आन्दोलन
(Movement)
में ‘दोलन’ (Oscillation/ Swinging/
Wavering) शब्द और ‘अंतर’ (Inter) शब्द है| अर्थात सत्ता एवं
व्यवस्था में दोलन, बदलाव आदि होना| यह किसी व्यवस्था या सत्ता के किसी अन्याय, शोषण या अनियमितता के बोध (Perception/
समझ) के खिलाफ पैदा हुआ जनता का आक्रोश होता है, जो उस अन्याय, शोषण एवं अनियमितता को समाप्त करना
चाहते हैं| यह संगठित एवं सुनियोजित हो सकता है
या स्वत:स्फूर्त भी हो सकता है| इसका उद्देश्य सत्ता या
व्यवस्था में अपेक्षित सुधार या परिवर्तन होता है| इसका
क्षेत्र राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक, धार्मिक, पर्यावर्णीय
या वैज्ञानिक हो सकता है|
जब
कोई बड़ा बदलाव बहुत कम समय में हो जाता है, उसे ही क्रान्ति (Revolution)
कहते हैं| किसी के दैनिक जीवन का हलचल या जीवन
किसी तरह जी लेने का प्रयास 'संघर्ष' (Struggle) है, आन्दोलन नहीं| आन्दोलन (Movement) सामूहिक संघर्ष है,
जो संगठित, सुनियोजित एवं लक्षित होता है|
संघर्ष एवं आन्दोलन एक ही प्रक्रिया के स्वरूप की दो भिन्न अवस्थाएं
हैं| जब संघर्ष सामूहिक हो जाता है, आन्दोलन
बन जाता है| सामान्यतया आन्दोलन का उद्देश्य समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व एवं न्याय पाना होता है|
भारत
सिर्फ विवधताओं का ही देश नहीं है, यह एक
असमानताओं एवं अनियमितताओं का भी पुरातन देश है| पुरातन देश
है, इसलिए असमानताएं और अनियमितताएं भी जटिल (Complex)
हैं, स्वरूप (Pattern) भी
सांस्कृतिक है, और इसीलिए इसका निदान भी सरल नहीं है|
अक्सर ये असमानतायें और अनियमितताएं अपने सांस्कृतिक आवरण (Veil) में सामान्य जनों को ठीक से दिखती भी
नहीं है| इस तरह ये तमाम
सारी अमानवीय और अवैज्ञानिक व्यवस्थाएं भी अपने सांस्कृतिक आवरण में शोषितों
को गौरवमयी, सनातन, अनुकरणीय और सराहनीय दिखती हैं|
इन्हीं विभिन्न स्वरूपों वाले अन्यायों, शोषणों एवं अनियमितताओं को समाप्त करने लिए सुनियोजित या स्वत:स्फूर्त
टाईप के आन्दोलन होते रहते हैं| भारत में संगठित एवं
सुनियोजित आन्दोलन ही अधिक हैं|
वस्तुत:
मेरा विषय नादानों (Ignorant/ Silly) का आन्दोलन
है,
जिनकी संख्या भारत में सबसे अधिक है| समाज में
कुछ लोग धूर्त होते हैं, कुछ मूर्ख होते हैं और बहुसंख्यक
नादान होते हैं। धूर्त वे हैं जो सब बातों को समझते
हुए नादानों एवं मूर्खों का भावनात्मक शोषण (Emotional Exploitation) कर अपने हित (Interest)
के मूल्य पर समाज को ठगते हैं| मूर्ख वे होते हैं जो भावनात्मक (धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि) बातों की आड़ में बहका (Deceive) लिए
जाते हैं, या फिर पशुओं की तरह हांक लिए जाते हैं|
कुछ लोगों को मूर्ख कहना अच्छा नहीं लगता, इसलिए
उनको नादान कह कर संबोधित किया जाता है|
पर
इन नादानों को पता ही नहीं है कि उनका आंदोलन वास्तव में कहां जा रहा है,
और किसके हितों की पूर्ति कर रहा है? इन
नादानों को लगता है कि इनका आन्दोलन एकदम सही दिशा में जा रहा है और सही रणनीति के
अनुसार चल रहा है| उन्हें यह भी लगता है कि वे अब जल्दी ही
अपने लक्ष्य को पाने वाले भी हैं, और उनका शोषण एवं अन्याय
समाप्त होने वाला है| इन नादानों
को इस बात का अंदाजा भी नहीं होता कि उनका आन्दोलन बौद्धिक रूप में अपहृत (Hack) कर लिया गया भी हो सकता है|
इनको भटकाने के लिए इनके अल्पसंख्यक किन्तु शातिर बुद्धि वाले
विरोधी मामूली-सी बातों को उछाल कर ऐसा भ्रमजाल उत्पन्न कर देते हैं, जिससे ये नादान आंदोलनकारी सफल हो जाने का और अपने आन्दोलन को सही समझने
का झूठा और धोखे से भरा हुआ अहसास भी पा लें| उपरोक्त झांसे
में फंसकर वे लोग अपना कीमती समय, पूरी ऊर्जा, उत्तम कोटि के संसाधन और पर्याप्त धन के साथ साथ अपना बढ़िया जवानी बर्बाद
करते रहते हैं। समस्या जस का तस बना रहता है और समय निकलता जाता है|
ये
आंदोलन करते हैं बेहतर व्यवस्था और वैज्ञानिक विकास के लिए,
परन्तु वास्तव में कोई बेहतरी और विकास नहीं होता। इनके आंदोलन को
कोई धूर्त अपने एजेंडे के अनुसार अपने ढंग से मोड़ देता है, या
इनकी मूर्खतावश इन्हें बहका देता है। नादानों का
आंदोलन जिसके विरोध में होता है,
वस्तुत: यह अप्रत्यक्ष रूप में उसी का समर्थन करता हुआ होता है,
जिसका कि वे विरोध करते दिखते हैं।
ये
नादान समाज के महान विभूतियों के नाम लेकर उनके सन्देश एवं समझ को बिगड़ कर आगे
बढ़ते हैं|
ये नादान आन्दोलनकारी अपने विरोधियों की गलत
अवधारणाओं और आधार का ही उपयोग कर उनके विरुद्ध बढ़ते हैं, और कब वे उनके जालों में उलझ जाते हैं, उनको खुद पता नहीं चलता है|
इन नादान आन्दोलनकारियों के
स्वार्थी नेता सब कुछ समझते हुए अपने घोषित विरोधियों के हाथों अंदरखाने में बिके
होते हैं| इन नेताओं को आर्थिक लाभ के साथ-साथ तथाकथित
सामाजिक सम्मान भी मिलता है, परन्तु इनका समाज अपना समय,
संसाधन, उर्जा और धन गवां कर वहीं या उस के आस
पास ठहरा हुआ होता है| कोई ढंग का बदलाव नहीं हो पाता है|
अब
मैं आपको कुछ उदहारण दे रहा हूँ, कृपया इस पर गौर
करते हुए स्थिरता से अवलोकन किया जाय|
शब्दों में भी सापेक्षता (Relativity) को और इसके प्रभाव को समझना है|
मैंने
होली के अवसर पर अपने एक बौद्धिक एवं प्रगतिशील कर्मचारी नेता मित्र को ‘प्रकृति बदलाव’ एवं ‘फसलों के
आगमन’ के अवसर पर रंगों की शुभकामनाएं भेजी| ये मित्र मिथक विरोधी और तर्कशीलता के समर्थक हैं| उन्होंने
मुझे मैसेज किया किया कि वे एक महिला (होलिका) के
दहन के अवसर पर मेरी बधाई स्वीकार नहीं कर सकते हैं| मैंने कहा कि तब आप होलिका एवं
होलिका दहन की ऐतिहासिकता को स्वीकार करते हैं, और तब आप
नरसिंह (विष्णु) अवतार को स्वीकार करते हैं| तब आप विष्णु के
अन्य अवतार को भी मानते हैं, तो ये बातें इतिहास की किताबों
में क्यों नहीं है? तब आप मिथक और इतिहास के अंतर को नहीं
समझते हैं, और इसी तरह मिथक एवं विज्ञान के अंतर को भी नहीं
समझते हैं| निर्णय आप पाठकों का है|
कुछ
लोगों ने भगवान राम के पूजन का विरोध
करने के लिए राक्षस (वैसे रक्षा करने
वाले के लिए यह शब्द निर्मित है – रक्षक) रावण का पूजा शुरू किया है| लोग फिर मिथक एवं इतिहास का अंतर नहीं समझते और इस दुश्चक्र में फंस जाते
हैं| वैसे आस्था भावना का विषय होता है और इसका उत्तर तर्क
से नहीं समझाया जा सकता है। क्योंकि भावनात्मक लोगो का
स्तर फ्रायड के “इड (Id)”
का होता है| इस पूजन में पांच
प्रतिशत लोग रावण को पूजने लगे और इस तरह इनके प्रतिद्वंदी “भगवान
राम” के ऐतिहासिक अस्तित्व को मान्यता देने लगे हैं| अब लोगो को दो विपरीत किनारों का विकल्प मिल गया, इसे
सही मानिये या उसे सही मानिये| मिथक समर्थकों का काम ये
तथाकथित प्रगतिशील एवं तार्किक लोग ही अपनी हास्यास्पद मूर्खतावश कर रहे हैं|
जरा ठहर कर इस पर ध्यान दिया जाय|
आजकल
भारत में बहुसंख्यको के बीच तथाकथित शब्द “मूल निवासी” बहुत प्रचलित है|
इसके सतही अर्थ और इसके निहितार्थ को ध्यान से विश्लेषण किया जाय|
मूल निवासी एक सापेक्षिक शब्द है जो विदेशियों के सन्दर्भ में
प्रयुक्त होता है| मूल निवासी का
सतही अर्थ इन तथाकथित आन्दोलनकारियों के लिए काफी आकर्षक एवं उपयोगी है, परन्तु निहित अर्थ इन्ही के लिए घातक और
विरोधी है| आज कोई विज्ञान के नाम पर तथा
ऐतिहासिकता के नाम पर मूल निवासी है, तो यह एक बड़ा धोखा है|
मूल निवासी की तथाकथित सत्यता से
विदेशियों की झूठी और काल्पनिक कहानी सही साबित होती हैं| इस कहानी
के अनुसार विदेशी आर्य भारत में आए थे, जो गुणों में श्रेष्ट, काबिल, उत्कृष्ट
एवं सर्वोच्च थे, क्योंकि वे विजेता थे| और उनकी जीनीय शुद्धता आज भी मूल निवासी की तरह ही शुद्ध विदेशी बना हुआ
है| ध्यान रहें कि मूल निवासी भी जीनीय रूप से
शुद्ध हैं, यानि इनका विदेशियों से कोई संकरण (Hybridization)
नहीं हुआ है| अत:
विदेशी आर्यों की जीनीय सर्वोच्चता, उत्कृष्टता एवं गुणवता आज भी यथावत है और इसीलिए वे लोग ही आज भी शासन
करने योग्य हैं| अब आप समझ सकते हैं, कि मूलनिवासी की अवधारणा के माध्यम से
आप उनका वास्तव में समर्थन कर रहे हैं या फिर विरोध कर रहे हैं| वैसे
मूल निवासी की अवधारणा पूरी तरह से अवैज्ञानिक है, और साथ ही
साथ राष्ट्र विरोधी भी है|
इसी
तरह बाबा साहेब आम्बेडकर के स्लोगन –
"Educate, Agitate, Organise" में बहुत बड़ा बौद्धिक घपला किया गया है, जिससे
बहुजन समुदाय के नादान आंदोलनकारी पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं।| बाबा साहेब ने उपरोक्त स्लोगन 1942 में नागपुर के एक अधिवेशन में कहा था|
अब नादान आन्दोलनकारी अपने विरोधियों के बौद्धिक जाल में फंसकर "Educate,
Organise, Struggle" का उपयोग करते हैं| इन भटके हुए नेताओं ने इनके स्लोगन के मूल शब्द
क्रम को बदल दिया और शब्द भी बदल कर संघर्ष कर दिया, मानो बाबा साहेब को ‘Agitate’ एवं ‘Struggle’
में अंतर समझ में नहीं आता था, और इन नेताओं
को समझ में आ गया| इन्होने क्रम भी बदल दिया, मानो बाबा साहेब को क्रम की महत्ता का अंदाज नहीं था| इन मूर्खतापूर्ण बदलावों को आप क्या कहना चाहेंगे?
ऐसे कई उदहारण है, पर
समय एवं शब्दों ने सीमित रहने की बाध्यता तय कर रखी है|
ये नादान लोग उत्साहित हैं, बेचैन हैं, तथाकथित शिक्षित हैं, पर सम्यक विचार करने और विचार- विमर्श के लिए इनके पास समय और धैर्य दोनों
नहीं है| वे दौड़े जा रहे हैं, लगे हुए
हैं| उन्हें लगता है कि यदि ऐसा
हो जाता, वैसा हो जाता तो वे सफल हो जाते| वे सिर्फ काल्पनिक आदर्शों की बातें करते हैं, ये मानवीय मनोविज्ञानों को न तो समझते हैं और न ही समझने की
जरुरत समझते हैं| इस तरह वे नेता
बहुसंख्यक नादानों को बहकाने में सफल रहते हैं और ये लोग मृगतृष्णा में फंसे रहते
हैं| ऐसे ही आन्दोलन चलता रहेगा और नादान अपना समय, धन, उर्जा, संसाधन और जवानी बर्बाद करते रहेंगे|
(आप मेरे अन्य आलेख www.niranjansinha.com या niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)
निरंजन सिन्हा