ब्रह्माण्ड में कुछ भी नित्य नहीं है, अर्थात सब कुछ ‘अनित्य’ है|
इसलिए युग भी बदलता रहता है यानि युग को भी बदलना
पड़ता है| भारत में हर कोई जानता है कि युग के चार नाम हैं, जो क्रमश: सतयुग,
त्रेतायुग, द्वापरयुग, एवं कलियुग है| यह युग सतयुग से शुरू होता है और कलियुग तक
चलता है, जो एक वृताकार पथ यानि चक्रीय पथ का अनुगमन करता है| आप भी जानते हैं कि सतयुग को सत्य का युग अर्थात सच्चाई का युग माना जाता है और
कलियुग को एक काला युग यानि अन्धकार का युग माना जाता है, अर्थात सभी ‘नैतिक
अनर्थो’ का युग माना जाता है| युग का बदलना एक वैश्विक प्रक्रिया है,
जो मानव स्वभाव यानि मानवीय मनोविज्ञान के अनुसार बदलता रहता है| ध्यान रहे कि इन
युगों का बदलना सिर्फ भारत में ही नहीं होता, बल्कि यह प्रक्रिया जहां भी मानव
समाज है, वहां होता रहता है, भले ही उसके लिए प्रयुक्त शब्दावली अलग अलग हो जाए,
परन्तु भावार्थ अर्थात आशय एक ही होता है| तो, कलियुग को क्यों आना होता है?
बीसवीं
शताब्दी तक स्थापित साम्राज्यवादियों का एकाधिकार निर्बाध गति से आगे बढ़ रहा था|
उसके बाद विश्व पटल पर विश्व व्यवस्था के बदलने की आहट स्पष्ट हो गया , या यों
कहें कि विश्व व्यवस्था बदलने लगी| वैश्विक शक्तियों
में पहले सोवियत संघ (वर्तमान रूस), जर्मनी, जापान, इटली आदि का स्पष्ट उभार हो
गया| उसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्ति से ही भारत, चीन एवं इजरायल का तेजी
से उदय हुआ| इन सभी ने वैश्विक स्तर पर आर्थिक एवं सामरिक संतुलन बदलने को
बाध्य कर दिया| इससे साम्राज्यवादियों का यह
भाव (Ego/ Importance) दरकने लगा| उन साम्राज्यवादियों का यह भाव भी था कि वे विश्व
की सर्वश्रेष्ट, विशिष्ट एवं उत्कृष्ट समुदाय (या कुछ लोगो के लिए प्रजाति) है| इस
वैश्विक व्यवस्था में बदलाव से ऐसी मान्यता के लोगों को, समूहों को, समुदायों को
एवं राष्ट्रों को गहरी निराशा होने लगी, वे हताश एवं उदास हो गए| उन्हें लगा कि उनका
सतयुग समाप्त हो रहा था| उनके अनुसार वैश्विक समाज के हीन, निकृष्ट और निम्न (इनमे
जो भी समुचित हो) स्तरीय समाजों एवं राष्ट्रों के अधीन विश्व व्यवस्था जा रही है,
तो उनके अनुसार वैश्विक समाज का नैतिक पतन हो जायगा| स्पष्टतया इनके लिए ‘कलियुग’ ही आ रहा था, या आ गया है| इसी आशय का स्पष्ट शब्दों में प्रो० ई० एच० (एडवर्ड हैलेट) कार
ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक – “What is History” की भूमिका में प्रस्तावित किया है|
अब
बहुत कुछ स्पष्ट हो गया कि कलियुग क्यों आता है? फिर भी इसे शब्दों में और स्पष्ट
करना चाहिए कि भारत में क्या हुआ कि कलियुग को आना पड़ा? भारत का सन्दर्भ इसलिए कि
इन युगों की अवधारणा भारतीय है, और इसीलिए भारतीय सन्दर्भ एवं पृष्ठभूमि के आलोक
में इसे प्रस्तुत करना चाहिए| आप ऊपर एक वैश्विक उदाहरण में देख रहे हैं कि जब विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति, या समाज, या राष्ट्र का
सनातनी यानि निरंतरता वाली सर्वश्रेष्ठता एवं उत्कृष्टता का लाभ, भाव (Gesture),
महत्व एवं विशेषाधिकार टूटने लगता है, दरकने लगता है, सरकने लगता है और तहस नहस
होने लगता है, तब उनके लिए ‘कलियुग’ का आगमन होने लगता है| अल्बर्ट आइन्स्टीन ने अपनी दोनों सापेक्षता के सिद्धांत
(Theory of Relativity) में स्पष्ट किया कि इस ब्रह्माण्ड में सब कुछ सापेक्ष
(Relative) है, समय (Time) भी सापेक्ष है और स्थान (Space) भी सापेक्ष है|
यह सापेक्षता किसी अवलोकनाकर्ता/ प्रेक्षक/ देखनेवाला (Observer) के सन्दर्भ में होता है, चाहे
अवलोकनाकर्ता कोई भी हो| स्पष्ट है यह ‘कलियुग’ भी
सापेक्ष होगा, अर्थात किसी के लिए यही ‘कलियुग’ दुसरे अन्य के लिए इसके सापेक्ष में
उतना ही ‘सतयुग’ होगा| मतलब एक ही युग यानि एक ही व्यवस्था किसी के लिए यदि कलियुग
है, तो यही युग यानि व्यवस्था किसी अन्य के लिए सतयुग होगा| युग क्या
है? युग किसी सभ्यता का एक सामयिक अवधि है, जो किसी खास क्षेत्र में कोई खास काल
का यानि समय का अवधि है|
तो
भारत में सतयुग का क्या अर्थ हुआ? इसी सतयुगी व्यवस्था के दरकने से ही तो कलयुग का
आगमन होने लगा| अब तक यह सपष्ट हो गया कि कोई निरपेक्ष
सतयुग या कलियुग नहीं होता है, बल्कि किसी भी काल के “सन्दर्भ व्यक्ति” का एक
मनोवैज्ञानिक समझ है या व्याख्या है|
यह काल वर्तमान का हो सकता है, या भविष्य का हो सकता है या भुत यानि इतिहास का भी
हो सकता है| अत: जिस भी काल या क्षेत्र में हमारी
तथाकथित सर्वश्रेष्टता के भाव का या उसके सम्मान का हानि होने लगे और हमारे
अवैज्ञानिक एवं अलोकतांत्रिक विशेषाधिकारों का हनन होने लगे, तब हमरे लिए तो यह ‘कलियुग’
आ ही गया| ऐसा जब दूसरों के साथ होता है, तब उनके लिए भी ‘कलियुग’ आ
जाता है| ध्यान रहे कि मैंने ऐसे ‘विशेषाधिकारों’ की विशेषता में दो विशेषण दिए
हैं - अवैज्ञानिक एवं अलोकतांत्रिक| अर्थात मैंने जन्म आधारित एवं जबरदस्ती
प्राप्त विशेषाधिकारों को शामिल किया है, जो अवैज्ञानिक भी है, अलोकतांत्रिक भी है
और संविधान विरोधी भी है| मतलब यह हुआ कि ‘ज्ञान’ एवं ‘कौशल’ आधारित विशेषाधिकारों
एवं लोकतान्त्रिक तथा संवैधानिक विशेषाधिकारों का तथाकथित ‘सतयुग’ एवं ‘कलियुग’ से
कोई लेना देना नहीं है| लोकतान्त्रिक विशेषाधिकारों में लोगो (People), या
व्यक्तियों (Persons) या नागरिको (Citizens) के द्वारा वैधानिक तरीके से चयन शामिल
है, और इसमें वंशागत चयन शामिल नहीं है, भले ही वह वैधानिक एवं संविधानिक हो||
हमलोग
त्रेता एवं द्वापर के युग छोड़ देते हैं, क्योंकि ये मात्र संक्रामक
(Transition) युग को स्पष्ट करते हैं| इसीलिए यह सामान्य जीवन के प्रसंग में
नहीं आते हैं| सतयुग एवं कलियुग ही युग के अतिकिनारों (Extreme Edeges) को स्पष्ट
करते हैं| एक सतयुग - सत्य का युग है और दुसरा कलियुग – सतयुग का अति विरोधी, जितना
हो सकता है| हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि यह
‘सतयुग’ एवं ‘कलियुग’ की अवधारणा या कल्पित व्यवस्था ‘सामन्तवाद’ की ऐतिहासिक उपज
है और इसीलिए यह मध्यकालीन यानि मध्ययुगीन है|
और इसीलिए इसके कोई ‘ऐतिहासिक साक्ष्य’ यानि ‘प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य’
प्राचीन काल में नहीं मिलता हैं, भले ही कोई इसे मिथकीय पौराणिक काल में हजारों,
लाखों या करोड़ों वर्ष पीछे लेकर चलें जाएँ| इनके ऐतिहासिक दावों का आधार
कागजों पर अभिलिखित ग्रन्थ ही हैं, जो स्पष्टतया कागज के चीन में आविष्कार के होने
और इसके भारत आने के बाद के ही होंगे, शिला लेखिय प्रमाण तो हैं नहीं और वानस्पतिक
प्रमाणों की जांच वैज्ञानिक ‘कार्बन डेटिंग’ पद्धति’ से कराइ जा सकती है|
अत:
जो युग जन्म आधारित जाति व्यवस्था एवं जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था के अनुसार कार्य,
व्यवहार, चिंतन एवं आदर्श को मानता रहा हो, उस समय यही समाज का ‘धर्म’ का था| यह ‘धर्म’ ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म एवं कर्मवाद पर आधारित
था| इसी धर्म के पतन या अव्यस्था को ही ठीक करने के लिए ‘ईश्वर’ का आगमन होता रहा|
और यह सब जन्म आधारित विशेषाधिकार का पतन यानि
इसका दरकना, इसका सरकना, या इसका ध्वस्त होना ही कलियुग का आगमन है|
हालाँकि वैज्ञानिक एवं तार्किक आधार पर यह स्पष्ट है कि ये जन्म आधारित
विशेषाधिकार गलत है, मानव की गरिमा का विरोही है, अलोकतान्त्रिक है, और संविधान
विरोधी भी है| यह न्याय, स्वतंत्रता, समता एवं बंधुत्व का विरोधी है|
अब
आप समझ गए होंगे कि ‘कलियुग’ क्यों आता है?
आचार्य निरंजन सिन्हा
www.niranjansinha.com
बहुत ही तर्कपूर्ण आलेख। आचार्य निरंजन सिन्हा जी को बहुत-बहुत साधुवाद।।
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