सोमवार, 27 दिसंबर 2021

नादानों का आन्दोलन (Movement of Ignorant/ Silly)

आन्दोलन (Movement) में दोलन’ (Oscillation/ Swinging/ Wavering) शब्द और अंतर’ (Inter) शब्द है| अर्थात सत्ता एवं व्यवस्था में दोलन, बदलाव आदि होना| यह किसी व्यवस्था या सत्ता के किसी अन्याय, शोषण या अनियमितता के बोध (Perception/ समझ) के खिलाफ पैदा हुआ जनता का आक्रोश होता है, जो उस अन्याय, शोषण एवं अनियमितता को समाप्त करना चाहते हैं| यह संगठित एवं सुनियोजित हो सकता है या स्वत:स्फूर्त भी हो सकता है| इसका उद्देश्य सत्ता या व्यवस्था में अपेक्षित सुधार या परिवर्तन होता है| इसका क्षेत्र राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, पर्यावर्णीय या वैज्ञानिक हो सकता है|

जब कोई बड़ा बदलाव बहुत कम समय में हो जाता है, उसे ही क्रान्ति (Revolution) कहते हैं| किसी के दैनिक जीवन का हलचल या जीवन किसी तरह जी लेने का प्रयास 'संघर्ष' (Struggle) है, आन्दोलन नहीं| आन्दोलन (Movement) सामूहिक संघर्ष है, जो संगठित, सुनियोजित एवं लक्षित होता है| संघर्ष एवं आन्दोलन एक ही प्रक्रिया के स्वरूप की दो भिन्न अवस्थाएं हैं| जब संघर्ष सामूहिक हो जाता है, आन्दोलन बन जाता है| सामान्यतया आन्दोलन का उद्देश्य समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व एवं न्याय पाना होता है|

भारत सिर्फ विवधताओं का ही देश नहीं है, यह एक असमानताओं एवं अनियमितताओं का भी पुरातन देश है| पुरातन देश है, इसलिए असमानताएं और अनियमितताएं भी जटिल (Complex) हैं, स्वरूप (Pattern) भी सांस्कृतिक है, और इसीलिए इसका निदान भी सरल नहीं है| अक्सर ये असमानतायें और अनियमितताएं  अपने सांस्कृतिक आवरण (Veil) में सामान्य जनों को ठीक से दिखती भी नहीं है| इस तरह ये तमाम सारी अमानवीय और अवैज्ञानिक व्यवस्थाएं भी अपने सांस्कृतिक आवरण में शोषितों को  गौरवमयी, सनातन, अनुकरणीय और सराहनीय दिखती हैं| इन्हीं विभिन्न स्वरूपों वाले अन्यायों, शोषणों एवं अनियमितताओं को समाप्त करने लिए सुनियोजित या स्वत:स्फूर्त टाईप के आन्दोलन होते रहते हैं| भारत में संगठित एवं सुनियोजित आन्दोलन ही अधिक हैं|

वस्तुत: मेरा विषय नादानों (Ignorant/ Silly) का आन्दोलन है, जिनकी संख्या भारत में सबसे अधिक है| समाज में कुछ लोग धूर्त होते हैं, कुछ मूर्ख होते हैं और बहुसंख्यक नादान होते हैं। धूर्त वे हैं जो सब बातों को समझते हुए नादानों एवं मूर्खों का भावनात्मक शोषण (Emotional Exploitation) कर अपने हित (Interest) के मूल्य पर समाज को ठगते हैं| मूर्ख वे होते हैं जो भावनात्मक (धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि) बातों की आड़ में बहका (Deceive) लिए जाते हैं, या फिर पशुओं की तरह हांक लिए जाते हैं| कुछ लोगों को मूर्ख कहना अच्छा नहीं लगता, इसलिए उनको नादान कह कर संबोधित किया जाता है|

पर इन नादानों को पता ही नहीं है कि उनका आंदोलन वास्तव में कहां जा रहा है, और किसके हितों की पूर्ति कर रहा है? इन नादानों को लगता है कि इनका आन्दोलन एकदम सही दिशा में जा रहा है और सही रणनीति के अनुसार चल रहा है| उन्हें यह भी लगता है कि वे अब जल्दी ही अपने लक्ष्य को पाने वाले भी हैं, और उनका शोषण एवं अन्याय समाप्त होने वाला है| इन नादानों को इस बात का अंदाजा भी नहीं होता कि उनका आन्दोलन बौद्धिक रूप में अपहृत (Hack) कर लिया गया भी हो सकता है| इनको भटकाने के लिए इनके अल्पसंख्यक किन्तु शातिर बुद्धि वाले विरोधी मामूली-सी बातों को उछाल कर ऐसा भ्रमजाल उत्पन्न कर देते हैं, जिससे ये नादान आंदोलनकारी सफल हो जाने का और अपने आन्दोलन को सही समझने का झूठा और धोखे से भरा हुआ अहसास भी पा लें| उपरोक्त झांसे में फंसकर वे लोग अपना कीमती समय, पूरी ऊर्जा, उत्तम कोटि के संसाधन और पर्याप्त धन के साथ साथ अपना बढ़िया जवानी बर्बाद करते रहते हैं। समस्या जस का तस बना रहता है और समय निकलता जाता है|

ये आंदोलन करते हैं बेहतर व्यवस्था और वैज्ञानिक विकास के लिए, परन्तु वास्तव में कोई बेहतरी और विकास नहीं होता। इनके आंदोलन को कोई धूर्त अपने एजेंडे के अनुसार अपने ढंग से मोड़ देता है, या इनकी मूर्खतावश इन्हें बहका देता है। नादानों का आंदोलन जिसके विरोध में होता है, वस्तुत: यह अप्रत्यक्ष रूप में उसी का समर्थन करता हुआ होता है, जिसका कि वे विरोध करते दिखते हैं।

ये नादान समाज के महान विभूतियों के नाम लेकर उनके सन्देश एवं समझ को बिगड़ कर आगे बढ़ते हैं| ये नादान आन्दोलनकारी अपने विरोधियों की गलत अवधारणाओं और आधार का ही उपयोग कर उनके विरुद्ध बढ़ते हैं, और कब वे उनके जालों में उलझ जाते हैं, उनको खुद पता  नहीं चलता है| इन नादान आन्दोलनकारियों  के स्वार्थी नेता सब कुछ समझते हुए अपने घोषित विरोधियों के हाथों अंदरखाने में बिके होते हैं| इन नेताओं को आर्थिक लाभ के साथ-साथ तथाकथित सामाजिक सम्मान भी मिलता है, परन्तु इनका समाज अपना समय, संसाधन, उर्जा और धन गवां कर वहीं या उस के आस पास ठहरा हुआ होता है| कोई ढंग का बदलाव नहीं हो पाता है|

अब मैं आपको कुछ उदहारण दे रहा हूँ, कृपया इस पर गौर करते हुए  स्थिरता से अवलोकन किया जाय| शब्दों में भी सापेक्षता (Relativity) को और इसके प्रभाव को समझना है|

मैंने होली के अवसर पर अपने एक बौद्धिक एवं प्रगतिशील कर्मचारी नेता मित्र को प्रकृति बदलावएवं फसलों के आगमनके अवसर पर रंगों की शुभकामनाएं भेजी| ये मित्र मिथक विरोधी और तर्कशीलता के समर्थक हैं| उन्होंने मुझे मैसेज किया किया कि वे एक महिला (होलिका) के दहन के अवसर पर मेरी बधाई स्वीकार नहीं कर सकते हैं| मैंने कहा कि तब आप होलिका एवं होलिका दहन की ऐतिहासिकता को स्वीकार करते हैं, और तब आप नरसिंह (विष्णु) अवतार को स्वीकार करते हैं| तब आप विष्णु के अन्य अवतार को भी मानते हैं, तो ये बातें इतिहास की किताबों में क्यों नहीं है? तब आप मिथक और इतिहास के अंतर को नहीं समझते हैं, और इसी तरह मिथक एवं विज्ञान के अंतर को भी नहीं समझते हैं| निर्णय आप पाठकों का है|

कुछ लोगों ने भगवान राम के पूजन का विरोध करने के लिए राक्षस (वैसे रक्षा करने वाले के लिए यह शब्द निर्मित है रक्षक) रावण का पूजा शुरू किया है| लोग फिर मिथक एवं इतिहास का अंतर नहीं समझते और इस दुश्चक्र में फंस जाते हैं| वैसे आस्था भावना का विषय होता है और इसका उत्तर तर्क से नहीं समझाया जा सकता है। क्योंकि भावनात्मक लोगो का स्तर फ्रायड के इड (Id)” का होता है| इस पूजन में पांच प्रतिशत लोग रावण को पूजने लगे और इस तरह इनके प्रतिद्वंदी भगवान रामके ऐतिहासिक अस्तित्व को मान्यता देने लगे हैं| अब लोगो को दो विपरीत किनारों का विकल्प मिल गया, इसे सही मानिये या उसे सही मानिये| मिथक समर्थकों का काम ये तथाकथित प्रगतिशील एवं तार्किक लोग ही अपनी हास्यास्पद मूर्खतावश कर रहे हैं| जरा ठहर कर इस पर ध्यान दिया जाय|

आजकल भारत में बहुसंख्यको के बीच तथाकथित शब्द मूल निवासी बहुत प्रचलित है| इसके सतही अर्थ और इसके निहितार्थ को ध्यान से विश्लेषण किया जाय| मूल निवासी एक सापेक्षिक शब्द है जो विदेशियों के सन्दर्भ में प्रयुक्त होता है| मूल निवासी का सतही अर्थ इन तथाकथित आन्दोलनकारियों के लिए काफी आकर्षक एवं उपयोगी है, परन्तु निहित अर्थ इन्ही के लिए घातक और विरोधी है| आज कोई विज्ञान के नाम पर तथा ऐतिहासिकता के नाम पर मूल निवासी है, तो यह एक बड़ा धोखा है| मूल निवासी की तथाकथित सत्यता से विदेशियों की झूठी और काल्पनिक कहानी सही साबित होती हैं| इस कहानी के अनुसार विदेशी आर्य भारत में आए थे, जो गुणों में श्रेष्ट, काबिल, उत्कृष्ट एवं सर्वोच्च थे, क्योंकि वे विजेता थे| और उनकी जीनीय शुद्धता आज भी मूल निवासी की तरह ही शुद्ध विदेशी बना हुआ है| ध्यान रहें कि मूल निवासी भी जीनीय रूप से शुद्ध हैं, यानि इनका विदेशियों से कोई संकरण (Hybridization) नहीं हुआ है| अत: विदेशी आर्यों की जीनीय सर्वोच्चता, उत्कृष्टता एवं गुणवता आज भी यथावत है और इसीलिए वे लोग ही आज भी शासन करने योग्य हैं| अब आप समझ सकते हैं, कि मूलनिवासी की अवधारणा के माध्यम से  आप उनका वास्तव में समर्थन कर रहे हैं या फिर  विरोध कर रहे हैं| वैसे मूल निवासी की अवधारणा पूरी तरह से अवैज्ञानिक है, और साथ ही साथ राष्ट्र विरोधी भी है|

इसी तरह बाबा साहेब आम्बेडकर के स्लोगन "Educate, Agitate, Organise" में बहुत बड़ा बौद्धिक घपला किया गया है, जिससे बहुजन समुदाय के नादान आंदोलनकारी पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं।| बाबा साहेब ने उपरोक्त स्लोगन 1942 में नागपुर के एक अधिवेशन में कहा था| अब नादान आन्दोलनकारी अपने विरोधियों के बौद्धिक जाल में फंसकर "Educate, Organise, Struggle" का उपयोग करते हैं| इन भटके हुए नेताओं ने इनके स्लोगन के मूल शब्द क्रम को बदल दिया और शब्द भी बदल कर संघर्ष कर दिया, मानो बाबा साहेब को ‘Agitate’ एवं ‘Struggle’ में अंतर समझ में नहीं आता था, और इन नेताओं को समझ में आ गया| इन्होने क्रम भी बदल दिया, मानो बाबा साहेब को क्रम की महत्ता का अंदाज नहीं था| इन मूर्खतापूर्ण बदलावों को आप क्या कहना चाहेंगे?

 ऐसे कई उदहारण है, पर समय एवं शब्दों ने सीमित रहने की बाध्यता तय कर रखी है|

ये नादान लोग उत्साहित हैं, बेचैन हैं, तथाकथित शिक्षित हैं, पर सम्यक विचार करने और विचार- विमर्श के लिए इनके पास समय और धैर्य दोनों नहीं है| वे दौड़े जा रहे हैं, लगे हुए हैं| उन्हें लगता है कि यदि ऐसा हो जाता, वैसा हो जाता तो वे सफल हो जाते| वे सिर्फ काल्पनिक आदर्शों की बातें करते हैं, ये मानवीय मनोविज्ञानों को न तो समझते हैं और न ही समझने की जरुरत समझते हैं| इस तरह वे नेता बहुसंख्यक नादानों को बहकाने में सफल रहते हैं और ये लोग मृगतृष्णा में फंसे रहते हैं| ऐसे ही आन्दोलन चलता रहेगा और नादान अपना समय, धन, उर्जा, संसाधन और जवानी बर्बाद करते रहेंगे|

(आप मेरे अन्य आलेख  www.niranjansinha.com  या niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)

निरंजन सिन्हा

शनिवार, 25 दिसंबर 2021

किसानों की मूल समस्या?

भारतीय संस्कृति में किसान को अलग ढंग से परिभाषित किया गया है। उसे सभ्यता की शान (Prestige)’ कहा गया है| मतलब यह कि किसी भी सभ्यता एवं संस्कृति की शान  "किसान" ही हैं| अंग्रेजी में 'फारमर' (Farmer) फार्म अर्थात खेतों में या क्षेत्रों में उत्पादन करने वाला ही किसान हैं| दोनों ही अर्थों में एक ही भाव है| किसी भी सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत तभी होती है, जब किसान अपना खाद्य उत्पादन इतना अधिक (Surplus) कर लेता है, कि गैर कृषि कार्यों में लगे लोगों को भी खाना (भोजन) सुनिश्चित हो सके| तब ही उस समाज में चिन्तक (Thinker) कार्य कर पाते हैं|

किसान व्यवस्था के प्राथमिक स्तर (level) या प्रक्षेत्र (sector) पर कार्यरत हैं, जैसे कृषि, बागवानी, पशुपालन, मत्स्य पालन, वानिकी या अन्य समतुल्य कार्य। किसानों के पास उपरोक्त कार्यों का समेकन (integration/ collection) भी हो सकता है, या उपरोक्त में से किसी एक ही में विशेषज्ञता हासिल करते हुए वह एक ही क्षेत्र तक सीमित रह सकता है। अर्थात ये किसान सिर्फ कृषि कार्य करतें हों या सिर्फ पशुपालन या कोई अन्य या फिर इन सभी या इनमें कुछ का समेकन। कहने का तात्पर्य यह है कि किसान प्रकृति आधारित उत्पादन का संग्राहक (Collector) होता है और प्रकृति आधारित उत्पादन को समर्थित (Support), नियंत्रित (Control) और निदेशित (Regulate) करता है। यह विशेषताएं किसान की अवधारणा और परिभाषा को स्पष्ट कर देती हैं।

सतही तौर पर किसानों से संबंधित कई समस्याएं दिखती हैं, जैसे वित्तीय समर्थन का अभाव; तकनीकी सुधार के प्रसार पर ध्यान नहीं, आधुनिक उत्पादन विधि एवं प्रबंधन का अभाव, सिंचाई, बीज, खाद, कीटनाशकों का अभाव; जोत आकार, फार्म प्रबंधन, भंडारण, बाजार आदि से सम्बंधित समस्याएं| परन्तु समझने की बात यह है कि समस्याओं का मूल क्या है? अर्थात इसका जड़ कहाँ है?

समस्याओं की जड़ यह है कि व्यवस्था के 'ज्ञान प्रक्षेत्र' (Knowledge Sector) और 'नीति निर्धारण प्रक्षेत्र' (Policy Making Sector) के लोग किसानों की समस्याओं पर समुचित ध्यान नहीं देते हैं। ये लोग इन समस्याओं के प्रति संवेदनहीन क्यों हैं, और इसकी उपेक्षा क्यों कर रहें हैं? ये लोग किसानों की समस्याओं के प्रति समुचित ध्यान ही नहीं देते हैं| इनकी गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, कम उत्पादकता, अन्धविश्वास एवं अत्यधिक कर्मकांड का बोलबाला तथा इनके अवैज्ञानिक मानसिकता की तो कोई चर्चा ही नहीं है| किसानों को तथाकथित गौरवशाली संस्कृति के नाम पर कई प्रकार के शोषणकारी कर्मकाण्ड, संस्कार, ढोंग, अन्धविश्वास और पाखंड में लिप्त रहने को छोड़ दिया गया है|

इसे अच्छी तरह समझने के लिए "व्यवस्था" के स्तर को समझा जाय| व्यवस्था के पांच स्तर होते हैं प्राथमिक (Primary), द्वितीयक (Secondary), तृतीयक (Tertiary), चतुर्थक (Quaternary), पंचक (Quinary) , जो एक निश्चित प्रक्रम (Process stage) में हैं|

किसान प्राथमिक स्तर पर कार्यरत हैं| जैसा कि आप भी जानते हैं, कि प्राथमिक क्षेत्र में प्रकृति से सीधे  उत्पादन का प्रबंधन होता है| द्वितीयक क्षेत्र में प्राथमिक क्षेत्र से प्राप्त वस्तुओं में मूल्य वर्धन किया जाता है, यानि ओद्योगिक उत्पादन होता है| तृतीयक क्षेत्र में अन्य सेवाएँ उपलब्ध करायी जाती हैं| चतुर्थक क्षेत्र ज्ञान (Knowledge) का क्षेत्र है| पंचक यानि पांचवां क्षेत्र नीति निर्धारण (Policy Determination) का है|

किसान परिवारों के लोग तो व्यवस्था के प्रथम, द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रों तक ही अपने को सीमित रखते हैं| वे चतुर्थक एवं पंचक क्षेत्रों के बारे में कदापि नहीं सोचते और इसीलिए उसमें प्रभाव जमाने के लिए उनकी कोई सोच या रणनीति भी नहीं होती| इनका चौथे क्षेत्र और पांचवें क्षेत्र पर बिल्कुल ही ध्यान नहीं है, और इसीलिए इस स्तर पर किसान परिवारों का प्रभावशाली प्रतिनिधित्व शून्य के बराबर है। परिणामस्वरूप इस स्तर पर संवेदनहीनता है और किसान पर्याप्त उपेक्षाओं का शिकार है। अर्थात ज्ञान प्रक्षेत्र और नीति निर्धारण प्रक्षेत्र पर किसानों के सरोकारों की iपर्याप्त उपेक्षाएं हो जाती है, चाहे वह विश्व का कोई भी संस्कृति हो। यह एक बहुत गंभीर तथ्य है, जिस पर रुक कर विचार किया जाना चाहिए| जिन संस्कृतियों में उपरोक्त प्रकार की उपेक्षा और संवेदनहीनता नहीं है, वे संस्कृतियां प्राथमिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर और मजबूत हैं। और इसीलिए विकसित संस्कृतियों की अर्थव्यवस्था व्यवस्था के पांचों प्रक्षेत्रों में मजबूत और नवाचारी होती है।

उपेक्षाओं (Negligence) का दो साधारण उदहारण प्रस्तुत कर रहा हूँ| कुछ कृषि क्षेत्रों में साढ़ों  (Bulles) की संख्या बढ़ती जा रही है, जो खेतों की फसलों को निर्बाध गति से खा रहे हैं और नष्ट कर रहे हैं| इन साढ़ों को नष्ट नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ये तथाकथित महान संस्कृति के नाम पर संरक्षित (Protected) हैं| ऐसी स्थिति इसलिए है कि नीति निर्धारक एवं ज्ञान क्षेत्र के लोग इन वंशों के पशुओ को न तो पालते हैं और न ही संरक्षित करते हैं| ये तो दूसरो के लिए सिर्फ नियम, कायदे और संस्कार बनाते हैं| दूसरों के लिए अवैज्ञानिक एवं अनुत्पादक नियम बनाना आसान होता है| दूसरा उदाहरण नीलगाय (Blue Cow) (घोड़पछाड़) का है, जो खासकर गंगा नदी घाटी उपत्यका में आतंक फैलाए हुए है| इसे कोई तथाकथित वन्य पशुओं के संरक्षण के नाम पर प्रबंधन नहीं कर सकता| यहाँ भी वही बात है कि नीति निर्धारकों को किसानों की दुर्दशा से कोई प्रत्यक्ष मतलब नहीं है| ये दो उदाहरण हैं, जो नीति निर्धारकों की संवेदनहीनता को रेखांकित करते हैं।

भारत में वर्ण व्यवस्था और जाति संरचना के स्वरूप ने सामाजिक गतिहीनता पैदा कर दिया, जिसने सामान्य लोगों को यथास्थितिवाद में छोड़ दिया है| परिणामस्वरूप जाति आधारित व्यवस्था के लोग न तो ज्ञान आधारित क्षेत्र में और न ही नीति निर्धारण क्षेत्र में पर्याप्त प्रतिनिधित्व दे पा रहे हैं| जो जिस क्षेत्र में लगा हुआ है, वह बस वहीं लगा हुआ है| व्यवस्था को नियंत्रित करने वाले लोग जो चौथे और पांचवें क्षेत्रकों में कब्जा जमाकर बैठे हुए हैं, वे अपनी सामंतवादी मानसिकता तथा अपने संकीर्ण वर्गीय हितों की वजह से व्यापक राष्ट्रीय हितों को दरकिनार करते हुए, येन-केन प्रकारेण यथा स्थिति को बनाये रखना चाहते हैं।

इतिहासकारों ने 'सामंतवाद' पर लिखते हुए कहा है किसानों को जीने- रहने के लिए पर्याप्त खाद्य पदार्थ से अधिक होना भी व्यवस्था के सामंतवादी हितों को नुकसान पहुंचाता है| यदि किसानों को ढंग की शिक्षा के लिए आवश्यक धन जमा हो जाय, तो वे शिक्षित किसान, व्यवस्था पर भी प्रश्न करने लगते हैं| इससे सामंतवादी व्यवस्था और मानसिकता को कई तरह से नुकसान पहुँचता है| शिक्षा से किसान शिक्षित और जागरूक हो सकता है और कर्मकांड, अंधविश्वास को त्याग सकता है| किसान के बच्चे वैज्ञानिक बातें करने लगते हैं, और शोषण तंत्र को समझने लगते है, और परिणामस्वरूप कई वैज्ञानिक एवं मानवीय अधिकारों की मांगे भी करने लगते हैं| किसानों का उत्पादन बढ़ने से किसानों के बढ़ते धन एवं परिणामस्वरूप उनमें शिक्षा और ज्ञान की वृद्धि से पोंगापंथियों (समाज में भ्रम और अंधविश्वास फैला कर आजीविका कमाने वाला वर्ग) और सामंतों को खतरा उत्पन्न हो जाता है| इसीलिए कई इतिहासकारों ने "सामंतवाद" के बारे वर्णन करते हुए लिखा है कि किसानो से अत्यधिक उपज हटाने के लिए प्रयाप्त तरीके ईजाद किए जायें, ताकि कोई किसान स्वतंत्र ढंग से सोच नहीं सके| इसीलिए किसानों से भू-लगान के अतिरिक्त सुरक्षा, युद्ध खर्च, समारोह, पर्व, उत्सव, यज्ञ-पूजा, आदि के नाम पर विभिन्न रूपों में धन लिए जाने की अनुशंसा को वैधानिक बनाने की बात है| यह आज भी विभिन्न नामों से जारी है| सामंतवाद आज भी विभिन्न बदले हुए स्वरूपों में जिन्दा है| कोई भी इन स्थितियों और तथ्यों का किसी भी समय के किसानों की स्थिति एवं दुर्दशा से सम्बंधित कर देख और समझ सकता है| वैसे आप भी एक सजग, समझदार और विवेकशील मनुष्य हैं। अतः भारत के व्यापक राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए हम आप से भी उपरोक्त तथ्यों पर गहराई से विचार-विमर्श करने की अपेक्षा रखते हैं।

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निरंजन सिन्हा

रविवार, 19 दिसंबर 2021

भारत को आजादी क्यों मिली?

यदि इतिहास सामाजिक रूपांतरण (Social Transformation) का क्रमबद्ध ब्यौरा (Chronological Details) है, तो उसकी समुचित और वैज्ञानिक व्याख्या उत्पादन (Production), वितरण (Distribution), विनिमय (Exchange) एवं संचार (Communication) की शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों के आधार पर किया जाना चाहिए| भारत को आजादी मिली, यह भी एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है| इसलिए एक बार इसकी भी व्याख्या उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं संचार की शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों के आधार पर किया जाना चाहिए|

भारत एक साम्राज्यवादी शक्ति का उपनिवेश था| अब हमें साम्राज्यवाद और उपनिवेश को समझना होगा| साम्राज्यवाद (Imperialism) शासन व्यवस्था का एक नजरिया या दृष्टिकोण है, जिसके अनुसार कोई महत्वाकांक्षी राष्ट्र अपनी शक्ति और गौरव को बढ़ाने के लिए अन्य दुसरे देशों के प्राकृतिक एवं अन्य संसाधनों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेता है| यह हस्तक्षेप राजनितिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या अन्य किसी भी प्रकार का हो सकता है| ये  नियंत्रित अन्य देश ही साम्राज्यवादियों का उपनिवेश (Colony) कहलाता है| इन्ही उपनिवेशों के संसाधनों का दोहन करना ही साम्राज्यवादियों का मुख्य एवं एकमात्र उद्देश्य होता है|

साम्राज्यवाद के उर्घ्वाकार (Vertical) विभाजन यानि इसके उद्विकास के चरणों की कई अवस्थाएं हैं| इन्हें "वणिक साम्राज्यवाद", "औद्योगिक साम्राज्यवाद", "वित्तीय साम्राज्यवाद" और "डाटा साम्राज्यवाद" में चरणबद्ध किया जा सकता है| डाटा (Data) साम्राज्यवाद को 'सूचना का साम्राज्यवाद' भी कह सकते हैं| सूचना साम्राज्यवाद भौगौलिक क्षेत्रों में निर्धारित नहीं होता है, क्योंकि इसकी कार्यप्रणाली वित्तीय साम्राज्यवाद की तरह ही अदृश्य होता है। इसकी कार्यप्रणाली भी अलग किस्म की है और यह अभी भी विचारणीय अवस्था में है। यह संभाव्यता का क्षेत्र है।

वैश्विक इतिहास का एक अवलोकन किया जाय। वैश्विक इतिहास में वणिक साम्राज्यवाद और औद्योगिक साम्राज्यवाद बीत चुका है। वणिक (Mercantile) साम्राज्यवाद में वस्तुओं के व्यापार के लिए उपनिवेश पर राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित किया गया| यह यूरोपीय कम्पनियों का शुरुआती व्यापारिक काल था। भारत में यह काल मुख्यत: ब्रिटिश कंपनियों का काल था| 

इसके बाद ही औद्योगिक (Industrial) साम्राज्यवाद आया| इसमें औद्योगिक आवश्यकताओं के कच्चे माल की आपूर्ति करने और उत्पादित माल के खपत के लिए बाजार की आवश्यकता के लिए उपनिवेश पर राजनीतिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक, सामरिक एवं आर्थिक आधिपत्य स्थापित किया जाता रहा| यह काल कंपनियों के समाप्ति के बाद आया|

साम्राज्यवाद का तीसरा अवस्था 'वित्तीय साम्राज्यवाद' का है, जो अभी भी चल रहा है। इस पर 'सूचना साम्राज्यवाद' को प्रभावी होना है और हो रहा है। वित्तीय (Financial) साम्राज्यवाद में उपनिवेशों में सिर्फ वित्तीय आधिपत्य की आवश्यकता होती है; राजनीतिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक, सामरिक एवं आर्थिक आधिपत्य की आवश्यकता नहीं होती है| वित्तीय साम्राज्य में कच्चे माल की उपलब्धता, उत्पादन के  संयंत्र एवं उसके प्रबन्धन और उसकी बिक्री करने का कोई झंझट नहीं है। सिर्फ वित्त पर नियंत्रण करना होता है। इस प्रक्रिया में अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों, समझौते और वैश्विक संगठन के द्वारा कई विकासशील और अविकसित देशों के शासना प्रमुख दरअसल अपने देशों के प्रबंधक मात्र होते हैं, जिन्हें आम जनता प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति समझता है।

सूचनाओं के युग में इन सूचनाओं का संग्रहण, वर्गीकरण, विश्लेषण एवं निष्कर्ष निकाला जाता है और नए संदर्भ में इसका कार्यान्वयन किया जाता है| इस सूचना (Information) साम्राज्यवाद के उपनिवेश में राजनीतिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक, सामरिक, आर्थिक एवं वित्तीय आधिपत्य की कोई आवश्यकता नहीं होती है| ऐसा इसलिए है कि यह दोनों (वित्तीय एवं सूचना) साम्राज्यवाद अदृश्य (Invisible) होता है| अदृश्य चीजें आँखों (Eyes) से नहीं, मानसिक दृष्टि (Vision) से देखी जाती है| इसे मानसिक समझ से देखा और समझा जाता है| वित्तीय साम्राज्यवाद का भी स्वरुप यही है और इसी कारण इस ओर सामान्य जन का ध्यान भी नहीं जाता| इस वर्गीकरण के श्रेणी में "अन्तरिक्ष (Space) साम्राज्यवाद" को भी शामिल किया जा सकता है, जिसमे अन्तरिक्ष में उपनिवेश स्थापित करना शामिल होगा|इस दिशा में चीन की प्रगति सराहनीय है। यह निकट भविष्य का साम्राज्यवाद है।

इतना समझने के बाद हमें भारत में 1947 के समय की स्थिति को समझना है| दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था| वणिक साम्राज्यवाद और औद्योगिक साम्राज्यवाद के दिन लद चुके थे अर्थात इनकी कोई आर्थिक आवश्यकता नहीं रह गयी थी| इसी साम्राज्यवाद के लिए होड़ में दो विश्व युद्ध हुए थे| वित्तीय साम्राज्यवाद की आवश्यकताओं के कारण विश्व युद्ध के बाद कई देशों को राजनितिक स्वतंत्रता मिल गयी, जिसमे भारत भी शामिल था| यह साम्राज्यवाद का तीसरा अनिवार्य अवस्था रहा, जिसकी आवश्यकता को समझना है। वित्तीय साम्राज्यवाद में वित निवेश और वित्तीय नियंत्रण मात्र करना होता है, कोई दृश्य नियंत्रण नहीं यानि कोई भौतिक नियंत्रण की आवश्यकता नहीं होती है। लोग भी स्वतंत्रता सेनानियों के गुणगान तक अपने को सीमित रखते हैं और वित्तीय नियंत्रण और प्रबंधन का साम्राज्यवाद अपना काम निर्बाध जारी रखता है। इसी अदृश्य साम्राज्यवादी शक्तियों और आवश्यकताओं के कारण ही कतिपय देशों को तथाकथित आजादी मिली जिसमें भारत भी शामिल है।

मुझे तथाकथित संप्रभुता (Sovereignty) के सम्बन्ध में कोई टिप्पणी नहीं करनी है, क्योंकि वैश्विक अनुबंधों एवं उत्तरदायित्वों को निभाने में संप्रभुता की स्थिति सबको स्पष्ट है| जहां तक स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल लोगों के योगदान के बारे में है, उन्होंने ऐतिहासिक बलिदान दिया और वे सब हमारे लिए सम्मानीय हैं| इन्होने साम्राज्यवादी शासन को परेशान किया| साम्राज्यवादी इतिहासकार भी इस सम्बन्ध (वित्तीय साम्राज्यवाद) में चुप ही रहेंगे अर्थात स्वतंत्रता आन्दोलन को ही प्रमुख महत्व देते रहेंगे। क्योंकि वे नहीं चाहेंगे कि कोई वित्तीय साम्राज्यवाद को समझें। वित्तीय साम्राज्यवाद को जानना और उसकी क्रिया विधि को आम जनता को समझना साम्राज्यवादी हितों के विपरीत होगा। परन्तु हमें तो सब कुछ समझना चाहिए| मेरा उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुँचाना नहीं है, परन्तु मेरा उद्देश्य इतिहास की व्याख्या उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं संचार की शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों के आधार पर समझाना है, ताकि भविष्य को भी पहले ही समझा जा सके|

डाटा साम्राज्यवाद के बाद होमो सेपियन्स (आधुनिक मानव) के जीवन में साम्राज्यवाद के किसी दुसरे स्वरुप का अवतार नहीं होगा| ऐसा इसलिए होगा क्योंकि कृत्रिम बुद्धिमता, नैनो तकनीक, जेनेटिक्स इन्जीनियरिंग, न्यूराँन लिंक (Neuron and Computer Link) आदि के कारण इस शताब्दी में ही होमो ड्यूस (Homo Deus) का उद्विकास होगा| होमो ड्यूस के उद्विकास के बाद होमो सेपिएन्स (वर्तमान आधुनिक मानव) की कोई आवश्यकता नहीं रह जायेगी। यह वैसे ही है जैसे होमो सेपियन्स के आगमन के बाद पूर्ववर्ती होमो इरेक्टस और नियंडरथल को जाना पड गया था|

आज के सूचना युग में किसी भी जनता को यह भ्रम (Confusion) हो सकता है, कि उनके समाज या देश की व्यवस्था उसकी सरकारें चला रही है। ऐसे व्यक्तियों को इतिहास के निर्धारण की शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों को उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं संचार के आधार पर समझ लेना चाहिए| इस तरह आजादी का स्वरुप भी बदलता रहता है| किसी की राजनीतिक आजादी उसकी सांस्कृतिक, आर्थिक, वित्तीय, आदि आजादी से भिन्न हो सकता है अर्थात किसी की राजनीतिक आजादी उसकी सांस्कृतिक, आर्थिक, वित्तीय आजादी को समाहित किए बिना भी प्राप्त हो सकती है| इन बदलावों से निश्चिन्त व्यवस्थाएं अपने ही देश की बहुसंख्यकों को परास्त करने में व्यस्त है| ऐसे देश तथाकथित धर्म, जाति और और अन्य अवैज्ञानिक बातों में ही अपने देश की आबादी को उलझाएँ रखती है| ऐसी सरकारों को लगता है कि वे ऐतिहासिक विजयों की ओर बढ़ रही है, परन्तु ये अनजान सरकारें दूसरे अत्यंत विकसित देशों की अदृश्य चालों में फंसते जा रहे हैं| बड़े आबादी वाले देशों के प्रमुखों और जनता को लगता है कि उनकी पूछ (Importance) उनकी संस्कृति, या विकास, या शक्ति के आधार पर हो रही है| परन्तु उनकी पूछ (importance) की वास्तविक कारण उनकी बाजार (खरीदने) की शक्ति (Purchasing Capacity of Nation) होती है|

मेरे कहने का अर्थ है कि आजादी का स्वरुप बदलता रहता है| और इसका निर्धारण आर्थिक एवं वित्तीय शक्तियां करती है जिन्हें हमें अवश्य समझना चाहिए|

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निरंजन सिन्हा 

बुधवार, 8 दिसंबर 2021

टुच्चे लोग

उमेश जी आज उखड़े हुए थे। वे “टुच्चा” और “टुच्चे” शब्द का प्रयोग कर रहे थे। इस शब्द प्रयोग वे 'लोग', 'देश', 'सोच' (Thought), 'नीयत' (Intention), 'व्यवहार' और 'काम (Work)' के विशेषण के तौर पर अर्थात विशेषता बताने के लिए कर रहे थे| मैं तो पहली बार ही ‘टुच्चा’ और ‘टुच्चे’ शब्द का प्रयोग सुन रहा था। मुझे काफी उत्सुकता हो गई इन शब्दों का शाब्दिक अर्थ (Superficial Meaning), निहित भावार्थ (Implied Meaning), और प्रयोग- उपयोग जानने की। वैसे उमेश जी एक आफिसर ही नहीं, बल्कि एक सामाजिक सेवक और अच्छा जानकार भी हैं। सो इस बारे में उनके गहरे चिंतन (Deep Reflection) में मैं भी उतरना चाहा।

सबसे पहले तो इन शब्दों के वर्तमान संदर्भ को जानना चाहा। मेरे आने से पहले ज्ञानेश्वर जी और कमलापति जी यहीं से जा रहे थे। पता चला कि वे लोग भारत के कुछ पड़ोसी देशों के बेवकूफी भरे (सांप्रदायिक) सोच और निर्णय को भारत जैसे समृद्ध संस्कृति वाले देश के लिए आदर्श बता रहे थे, और उसके लिए अनुकरणीय मान रहे थे। सबको पता है कि ये पड़ोसी देश संकीर्ण सोच में उलझे हुए हैं, और भयंकर आर्थिक संकट से भी जूझ रहे हैं। ऐसे ही देशों को भारत का आदर्श और भारत के लिए अनुकरणीय बताने पर ही इन पड़ोसी देशों को उमेश जी ‘टुच्चे देश’ बता रहे थे।

मैंने उमेश जी से पूछा कि ‘टुच्चा’ शब्द है क्या?

उमेश जी ने बताया कि "टुच्चा" शब्द एक विशेषण है जो देश, लोग, सोच, नीयत, काम और व्यवहार आदि की विशेषता बताने के लिए प्रयुक्त होता है। इसे आप संस्कृत का शब्द मान सकते हैं।

मैंने फिर पूछा कि 'टुच्चा' का शाब्दिक अर्थ क्या है?

उमेश जी के अनुसार *‘जो कथन अनुचित, ओछा या हेय हो, या जो कोई व्यक्ति नीच या हीन विचारों का या क्षुद्र प्रकृति वाला हो  'टुच्चा' कहलाता है|’* इस तरह घटिया व्यक्ति को टुच्चा या छिछोरा कह सकते हैं| अर्थात जो अनुचित या घटिया या दुष्ट प्रवृति का है, चाहे वह देश हो, लोग हों, सोच हो, नीयत हो, कर्म हो या व्यवहार हो आदि को टुच्चा कह सकते हैं| *इस अर्थ में टुच्चा का अर्थ नीच या क्षुद्र या घटिया हुआ|*

फिर भी मैं और स्पष्ट करने के ख्याल से उनसे पूछ ही बैठा – 'टुच्चा' विशेषण का भावार्थ क्या क्या है?

उमेश जी के अनुसार टुच्चापन के कई पक्ष व विभिन्न भाव हो सकते हैं| जैसे बिना किसी योग्यता के अपने को ऊँच और किसी और को नीच समझना| लोगो को जानबूझ कर अवैज्ञानिक बातें बताना या समझाना| अपने फायदे के लिए समाज में ढोंग, पाखंड करवाना और फैलाना| समाज में अन्धविश्वास स्थापित करना और इसे मजबूत करना| या अपने व्यक्तिगत अथवा अपने तथाकथित सामाजिक लाभ के लिए समाज और देश को कर्मकांड के दल-दल में फंसाना| यह सब भी आपराधिक कृत्य है,और ऐसी अपराधी सोच रखना भी अपराध है|  सामाजिक या वैश्विक व्यवस्था को भंग करना या भंग करने की मंशा रखना भी टुच्चापन है| पारिस्थितिकी न्याय (Ecological Justice) की अवहेलना करना आदि इसका व्यापक दायरा होगा।

उमेश जी ने तो टुच्चापन का एक विस्तृत दायरा खीच दिया| उन्होंने इतना ही नहीं किया, बल्कि टुच्चेपन को अपराराधिक परिधि में लाकर कई गंभीर आरोप भी लगा  दिए| उन्होंने कहा कि ऐसे अपराधी पर तो क्रिमिनल मुकदमा दायर होना चाहिए, और उसे जेलों में बद होना चाहिए|

मैंने कहा – कुछ खोल कर बताइए, ताकि कुछ साफ-साफ समझ में आए|

देखिये सर – उमेश जी ने कहा – किसी गलत बात को या काम को अपने व्यक्तिगत या अपने छोटे समाज के फायदे के लिए अर्थात गलत नीयत से ऐसा काम करना, जिससे व्यक्ति, समाज या देश का नुकसान हो,बस यही टुच्चापन है| जैसे लोगों की भावनाएं उभार कर समाज और देश की समरसता, शांति और विकास से खेलना टुच्चापन है| जो बातें समाज में  कहीं घटित नहीं हों, उसे फैब्रिकेट कर प्रसारित करना टुच्चापन है| जैसे कोई बात इस तरह फैलाना, मानों बाकी समाज और देश के लोग राष्ट्र विरोधी हैं, और वही टुच्चे लोग ही सच्चे राष्ट्रभक्त हैं| कोई बात इस तरह फैलाना मानों सारा समाज और  देश के शेष लोग व्यापक धर्म के विरोधी हैं और वे टुच्चे लोग ही व्यापक धर्म के शुभचिंतक हैं, जबकि ऐसी कोई बात भी किसी के ख्याल में नहीं आया होता है| किसी चीज का कहीं कोई विरोध भी नहीं होता, तो ये टुच्चे लोग यह प्रसारित करते हैं, कि शेष देश या फलां समाज इसका विरोधी है| ये टुच्चे लोग व्यापक धर्म, राष्ट्र भक्ति और समाज के शुभ चिन्तक बने फिरेंगे| यह सब नाटक सिर्फ भोले-भाले लोगों की भावनाओं को उभार कर सामान्य लोगों को भ्रमित करने के लिए करते हैं|  यह लोग इसी के आड़ में समाज और देश की आर्थिक और सांस्कृतिक क्षति करा रहे हैं|

मैंने उन्हें रोकने के  ख्याल से टोका – यह सब आप कहाँ से सोच लेते हैं?

उन्होंने बताया कि – अमेरिका (USA) ने 1937 से 1942 के बीच एक संस्था “Institute for Propaganda Analysis (IPA)” स्थापित किया था| इसका  नाम बताता है कि इसका काम  था, कि 'प्रोपगैंडा' अर्थात झूठे प्रचार का विश्लेषण करना, परन्तु इसका वास्तविक काम था, प्रभावी प्रोपगैंडा बनाना और उसे फैलाना| जब आप इस संस्था का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि ये टुच्चे प्रकृति के लोग आज इसकी ही भाषा, शब्द और तकनीक का उपयोग करते हैं|

मैं भी इनसे सहमत हूं, कि भारत एक विशाल और ऐतिहासिक गरिमा वाली संस्कृति का देश है। और इसकी तुलना चीन, जापान, जर्मनी तथा अमेरिका जैसे विकसित, समृद्ध तथा शक्तिशाली देशों से ही होनी चाहिए, इन टुच्चे देशों से नहीं| इन टुच्चे देशों से भारत की तुलना करना और इसे अनुकरणीय बताना तो किसी भी राष्ट्रभक्त को अच्छा नहीं लगेगा। मुझे भी इन टुच्चे देशों को भारत के लिए आदर्श और अनुकरणीय बताना और इन देशों की तुलना भारत से करना बुरा लगता है। इन टुच्चे लोगों को भारत की गौरवशाली और विशाल ऐतिहासिक परम्परा का ध्यान ही नहीं रहता। मुझे तो ऐसे सोच वाले लोग ही टुच्चे लगे| ये लोग बिना सोचे समझे भारत जैसे गरिमामई देश की तुलना टुच्चे देशों से करने लगते हैं। ये टुच्चे लोग सिर्फ अपने पद, धन और सामाजिक पहचान को ही विद्वता का पैमाना मान लेते हैं। ये टुच्चे लोग देश की गौरवशाली परंपरा, साझी संस्कृति, ऐतिहासिक समरसता और विकास को ही नष्ट कर रहे हैं|

वे कहने लगे, अब, आपको सोचना, समझना और पहचाना है, कि समाज और देश के संदर्भ में कौन-कौन टुच्चा है, यानि कौन कौन टुच्चे लोग हैं? यह आपको तय करना है। मेरा उद्देश्य इसके प्रति लोगों को जागरूक करना है, ताकि युवा पीढ़ी तेजी से विकसित हो। टुच्चेपन से समाज और देश को बचाना भी है| इसके बाद ही समाज में सुख, शांति, समृद्धि और विकास स्थापित हो सकेगा। ऐसे लोगों के “टुच्चापन” के कारण ही  विश्व समाज में हमारे समाज और देश का सम्मान चोटिल होता है| यह हमारे आगे बढ़ते युवाओं की पहचान पर खतरा है|

मैं भी चिंतन में डूब गया| आप भी सोचिए|

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निरंजन सिन्हा

शनिवार, 4 दिसंबर 2021

बुद्ध धम्म का सार क्या है? (What is the Essence of Buddha’s Dhamma)

सर, आप धर्म (Religion) और धम्म (Dhamma) में कन्फ्यूज कर रहे हैं। आप धम्म को आज के प्रचलित धर्म से फेंट (Mix) रहें हैं। उमेश जी कुछ उल्टा पुल्टा (Disorderly) बता रहे थे। धर्म और धम्म, दोनों अलग-अलग। एक नई बात। वैसे तो मैं यह जानता था कि धम्म को ही हिंदी और संस्कृत में धर्म कहा जाता है। लेकिन ये कुछ अलग बता रहे थे।

उमेश जी टैक्स के आफिसर है, और इसीलिए कभी कभी उनकी बातों को बेमन (against own will) से भी सुनना पड़ता है। वे बुद्ध के धम्म को बुद्ध के धर्म से अलग बताना चाह रहे थे। पर मुझे भी उत्सुकता हो गई कि धर्म और धम्म में क्या अंतर है? वैसे तो मैं धर्म से हिन्दू हूं और इसलिए मुझे बुद्ध धर्म से कोई मतलब नहीं है। पर इन्होंने धम्म और धर्म शब्द का इस्तेमाल किया और बस इसी बात ने मुझमें उत्सुकता पैदा कर दिया।

मैंने कहा - उमेश जी, आप ज्यादा मत बताइए। बस, आप बुद्ध के धम्म का सार ही बता दीजिए। हम बहुत कुछ धर्म और धम्म के बारे में समझ जाएंगे। मैंने भी उनके प्रवचन को समाप्त करना चाहा।

तो सुनिए सर, उमेश जी ने कहा। मुझे बैठाया और अपने घर में फीकी (बिना चीनी) चाय लाने को कह दिया। मुझे बैठना पड़ा, वे टैक्स के आफिसर जो थे।

देखिए सर, पहली बात यह है कि धर्म का वर्तमान स्वरूप ही नौवीं शताब्दी के बाद आना शुरू हुआ। बुद्ध का धम्म बुद्ध के ही समय से शुरू हो गया, जबकि बुद्ध का धर्म भी अन्य धर्मों की तरह नौवीं शताब्दी के बाद अस्तित्व में आया|

मतलब कि उमेश जी के अनुसार, ईसा मसीह, मुहम्मद पैगम्बर साहब और तथागत बुद्ध ने किसी धर्म की स्थापना नहीं की| उमेश जी ने समझाया कि बुद्ध, ईसा मसीह और मुहम्मद पैगम्बर साहब ने उस समय के अव्यवस्थित और पिछड़े समाज को मात्र आवश्यक सामाजिक और प्रगतिशील व्यवस्था दिया।

मैंने कहा - उमेश जी, आपके अनुसार इन महान समाज व्यवस्थापको का नाम सामन्ती काल में उस क्षेत्र की परंपरा से जोड कर वर्तमान धर्म का स्वरुप दे दिया गया| नौवीं शताब्दी के बाद के अवधि में सामंतवादी व्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुरूप उन क्षेत्रों में प्रचलित व्यवस्था, संस्कार, परम्पराओं और संस्कृति में संशोधन, परिवर्तन और विरुपण (Distortion) होता गया। इसमें पाखंड, ढोंग, अन्धविश्वास और कर्मकाण्ड गुंथता (Intermingle) चला गया और यही बदला स्वरुप ही वर्तमान धर्म है।

उमेश जी फिर धम्म को छोड़ धर्म पर आ गए थे| मैंने कहा कि आप धम्म का सार यानि धम्म का मुख्य बात बताने वाले थे|

अब उमेश जी शुरू हुए| कहा – बुद्ध के धम्म में मुख्य बात ईश्वर (God), आत्मा (Soul), पुनर्जन्म (Rebirth), नित्यता (Eternity) और भाग्य-जादू-करिश्मा की अवधारणाओं का खंडन है| इसके साथ ही उन्होंने जीवन का आधार उस व्यक्ति के सोच (Thought) को बताया| इतना ही बात उनके धम्म का आधार है| बाकी अन्य बात इसी का व्युत्पन्न (Derivative) है|

उमेश जी के बात में आश्चर्यजनक यह थी कि उसने सत्य, अहिंसा, प्रेम, मैत्री, करुणा आदि का नाम ही नहीं लिया| उसने दुःख और उसके समाधान की भी चर्चा नहीं की| लेकिन उनकी बात पूरी नहीं हुई थी, इसलिए चुपचाप सुन रहा था|

उमेश जी की एक बात अच्छी थी| उन्हें मेरे उम्र का ख्याल था और मुझे सम्मान के साथ सर कह रहे थे| कहा – सर, जब हम ईश्वर के अस्तित्व को इनकार (Reject) कर देते हैं, तो हम विश्व व्यवस्था (World  Order) को किसी ईश्वरीय शक्ति के सहारे नहीं छोड़ देते हैं| तब हमलोगों की नैतिक जिम्मेवारी बनती है कि हमलोग विश्व व्यवस्था को समुचित ढंग से चलावें| इसी व्यवस्था के लिए हमें सत्य, अहिंसा, प्रेम, मैत्री, करुणा आदि का सहारा लेना पड़ता है| “पारिस्थितिकी न्याय” (Ecological Justice) की अवधारणा इसी पर आधारित है| जब हम ईश्वर के अस्तित्व को मन से नकार देते हैं, तो हमें अपने सोच, व्यवहार एवं कर्म पर भरोसा करना पड़ता है| मुझे भी याद आया कि सर्न (CERN) के वैज्ञानिकों ने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हुए एक कण (Particle) – हिग्स बोसॉन (Higgs – Boson) का नाम ही ‘गॉड पार्टीकल’ रख दिया है|

इतना कहने के बाद उमेश जी "आत्मा" और "पुनर्जन्म" पर आ गए| उन्होंने आत्मा को साजिश बताया और पुनर्जन्म को धोखा कहने लगे| उसने कहा - "कर्मवाद" का सिद्धान्त भी आत्मा और पुनर्जन्म की मान्यता का ही विस्तार (Extension) है। मेरा मन अब  बेचैन होने लगा, वे हमारी तथाकथित महान परम्परा की जड़ें खोद रहे थे| फिर भी मैं कुछ नया सुनने की उम्मीद में चुप था| उन्होंने कहा- “आत्म” (Self) होता है, परन्तु आत्मा (Soul) एक साजिश है| इनके अनुसार पूर्व प्रचलित आत्म (Self) का धर्म के उदय के समय सजिश्तन उपयोग कर पुनर्जन्म में ‘आत्मा’ के साथ स्थापित कर दिया गया| अब आदमी का सुख, दुःख, समृद्धि और सम्मान आदि सभी चीजें आत्मा एवं पुनर्जन्म के सहारे जाति और वर्ण से जुड़ गया| अब आप भी इसका खेल समझ गए होंगे|

मैं चुप ही था| वे अनित्यता (Non Eternity) पर यानि नित्यता के खंडन पर आ गए थे| इसका अर्थ समझाते हुए उन्होंने कहा – इस संसार में कुछ भी नित्य (Eternal) नहीं है अर्थात कुछ भी स्थिर (Constant) नहीं है| सब कुछ बदलता रहता है| मुझे भी याद आया कि अल्बर्ट आइंस्टीन ने किसी भी वस्तु के स्थान निर्धारण (Position) में “समय” (Time) को भी एक विमा (Dimension) बता कर स्थान निर्धारण को चार विमीय (फोर Dimensional) बना दिया| इस बदलने के कांसेप्ट से कोई भी कुछ भी पा लेने का विश्वास कर सकता है|

वे अब भाग्य, जादू और करिश्मा पर आ गए| मैं भी इसके आधार जानने को उत्सुक था| उन्होंने बताया कि सर, हर घटना का कोई तार्किक कारण अवश्य होगा| इन जादू, भाग्य आदि में भी “कार्य – कारण” सम्बन्ध (Cause – Effect Relation) होता है| लेकिन जादू में कारण का प्रभाव इतना तेजी से घटित होता है कि लोग उसे समझ नहीं पाते और कारण के परिणाम को जादू करिश्मा पर ‘वाह वाह’ करने लगते हैं| इसी तरह भाग्य में कारण का प्रभाव इतना धीमी गति वाला होता है, कि लोग कारण के परिणाम को भाग्य का फल समझ बैठते हैं| समझदार ठग इन्ही मनोवैज्ञानिक तथ्यों का उपयोग कर पाखंड, ढोंग, अंधविश्वास और कर्मकांड जीवन के हर मोड़ पर घुसा देते हैं|

अंत में उन्होंने “सोच की शक्ति” को धम्म का केंद्र बताया| उनके अनुसार हर व्यक्ति का आज का जीवन उसके अब तक के सोच का प्रतिफल है| अब सोच बदल कर ही आगे का जीवन बदला जा सकता है| यह आज भी सत्य है| मैं भी विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ| आधुनिक भौतिकी के क्वांटम फील्ड सिद्धांत के “प्रेक्षक सिद्धांत” (Observer Theory) भी इसका समर्थन करता है|

मैं तो सन्न (Stunned) रह गया| इसमें कहीं भी कोई धर्म नहीं आया| यह तो सिर्फ विज्ञान है, एक शुद्ध विज्ञान| स्पष्ट हो गया कि यही आधुनिकता और विकास का आधार है| बाकी बातें तो लोगो को मुर्ख बनाने के लिए सजायी गयी लगने लगीं| फिर भी मैंने उन पर ब्रेक लगाने के उद्देश्य से पूछ ही बैठा – इन बातों का क्या आधार है? आप यह सब कहाँ से बोल रहे हैं? मेरा प्रश्न वाजिब था|

उन्होंने बताया कि उन सभी के सम्यक अध्ययन से यही मूल बातें निकलती है| “ज्ञान का उत्पादन ही मानव का धम्म है|” मुझे भी याद आया कि ‘तथागत’ के महापरिनिर्वान के एक सौ साल बाद ही उनके विचारों को संकलन हुआ था| उस समय के लोगों ने जो समझा था, उसी रूप में संकलित किया था| ये भाई साहब भी अपनी समझ से बता रहे थे| लेकिन इनकी सभी बातें पूर्णतया तार्किक है, और आधुनिक विज्ञान से संपुष्ट है|

अब मुझे मानना पड़ा कि बुद्ध का धम्म  बुद्ध के नाम से प्रचलित धर्म से भिन्न है| मैं तो मान लिया कि सभी वर्तमान धर्मों का वर्तमान स्वरुप सामन्त काल (Period of Feudalism) यानि नौवीं शताब्दी के बाद विकसित हुआ| तत्काल मुझे उमेश जी से सहमत होना पड़ा। लेकिन यदि आपके पास उमेश जी के विचारों के विरुद्ध कोई वाजिब तर्क, साक्ष्य और तथ्य हो, तो मुझे भी बताइगा। मैं उन तर्क, साक्ष्य और तथ्य के साथ उमेश जी को मुंह तोड जबाव देना चाहता हूं। लेकिन ध्यान रहे कि सिर्फ भावनाओं का सहारा मत लीजिएगा

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निरंजन सिन्हा|

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

सफलता का विज्ञान क्या है?

हर किसी को सफलता चाहिए| हर किसी को अपने लक्ष्य में सफलता मिलनी ही चाहिएक्या सफलता का कोई विज्ञान भी हैया सफलता जन्म पर आधारित है, यानि वंशानुगत होता हैया किसी पूर्वजन्म का फल हैया किसी ईश्वरीय शक्ति की इच्छा का परिणाम है? क्या कोई भी साधारण आदमी इस सफलता की क्रिया विधि (Process/ Mechanics) को समझ कर और उसका अनुकरण/ अनुपालन कर इसे पा सकता हैक्या इसे समझ कर कोई भी एक कौशल की तरह इसे विकसित कर सकता है? यदि हाँ में उत्तर हैतो कैसेइसे जानने एवं समझने के लिए ही यह संक्षिप्त आलेख प्रस्तुत है -

इसके लिए आपको अपने सोच में कुछ मूलभूत एवं मौलिक अवधारणात्मक (Conceptual) बदलाव लाना होगाआपको सफलता के पथ पर अग्रसर होने के लिए निम्न पांच बातें समुचित ढंग से समझनी होगी। यही पांच बातें समझना ही सफलता के विज्ञान” (The Science of Success) का मूल और मौलिक आधार है, जो निम्न है --

      1. ईश्वर में अविश्वास: इसके लिए आपको ईश्वर (God) की अवधारणा (Concept), उस अवधारणा का उद्देश्य (Purpose) यानि मंशा, उसकी क्रिया विधि (Mechanics) और उसकी आवश्यकता (Necessity) को समझना होगाहमारे कहने का सीधा तात्पर्य यह हैकि आपको ईश्वर के होने के विश्वास को खंडित (Destroy) करना होगा| इसके बाद ही आप अपने ऊपर विश्वास करेंगे और आगे बढ़ेंगेइससे आप अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligence), यानि प्राकृतिक शक्तियों की प्रकृतिस्वाभाव एवं क्रिया विधि को समझने को प्ररित होंगेईश्वर में विश्वास नहीं करने के बाद ही आप अपने सोचकर्म एवं व्यवहार की उपयोगिता तथा उसकी क्रिया विधि पर विचार कर सकते हैं| हां, ध्यान रखें, अनन्त प्रज्ञा यानि प्राकृतिक शक्तियों का मानवीयकरण (Personification) को ही ईश्वर कहा जाता है, जो स्पष्टतया एक बौद्धिक घोटाला है। स्पष्ट है कि ईश्वर और अनन्त प्रज्ञा यानि प्राकृतिक शक्ति, दोनों अलग अलग अवधारणा है, जो एक दुसरे से मिलता जुलता हुआ दिखने के बाद भी बहुत बारीक़ ढंग से अलग है|  इस अनन्त प्रज्ञा यानि प्राकृतिक शक्तियो के मानवीयकरण की आवश्यकता किसी व्यक्ति को ईश्वर और मानव के बीच मध्यस्थ (Middle Man) बनने/ बनाने के लिए ही होती है। जब आप ईश्वर की व्यवस्था में विश्वास नहीं करतेतब आप विश्व व्यवस्था की नैतिक जिम्मेवारी को गंभीरता से समझते हैंतब ही आप अपनी प्रकृतिदूसरे आदमी (समाज) एवं स्वयं आत्म के सबंध को समझते एवं मानने में सक्षम हो पाते हैं|

    2. पुनर्जन्म एवं आत्मा में अविश्वास: आत्मा (Soul) और पुनर्जन्म (Reincarnation/ Rebirth) दोनों एक ही सिक्के के दो पक्ष हैंअर्थात यह दोनों एक दूसरे से घनिष्ठ रूप में जुड़े हुए हैंआत्म (Self) तो होता है, परन्तु इससे मिलता जुलता शब्द 'आत्मा' (Soul) एक सांस्कृतिक शोषण का उपकरण (Tool) है और एक सांस्कृतिक षड़यंत्र है। कुछ लोग अंग्रेजी के Spirit एवं Self का अनुवाद धूर्तता से "आत्मा" करते हैं। आत्मा एवं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करने से आपको अपने वर्तमान जन्म के सोचकर्मएवं व्यवहार के लिए किसी पूर्वजन्म की निर्भरता की आवश्यकता नहीं होगीमतलब यह कि यदि आपको सफलता इस जन्म में चाहिएतो आपको पुनर्जन्म एवं आत्मा में विश्वास नहीं करना होगा| इस ‘आत्मा’ एवं ‘पुनर्जन्म’ में विश्वास के कारण आप बेमतलब के लम्बे समय के इन्तजार (अगले जन्म) में समय बर्बाद नहीं करेंगे। इसके बाद ही आप इस जन्म में अपने सोचकर्म और व्यवहार पर विचार-विमर्श करने के लिए सही मायनों में प्रेरित होंगेवैसे आपको पूर्व के किसी जन्म के आधार वाली ठगी या अन्य दूसरे प्रकार वाली ठगी के आधार पर सफलता नहीं मिलती है। यदि आपको दूसरो को भ्रमित (Confuse) करने यानि ठगने (Cheat) के लिए अपनी सफलता का कारण अपना पुनर्जन्म या पूर्व आत्मा का कर्म एवं फल बताना है, तो आप उसको ठगने के लिए प्रयोग कर सकते हैंनादान इस पर बहुत ही आसानी से विश्वास भी करेंगेइस पुनर्जन्म एवं आत्मा में विश्वास से परंपरागत 'व्यवस्थाको भी अपनी यथास्थिति ( Status quo) बनाये रखने में कामयाबी मिलती हैजो उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य भी होता है। आत्मा और पुनर्जन्म की कहानी से ही कर्मवाद सिद्धांत को स्थापित किया गया है, जो इस जन्म के कर्म को अगले जन्म तक ले जाता है।

          3. नित्यता में अविश्वास : नित्यता (Eternity) में विश्वास का अर्थ हुआ कि सब कुछ स्थायी (Permanent) हैऔर इसमें कोई बदलाव संभव नहीं हैनित्यता में विश्वास करने से आप निराशा में डूब जाते हैंक्योंकि तब फिर आपको अपनी स्थिति में बदलाव की कोई आशा नहीं दिखती| आज इस वैज्ञानिक युग में यह स्थापित है कि इस चार विमीय (Four Dimensions – t, x, y एवं z अक्ष) ब्रह्माण्ड (गणितीय आधार पर कुल 12 विमाएँ मान्य है) में सब कुछ सदैव बदलता रहता हैकुछ भी स्थिर एवं स्थायी नहीं है, क्योंकि कोई विमा तो सदैव स्थिर नहीं रह सकती हैयह सत्य और तथ्य आपके भविष्य की सफलता की संभावना को दिखाता हैऔर उसे सुनिश्चित भी करता है| नित्यता के नियम के द्वारा ईश्वर और ईश्वरीय नियमों को स्थायी साबित करने की कुचेष्टा होती है, या की जाती है।

     4. भाग्य एवं जादू में अविश्वास : भाग्य (Fate) एवं जादू /करिश्मा (Magic/ Miracle)  में आपका विश्वास किसी भी 'कार्योया 'परिणामों' के किसी पूर्व की कारण के (Cause/ Reason) होने की आवश्यकता को समाप्त कर देता हैअर्थात जब आप भाग्य या जादू/ करिश्मा में विश्वास करते हैं, तब आपको अपने या किसी दुसरे के द्वारा किये गए कारणों को जानने या करने की आवश्यकता नहीं होती है| जब कोई आदमी किसी कार्य/परिणाम  ( Effect /Result) के वास्तविक कारण को नहीं समझ पाता हैतो वह उसे भाग्य एवं जादू/ करिश्मा से होना समझता हैजब आप इस भाग्य एवं जादू/ करिश्मा में विश्वास करते हैंतो आप 'कार्य-कारण'(Cause & Effect) के वैज्ञानिक सिद्धांत एवं उसकी प्रक्रिया को नहीं समझ पाते हैंइसी कारण आप ढोंगपाखंडअन्धविश्वास एवं कर्मकांड में उलझ जाते हैंऔर आप ठगे जाते हैंजब आप इनमे विश्वास नहीं करते हैंतो आप कार्य /परिणाम का वैज्ञानिक कारण खोजते एवं समझते हैंयही मानसिकता (Mentality) विज्ञान का आधार हैऔर उसकी उत्पत्ति एवं विकास का कारण है|

         5. सोच/ विचार की शक्ति में विश्वास: जब आप किसी ख़ास चीज या विषय पर मन को स्थिर कर उसके विभिन्न पक्षों का अध्ययन करते हैंतो इसे उस चीज या विषय पर सोचना कहते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जब आप कहीं या किसी विषय पर ठहर जाते हैं, तब आप उसके गहराई में उतर जाते हैं|  ‘सोचने’ की श्रृंखला को ही ‘विचार’ कहते हैंआज आप और हम जो कुछ भी हैंअपने पूर्व के सोच का परिणाम ही हैंअपने सोच को बदल कर ही आप और हम अपने लक्षित उद्देश्य को पा सकते हैं| भौतिकी के क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत (Quantum Field Theory) का 'प्रेक्षक सिद्धांत' (Observer Theory) यही स्थापित करता है| यह सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि कोई सोच एवं विचार ऊर्जा का एक स्वरूप है, जिसके स्थिर अवलोकन से वह ऊर्जा पदार्थ में बदल जाता है, प्रेक्षक का सिद्धांत है। जब आप अपने सोच की शक्ति पर विश्वास करते हैंतो आप अपने सोच को नियंत्रित नियमित एवं परिवर्तित करते हैं, या कर सकते हैंतब आपका आपके भविष्य पर भी नियत्रण होता है|

उपरोक्त को जानने एवं समझने से यह स्पष्ट है कि यह संसार किसी दैवीय शक्ति या अन्य समतुल्य व्यवस्था पर निर्भर नहीं हैयह संसार वस्तुत: निम्न 'त्रि-संबंध' (Tri – Relations) पर निर्भर है ---

        1. यह संसार 'आदमीएवं 'प्रकृति' (Nature) के सम्बन्ध पर निर्भर करता है। (चार्ल्स डार्विन)

        2. यह संसार 'आदमीएवं 'आदमी' (समाज) के सम्बन्ध पर निर्भर करता है। (कार्ल मार्क्स)

        3. यह संसार 'आदमीएवं उसके 'आत्म' (Self) के सम्बन्ध पर निर्भर करता है (सिग्मंड फ्रायड)

इसीलिए आदमी का प्रकृति से सम्बन्ध संतुलितसौहार्दपूर्ण एवं सामंजस्यपूर्ण अवश्य होना चाहिएजिसे हम पारिस्थितिकी न्याय” (Ecological Justice) भी कहते हैंइसमें अन्य जीवों एवं वनस्पतियों सहित उस पर्यावरण में उर्जा प्रवाह के महत्व को समझना और उसे न्यायपूर्ण स्थान देना जरूरी हैआदमी और आदमी के सम्बन्ध को आधुनिक, वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील बनाने के लिए ही समाज में सत्यअहिंसाप्रेमकरुणामैत्रीएवं दान आदि की भावना एवं व्यवहार की जरूरत होती है| आदमी और आदमियों (समाज) के संबंध उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों तथा उनके अंतर्संबंधों से प्रभावित एवं संचालित होती है। अपने “आत्म” को जानने एवं समझने और उसकी गत्यात्मकता (Dynamism) को समझने के लिए ही 'आत्म अवलोकन' (Self Observation) जरूरी हैइस आत्म-अवलोकन की विधि को ही “विपस्सना” कहते हैं|

यदि आप ऐसा नहीं करके भी सफलता पा रहे हैंतो आप अपनी संभावित क्षमता के एक छोटे से अंश पर ही सीमित हैंऔर आप अपने को धोखा (Deception) दे रहे हैं|

जब आप उपरोक्त बातों को समझते हैंतो आप में सामान्य बुद्धिमता’ (General Intelligence)भावनात्मक बुद्धिमता’ (Emotional Intelligence), सामाजिक बुद्धिमता’ (Social Intelligence), एवं बौद्धिक (विवेकी) बुद्धिमता’ (Wisdom Intelligence) का उत्पादनविकास एवं सम्वर्द्धन होता हैइसे ही 'ज्ञान का उत्पादनभी कहते हैं| इसी ज्ञान साधना को प्राप्त करने के लिए ही बुद्ध का “आष्टांगिक मार्ग है|

सफलता के विज्ञान के लिए आपको समझना होगा कि ........

मनुष्य में ज्ञान का अभाव ही

उसके सभी प्रकार के दुखों का कारण है|

ज्ञान ही सभी दुखों का निदान है|

किसी भी दुःख का एक ही कारण है कि उस व्यक्ति की आन्तरिक अवस्था उसकी बाह्य अवस्था के अनुकूल नहीं होती है। और दोनों अवस्थाओं में सामंजस्य ही दुखों का निवारण है।

यही तथागत बुद्ध के 'धम्मका सार (Essence) है|

और यही सफलता का शुद्ध विज्ञान है|

ज्ञान का उत्पादनविकास, सम्वर्द्धन एवं नियंत्रण करना ही मानव का वास्तविक “धम्म” है| बुद्ध के 'धम्मके बारे में अन्य सभी प्रचलित बातें सतही (Superficial) हैबाजारू (Marketable) हैआंशिक (Partial) और दिखावटी (Showy) हैं| बुद्ध के धम्म को प्रचलित धर्म के रूप में प्रस्तुत करना बुद्ध के प्रति एक महान नाइंसाफी (Injustice) है| वस्तुत: सभी धर्मों की उत्पत्ति ही मध्यकालीन है।

सफलता के इस विज्ञान को धर्म के वर्तमान किसी भी स्वरूप से कोई लेना-देना नहीं हैआज के प्रचलित सभी धर्मों (बौद्ध धर्म सहितबौद्ध धम्म नहीं) का वर्तमान स्वरूप नौवीं शताब्दी के बाद अर्थात सामन्तवाद की उत्पत्ति के साथ ही आया| अत: सफलता के इस विज्ञान को किसी भी रूप में किसी भी धर्म से नहीं जोड़ा जाना चाहिए| यदि व्यवस्थित एवं विवेकपूर्ण ज्ञान ही विज्ञान है, तो यही सफलता का विज्ञान है|

निरंजन सिन्हा

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सत्ता ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ से क्यों डरता है?

‘ सत्ता ’ में शामिल लोग ही असली ‘ शासक ’ ‘ वर्ग ’ कहलाते हैं , होते हैं।   तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि   ‘ सत्ता ’   क्या है और   ‘ शासक ...