ऐसा क्यों हुआ कि नालन्दा विश्वविद्यालय और भारत के ऐसे सभी संस्थानों के पालि एवं प्राकृत भाषा से सम्बन्धित
उपलब्ध सारे साहित्यों एवं ग्रंथों को जल जाना पड़ा या नष्ट हो जाना पड़ा, लेकिन भारत
की एक विशिष्ट भाषा ‘संस्कृत’ भाषा में रचित साहित्यों एवं ग्रंथो को जलने या नष्ट हो जाने
से बच जाना पडा? ध्यान रहे कि भारत में वर्तमान
सभी मौलिक प्राचीन पालि साहित्य एवं ग्रन्थ भारतीय राज्य सीमाओं से बाहर के देशों एवं
क्षेत्रों से बहुत बाद के काल में भारत लाकर उसे पुनर्जीवित करना पडा. लेकिन
संस्कृत को ऐसा आवश्यकता नहीं पड़ी? कहते हैं
कि नालन्दा विश्विद्यालय आग में छह महीने तक जलता रहा| क्या तथाकथित ‘विदेशी
आक्रान्ता’ इस विश्वविद्यालय को जला कर नष्ट करने के लिए नालन्दा में कैम्प कर
दिया था या कोई स्थानीय आतताई इसे नष्ट कर रहा था? यदि निश्चितया कोई विदेशी आक्रांता ही थे, तो उसने तथाकथित संस्कृत भाषा के साहित्यों एवं ग्रंथों को क्यों
जलने से बचा दिया? क्या वह आक्रान्ता संस्कृत भाषा प्रेमी था? ध्यान रहे कि
सामंतवादियों का कोई धर्म नहीं होता, इसलिए तो उनमे धर्म के परे भी वैवाहिक
सम्बन्ध मजबूत रहे हैं। लेकिन ऐसा सिर्फ नालन्दा
विश्वविद्यालय के साथ ही नहीं हुआ|
नालन्दा विश्वविद्यालय को नष्ट होना पड़ा, लेकिन यह जल कर नष्ट हुआ, जबकि अन्य भी नष्ट हुए, शायद अन्य को बिना जले ही नष्ट होना पडा | ऐसा क्यों? वास्तव में विश्वविद्यालय आधुनिक नाम दिया हुआ है, जिसका आशय एक विशाल अध्ययन केंद्र से है, जहाँ अध्ययन एवं गहन शोध होता रहा| उसकी भाषा माध्यम ‘पालि’ थी| भारत में ऐसे कई केंद्र रहे, जिनके अध्ययन संकुल में विद्यालय भी थे एवं विहार भी थे और इसी विहारों की बहुलता के कारण इस भौगोलिक क्षेत्र का नाम विहार पडा, जो भ्रमित होकर कालान्तर में ‘बिहार’ हो गया| बिहार के बेगूसराय जिले का ‘बिहट’ हो या बिहार के पटना जिले का ‘बिहटा’ हो, सभी ‘विहार’ ही तो थे, (जो विहार हट गए, विहार का हटना ही आज़ का बिहट और बिहटा है) जिन्हें भी नष्ट होना पडा| लेकिन निरंतरता यानि सनातनता सभी संस्कृति की खासियत होती है, जो कालान्तर में भ्रमित अवस्था में भी ‘मूल भाव’ को बचाए रखती है| राजस्थान का पाली हो, बिहार का पाली क़स्बा हो (पटना एवं आरा रेल खंड का पाली रेलवे हाल्ट) या पटना जिला का पालीगंज अनुमंडल नगर, सभी ‘पालि’ भाषा, साहित्य एवं दर्शन के प्रसिद्ध केंद्र रहे, जिन्हें भी नष्ट होना पड़ा| बुद्ध के सिद्धांतों या यों कहें बुद्ध के दर्शन के प्रचंड ज्ञाता ‘देव’ कहलाते थे, इसीलिए तो ऐसे समूहों के स्थायी आवास केंद्र ‘देवकुली’ (पटना जिले के बिहटा प्रखंड का एक गुमनाम कस्बा) या देवकुठार (देउर कोठार – मध्यप्रदेश के रीवा का एक स्थल) को भी उजड़ना पड़ा या नष्ट होना पड़ा| बात इतना ही नहीं है, बौद्ध ज्ञान के सभी अध्ययन केन्द्रों, शोध केन्द्रों, पुस्तकालयों, विहारों, स्तूपों, मंदिरों एवं अन्य सम्बन्धित स्थलों एवं भवनों को नष्ट होना पड़ा| किसी को जलना पड़ा, किसी को ध्वस्त होना पडा, किसी को उजाड़ना पड़ा और किसी में सम्बन्धित व्यक्तियों को ही भाग जाना पड़ा| यह सब एक छोटे काल में नहीं हुआ, अपितु सामन्तवाद के लम्बे अवधि होता रहा|
वह कौन सा आक्रान्ता था, जो शताब्दियों के काल में अपने आतंको में एक ही स्थिरता की गति की निरंतरता बनाए रखा था? चूँकि भारत एक छोटा सा देश या क्षेत्र नहीं था और आज भी नहीं है, भारत एक विविध संस्कृतियों को अपने में समेटे एक उपमहादीप आकार का एक एकात्म भाव लिए ‘भारत भूमि’ था और आज भी है, इसलिए इस विशाल महाद्वीप में, विशाल क्षेत्र एवं विविध संस्कृति में इतने विविध केन्द्रों को नष्ट होने में शताब्दियाँ लगी|
एक चिकित्सक के तर्क विहीन भावनात्मक हो जाने से अपने रोगी का सम्यक विश्लेषण
नहीं कर सकता है और आवश्यक ईलाज या आपरेशन भी नहीं कर सकता है,
ऐसे रोगी का रोग बढ़ता जाता है एवं जटिल भी होता जाता है| भारत की दुर्दशा का कारण भी कुछ ऐसा ही है, कि संस्कृति एवं
धर्म की सनातना, निरन्तरता, गरिमा एवं गौरव के नाम पर हमें आवश्यक विश्लेषण, ईलाज या चिडफाड़
(आपरेशन) नहीं करने दिया जाता है| ऐसा नहीं है कि ऐसा सिर्फ भारत में
हो रहा है| ऐसा सभी पुरानी संस्कृतियों के साथ
होता है, जिसमे 'जड़ता' (Stagnation) का गुण जरुरत से बहुत ज्यादा होता है| ठेठ भाषा में कहें तो
इसके अनुयायियों में ‘कट्टरता’ एवं ’अंधआस्था’ बहुत ज्यादा होता है|
इसीलिए ऐसी संस्कृतियों के देशों में अपेक्षित विकास नहीं हो पाता है, इसी कारण ऐसे
क्षेत्रो यानि ऐसी संस्कृतियों में व्यवस्था द्वारा किये गए प्रयास को कुछ लोग ‘विकास’
करने का ‘नाटक’ भी कहते हैं|
तो, नालन्दा विश्वविद्यालय को क्यों जलना पडा?
यह संस्थान इतना बड़ा, इतना प्रसिद्ध एवं इतना गौरवशाली था, कि इसके 'जलने संबंधित' इस उत्तर से ही
अन्य संस्थानों एवं सम्बन्धित केन्द्रों तथा स्थलों के नष्ट होने का उत्तर भी मिल
जायगा| इसका उत्तर ‘सामन्तवाद’ के उदय एवं विकास में
है| भारत में भारतीय सामन्तवाद का जितना अध्ययन होना चाहिए, उतना नहीं
हुआ है| भारत में ‘इतिहास लेखनशास्त्र’ (Historiography) के पहले पुरोधा प्रो० दामोदर धर्मानन्द कोसाम्बी ने सबसे पहले
भारतीय सामंतवाद पर 1954 में “On the Development of Feudalism in India”
लिखी| भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् के संस्थापक अध्यक्ष प्रो० राम शरण शर्मा ने इसे आगे बढाते हुए 1965
में “भारतीय सामंतवाद” लिखी| लेकिन उत्पादन,
वितरण, विनिमय एवं संचार की शक्तियों एवं साधनों के अंतर्संबधों के आधार पर ही की गयी
इतिहास की व्याख्या सब कुछ स्पष्ट कर सकता है|
‘सामन्तवाद’ में ‘समानता का अन्त’ होता है,
अर्थात ‘अर्जित ज्ञान एवं कौशल’ के आधार पर
योग्यता का निर्धारण ख़त्म हो जाता है| और इसके स्थान पर ‘जन्म आधारित विशेषाधिकार’
एवं ‘जन्म आधारित निर्योग्यता’ ही योग्यता के निर्धारण का मूल एवं मौलिक आधार बनता
है या रहता है| ऐसे में न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के
दर्शन को मिटने के लिए बाध्य कर दिया जाता है, या मिटा दिया जाता है, या मिटा ही दिया गया| प्राचीन काल से भारत
में न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के दर्शन पर आधारित ‘बौद्धिक संस्कृति’
अपनी निरन्तरता यानि सनातनता बनाए हुए था| ‘विचारों के जड़त्व’ (Inertia
of Thought) में ऐसा सशक्त जड़ता (Stupor/ Stagnation) होता है कि वह सामान्य इतिहासकारों
को वही देखने को बाध्य करता है, जो परम्परा से वह मानता एवं जानता आया है| वह किसी
मान्यता या जानकारी के समर्थन में ‘प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य’ (Primary Authentic Evidences)
नहीं खोजना चाहता, बल्कि कागजी पौराणिक ग्रंथो को ही मौलिक आधार मान लेता है, जो
स्वयं कागज़ के भारत आने के बाद लिखा गया है, और वह भी बिना किसी ‘प्राथमिक
प्रमाणिक साक्ष्य’ के आधार पर|
संस्कृत एक ऐसी भाषा है, जिसकी ‘बोली’ (Dialect) अब तक अज्ञात है, यानि इसकी कोई बोली नहीं है| भाषा के "प्राकृतिक उद्विकास" में क्रमानुसार सबसे पहले ‘बोली’ आता है, फिर उसके बाद उसका साहित्य बनता है, और फिर अन्त में, उच्चतर अवस्था में सुसंस्कृत हो जाता है और ‘विज्ञान एवं प्रावैधिकी’ का साहित्य भी हो जाता है| ‘संस्कृत’ भाषा एक ‘संस्कार युक्त’ उच्चतर अवस्था की भाषा है, अर्थात संस्कार कृत (संस्कारित) भाषा ही ‘संस्कृत’ हुआ| तो प्रश्न उठता है कि संस्कृत पूर्व से प्रचलित किस भाषा का संस्कारित उच्चतर अवस्था की भाषा हुई या बनी? क्या यह, जैसा अब अधिकतर विद्वान् कहने लगे हैं, कि यह ‘पालि’ भाषा का ही उच्चतर संस्कारित भाषा है, जो स्वयं ‘प्राकृत’ बोली से विकसित हुआ?
इस तरह भाषा विकास के प्राकृतिक उद्विकास (Natural Evolution) में
यह कड़ी सही बैठता है कि पहली अवस्था में यह बोली ’प्राकृत’ था, फिर साहित्यिक
अवस्था में यह ‘पालि’ हुआ और अंतिम उच्चतर संस्कारिक अवस्था में ‘संस्कृत’ हुआ? तो क्या किसी विशिष्ट भाषा को विशिष्ट स्थान दिलाने के लिए ‘पालि’ भाषा साहित्य को नष्ट होना पडा, ताकि सामन्तवादियों की व्यवस्था निर्बाध गति से चलता रहे? ध्यान रहे कि पालि भाषा ही उस समय न्याय, स्वतंत्रता और समानता की दर्शन की भाषा थी, जो सामंतवाद के लिए अहितकर था। तो क्या ‘पालि’ भाषा के कुछ दार्शनिक एवं प्राकृतिक स्वरूप एवं स्वभाव के साहित्य एवं ग्रंथ आज भी
कुछ दुसरे नामों में कुछ आवश्यक संशोधन, विलोपन, सम्पादन के साथ उपलब्ध हैं, जिसे
संस्कृत भाषा ने सुरक्षित रखा है?
बहुत से प्रश्न है, जो अनुत्तरित हैं| बिना उत्तर के भी 'प्रश्न' बहुत महत्वपूर्ण होते हैं और बहुत उपयोगी होते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन और स्टीफन हाकिन्स ने भी बहुत
से प्रश्न खड़े किए यानि अनुत्तरित प्रश्न छोड़ दिए, जिसके उत्तर बाद में मिलते जा रहे हैं, और विज्ञान की गुत्थियाँ सुलझती
जा रही है, विज्ञान विकसित होता जा रहा है|
आइए,
आप भी भारत की विकास की गुत्थियों को सुलझाने में सहयोग कीजिए और भारत को अपनी प्राचीन गौरव पाने में मदद कीजिए एवं भारत को फिर से वैश्विक गुरु बनाने के रास्ते तैयार कीजिए|
आचार्य निरंजन सिन्हा।
www.niranjansinha.com
बहुत ही तर्कपूर्ण एवं आंखें खोल देने वाला आलेख।
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