सोमवार, 26 दिसंबर 2022

कुत्ते की मौत कौन मरता है?

कहते हैं कि एक बार पंजाब के मुख्यमंत्री माननीय प्रताप सिंह कैरो कहीं सड़क के रास्ते से जा रहे थे| अचानक एक कुत्ता उनके गाड़ियों के काफिले की चपेट में आ गया और वह कुत्ता वहीं मर गया| कैरो साहब ने अपने मित्रों से प्रश्न किया कि ‘कुत्ता क्यों मरा’? उनके सहयात्री मित्रों ने तत्काल इसका कोई उत्तर नहीं दिया और एक सटीक उत्तर के इन्तजार में थे| तब तुरंत ही कैरो साहब ने कहा कि कुत्ता इसलिए मरा  क्योंकि  कुत्ते ने अपने निर्णय लेने में देरी कर दी कि वह दाएँ (Right) किनारे जाए या वह बाएँ (Left) किनारे जाए? इस सन्दर्भ में इस लोकप्रिय नेता का कहना था कि जो राजनीतिक दल भी ऐसे निर्णय लेने में देर कर देती है कि कौन सा राजनीतिक किनारा (दाएं यानि सनातनी या बाएं यानि क्रांतिकारी) पकड़ा जाय, उस दल की भी मौत इसी कुत्ते की तरह होती है, बुरी मौत होती है|

आप भी जानते हैं कि राजनीति के बाएं दल (Left Party) कहने की परम्परा फ़्रांस की संसद में तीव्र सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन के समर्थक सदस्यों के संसद सदन में बाएँ ही बैठने से ही शुरू हुई और ऐसा कहने की परम्परा उसी समय से चल पड़ी है| इसीलिए सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक क्रांतिकारी परिवर्तन के समर्थक राजनीति दलों को बाम दल (Left Parrty) यानि लेफ्ट पार्टी कहा जाने लगा| यदि हम ब्रह्माण्ड में प्रकृति का भी अवलोकन करे, तो सब जगह सममिति (Symmetry) ही पाएंगे| मतलब कि राजनीति में भी वस्तुत: दो ही किनारे होते है, बाकी जितने भी किनारे दिखते हैं, सब के सब इन दोनों किनारे से ही जुड़े होते हैं| लोकतान्त्रिक पद्धति में अपने विरोधियों के मतों के विभाजन (Vote Division) यानि खंडित कराने की आवश्यकता हो जाती है| इसके लिए कई भावनात्मक मुद्दों पर और कई अनावश्यक मुद्दों के नाम पर “मत विभाजक दल” (आम जनता इन्हें वोट कटवा पार्टी कहती है) बनाए एवं संचालित कराए जाते है| इनमे अधिकतर पार्टी तथाकथित मानवीय मूल्यों पर आधारित सिद्धांतों एवं न्यायिक मान्यताओं की दुहाइयों के नाम पर होता है, लेकिन स्पष्टतया पूरा मसला ही भावनात्मक होता है, जिसके केन्द्र में जाति, वर्ण, धर्म, पंथ, भाषा या क्षेत्र ही होता है| मैं मुद्दे से थोड़ा भटक गया था, मुद्दा था कि कुत्ता क्यों मरता है? हाँ, तो कैरो साहब का इशारा ही कुछ इसी तरफ था और इसी कारण मैं भी कैरो साहब के साथ बह गया|

स्टीफन हाकिन्स ने बताया कि 1642 में भीड़ ने महान वैज्ञानिक गैलेलियो को मार दिया, हालांकि अधिकतर विद्वानों का मामला है कि उन्हें ताउम्र हाऊस अरेस्ट किया गया था| इन्होने एक सनातनी मान्यता यानि निरंतरता की परम्परा का खंडन कर दिया था, जो उस समय संस्कृति और धर्म में भी स्थापित हो गया था। वह सनातनी मान्यता यह था कि यह ब्रह्माण्ड पृथ्वी केन्द्रित (Geo Centric) है। जबकि ब्रह्माण्ड सूर्य केन्द्रित (Helio Centric) है और पृथ्वी ही सूर्य का चक्कर लगाती है| स्टीफन हाकिन्स के अनुसार यदि वे मार दिए नहीं जाते, तो आज ब्रह्मांडीय ज्ञान किसी और ऊंचाई पर रहता| लेकिन गैलीलियो आज़ भी सम्मान के साथ जीवित है, और वह मारने वाली भीड़ ही मर गयी है| इतिहास उस भीड़ की इस मौत को ‘कुत्ते की मौत’ कहता हैं और गैलीलियो को बड़ा सम्मान देता है| 

आज भी यदि कोई अवैज्ञानिक एवं अतार्किक बातों या आदर्शो या विचारो का सिर्फ सनातनी परम्परा या निरंतरता की मान्यता या तथाकथित प्राचीन संस्कृति के नाम पर उग्र समर्थक बनता है, तो स्पष्ट है कि इतिहास उसके कृत को  कभी भी मानवीय कृत का दर्जा नहीं देगा| और उसी के भविष्य के उत्तराधिकारी या उसके वंशज ही उनका नाम अपने खानदान से जोड़ने में घृणा महसूस करेगा| ऐसे लोगों की मौत के लिए भविष्य का इतिहास कोई सम्मानजनक शब्द नहीं ही देगा, जैसे आज जर्मनी के हिटलर की मौत को सम्मान नहीं मिलता है| इसीलिए ऐसे लोगों के वंशज अज्ञात ही रहते हैं। 

बात जब हिटलर की आती है, तो उसके जीवन के अंत का समय सबको याद आता है| इसकी मौत की तुलना किससे किया जाता है? मैं तो घृणित शब्द के किसी भी 'संज्ञा' के उल्लेख से बचना चाहता हूँ| घृणित तानाशाहों’ की मौत की तुलना इतिहासकार या भविष्य का अवाम 'कुत्ते की मौत' से ही करता है| ऐसे लोगों के लिए उनके जीते जी या उनके मरने के बाद अवाम कोई ‘सम्मान का संबोधन’ नहीं देता है, यानि उनके प्रति ‘सम्मान का बोध’ ही खत्म हो जाता है| अब पाठकों को ‘घृणित तानाशाह’ एक अलग एवं विशिष्ट शब्द या अवधारणा लग रहा होगा| इससे यह स्पष्ट है कि तानाशाह यदि घृणित हो सकता है, तो कोई तानाशाह घृणित नहीं भी हो सकता है| हालाँकि हर तानाशाह को लगता है कि वह समाज के लिए, संस्कृति के लिए और राष्ट्र के लिए अद्वितीय योगदान दे रहा है, लेकिन इतिहास इनके कृत्यों में विशेषण लगा कर उसे सकारात्मक और नकारात्मक रूप में ही वर्गीकृत करता है|

स्पष्ट है कि घृणित तानाशाह का एजेंडा अवैज्ञानिक होगा, अतार्किक होगा, और अमानवीय भी होगा| अमानवीय से तात्पर्य मानवीय गरिमा के विरुद्ध होता है और आम नागरिक के बहुमुखी व्यक्तित्व विकास में बाधक होता है| कोई भी चीज यदि अवैज्ञानिक होगा, तो स्पष्टतया वह चीज अतार्किक भी होगा और इसीलिए प्रामाणिक साक्ष्य से विहीन भी होगा और इसीलिए वह मात्र झूठ का पुलिंदा भी होगा| जिस तानाशाह में विश्लेष्ण करने की क्षमता नहीं होती और मूल्याङ्कन करने की क्षमता नहीं होती, वह आसानी से यथास्थितिवादियों से घिर जाता है और वह मात्र वही देख पाता है, जितना उसे दिखाया जाता है,  यानि जितना उसे देखने दिया जाता है एवं वह भविष्य में उतनी ही दूर देख पाता है, जितनी दूर उसे देखने दिया जाता है| मतलब कि ऐसे लोगों में अपनी प्रक्षेपण (Projection) क्षमता नहीं होती है। आज के आधुनिक युग में यथास्थितिवादियों को अपने आदर्शों एवं सिद्धांतों के पक्ष में कोई तार्किकता नहीं होती, कोई वैज्ञानिकता नहीं होती, कोई प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य नहीं होता, सिर्फ और सिर्फ मिथकीय कथ्यात्मक कागज़ी ग्रन्थ ही होते हैं| इसीलिए ऐसे तानाशाहों को यथास्थितिवादी अपनी मंशा एवं आदर्श के अनुसार बहा ले जाते है, विश्व ऐसे उदहारण से भरे पड़े हैं|

इतिहास ऐसे तानाशाहों की मौत को भी “कुत्ते की मौत” ही कहता हैं| इस तरह 'कुत्ते की मौत' एक मुहावरा बन गया है, जिसे मानवीय गरिमा और सम्मान के विरुद्ध माना जाता है| स्पष्ट है कि बुरी तरह मरना ही ‘कुत्ते की मौत’ है| बुरी तरह मरना, अर्थात उसकी मौत के बाद उससे घृणा करना| जब घृणित तानाशाह की मौत कुत्ते की तरह हो जाती है, तो उसके अंध समर्थक लोगों, या समुदायों या राष्ट्रों की क्या दुर्गति होती है? द्वितीय युद्ध के बाद जर्मनी, वियतनाम और कोरिया को भी विभाजित हो जाना पड़ा|

अत: किसी भी तानाशाह को चाहिए कि वह “घृणित तानाशाह“ नहीं बने, यानि समय रहते अपने तानाशाही का व्यापक उपयोग व्यापक समाज के लिए करे, किसी ख़ास व्यक्ति या किसी खास समुदाय या किसी खास क्षेत्र के हितों तक ही अपने को सीमित नहीं रखे| आज मानवता की बात हो रही है, जिसमे हर मानव का हित शामिल है| एक ‘राष्ट्र’ भी ऐतिहासिक एकत्व की भावना है, जो ऐतिहासिक काल में एक साथ रहने से आती है| इस तरह एक तानाशाह को चाहिए कि वह समाज को प्रगतिशील एवं विकसित बनाए| इसके लिए समाज में संस्कृति की परंपरागत निरन्तरता, यानि उसके सनातनता के नाम पर फैले एवं व्याप्त पाखण्ड, ढोंग, अंधविश्वास, अनावश्यक कर्मकांड, एवं घृणा को मिटाने का कार्य करे; अन्यथा इतिहास उसके मौत के बाद उसको कोई सम्मान नहीं देगा| इतना ही नहीं उसके उत्तराधिकारी एवं उसके वंशज भी उनके नाम को घृणा से देखेगा| 

हमें इतिहास के अध्ययन से यही समझ मिली है| किसी भी संस्कृति की पौराणिकता और सनातनी दावे को वैज्ञानिक, तार्किक और प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य के आधार पर खुले मन से एवं पूरी ईमानदारी से अवश्य जांचना चाहिए। वैसे आप भी विचार एवं मनन कीजिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

www.niranjan2020.blogspot.com


 

 

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर, तर्कपूर्ण, शिक्षाप्रद एवं मानवीय गरिमा तथा मानवाधिकारों की महत्ता को सरल भाषा में उजागर करने वाला आलेख। साधुवाद।।

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  2. मानवीय एवं वैज्ञानिक आधारित आलेख के लिए निरंजन जी को बहुत बहुत आभार।

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