रविवार, 19 दिसंबर 2021

भारत को आजादी क्यों मिली?

यदि इतिहास सामाजिक रूपांतरण (Social Transformation) का या विचार धारा में बदलाव का क्रमबद्ध ब्यौरा (Chronological Details) है, तो उसकी समुचित और वैज्ञानिक व्याख्या उत्पादन (Production), वितरण (Distribution), विनिमय (Exchange) एवं संचार (Communication) की शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों के आधार पर किया जाना चाहिए| भारत को आजादी मिली, यह भी एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है| इसलिए एक बार इसकी भी व्याख्या उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं संचार की शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों के आधार पर किया जाना चाहिए|

भारत एक साम्राज्यवादी शक्ति का उपनिवेश था| अब हमें साम्राज्यवाद और उपनिवेश को समझना होगा| साम्राज्यवाद (Imperialism) शासन व्यवस्था का एक नजरिया या दृष्टिकोण है, जिसके अनुसार कोई महत्वाकांक्षी राष्ट्र अपनी शक्ति और गौरव को बढ़ाने के लिए अन्य दुसरे देशों के प्राकृतिक एवं अन्य संसाधनों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेता है| यह हस्तक्षेप राजनितिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या अन्य किसी भी प्रकार का हो सकता है| जब इन नियंत्रित देशों में ही साम्राज्यवादी अपनी भौतिक उपस्थिति देते हैं, इसी को ही उपनिवेश (Colony) कहा जाता है| इन्ही उपनिवेशों के संसाधनों का दोहन करना ही साम्राज्यवादियों का मुख्य एवं एकमात्र उद्देश्य होता है|

साम्राज्यवाद के उर्घ्वाकार (Vertical) विभाजन यानि इसके उद्विकास के चरणों की कई अवस्थाएं हैं| इन्हें "वणिक साम्राज्यवाद", "औद्योगिक साम्राज्यवाद", "वित्तीय साम्राज्यवाद" और "डाटा साम्राज्यवाद" में चरणबद्ध किया जा सकता है| डाटा (Data) साम्राज्यवाद को 'सूचना का साम्राज्यवाद' भी कह सकते हैं| सूचना साम्राज्यवाद भौगौलिक क्षेत्रों में निर्धारित नहीं होता है, क्योंकि इसकी कार्यप्रणाली वित्तीय साम्राज्यवाद की तरह ही अदृश्य होता है। इसकी कार्यप्रणाली भी अलग किस्म की है और यह अभी भी विचारणीय अवस्था में है। यह संभाव्यता का क्षेत्र है।

वैश्विक इतिहास का एक अवलोकन किया जाय। वैश्विक इतिहास में वणिक साम्राज्यवाद और औद्योगिक साम्राज्यवाद बीत चुका है। वणिक (Mercantile) साम्राज्यवाद में वस्तुओं के व्यापार के लिए उपनिवेश पर राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित किया गया| यह यूरोपीय कम्पनियों का शुरुआती व्यापारिक काल था। भारत में यह काल मुख्यत: ब्रिटिश कंपनियों का काल था| 

इसके बाद ही औद्योगिक (Industrial) साम्राज्यवाद आया| इसमें औद्योगिक आवश्यकताओं के कच्चे माल की आपूर्ति करने और उत्पादित माल के खपत के लिए बाजार की आवश्यकता के लिए उपनिवेश पर राजनीतिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक, सामरिक एवं आर्थिक आधिपत्य स्थापित किया जाता रहा| यह काल कंपनियों के समाप्ति के बाद आया|

साम्राज्यवाद का तीसरा अवस्था 'वित्तीय साम्राज्यवाद' का है, जो अभी भी चल रहा है। इस पर 'सूचना साम्राज्यवाद' को प्रभावी होना है और हो रहा है। वित्तीय (Financial) साम्राज्यवाद में उपनिवेशों में सिर्फ वित्तीय आधिपत्य की आवश्यकता होती है; राजनीतिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक, सामरिक एवं आर्थिक आधिपत्य की आवश्यकता नहीं होती है| वित्तीय साम्राज्य में कच्चे माल की उपलब्धता, उत्पादन के  संयंत्र एवं उसके प्रबन्धन और उसकी बिक्री करने का कोई झंझट नहीं है। सिर्फ वित्त पर नियंत्रण करना होता है। इस प्रक्रिया में अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों, समझौते और वैश्विक संगठन के द्वारा कई विकासशील और अविकसित देशों के शासना प्रमुख दरअसल अपने देशों के प्रबंधक मात्र होते हैं, जिन्हें आम जनता प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति समझता है।

सूचनाओं के युग में इन सूचनाओं का संग्रहण, वर्गीकरण, विश्लेषण एवं निष्कर्ष निकाला जाता है और नए संदर्भ में इसका कार्यान्वयन किया जाता है| इस सूचना (Information) साम्राज्यवाद के उपनिवेश में राजनीतिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक, सामरिक, आर्थिक एवं वित्तीय आधिपत्य की कोई आवश्यकता नहीं होती है| ऐसा इसलिए है कि यह दोनों (वित्तीय एवं सूचना) साम्राज्यवाद अदृश्य (Invisible) होता है| अदृश्य चीजें आँखों (Eyes) से नहीं, मानसिक दृष्टि (Vision) से देखी जाती है| इसे मानसिक समझ से देखा और समझा जाता है| वित्तीय साम्राज्यवाद का भी स्वरुप यही है और इसी कारण इस ओर सामान्य जन का ध्यान भी नहीं जाता| इस वर्गीकरण के श्रेणी में "अन्तरिक्ष (Space) साम्राज्यवाद" को भी शामिल किया जा सकता है, जिसमे अन्तरिक्ष में उपनिवेश स्थापित करना शामिल होगा|इस दिशा में चीन की प्रगति सराहनीय है। यह निकट भविष्य का साम्राज्यवाद है।

इतना समझने के बाद हमें भारत में 1947 के समय की स्थिति को समझना है| दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था| वणिक साम्राज्यवाद और औद्योगिक साम्राज्यवाद के दिन लद चुके थे अर्थात इनकी कोई आर्थिक आवश्यकता नहीं रह गयी थी| इसी साम्राज्यवाद के लिए होड़ में दो विश्व युद्ध हुए थे| वित्तीय साम्राज्यवाद की आवश्यकताओं के कारण विश्व युद्ध के बाद कई देशों को राजनितिक स्वतंत्रता मिल गयी, जिसमे भारत भी शामिल था| यह साम्राज्यवाद का तीसरा अनिवार्य अवस्था रहा, जिसकी आवश्यकता को समझना है। वित्तीय साम्राज्यवाद में वित निवेश और वित्तीय नियंत्रण मात्र करना होता है, कोई दृश्य नियंत्रण नहीं यानि कोई भौतिक नियंत्रण की आवश्यकता नहीं होती है। लोग भी स्वतंत्रता सेनानियों के गुणगान तक अपने को सीमित रखते हैं और वित्तीय नियंत्रण और प्रबंधन का साम्राज्यवाद अपना काम निर्बाध जारी रखता है। इसी अदृश्य साम्राज्यवादी शक्तियों और आवश्यकताओं के कारण ही कतिपय देशों को तथाकथित आजादी मिली जिसमें भारत भी शामिल है।

मुझे तथाकथित संप्रभुता (Sovereignty) के सम्बन्ध में कोई टिप्पणी नहीं करनी है, क्योंकि वैश्विक अनुबंधों एवं उत्तरदायित्वों को निभाने में संप्रभुता की स्थिति सबको स्पष्ट है| जहां तक स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल लोगों के योगदान के बारे में है, उन्होंने ऐतिहासिक बलिदान दिया और वे सब हमारे लिए सम्मानीय हैं| इन्होने साम्राज्यवादी शासन को परेशान किया| साम्राज्यवादी इतिहासकार भी इस सम्बन्ध (वित्तीय साम्राज्यवाद) में चुप ही रहेंगे अर्थात स्वतंत्रता आन्दोलन को ही प्रमुख महत्व देते रहेंगे। क्योंकि वे नहीं चाहेंगे कि कोई वित्तीय साम्राज्यवाद को समझें। वित्तीय साम्राज्यवाद को जानना और उसकी क्रिया विधि को आम जनता को समझना साम्राज्यवादी हितों के विपरीत होगा। परन्तु हमें तो सब कुछ समझना चाहिए| मेरा उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुँचाना नहीं है, परन्तु मेरा उद्देश्य इतिहास की व्याख्या उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं संचार की शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों के आधार पर समझाना है, ताकि भविष्य को भी पहले ही समझा जा सके|

डाटा साम्राज्यवाद के बाद होमो सेपियन्स (आधुनिक मानव) के जीवन में साम्राज्यवाद के किसी दुसरे स्वरुप का अवतार नहीं होगा| ऐसा इसलिए होगा क्योंकि कृत्रिम बुद्धिमता, नैनो तकनीक, जेनेटिक्स इन्जीनियरिंग, न्यूराँन लिंक (Neuron and Computer Link) आदि के कारण इस शताब्दी में ही होमो ड्यूस (Homo Deus) का उद्विकास होगा| होमो ड्यूस के उद्विकास के बाद होमो सेपिएन्स (वर्तमान आधुनिक मानव) की कोई आवश्यकता नहीं रह जायेगी। यह वैसे ही है जैसे होमो सेपियन्स के आगमन के बाद पूर्ववर्ती होमो इरेक्टस और नियंडरथल को जाना पड गया था|

आज के सूचना युग में किसी भी जनता को यह भ्रम (Confusion) हो सकता है, कि उनके समाज या देश की व्यवस्था उसकी सरकारें चला रही है। ऐसे व्यक्तियों को इतिहास के निर्धारण की शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों को उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं संचार के आधार पर समझ लेना चाहिए| इस तरह आजादी का स्वरुप भी बदलता रहता है| किसी की राजनीतिक आजादी उसकी सांस्कृतिक, आर्थिक, वित्तीय, आदि आजादी से भिन्न हो सकता है अर्थात किसी की राजनीतिक आजादी उसकी सांस्कृतिक, आर्थिक, वित्तीय आजादी को समाहित किए बिना भी प्राप्त हो सकती है| इन बदलावों से निश्चिन्त व्यवस्थाएं अपने ही देश की बहुसंख्यकों को परास्त करने में व्यस्त है| ऐसे देश तथाकथित धर्म, जाति और और अन्य अवैज्ञानिक बातों में ही अपने देश की आबादी को उलझाएँ रखती है| ऐसी सरकारों को लगता है कि वे ऐतिहासिक विजयों की ओर बढ़ रही है, परन्तु ये अनजान सरकारें दूसरे अत्यंत विकसित देशों की अदृश्य चालों में फंसते जा रहे हैं| बड़े आबादी वाले देशों के प्रमुखों और जनता को लगता है कि उनकी पूछ (Importance) उनकी संस्कृति, या विकास, या शक्ति के आधार पर हो रही है| परन्तु उनकी पूछ (importance) की वास्तविक कारण उनकी बाजार (खरीदने) की शक्ति (Purchasing Capacity of Nation) होती है|

मेरे कहने का अर्थ है कि आजादी का स्वरुप बदलता रहता है| और इसका निर्धारण आर्थिक एवं वित्तीय शक्तियां करती है जिन्हें हमें अवश्य समझना चाहिए|

(आप मेरे अन्य आलेख      niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

8 टिप्‍पणियां:

  1. तो क्या सर.... हम फिर से गुलाम हो जाएंगे?

    जिन लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपना जीवन न्योछावर किया..... क्या भारत की आजादी में उसकी अत्यंत ही न्यून भूमिका थी?

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    1. भाई साहब थोड़े को बहुत समझिये जाति धर्म क्षेत्र भाषा आदि के मुद्दे असल षड्यंत्र पर चर्चा न हो, इसीलिए बनाये गये हैं। आजादी के बाद से अभी तक के घटनाक्रम पर नजर डालें तब ऐसा लगता है कि ऐसा संविधान, हरित क्रांति,विभिन्न दंगे, आर्थिक उदारीकरण इसी लिए आया या लाया गया व अप्रत्यक्ष रूप से आप और हम वही गुलाम ही हैं जो आप पूछ रहे हो🙏

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  2. सर आपने बहुत अच्छा शीर्षक चुना है। — "भारत आज़ाद क्यों हुआ?" इसको सिर्फ़ आंदोलन बनाम वैश्विक परिस्थितियों से नहीं समझा जा सकता। दोनों गहराई से जुड़े थे।

    आइए निष्पक्ष मूल्यांकन करते हैं, और प्रतिशत में बाँटते हैं ताकि क्लैरिटी रहे:


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    1. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन (≈ 40%)

    कांग्रेस, नेहरू, गांधी, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह जैसे नेताओं ने जन-आंदोलन खड़ा किया।

    भारत छोड़ो आंदोलन (1942), सविनय अवज्ञा, असहयोग आदि ने ब्रिटेन पर लगातार दबाव बनाया।

    मज़बूत राष्ट्रीय चेतना ने ब्रिटिश शासन को अलोकप्रिय बना दिया।
    ➡️ अगर आंदोलन न होता, तो ब्रिटेन आसानी से सत्ता नहीं छोड़ता।



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    2. द्वितीय विश्व युद्ध और वैश्विक परिस्थितियाँ (≈ 35%)

    WWII ने ब्रिटेन की कमर तोड़ दी — आर्थिक रूप से दिवालिया, सैन्य रूप से थका हुआ।

    अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ही उपनिवेशवाद के खिलाफ माहौल बना रहे थे।

    ब्रिटेन के लिए उपनिवेश बनाए रखना असंभव हो गया।
    ➡️ युद्ध के बाद ब्रिटेन के पास विकल्प ही कम रह गया।



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    3. भारतीय सैनिकों की भूमिका (INA और ब्रिटिश इंडियन आर्मी) (≈ 15%)

    नेताजी सुभाष चंद्र बोस की INA ने सीधे ब्रिटिश ताकत को चुनौती दी।

    WWII में लाखों भारतीय सैनिकों ने लड़ाई लड़ी — इससे ब्रिटिशों को एहसास हुआ कि भारतीय सेना अब वफादार नहीं रही।

    1946 का नेवी म्यूटिनी (बगावत) एक बड़ा झटका था।
    ➡️ ब्रिटिश राज को डर था कि सेना ही नियंत्रण से बाहर न हो जाए।



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    4. सामाजिक-आर्थिक दबाव और प्रशासनिक लागत (≈ 10%)

    भारत में बार-बार अकाल, गरीबी और असंतोष बढ़ रहा था।

    ब्रिटेन को भारत पर राज करने का खर्च असहनीय हो गया।
    ➡️ आर्थिक गणित भी छोड़ने की ओर धकेल रहा था।



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    ✅ निष्कर्ष (सरल प्रतिशत में):

    आंदोलन और जन-प्रतिरोध → 40%

    वैश्विक कारक (WWII, ब्रिटेन की कमजोरी, अमेरिका/USSR का दबाव) → 35%

    सैनिक विद्रोह और INA का असर → 15%

    आर्थिक/प्रशासनिक दबाव → 10%


    👉 यानी आज़ादी सिर्फ गांधी-नेहरू या सिर्फ WWII की वजह से नहीं आई। यह एक मल्टी-फैक्टर कॉम्बिनेशन था — लेकिन आंदोलन ने जमीन तैयार की और WWII ने ब्रिटेन को "मजबूर" कर दिया।


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    सर यह विश्लेषण आपके शीर्षक के आलोक में है , जो कि मूल कंटेंट से थोड़ा भिन्न है।

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  3. बहुत सुंदर एवं तर्कपूर्ण व्याख्या।
    आपके आलेख को समझने के लिए कार्ल मार्क्स और चार्ल्स डार्विन के सिद्धांतों को गहराई से समझने की जरूरत है। ...और इनके सिद्धांतों को उचित संदर्भ में समझने के लिए भगवान गौतम बुद्ध के अष्टांग योग के सम्यक अनुशीलन द्वारा जनित 'सम्यक प्रज्ञा' अर्थात 'ऋतंभरा प्रज्ञा' की जरूरत है।
    तबील अरसे के बाद ऐसे उच्च स्तरीय आलेख के प्रस्तुतीकरण के लिए आचार्य प्रवर जी को कोटिश: धन्यवाद।

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