामने आता है| अपनी स्थापना काल में ‘वर्ण व्यवस्था’ सामन्तवादी कार्यपालिका की व्यवस्था थी, जिसके सदस्य सामान्य जनता से चयनित होते थे| ‘जाति व्यवस्था’ सामान्य जनों की व्यवस्था थी, जो वस्तुओं के उत्पादक थे और सेवाओं के प्रदाता थे| इसी जाति व्यवस्था से ही सामन्तवादी कार्यपालिका यानि वर्ण व्यवस्था बनती थी, इसीलिए इतिहास में कई जातियों से शासक के क्षत्रिय पाए जाने का इतिहास है| शुद्र यानि क्षुद्र सामन्तवादी कार्यपालिका का आजकल का चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी था, जिसका अस्तित्व ब्रिटिश काल में विलुप्त हो गया| पिछली शताब्दी के प्रारम्भ में ही ‘वयस्क मताधिकार’ और लोकतान्त्रिक चुनावी प्रणाली के आग़ाज ने विकल्पहीनता की स्थिति में “हिन्दू” नाम के भौगोलिक शब्द का धार्मिक उपयोग करने को बाध्य कर दिया| इसी के बाद इसी के लिए कई संस्था या संगठन बने| इसके पहले ‘हिन्दू’ शब्द का धार्मिक उपयोग खोजे नहीं मिलेगा|

हमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का इतिहास अलग से समझना होगा| अनुसूचित जनजाति तो परम्परा से सामन्तवादी शासन से ही बाहर दूरस्थ वनों में रह रहे थे| इनको वर्ण व्यवस्था यानि सामन्तवादी कार्यपालिका से कोई लेना देना नहीं था| लेकिन ब्रिटिश काल में इसके व्यवस्था का भाग बनने और लोकतान्त्रिक निर्वाचन पद्धति का संभावित हिस्सा बनने के कारण इन्हें भी एक नए ‘सांस्कृतिक घेरे’ में शामिल किए जाने की अनिवार्यता हुई| ध्यान रहे कि भारतीय मूल संस्कृति भारत में संस्कृति के उदय से ही स्वरुप बदलता  रहा है और सब कुछ अपने में समाहित कर रुपांतरित होता रहा है|

अनुसूचित जाति का वास्तविक इतिहास को तो छुपा दिया गया है, और उनके मनोबल को तोड़ने के लिए कई घटिया कथानक रच दिए गये हैं| दरअसल अनुसूचित जाति के लोग सामन्तवादी कार्यपालिका के असनातावादी विचारों, व्यवहारों एवं व्यवस्थाओं के विरुद्ध ऐतिहासिक विद्रोही थे| ये प्राचीन काल में सामान्य जन ही थे, लेकिन बौद्धिक एवं वैचारिक रूप में सशक्त थे| ये भारत की बौद्धिक संस्कृति के प्रमुख ध्वजवाहक थे| इन सामान्य जन में से कुछ लडाका एवं अन्याय के विरोधी जन थे, जो सामान्य जन के हित में आगे रहे| बाकी जनता भी बौद्धिक संस्कृति की ही अनुयायी थे| इन इतिहासों को विलुप्त कर दिया गया है| बौद्धिक संस्कृति के बहुसंख्यक विद्वान् (जिन्हें बामण/ बाम्हण कहा जाता था, लेकिन ब्राह्मण नहीं, ध्यान दिया जाए) सामन्तवादी व्यवस्था से समझौता कर, यानि उसके भाग बन कर वर्ण व्यवस्था के ब्राह्मण बन गये| लेकिन बौद्धिक संस्कृति के बहुसंख्यक विद्वान् (बामण /बाह्मण, ब्राह्मण नहीं) सामन्तवादी व्यवस्था से समझौता नहीं कर इस नव उदित सामंती व्यवस्था के विरुद्ध हो गये। इन विद्रोही विद्वानों को सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान, समाज, समानता और शिक्षा से बाहर कर दिया गया और ये सदियों के काल थपेड़े में अपना सब कुछ भूल गए। ये ही आज अनुसूचित जाति के सदस्य हो गए। ये अपने विद्रोह के स्तर के अनुसार नामित भी किए गए, जैसे ‘सामन्तवादी कार्यपालिका का नियम ’भंग करने वाले को “भंगी” कहा गया; जिसे ‘साधना (यानि पालतू यानि अनुयायी बनाना) आसान नहीं था, बल्कि दु: साध्य था,, उन्हें “दुसाध्य” यानि ‘दुसाध’ कहा गया आदि आदि| ऐसे विद्रोही लोग सामान्य जन में कुछ ही साहसी और बौद्धिक लोग थे, जो अपने विद्रोही विचार एवं व्यवहार के कारण सामन्तवादी कार्यपालिका के लिए अवांछित हो गए थे| इन्हें ‘हीन’ एवं ‘नीच’ बताने एवं साबित करने के लिए अनेक काल्पनिक कथानक रचे गये और इसे इतिहास साबित किया गया| आप इनके ऐसे इतिहासों का प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य मांगे, एक भी प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य नहीं मिलेगा| इन बेसिर पैर के कथाओं की संरचना और भावार्थ को समझना होगा|

इस तरह इन क्रांतिकारी "स्वतंत्रता, समानता एवं बन्धुत्व" के विचार एवं आदर्श के ध्वजवाहकों को ‘ऐतिहासिक अन्याय’ का बोध करा कर ‘अन्याय के चेतना का बंधक’ बनाया गया| अब ये ‘अन्याय के चेतना का प्रतिकार’ करने वाला ‘प्रतिकार भावना के बंधक’ हो गये| चूँकि जिस तल पर ‘प्रतिकार का बंधन’ होता है, इसीलिए वह उसी तल पर ‘प्रतिकार’ करने का विचार करेगा और अपना आदर्श स्थापित करेगा| चूँकि ये इतिहास की इस गलत एवं फर्जी अवधारणा एवं परिभाषा में उलझ गए हैं, इसीलिए इन्होने ‘मुक्ति का स्तर’ यानि ‘पैमाना’ भी यही बना लिया है| 

ये अवधारणा बदल कर भाग्य या भविष्य बदलना नहीं जानते हैं। इस तरह इनका मनोबल ही सिर्फ तोडा नहीं गया है, अपितु इनको घेर कर उलझा दिया गया भी है| मनोविज्ञान के इस सूक्ष्म नियम को समझना चाहिए| इसके लिए ही ‘मूल निवासी’ की कहानी बनाई गई, ताकि इस मध्य कालीन हीनता यानि नीचता की कहानी को कई हजार साल पुरानी बताई जाय| आज इस नीचता की कहानी को सभ्यता एवं संस्कृति के उदय से बता कर इसे दया का पात्र बनाया गया है| इस तरह इनलोगों ने अपनी हीनता को अंगीकार कर लिया| यदि आप किसी को हीनता के स्तर पर प्रतिबन्धित कर देने का अहसास करा दिया गया है, तो वह उसी स्तर से निकलने में उलझा रहेगा| उसकी चेतना का विद्रोह- लक्ष्य भी उस स्तर से ऊपर नहीं हो सकेगा| इस भयानक खेल को समझिए| अब तो ये इन कथानकों पर विश्वास कर विचारों की जड़ता, संस्कृति की जड़ता और परम्पराओं की जागता में जड़ (Fix) हो गये हैं|

यदि आपको अपने  आपको बदलना है,

यदि हमको भारत को बदलना है,

तो हम इन परिभाषाओं और अवधारणाओं को बदलें,

सब कुछ स्वत: बदलने लगेगा|

हमें विचारों से पके हुए, उत्साह से थके हुए और देश के दुश्मन के हाथों बिके हुए लोगों से कोई उम्मीद भी नहीं है| अब उम्मीद सिर्फ विचारों के तार्किक एवं वैज्ञानिक मानसिकता के युवाओं से ही है|

आचार्य निरंजन सिन्हा    

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक

(आप मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर भी अवलोकन कर सकते हैं।)

1 टिप्पणी:

  1. शब्दों के मनोविज्ञान और उनके सामाजिक-आर्थिक गतिविज्ञान को आपने बहुत सहजता से रखा है। इसे गहराई से समझने का प्रयास होना चाहिए।

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