भारतीय
संस्कृति में किसान को अलग ढंग से
परिभाषित किया गया है। उसे ‘सभ्यता की शान (Prestige)’
कहा गया है| मतलब यह कि किसी भी सभ्यता एवं
संस्कृति की शान "किसान" ही हैं|
अंग्रेजी में 'फारमर' (Farmer) फार्म अर्थात खेतों में या क्षेत्रों में उत्पादन करने वाला ही किसान हैं|
दोनों ही अर्थों में एक ही भाव है| किसी भी
सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत तभी होती है, जब किसान अपना
खाद्य उत्पादन इतना अधिक (Surplus) कर लेता है, कि गैर कृषि कार्यों में लगे लोगों को भी खाना (भोजन) सुनिश्चित हो सके|
तब ही उस समाज में चिन्तक (Thinker) कार्य कर
पाते हैं|
किसान व्यवस्था के प्राथमिक स्तर (level) या प्रक्षेत्र (sector) पर कार्यरत हैं, जैसे कृषि, बागवानी,
पशुपालन, मत्स्य पालन, वानिकी
या अन्य समतुल्य कार्य। किसानों के पास उपरोक्त
कार्यों का समेकन (integration/ collection) भी
हो सकता है, या उपरोक्त में से किसी एक ही में विशेषज्ञता
हासिल करते हुए वह एक ही क्षेत्र तक सीमित रह सकता है। अर्थात ये किसान सिर्फ कृषि
कार्य करतें हों या सिर्फ पशुपालन या कोई अन्य या फिर इन सभी या इनमें कुछ का
समेकन। कहने का तात्पर्य यह है कि किसान प्रकृति
आधारित उत्पादन का संग्राहक (Collector)
होता है और प्रकृति आधारित उत्पादन को समर्थित (Support), नियंत्रित (Control) और निदेशित (Regulate) करता है। यह विशेषताएं किसान की अवधारणा
और परिभाषा को स्पष्ट कर देती हैं।
सतही तौर पर किसानों से संबंधित कई समस्याएं दिखती हैं, जैसे वित्तीय समर्थन का अभाव;
तकनीकी सुधार के प्रसार पर ध्यान नहीं, आधुनिक
उत्पादन विधि एवं प्रबंधन का अभाव, सिंचाई, बीज, खाद, कीटनाशकों का अभाव;
जोत आकार, फार्म प्रबंधन, भंडारण, बाजार आदि से सम्बंधित समस्याएं| परन्तु समझने की बात यह है कि समस्याओं का मूल क्या है? अर्थात इसका जड़ कहाँ है?
समस्याओं की जड़ यह है कि व्यवस्था के 'ज्ञान प्रक्षेत्र' (Knowledge Sector) और 'नीति निर्धारण प्रक्षेत्र' (Policy
Making Sector) के लोग किसानों की समस्याओं पर समुचित ध्यान नहीं
देते हैं। ये लोग इन समस्याओं के प्रति
संवेदनहीन क्यों हैं, और इसकी उपेक्षा क्यों कर
रहें हैं? ये लोग किसानों की समस्याओं के प्रति समुचित ध्यान
ही नहीं देते हैं| इनकी गरीबी, अशिक्षा,
बीमारी, कम उत्पादकता, अन्धविश्वास
एवं अत्यधिक कर्मकांड का बोलबाला तथा इनके अवैज्ञानिक मानसिकता की तो कोई चर्चा ही
नहीं है| किसानों को तथाकथित गौरवशाली संस्कृति के नाम पर कई
प्रकार के शोषणकारी कर्मकाण्ड, संस्कार, ढोंग, अन्धविश्वास और पाखंड में लिप्त रहने को छोड़
दिया गया है|
इसे
अच्छी तरह समझने के लिए "व्यवस्था" के स्तर को समझा जाय|
व्यवस्था के पांच स्तर होते हैं – प्राथमिक (Primary), द्वितीयक
(Secondary), तृतीयक (Tertiary), चतुर्थक
(Quaternary), पंचक (Quinary) , जो एक
निश्चित प्रक्रम (Process stage) में हैं|
किसान
प्राथमिक स्तर पर कार्यरत हैं|
जैसा कि आप भी जानते हैं, कि प्राथमिक क्षेत्र में प्रकृति से सीधे उत्पादन का प्रबंधन होता है| द्वितीयक क्षेत्र में प्राथमिक क्षेत्र से
प्राप्त वस्तुओं में मूल्य वर्धन किया जाता है, यानि
ओद्योगिक उत्पादन होता है| तृतीयक क्षेत्र में अन्य सेवाएँ
उपलब्ध करायी जाती हैं| चतुर्थक क्षेत्र ज्ञान (Knowledge)
का क्षेत्र है| पंचक यानि पांचवां क्षेत्र
नीति निर्धारण (Policy Determination) का है|
किसान परिवारों के लोग तो व्यवस्था के प्रथम, द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रों तक ही अपने को
सीमित रखते हैं| वे चतुर्थक एवं पंचक क्षेत्रों के बारे में
कदापि नहीं सोचते और इसीलिए उसमें प्रभाव जमाने के लिए उनकी कोई सोच या रणनीति भी
नहीं होती| इनका चौथे क्षेत्र और
पांचवें क्षेत्र पर बिल्कुल ही ध्यान नहीं है, और इसीलिए इस
स्तर पर किसान परिवारों का प्रभावशाली प्रतिनिधित्व शून्य के बराबर है।
परिणामस्वरूप इस स्तर पर संवेदनहीनता है और किसान पर्याप्त उपेक्षाओं का शिकार है।
अर्थात ज्ञान प्रक्षेत्र और नीति निर्धारण प्रक्षेत्र पर किसानों के सरोकारों की iपर्याप्त उपेक्षाएं हो जाती है, चाहे वह विश्व का कोई भी
संस्कृति हो। यह एक बहुत गंभीर तथ्य है, जिस पर रुक कर विचार
किया जाना चाहिए| जिन संस्कृतियों में उपरोक्त प्रकार की
उपेक्षा और संवेदनहीनता नहीं है, वे संस्कृतियां प्राथमिक
क्षेत्र में आत्मनिर्भर और मजबूत हैं। और इसीलिए विकसित संस्कृतियों की
अर्थव्यवस्था व्यवस्था के पांचों प्रक्षेत्रों में मजबूत और नवाचारी होती है।
उपेक्षाओं (Negligence) का दो साधारण उदहारण प्रस्तुत कर रहा
हूँ|
कुछ कृषि क्षेत्रों में साढ़ों (Bulles)
की संख्या बढ़ती जा रही है, जो खेतों की फसलों
को निर्बाध गति से खा रहे हैं और नष्ट कर रहे हैं| इन साढ़ों को
नष्ट नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ये तथाकथित महान
संस्कृति के नाम पर संरक्षित (Protected) हैं| ऐसी स्थिति इसलिए है कि नीति निर्धारक एवं ज्ञान क्षेत्र के लोग इन वंशों
के पशुओ को न तो पालते हैं और न ही संरक्षित करते हैं| ये तो
दूसरो के लिए सिर्फ नियम, कायदे और संस्कार बनाते हैं|
दूसरों के लिए अवैज्ञानिक एवं अनुत्पादक नियम बनाना आसान होता है|
दूसरा उदाहरण नीलगाय (Blue Cow) (घोड़पछाड़) का है, जो खासकर गंगा नदी घाटी उपत्यका में आतंक
फैलाए हुए है| इसे कोई तथाकथित वन्य पशुओं के संरक्षण के नाम
पर प्रबंधन नहीं कर सकता| यहाँ भी वही बात है कि नीति
निर्धारकों को किसानों की दुर्दशा से कोई प्रत्यक्ष मतलब नहीं है| ये दो उदाहरण हैं, जो नीति निर्धारकों की संवेदनहीनता
को रेखांकित करते हैं।
भारत
में वर्ण व्यवस्था और जाति संरचना के स्वरूप ने सामाजिक गतिहीनता पैदा कर दिया,
जिसने सामान्य लोगों को यथास्थितिवाद में छोड़ दिया है| परिणामस्वरूप जाति आधारित व्यवस्था के लोग न तो ज्ञान आधारित क्षेत्र में
और न ही नीति निर्धारण क्षेत्र में पर्याप्त प्रतिनिधित्व दे पा रहे हैं| जो जिस क्षेत्र में लगा हुआ है, वह बस वहीं लगा हुआ
है| व्यवस्था को नियंत्रित करने वाले लोग जो चौथे और पांचवें
क्षेत्रकों में कब्जा जमाकर बैठे हुए हैं, वे अपनी सामंतवादी
मानसिकता तथा अपने संकीर्ण वर्गीय हितों की वजह से व्यापक राष्ट्रीय हितों को
दरकिनार करते हुए, येन-केन प्रकारेण यथा स्थिति को बनाये
रखना चाहते हैं।
इतिहासकारों
ने 'सामंतवाद' पर लिखते हुए कहा है – किसानों को जीने- रहने के लिए पर्याप्त खाद्य
पदार्थ से अधिक होना भी व्यवस्था के सामंतवादी हितों को नुकसान पहुंचाता है| यदि किसानों को ढंग की
शिक्षा के लिए आवश्यक धन जमा हो जाय, तो वे शिक्षित किसान,
व्यवस्था पर भी प्रश्न करने लगते हैं| इससे सामंतवादी व्यवस्था और मानसिकता को कई तरह से नुकसान
पहुँचता है| शिक्षा से किसान
शिक्षित और जागरूक हो सकता है और कर्मकांड, अंधविश्वास को
त्याग सकता है| किसान के बच्चे वैज्ञानिक
बातें करने लगते हैं, और शोषण तंत्र को समझने लगते है,
और परिणामस्वरूप कई वैज्ञानिक एवं मानवीय अधिकारों की मांगे भी करने
लगते हैं| किसानों का उत्पादन बढ़ने से किसानों के बढ़ते धन
एवं परिणामस्वरूप उनमें शिक्षा और ज्ञान की वृद्धि से पोंगापंथियों (समाज में भ्रम
और अंधविश्वास फैला कर आजीविका कमाने वाला वर्ग) और सामंतों को खतरा उत्पन्न हो
जाता है| इसीलिए कई
इतिहासकारों ने "सामंतवाद" के बारे वर्णन करते हुए लिखा है कि किसानो से
अत्यधिक उपज हटाने के लिए प्रयाप्त तरीके ईजाद किए जायें, ताकि कोई किसान स्वतंत्र ढंग से सोच नहीं
सके| इसीलिए
किसानों से भू-लगान के अतिरिक्त सुरक्षा, युद्ध खर्च,
समारोह, पर्व, उत्सव,
यज्ञ-पूजा, आदि के नाम पर विभिन्न रूपों में
धन लिए जाने की अनुशंसा को वैधानिक बनाने की बात है| यह आज भी विभिन्न नामों से जारी है| सामंतवाद आज भी विभिन्न बदले हुए स्वरूपों में
जिन्दा है| कोई भी इन स्थितियों और तथ्यों का
किसी भी समय के किसानों की स्थिति एवं दुर्दशा से सम्बंधित कर देख और समझ सकता है|
वैसे आप भी एक सजग, समझदार और विवेकशील मनुष्य
हैं। अतः भारत के व्यापक राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए हम आप से भी
उपरोक्त तथ्यों पर गहराई से विचार-विमर्श करने की अपेक्षा रखते हैं।
(आप मेरे अन्य आलेख www.niranjansinha.com या niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)
निरंजन सिन्हा
शानदार 👏
जवाब देंहटाएंकिसान के समस्याएं को तो हर कोई दरकिनार कर देते है । अंग्रेज के समय से अभी तक उनका हनन होते आ रहा है ।जब वो अपने अधिकार की बार करते है ,तो न जाने लोग क्या क्या? अपशब्द बोल जाते है ।आपका ये तत्याथमक लेख हर जागरूक बायक्ति को समझना चाहिए
जवाब देंहटाएंआलेख में किसान के समस्याओं का क्षेत्रक उजागर से विश्लेषण रुचिकर व नवीन है,परंतु बेहद सामान्यीकरण का शिकार भी है।भारत एवं संपूर्ण प्रथम एवं द्वितीय विश्व में लोकतंत्र का तेज छरण हो रहा है।लोकप्रिय तानाशाह जनांदोलन को मीडिया की मदद से कुचल रहे हैं। किसानों की हालिया जीत ने सर्कार के तानाशाही पर तात्कालिक नियंत्रण लगाया है।
जवाब देंहटाएंशानदार विश्लेषण सर , एक नवीन और तर्कपूर्ण विवेचन।
जवाब देंहटाएंशानदार विश्लेषण
जवाब देंहटाएंExcellent writing Sir.
जवाब देंहटाएंWritten n presented very beautifully by you reverend Sir.....if pictures n graphs are used in the writing, blog will be more impressive, effective n attractive for readers....tnxx for making us aware from newer n newer facts💐🙏
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