मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध संस्थान क्यों?

भारतीय संस्कृति

हमारी विरासत

भारतीय संस्कृति ही हमारी विरासत है| इसे अच्छी तरह से समझना होगा| शब्द भारतीय संस्कृति का प्रतिस्थापन कोई भी दूसरा शब्द नहीं कर सकता है| यदि ऐसा प्रतिस्थापन कोई करता है, तो स्पष्टतया वह प्रतिस्थापन किसी गलत उद्देश्य से किया गया है| इसे गंभीरता से जानने एवं समझने के लिए और इसकी क्रियाविधि को गंभीरता से देखने के लिए ही यह आलेख है|

जीवन के प्रमुख अवस्थाओं एवं परिस्थितियों में कुछ  संस्कार कराने को जरुरत होती है, लेकिन संस्कार विधि को शुद्ध, पूर्ण, सही, समेकित और सम्यक होना चाहिए। इसके लिए हमारे संस्कारको को शिक्षित, प्रशिक्षित, संस्कारी, ज्ञानी और विवेकशील होना चाहिए, ताकि संस्कार विधि हमारे गौरवशाली अतीत के अनुरूप और अनुकूल हो।

हमारे भारतीय समाज को संस्कारित करने के लिए तथा उसकी दिन प्रतिदिन की संस्कार क्रिया सम्बन्धी तमाम सारी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए  संस्कारी और विद्वान पुरोहितों को उचित प्रशिक्षण के माध्यम से तैयार करने की, आज नितान्त आवश्यकता हैइसके लिए बहुत से लोग एवं बहुत से समुदाय "पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध संस्थान" स्थापित करने एवं संचालित करने का अभियान चला रहे हैं। इससे भारत को अपनी पुरानी गरिमामयी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित एवं स्थापित करने में मदद मिलेगीइस अभियान को बहुत व्यापक समर्थन मिल रहा है, और परिणाम भी काफी सकारात्मक आ रहे हैं। इससे कई सकारात्मक एवं सृजनात्मक बदलाव देखने को मिल रहा है| यदि आप थोड़ा ठहर कर विचार करेंगे, तो आपको भविष्य का सुनहरा भारत भी देखने को मिलेगा| सबसे सुखद और महत्वपूर्ण बात यह है कि यह पूर्णतया संवैधानिक है, और इसीलिए वैधानिक भी है|

कोई भी व्यक्ति यदि शिक्षित और संस्कारी है, तो वह संस्कारक / पुरोहित बन सकता हैयदि आप चिकित्सक, अभियन्ता, शिक्षक, क्षेत्र विशेष में विशिष्ट सलाहकार, सरकारी सेवक या अन्य सेवा प्रदाता बन सकते हैं, तो यह भी आपका संवैधानिक अधिकार है, कि आप भी शिक्षित, संस्कारित एवं शास्त्रीय पद्धति का एक संस्कारक एवं पुरोहित बन सकते हैं|

इस मिशन का मुख्य उद्देश्य  होना चाहिए कि प्रशिक्षण द्वारा सभी प्रचलित संस्कारों के लिए सभी प्रचलित रीतियों के संस्कारक/ पुरोहित तैयार करनाइसलिए  बौद्धिक (बुद्ध का) परंपरा में, वैदिक परम्परा में, अर्जक रीति  में, गायत्री परिवार रीति में, आर्य समाजी रीति में या अन्य और वैधानिक (सरकारी कानूनी) रीति में संस्कारक / पुरोहित तैयार किए जाने हैंये संस्कारक / पुरोहित व्यक्ति को, परिवार को, एवं समाज को अन्य सुविधाएं, सलाह और मार्गदर्शन भी उपलब्ध कराएँगे, क्योंकि ये शिक्षित, अनुभवी, प्रशिक्षित एवं संस्कारी भी होंगे| *और ऐसा संस्कारक / पुरोहित सर्व वर्ग समाज के सहयोग से व्यापक स्तर पर उपलब्ध कराएंगे।*

तो सबसे पहले यह समझा जाय कि एक संस्कारक एवं एक पुरोहित कौन होता है, और समाज को इसकी आवश्यकता क्यों होती हैजीवन के किसी भी तरह के संस्कार की प्रक्रिया या विधिनुसार विधान कराने वाले को 'संस्कारक' कहते हैं'पुरोहित' का शाब्दिक अर्थ होता है - 'पुर' एवं 'हित' अर्थात 'पुर' यानि किला यानि बस्ती का 'हित' देखने वाला यानि रखने वाला व्यक्ति। स्पष्ट है कि यह एक अतिमहत्वपूर्ण पद हैजो समय के साथ कई तरह के संस्कारों के साथ जुड़ गया। पुरोहित को अंग्रेजी में Priest कहते हैं। इसे पुजारी भी कहा जाता है, जो पूजा इत्यादि संस्कार कराता है। परिभाषा अनुसार जो धार्मिक कर्म, धार्मिक कृत्य एवं अन्य संस्कार कराता है, वह पुरोहित है, संस्कारक है परिभाषा से ही स्पष्ट है कि ऐसा व्यक्ति ज्ञानी होगा, संस्कारी भी होगा और समाज का कल्याण करने वाला भी होगा। 

अतः स्पष्ट है कि एक संस्कारक/ पुरोहित/ पुजारी एक पद है, एक उपाधि है, जो वैसे संस्कारों को विधि अनुसार सम्मपन्न कराता है। पालि भाषा में यानि कि बौद्धिक काल (प्राचीन काल) के दरम्यान  विद्वान व्यक्ति की उपाधि ही बाम्हण’, ‘बामण (ब्राह्मण नहीं) इत्यादि था, जो मध्य काल के सामंतवादी व्यवस्था में जन्म आधारित ब्राह्मणकहलाया। इस मध्यकालीन सामन्ती विरूपण (Distortion) को हमें सुधारना है, और आधारभूत, मौलिक एवं प्राचीन सनातनी परम्परा को पहचान कर उसे शनै: शनै: योजनाबद्ध तरीके से पुनः स्थापित करना है। आजकल उपलब्ध अधिकतर पुरोहित प्रायः अल्प बुद्धि वाले, संस्कारहीन, स्वार्थी एवं अप्रशिक्षित होते हैं|

लोग इस प्रशिक्षण अभियान को क्यों बढ़ाना चाहते हैं? इसे निम्न बिन्दुओं पर समझा जाय ......

1. आजकल उपलब्ध सभी पुरोहित ज्ञानी और संस्कारी नहीं होतेअपितु उनमें से अधिकांश अल्प बुद्धि वाले हैं, और साथ ही साथ संस्कारहीन और स्वार्थी भी हैं। इनमें अधिकतर बेरोजगारी की विकल्पहीनता की स्थिति में ही आते हैं। 

इन संस्थान के द्वारा उपलब्ध  पुरोहित विद्वान होंगे और साथ ही साथ यह संस्कारी भी होंगे और उनके प्रशिक्षण के दौरान यह विशेष रूप से ध्यान दिया जायेगा कि वे स्वार्थी बिल्कुल न बनें। ये प्रशिक्षित पुरोहित समाज के व्यापक हित के लिए समर्पित पवित्र योद्धा (Sacred Worrier) होंगे। यह लोग अपने समुदाय/ समाज का पुरोहित संस्कार कराने के साथ-साथ उनको अनावश्यक आडंबर और दिखावे के कारण आर्थिक तंगी से निकालने हेतु सही सलाह भी देंगे, जो आज प्रत्येक समुदाय/ समाज की अनिवार्यता हो गयी हैये अपने समुदायों में "देवदूत" साबित होंगे, जिनकी सम्मानीय पहुंच अपने समुदाय में गहराई तक व्याप्त होगी और समाज का व्यापक का कल्याण होगा।

2. पुरोहित का कार्य एक सम्मानित और सकारात्मक सामाजिक कृत्य है, जो उनको व्यस्तता और रोजगार के अतिरिक्त धन, सम्मान और पहचान उपलब्ध कराता है। इन संस्कारित कृत्यों यानि कर्मकांडों (धरम करम) में व्यय होने वाला समुदाय /समाज का धन उसी समुदाय/ समाज के पास रहेगा| इससे यह धन, समय एवं समर्पण उसी समुदाय/ समाज के व्यापक लाभकारी, रचनात्मक एवं सृजनात्मक हितों का साधक साबित होगाइससे हज़ारो करोड़ के व्यवसाय में उसी समुदाय/ समाज को हिस्सा मिलेगा।

3. जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव या मोड़ पर यानि विशिष्ट अवसरों एक संस्कार कार्यक्रम की आवश्यकता होती है, जो परिवार और समाज के उपस्थित लोगों को कुछ समय के लिए व्यस्त रखता है, और वे लोग इन विशिष्ट अवसरों के सहभागी एवं गवाह भी बनते हैं। इस कर्मकांड के द्वारा उस विशेष घटना को विशिष्ट एवं विशेष बनाया जाता है।  यह समाज को संस्थाओं (Institutions) द्वारा एकीकृत करने का कार्य भी करता है।

4. मानवीय मूल्यों (Human Values) और प्रतिमानों (Norms) में कोई भी रूपांतरण (Transformation) यानि बदलाव एक झटके में नहीं किया जा सकता है, क्योंकि मानवीय मनोविज्ञान "शून्यता" (Vaccum) को बर्दाश्त नहीं कर पाता है, और वह खालीपन उसको बेचैन कर देता है। ऐसे ही अवस्था यानि परिस्थिति में हमारे प्रशिक्षित पुरोहित वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध कराएंगे, जो उनकी इच्छानुसार होगा और इसीलिए यह उनके लिए सुविधाजनक एवं व्यवहारिक होगा। इसके अतिरिक्त समाज में उपलब्ध अन्य विकल्प और उसके लाभ - हानि एवं उपयोगिता संबंधित विमर्श को आगे बढ़ाएंगे।

5. इसमें कोई पाखंड नहीं किया जाएगा और पूरी शास्त्रीय रीति का विद्वतापूर्ण ढंग से अनुपालन किया होगा। इसमें कोई अस्पष्टता नहीं होगी, कोई अशुद्धियां नहीं होंगी, कोई अनावश्यक तामझाम एवं परेशानी नहीं होगी।

6. जब सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शामिल पुरोहित उसी समुदाय/ समाज के लोग होंगे, तो सांस्कृतिक विरासत (Cultural Heritage) और सांस्कृतिक व्यवस्था (Cultural Pattern/ Organization) उसी समुदाय/ समाज के नियंत्रण में होगी। तब कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं व्यवस्था के नाम पर "सांस्कृतिक साम्राज्यवाद"  (Cultural Imperialism) स्थापित नहीं कर पाएगा और "सांस्कृतिक अराजकता" (Cultural Anarchy) भी दूर होगी।

7. तब हमारा परिवार, हमारा समाज, हमारा राष्ट्र अपनी पुरातन, सनातन, और गौरवशाली विरासत को पुनः प्राप्त करेगा। तब ही सुख, शान्ति, समृद्धि और प्रगतिशीलता स्थापित हो सकेगा।

8. इससे सेवानिवृत स्वजनों को सम्मान मिलेगा, उनको एक सम्मानजनक व्यवस्तता मिलेगी, उनके विस्तृत ज्ञान एवं लम्बे अनुभव का पूरे समाज को सकारात्मक एवं रचनात्मक मार्गदर्शन मिलेगा, और इनको अपने समुदाय/ समाज में  स्वीकरण” (आत्मसिद्धि – Self Actualization) भी प्राप्त होगी। यह स्वीकरण (आत्मसिद्धि) की आवश्यकताहै, जिसे महान मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैसलों ने आवश्यकताओं के पदानुक्रम पर आधारित अपने अभिप्रेरणा के सिद्धांत’ (Theory of Motivation based on heirarchey of Needs) में दिया था|

9. इससे युवाओं को रोजगार मिलेगा, सम्मान मिलेगा, संस्कार मिलेगा, पहचान मिलेगा, आत्मविश्वास बढेगा, और अपने समुदाय के अनुभवी एवं ज्ञानी लोगों का मार्गदर्शन भी मिलेगा| इससे सम्बन्धित समुदाय/ समाज  की व्यवसायिक समझ बढ़ेगी, इन समुदायों/ समाजों के सम्बन्धित सदस्यों को उद्यम मिलेगा और इन उद्यमियों / व्यवसायियों का व्यापार बढेगा| यह इन लोगों में व्यवसायिक एवं उद्यमिता प्रशिक्षणका प्राक (Pre) स्वरुप साबित होगा|

10.. इससे समुदाय/ समाज का क्षेत्रीय परम्परा, पंथ, धर्म, संस्कार किसी भी अन्य वर्ग/जाति विशेष के कब्जे से समाज मुक्त होगा.....  इससे सभी की पैत्रिक रिवाज, क्षेत्रीय परम्परा, पंथ, धर्म, संस्कार का संरक्षण होगा, संवर्धन होगा, सञ्चालन होगा, और उसमे जीवन्तता एवं निरंतरता आएगीइससे किसी में भी हीनता का अपराध बोध नहीं जन्म लेगा और भारत में विशाल मानव सम्पदा का आत्मविश्वास बढ़ेगा| इससे समुदाय, समाज, राष्ट्र एवं मानवता समृद्ध होगा, सुखमय होगा, विकसित होगा, और जीवन शांतिमय चलेगा|

11. इससे समुदाय/ समाज में सामाजिक आध्यात्मिक समानता स्थापित होगी। इससे समुदाय/ समाज धार्मिक आध्यात्मिक... दृष्टि से भी आत्मनिर्भर बनेगा। यही धार्मिक एवं आध्यात्मिक सोच, आदर्श एवं व्यवहार ही समुदाय/ समाज का संस्कृतिहै, जो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक व्यव्स्स्था का साफ्टवेयरहै, जो व्यवस्था को चुपचाप संचालित एवं नियंत्रित करता रहता है| इससे हमारी संस्कृति का संवर्धन यानि उन्नयन होगा|  

तो आईए,

हमलोग एक बेहतर, समृद्ध, सुखमय, शांतिमय भविष्य बनाएँ और अपने भविष्य को संवारें। तब हमारा परिवार और समाज और राष्ट्र समृद्ध होगा, सुखमय होगा और विकसित भी होगा इस दिशा में कई लोग अपने स्तर से इस भागीरथ प्रयास में लगे हुए हैं, जिनमें मध्यप्रदेश के रीवा के श्री जनार्दन पटेल (संपर्क ईमेल – indianpurohit1@gmail.com) प्रमुख नाम हैं| श्री जनार्दन पटेल हमारे आपके सहयोग से “पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध संस्थान संचालित करा रहे हैं| इनको मेरी अग्रिम शुभकामनाएँ हैइसमें आपके बहुमूल्य सुझाव के साथ साथ समाज का सहयोग, समर्पण और दिशा निर्देश अपेक्षित है।

सादर।

आचार्य निरंजन सिन्हा।

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक

 

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