भारत में ‘ब्राह्मणवाद’
और ‘ब्राह्मणवादी’ शब्द
बहुप्रचलित हैं, लेकिन सामान्य लोगों
में इसके बारे में अवधारणा स्पष्ट नहीं है|... तो आइए हम लोग
इस शब्द एवं अवधारणा का विश्लेषण करते हुए इसके साथ ही अन्य कई सम्बन्धित शब्दों
एवं अवधारणाओं को भी समझने का प्रयास करते
हैं, जैसे पाखण्डवाद, बुद्धिवाद या बौद्धिकवाद, आधुनिकवाद, विज्ञानवाद, आध्यात्मवाद
और ढोंग, अंधविश्वास, कर्मकाण्ड,
धर्म, ईश्वर, आत्मा,
पुनर्जन्म, कर्म का सिद्धांत यानि कर्मवाद,
वर्ण तथा जाति, जो पाखण्डवाद से
जुड़ा हुआ नकारात्मक यानि विध्वंसात्मक शब्द है|
उपरोक्त
सभी अवधारणाओं को समझ लेने के बाद ‘पाखण्डवाद’
या ‘ब्राह्मणवाद’ को समझ
लेना सरल होगा। लेकिन उचित होगा कि हम लोग पहले ब्राह्मणवाद को ही समझ लें,
तो अन्य चीजों को समझना काफी आसान हो जाएगा|
‘ब्राह्मणवाद’
एक ऐसी अवधारणात्मक संरचना है, जिसके लिए ‘भाषा के संरचनावाद’ (Language
Structuralism) का
सहारा लेना होगा| ‘ब्राह्मणवाद’
एक ऐसी सांस्कृतिक व्यवस्था है, जिसमें ‘ब्राह्मण’ को सर्वोच्च स्थान दिया गया है|
इसी सर्वोच्चता की स्थापना एवं निरन्तरता के लिए अन्य सम्बन्धित
उपागम/ साधन भी सृजित किए गये हैं| चूँकि ‘संस्कृति’ ही किसी भी
व्यवस्था को संचालित एवं शासित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण, मौलिक एवं
प्रधान ‘साफ्टवेयर’ होता है,
इसीलिए एक सांस्कृतिक व्यवस्था का प्रभाव सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, एवं
राजनीतिक स्तर पर व्यापक होता है| और इन्हीं कारणों से इसका
आर्थिक प्रभाव भी व्यापक होता है| इसी कारण बहुतेरे लोग ‘ब्राह्मणवाद’ को ‘सांस्कृतिक साम्राज्यावाद’ (Cultural Imperialism) भी कहते हैं| चूँकि ‘सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद’ को ‘धार्मिक आवरण’ (Religious Veil) दिया गया
होता है, इसीलिए इसमें छेड़छाड़ यानि विश्लेषण (Analyse)
करना ‘आस्था’ पर ‘आघात’ मान लिया जाता है| मैं
भी इस सांस्कृतिक ‘साम्राज्यवाद’ का
विश्लेषण नहीं करना चाहूंगा| इसी ‘सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद’ को वैश्विक स्तर पर ‘पाखण्डवाद’
भी कहा जाता है| ‘ब्राह्मणवाद’ का क्षेत्र प्रसार जहां भारत तक सीमित है, वहीं ‘पाखण्डवाद ’ का क्षेत्र विश्व व्यापी है|
इसलिए
हम ‘पाखण्ड वाद’ का ही विश्लेषण करना चाहेंगे। आप
वैश्विक स्तर पर 'पाखण्ड वाद'
के न्यूनतम पांच ही मौलिक एवं प्रधान आधार (Base)
पायेंगे, जिस पर कोई भी पाखण्डवाद कार्यरत (Functional)
है| इसमें क्षेत्र एवं काल के अनुसार इसके
नामकरण में शब्दों एवं अक्षरों का हेर-फेर दिख सकता है, परन्तु
संरचना एवं भाव में कोई अन्तर नहीं मिलेगा| इसके पाँच आधार – 1. ईश्वर, 2. आत्मा,
3. पुनर्जन्म, 4. कर्म का सिद्धांत यानि कर्मवाद और
5. जन्म पर
आधारित सामाजिक विभाजन|
हमलोग
भारतीय हैं, इसीलिए इसे भारतीय सन्दर्भ में समझना
आसान होगा| भारत में सामाजिक विभाजन के 'जन्म आधार' को ही ‘वर्ण
व्यवस्था’ एवं ‘जाति व्यवस्था’ कहते हैं, और
इसीलिए इसे अलग से समझना होगा|
हमें
पाँचों अवधारणाओं को एक बार फिर से समझ लेना चाहिए| ‘ईश्वर’ (God) प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकृत (Humanization) स्वरूप है, यानि प्राकृतिक शक्तियों का मानवीयकरण (Personification) है| मतलब यह कि ‘प्राकृतिक शक्तियां’ होती
है, जिसे अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligence) भी कहा जाता है| इसकी उपयोगिता होती है,
इसका उपयोग भी किया जाना चाहिए और इसके उपयोग करने की वैज्ञानिक
क्रियाविधि (Methodology) होती है| लेकिन
इन प्राकृतिक शक्तियों का मानवीयकरण करने में बहुत बड़ा षड़यंत्र छिपा हुआ है|
जब प्राकृतिक शक्तियों को मानव मान लिया
जाता है, तो उस तथाकथित ईश्वर
(प्राकृतिक शक्तियों) को “भावनात्मक” (Emotional) भी मान लिया जाता है, और वह कृपा बरसाने वाला भी हो
जाता है, और दण्डित करने वाला भी हो जाता है|
यहां गौरतलब बात यह है कि, जब वह मानव (Person)
बना दिया जाता है, तो इस धरती पर कोई व्यक्ति
उसका एजेंट या कर्ता भी बन सकता है| इसलिए ईश्वर मान लिए
जाने से इस धरती का कोई विशिष्ट व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह उस ईश्वर का एजेंट
(माध्यम) बन जाता है, जिसे सामान्यतः पुरोहित समुदाय माना
जाता है| जबकि प्राकृतिक शक्तियों के आधुनिक वैज्ञानिक उपयोग
में जिन व्यक्तियों को ‘माध्यम’ बनना पड़ता है, वे आज
वैज्ञानिक, चिकित्सक या इंजिनियर आदि कहलाते हैं, और ये लाभार्थियों के एजेंट होते हैं, न कि उन
प्राकृतिक शक्तियों के एजेंट | इस तरह ईश्वर के मामले में किसी व्यक्ति को ईश्वर का एजेंट बनकर
ईश्वर को खुश करना या ईश्वर को प्रभावित करना होता है, जो स्पष्ट्या ‘पाखंड’
है| प्राकृतिक शक्तियाँ एक व्यक्ति
की तरह भावनात्मक नहीं हो सकती, लेकिन पाखण्ड के लिए
प्राकृतिक शक्तियों को मानवीय स्वरूप देकर एवं भावनात्मक बना कर पाखण्ड किया जाता
है|
‘आत्मा’,
‘पुनर्जन्म’ और ‘कर्म का सिद्धांत’ यानि ‘कर्मवाद’ एक दूसरे के साथ परस्पर गुथे
हुए हैं| ‘आत्मा’ ही ‘पुनर्जन्म’ को सफल बनाता
है। ‘अत: ‘आत्मा’ ही वह मूल आधार है जिसके कारण ‘पुनर्जन्म’ होता है, और इन
दोनों के आधार पर ही ‘कर्म का सिद्धांत’ यानि कर्मवाद कार्यरत हो पाता है| आत्मा ही इस लोक को अन्य लोक से जोड़ता है, यानि मृत्यु के बाद निरंतरता देता है, जो उपर्युक्त के अलावा स्वर्ग और नर्क भी ले जाता है। भारत में ‘आत्म’ (Self) शब्द भी प्रचलित है और ‘आत्मा’ (एक विशिष्ट भारतीय शब्द जिसका
शायद उपयुक्त शब्द अंग्रेजी में नहीं हो) शब्द भी प्रचलित है| ‘आत्मा’(Soul, वैसे इसका भी अंग्रेजी अनुवाद ‘Atma’
होना चाहिए, जो ‘Atm’ से अलग है) आदिम अवस्था का अवधारणा हो
सकता है, जबकि ‘आत्म’ (Self) बौद्धिक काल की उपज है| इस ‘आत्म’ एवं ‘आत्मा’(Self
& Soul) में घालमेल मध्यकाल
में सामन्तवाद के उदय एवं विकास के साथ सामन्तवादी आवश्यकतानुसार हो गया| ऐसा घालमेल ‘सांस्कृतिक सामन्तवाद या साम्राज्यवाद’
के लिए अनिवार्य रहा| आज
भी कुछ भारतीय लोग विदेशी वैज्ञानिक प्रयोगों में प्रयुक्त ‘Soul’ एवं ‘Spirit’ का
हिंदी अनुवाद ‘आत्म’, ‘चित्त’, या ‘चेतना’ नहीं कर ‘आत्मा’ ही करते हैं, ताकि “सांस्कृतिक सामन्तवाद” यानि “सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद” की निरंतरता बनी रहे| “आत्म” (Self) की तो वास्तविकता है, परन्तु इसी से घालमेल कर यह ‘आत्मा’(Soul) अवैज्ञानिक समझ है, और इसीलिए यह पाखण्ड है, और पाखण्ड का मूल आधार भी
है|
कोई भी ‘ईश्वर’,
‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’, ‘कर्म
का सिद्धांत’ एवं ‘जाति- वर्ण व्यवस्था’
को अलग अलग कर समझना चाहेगा, तो उसे इनकी
अवधारणा स्पष्ट नहीं हो पायेगी, क्योंकि यह सभी परस्पर गुंथी
हुई हैं| इन पाँचों को एक ही
सन्दर्भ में और एक ही पृष्ठभूमि में समझना होगा, क्योंकि ये
पाँचों संरचनात्मक रूप से एक दुसरे पर निर्भर हैं| कोई भी
व्यक्ति किसी भी ‘जाति’
(Jati, not Caste) या ‘वर्ण’ (Varna, not Group) में
जन्म लेता है, यह उसके तथाकथित
पूर्व जन्म का तथाकथित परिणाम होता है|
जिस व्यक्ति का जन्म जिस वर्ण या जाति में
होता है, उस व्यक्ति को उसके
वर्ण या जाति के अनुसार ‘निर्धारित कार्य’ मनोयोग से करना ही उस “व्यक्ति का धर्म” है| इसी धर्म की
स्थापना के लिए तथाकथित ईश्वर यदाकदा इस धरती पर तथाकथित तौर पर अवतरित होते
रहते हैं| हर वर्ण
एवं जाति का कार्य निर्धारित है, जिसे करना उस व्यक्ति या
समुदाय का मौलिक एवं मुख्य कर्तव्य है, और स्पष्टतया यही
उसका एकमात्र धर्म है| इस धर्म का सही ढंग से पालन करने पर
यानि अपनी जाति या वर्ण के अनुसार कार्य करने पर ही उसका पुनर्जन्म उच्चतर वर्ण या
जाति में हो सकता है| इस तरह ‘कर्म के सिद्धांत’ यानि ‘कर्मवाद’ के अनुसार किसी
भी व्यक्ति को इस जन्म में किये गये कर्म का फल अगले जन्म में ही मिलेगा, इस जन्म में इस कर्म का फल मिलने की कोई
संभावना नहीं है| पुनर्जन्म की वास्तविकता के बारे में आप भी वैश्विक वैज्ञानिक जनमत की राय
जानते होंगे| तथाकथित ईश्वर इसी
तथाकथित धर्म की रक्षा के लिए ही स्थापित किये गए हैं| अब आप ‘आत्मा’
की अवधारणा तथा उसका विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण प्रकार्य (Function)
समझ गए होंगे|
अब
संक्षेप में जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था
को भी समझ लिया जाय| जाति
व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था का उद्विकास (Evolution)
मध्यकाल (9वीं से 15वीं शताब्दी की कालावधि) में सामन्तवाद के उदय
एवं विकास के साथ साथ हुआ| मध्यकाल में सामन्तवाद
का वैश्विक उद्विकास हुआ| इससे “जन्म आधारित” एक शासक
वर्ग का उदय हुआ और दूसरा “जन्म आधारित” शासित वर्ग का उदय हुआ| अर्थात
एक “जन्म आधारित” शोषक वर्ग हुआ और दूसरा “जन्म आधारित” शोषित वर्ग हुआ| इस “जन्म
आधारित” शासक वर्ग की अर्थव्यवस्था अब “जन्म आधारित” शासित वर्ग पर आधारित यानि आश्रित हो
गया| शासक वर्ग में जन्म
आधारित सामाजिक विभाजन को “वर्ण
व्यवस्था” कहा गया और शासित वर्ग में जन्म आधारित सामाजिक
विभाजन को “जाति व्यवस्था” कहा गया, जो सामान्यत: ‘अवर्ण’ श्रेणी में माने गये| इस तरह वर्ण व्यवस्था का आर्थिक आधार जाति व्यवस्था हुआ, अर्थात वर्ण व्यवस्था अपनी आर्थिक आवश्यकताओं के लिए जाति व्यवस्था पर निर्भर था। इस विभाजन और विभाजन आधार को इत्मीनान से समझना चाहिए। भारतीय सामन्तवादी विद्वानों ने अंग्रेजी में ‘वर्ण’ को ‘Varna’
ही कहा, लेकिन ‘जाति’
को एक ‘बौद्धिक षड़यंत्र’ के तहत् अंग्रेजी में ‘Caste’ बना दिया, जो कि मूलत: एक पुर्तगाली शब्द है| यहां Caste
के संबंध में ध्यान देने वाली बात यह है, कि ‘Caste’
को इस जन्म में भी बदला जा सकता है, जबकि जाति
को इस जन्म में नहीं बदला जा सकता है| अत: वर्ण
की ही तरह जाति का अंग्रेजी ‘Jati’ ही होना चाहिए न कि Caste,
ताकि गैर भारतीयों को इस भारतीय 'जाति
व्यवस्था' की सम्यक समझ हो सके, और वे
भ्रमित होने से बच सकें|
वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र, कुल चार समूह हुए, जिनके कार्य क्षेत्र क्रमश: ज्ञान, शासन, व्यवसाय एवं व्यक्तिगत सेवा प्रक्षेत्र (Sector) हुआ| वर्ण व्यवस्था के लोग अर्थव्यवस्था के पूर्णतया तृतीयक प्रक्षेत्र (Tertiary Sector- व्यवसाय एवं संबंधित), चतुर्थ प्रक्षेत्र (Quaternary Sector - ज्ञान संबंधित) और पंचक प्रक्षेत्र (Quinary Sector - नीति निर्धारण संबंधित) में कार्यरत थे, प्राथमिक और द्वितीयक प्रक्षेत्र में कार्यरत नहीं थे। शूद्र चूँकि व्यक्तिगत सेवक थे, और इसी कारण इनकी संख्या नगण्य थी, जैसा कि आज भी होता है, यानि कि इनकी जनसंख्या पहले भी बहुत कम थी और आज भी बहुत कम होती है अर्थात ये संख्या-अनुपात
में अत्यंत क्षुद्र (नगण्य) थे| ये शूद्र आबादी के बदलते परिवेश और
नगण्य संख्या के कारण ब्रिटिश काल में लुप्तप्राय हो गए,
लेकिन फिर भी आज कुछ लोग इसके वंशज होने का दावा करते हैं|
‘अवर्ण’ अर्थात ‘वर्ण व्यवस्था से बाहर’ के लोग कौन हैं, अब हम इन्हें समझते हैं। अवर्ण वर्ग में सामन्ती व्यवस्था से बाहर दूरस्थ जंगलों में रहने वाले वनवासी हुए, जिन्हें आजकल अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है| अवर्ण वर्ग में वे समूह भी शामिल हैं, जिन्हें सामन्तों ने सामन्तवादी व्यवस्था का उग्र, लगातार एवं सशक्त विरोध करते रहने के कारण अछूत मान लिया और जिन्हें समाज, सम्पत्ति, शिक्षा, सम्मान, सत्ता, आदि से वंचित कर हाशिए पर ठेल दिया गया| इन्हें आज अनुसूचित जाति के नाम से जाना जाता है|
इसी सामन्ती सामाजिक एवं राजनीतिक
व्यवस्था से बाहर, लेकिन
सामन्ती व्यवस्था का आर्थिक आधार इन्हीं वस्तुओं (अनाज, सब्जी, दूध, मछली, लकड़ी, बर्तन, उपकरण, हथियार आदि आदि) की उत्पादक जातियाँ एवं सेवाओं (कपडा धोना, पालकी ढोना, बाल काटना, आदि आदि) की प्रदाता जातियाँ ही रही| ये आधुनिक भारत के अन्य पिछड़ा वर्ग कहलाते हैं। ये वर्ग
प्रमुखत: अर्थव्यवस्था के प्राथमिक प्रक्षेत्र (कृषि, पशुपालन, मत्स्य पालन, खनन, वनोत्पाद संग्रहण, आदि संबंधित) तक ही सीमित रहे और द्वितीयक प्रक्षेत्र (कृषि एवं अन्य उपकरण, हथियार, घर के उपयोग की वस्तुएं आदि संबंधित) में बहुत कम वस्तुएं ही उत्पादित की जाती रही| यही लोग आज के "अन्य पिछड़ा वर्ग" हैं, जो आज भी अर्थव्यवस्था के तृतीयक प्रक्षेत्र, चतुर्थक प्रक्षेत्र और पंचक प्रक्षेत्र की ओर ध्यान ही नहीं दे रहें हैं। इस तरह ये उत्पादक एवं सेवा प्रदाता
जातियाँ, अनुसूचित जातियाँ, एवं
अनुसूचित जनजातियाँ सदैव वर्ण व्यवस्था से बाहर रहीं, जिन्हें आज की जाति व्यवस्था और जनजाति व्यवस्था कहा जाता है। आजकल इन अवर्ण वर्ग यानि इस समुदाय की शूद्रीकरण करने की प्रक्रिया कर के वर्ण
व्यवस्था में शामिल किए जाने का वृहत् अभियान चलाया हुआ है|
अब
हमलोग पाखण्डवाद, बुद्धिवाद यानि
बौद्धिकवाद, आधुनिकतावाद, विज्ञानवाद,
एवं आध्यात्मवाद की अवधारणा के साथ ढोंग, अंधविश्वास,
कर्मकाण्ड को भी समझते हैं| ‘ढोंग’ वह अवधारणा है, जिसमें कोई व्यक्ति या समूह जो वह वास्तव में नहीं
है, और उसके विपरीत या उससे
भिन्न दिखने या दिखाने का प्रयास करता है| जैसे
कोई ‘लुटेरा’ समाज में ‘समाज सहयोगी’ बनने या दिखने का प्रयास करता है,
ढोंग का एक उदहारण है| ढोंग का दूसरा उदहारण
यह है कि कोई व्यक्ति या समूह ऐसी किसी अलौकिक मानवीकृत शक्ति (कुछ लोग इसे ही
ईश्वर कहते हैं) का प्रतिनिधित्व या एजेंटी करता है, जो
वास्तव में संभव ही नहीं है| ‘पाखण्ड’ इसी ‘ढोंग’
से मिलता जुलता शब्द है| पाखण्ड एक झूठा यानि जानबूझकर
किया गया ‘क्रिया’ (Action)
या ‘प्रक्रिया’ (Process) है, जो दूसरे अज्ञानी व्यक्ति या समूह को ठगने या
मुर्ख बनाने के लिए किया जाता है| यह पाखण्ड किसी
ढोंग से इतना ही अलग होता है, कि ढोंग कोई व्यक्ति या समूह
अपने को वास्तविकता से अलग दिखाने के लिए करता है और पाखण्ड
वह क्रियात्मक (Functional) स्वरूप है, जिसे कोई ढोंगी या अन्य व्यक्ति या समहू करता है| इसे
इस तरह समझा जाय कि जैसे किसी को यह पता है कि ईश्वर नाम का कोई ‘अलौकिक व्यक्ति’ (ध्यान रहे कि मैंने ‘अलौकिक शक्ति’ नहीं कहा है) नहीं होता है, फिर भी उस अलौकिक व्यक्ति को खुश करने के लिए अपने को सक्षम दिखाता है,
ढोंग है| और उस ढोंगी द्वारा ऐसा करने में
सक्षमता (Capability) दिखाने की क्रिया या प्रक्रिया ही पाखण्ड
है| ‘ढोंग’ एवं ‘पाखण्ड’ दोनों का मकसद
दूसरे को ठगना ही होता है|
किसी
भी संस्कार (Rituals /Sacrament/ Ordination)
में किये जाने वाले किसी भी प्रक्रियात्मक
व्यवहार (Functional Activities) को ‘कर्मकाण्ड’ कहते
है| जीवन के कुछ निर्णायक मोड़ पर या जीवन के
महत्वपूर्ण अवसरों पर समाज के समक्ष कुछ प्रक्रियात्मक व्यवहार किया जाना होता है,
जिससे वह समाज की जानकारी में स्थापित हो जाए| समाज के सदस्यों की उपस्थिति को सहभागी बनाने के लिए ऐसा किया जाना
व्यवहारिक रूप में अनिवार्य होता है| परन्तु ऐसे
प्रक्रियात्मक व्यवहार को अनावश्यक रूप से खर्चीला और अनावश्यक रूप से लम्बा करना ‘अनावश्यक कर्मकांड’ में आता है| यानि कर्मकांड जीवन का एक महत्वपूर्ण अवसर
है, जिसे विकृत
नहीं किया जाना चाहिए|
‘अंधविश्वास’
बिना किसी तर्क या आधार के किसी भी बात को ‘सत्य’ मान लेना या उस
पर विश्वास कर लेना है| अंधविश्वास का आधार उस “बात” के प्रति या उसे कहने वाले के प्रति गहरी ‘आस्था’ होती है|
एक अन्धविश्वासी को ‘पशुवत’ भी मान लिया जाता है, क्योंकि इनमें तर्क करने की
समझ नहीं होती| एक पशु सोच सकता है, परन्तु वह अपने सोच पर फिर सोच नहीं सकता
है यानि कोई तर्क नहीं कर सकता है| ‘आस्था’
में भी तर्क को कोई स्थान नहीं है| इसीलिए एक
आस्थावान को पशुवत व्यवहार करने वाला मान लिया गया है| आस्था
के मूल में ‘अंध श्रद्धा’ होता है|
‘आस्था’ को ‘विश्वास’ से अलग रखा गया
है, क्योंकि ‘विश्वास’ में जानकारी होता है, ज्ञान होता है और इसीलिए इसमें
तर्क भी समाहित है|
‘बौद्धिकवाद ‘(Intellectualism)
वह अवस्था है,
जब कोई विचार प्रक्रिया में ‘तथ्य आधारित’
‘कार्य-कारण तर्क’ अपनाता होता है, और निर्णय लेने में ‘विवेकशीलता’ का उपयोग करता है| इसी
विशिष्ट बुद्धि के ज्ञाता को बौद्धिक काल में ‘बुद्ध’
(ध्यान रहे कि गोतम यानि गौतम 22वे
बुद्ध थे ) कहा जाता था| ‘विज्ञानवाद’ (Scientism) में विषय
को ‘तथ्य एवं तर्क’ पर ‘क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित’ तो
किया ही जाता है, इसके साथ ही इसकी ‘विधियों’
(Methodology) में ‘प्रयोग’ एवं ‘निरीक्षण’ को भी अनिवार्य
रूप से अपनाया जाता है| इसलिए इसमें ‘विवेकशीलता’ अनिवार्य पक्ष नहीं हो पाता| ‘विज्ञानवादी’ वह है, जो ‘बौद्धिकवादी’ तो है परन्तु उसमें ‘विवेकशीलता’ आवश्यक शर्त नहीं होता है| इसी कारण से विज्ञान का नकारात्मक यानि विध्वंसात्मक स्वरूप भी देखने को
मिलता है। 'बौद्धिकवाद' में इसी
विवेकशीलता के कारण इसका कोई नकारात्मक यानि विध्वंसात्मक स्वरूप देखने को नहीं
मिलता है|
'आधुनिकतावाद'
(Modernism) में
कोई अपने विचार, व्यवहार एवं आदर्श में तर्क के साथ-साथ
विज्ञान को आधार के रूप में स्वीकार करता हुआ होता है|
आजकल यही प्रगतिशीलता एवं समझदारी की पहचान मानी जाती है|
‘आध्यात्म’ या ‘अध्यात्मवाद’ (Spiritualism) में किसी की चेतनता को ‘अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) से सम्बन्धित होना स्वीकार किया जाता है|
आप भी जानते हैं कि चेतना का स्तर क्रमानुसार ‘अचेतन’ (Unconscious), ‘अवचेतन’ (Sub-conscious), ‘चेतन’ (Conscious)
एवं ‘अधिचेतन’ (Super-Conscious)
होता है| और जब किसी
के ‘आत्म’ (Self) या चेतना (Consciousness) का इसी अधिचेतन अवस्था
यानि ‘अधि’ या सर्वोच्च स्तर यानि 'अनन्त प्रज्ञा' से जुड़ाव हो जाता है, वैसी ही चेतना को ‘अध्यात्म’ (Super Self) कहते
हैं| यह ज्ञान की वह उच्चतर
अवस्था है, जिसमे ‘ज्ञान’ देने वाला और ‘ज्ञान’
पाने वाला एक ही व्यक्ति होता, यानि स्वयं
होता है| ज्ञान के सामान्य स्तर में एक ‘ज्ञान’ देने वाला होता है और दूसरा ‘ज्ञान’ प्राप्त करने वाला होता है| इसी कारण ‘अध्यात्म’ से जुड़े
हुए कई बौद्धिक षड्यंत्र किए गए हैं, और इसका दुरूपयोग ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवादियो’ ने धड़ल्ले से किया है|
इसके चेतना के उच्च स्तरीय आयाम से जुड़ा हुआ होने के कारण, यह सामान्य लोगों के लिए अत्यंत जटिल है, और इसी
कारण पाखंडी लोग इसका खूब दुरूपयोग करते
रहते हैं|
किसी
‘आभास’ (Realization)
को समझ लेना, कोई बिल्कुल ही नयी ‘सूझ’ (Innovation) आ जाना अथवा किसी सर्वथा अप्रत्याशित अंतर्ज्ञान
(Intution) को
प्राप्त कर लेना ही ‘अध्यात्म’ से जुड़ी
परिघटनाएं हैं, जिसका उपयोग अल्बर्ट
आइन्स्टीन और स्टीफन हॉकीन्स ने बखूबी
किया है| आध्यात्मिक
भाषा-शैली में ऐसे लोगों को पहुंचे हुए महान लोगों की संज्ञा दे दी जाती है। सरल
शब्दों में इसका मतलब यह है, कि ऐसे लोगों की
चेतना के विकास का स्तर अपने समय के अन्य मनुष्यों की तुलना में अप्रत्याशित रूप
से बहुत ऊंचा होता है, और यह लोग समकालीन सामान्य जनों को 'अनन्त प्रज्ञा' से जुड़े हुए महामानव प्रतीत होते
हैं। आदि- कालीन विभिन्न मानव कबीलों के मुखिया, तथागत
गौतमबुद्ध, महावीर स्वामी,
हजरत मूसा, हजरत ईसा, हजरत
मोहम्मद, सन्त कबीर,
इत्यादि ऐसे ही आध्यात्मिक
महामानवों के क्लासिकल श्रेणी के उदाहरण हैं।
उपरोक्त विश्लेषण और समझ के आधार पर भारत की लगभग नब्बे प्रतिशत
आबादी पाखण्डवादी है,
यानि कि इसके मौलिक एवं महत्वपूर्ण तत्वों को सही मानते हुए अनुपालन
करने वाला ब्राह्मणवादी है| अर्थात कोई भी, जो ‘जाति’ या ‘वर्ण’ में दैवीय शक्ति की सत्यता मानता है, पाखण्डवादी है; ‘ईश्वर’ या
उससे जुड़ी किसी अवधारणा में भी सत्यता मानता है, पाखण्डवादी
हैं; और ‘आत्मा’ या
उस पर आधारित किसी भी बात को भी सही मानने वाले पाखण्डवादी हैं|
और भारत में पाखण्डवाद को मानने वाले को ही ब्राह्मणवादी कहा जाता
है| इस आधार पर भारत की लगभग नब्बे प्रतिशत आबादी ब्राह्मणवादी है, और बाकी
के लगभग दस प्रतिशत आबादी में सामन्तवादी
भी हैं और मानवतावादी भी हैं| इस पर भी गंभीर विचार विमर्श किया जाना चाहिए| अत: जिस भी व्यवस्था में, जिस भी विचार में, जिस
भी आदर्श में, जिस भी ग्रन्थ में, जिस
भी पंथ में और जिस भी व्यवहार में उपरोक्त वर्णित
(ईश्वर,
आत्मा, जाति या वर्ण, पुनर्जन्म,
कर्म का सिद्धांत यानि कर्मवाद) पाँचों तत्व या इनमें से कोई भी एक तत्व मौजूद है, तो निश्चितया वह व्यवस्था, वह आदर्श, वह ग्रन्थ, वह पंथ,
और वह व्यवहार पाखण्ड है, और इसके किसी तत्व
को सही मानने वाले पाखण्डवादी है|
भारत में एक विचित्र तथ्य यह है, कि भारत की अधिकांश आबादी ब्राह्मणवाद का सैद्धांतिक रूप में विरोध करता
है, लेकिन ये विरोध करने वाले लोग ही वास्तव में शुद्ध ब्राह्मणवादी
है।
इसे समझिए और मनन मंथन कीजिए|
आचार्य निरंजन सिन्हा
भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक
बहुत ही सुंदर ढंग से पाखंड को समझाया गया है। जाने अनजाने हम भी किसी न किसी रूप में ब्राह्मणवाद को मदद करते रहे हैं। आप के लेख के लिए बहुत बहुत आभार।
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