जनमत निर्धारण में प्रचार
(PROPAGANDA IN PUBLIC OPINION)
प्रचार एक मनोवैज्ञानिक साधन है जिसके द्वारा समाज के व्यक्तियों की सोच या मत (जनमत) पर प्रभाव डाल कर जनमत को निर्धारित किया जाता है। इस तरह प्रचार के द्वारा समाज को यथाआवश्यक दिशा में नियंत्रित किया जाता है। यह प्रचार का एक प्रयास है ताकि जनमत की दिशा निर्धारण इच्छित एवं पूर्वनिर्धारित लक्ष्य पाने के लिए हो सके।
सभी सामाजिक वैज्ञानिक मानते है कि प्रचार एक मनोवैज्ञानिक साधन है। मनोवैज्ञानिक का अर्थ मन का विज्ञान
हुआ अर्थात भावनाओं का विज्ञान। यदि हम जनमत को इच्छित लक्ष्य के अनुरूप निधार्रित करना चाहते है तो प्रचार का मनोवैज्ञानिक पहलू समझना होगा। इसके लिए व्यक्ति एवं समाज का चेतन, अवचेतन, अचेतन, एवं अधिचेतन -चेतन की चारों अवस्थाओं का अध्ययन कर चारों अवस्थाओं पर प्रभावित करना होगा।
सत्ता
के व्यवस्था पर
यह आरोप लगाया
जाता है कि व्यवस्था चाहती है कि
लोगों का पेट खाली रहे क्योंकि खाली पेट वाले के दिमाग में विचार प्रक्रिया निरस्त रहती है। खाली पेट वाला पहले पेट भरने के
जतन में व्यस्त रहता है, और इसी कारण विचार प्रक्रिया ठप रहती है; तब शिक्षा का कोर्इ अर्थ नहीं होता और तब प्रचार के कुछ आसान एवं सस्ते तरीके भी काफी कारगर हो जाते हैं। जनता के सामने धुंध पैदा करना ताकि अस्पष्ट स्थिति में सत्ता पक्ष का प्रचार तंत्र जनता को बहला सके - ऐसा भी आरोप लगाया
जाता है। जनता तमाशबीन होती है। और तमाशा / नौटंकी में खूब तालियां बजती है। इन तमाशा / नौटंकियों में जनता के अवचेतन का डर और कमजोरियों का ही दोहन किया
जाता है।
प्रत्यक्ष प्रचार को चेतन प्रचार तथा अप्रत्यक्ष प्रचार को अचेतन स्तर का प्रचार भी कहा जा सकता है। प्रत्यक्ष प्रचार में लोगों को प्रचार करने वालों के उद्देश्य का पता होता है। जैसे अमुक समान या सेवा उत्तम है या अमुक राजनीतिक दल अच्छा है। लेकिन अप्रत्यक्ष प्रचार में प्रचार करने वाले के बारे में पता ही नहीं रहता तथा यह भी पता नहीं होता कि यह प्रचार भी हो रहा है। भारत में वर्ष 2016 में किया गया नोटबंदी को कुछ लोग प्रत्यक्ष प्रचार की श्रेणी में, तो कुछ लोग इसे अप्रत्यक्ष प्रचार की श्रेणी में रखते हैं। कुछ लोग इसे प्रचार की श्रेणी में ही रखे जाने पर ही आपत्ति करते थे कि यह एक आर्थिक निर्णय है और ऐसा मानने वालों के अपने तर्क हैं। ऐसे लोगों का मानना है कि सत्ता व्यवस्था इसके द्वारा आर्थिक निम्न एवं मध्यम वर्ग को जो बहुसंख्यक मतदाता है, प्रभावित करने के लिए इनके अचेतन मनोविज्ञान का दोहन किया है। इसके द्वारा यह बताने को प्रयास माना जाता है कि यह वर्ग अपनी आर्थिक संकट के लिए घोशित शत्रुओं - उच्च वर्ग को पस्त कर दिया गया है। हालाँकि
नोटबंदी से अमीरों को कोई अंतर नहीं पड़ा पर ऐसे धुंध उत्पन्न कर जनमत को अपने
पक्ष में और अमीरों के विरुद्ध प्रभावित करने का प्रयास किया गया है।
सकारात्मक एवं रचनात्मक प्रचार को शिक्षा का स्वरूप भी कहा सकते है। वैसे शिक्षा एवं प्रचार दोनों को पूरक माना जाता है क्योकि शिक्षा के माध्यम से तर्कपूर्ण एवं उचित संदेशों के द्वारा अपने विचारों को जनता में आसानी से पहुँचाया जा सकता है। शिक्षा के माध्यम से छात्रों के अन्दर मनोवैज्ञानिक प्रभाव के द्वारा उनके विचारों तथा व्यवहार को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रित करने का सचेतन प्रयास किया जाता है। इसी कारण विद्यालयों तथा विष्वविद्यालयों में हस्तक्षेप कर जनमत को प्रभावित करने, खासकर नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक प्रभाव पैदा करने का आरोप लगाए जाते है। जनमत निर्धारण में शिक्षा का प्रभाव दीर्घकालीन होता है। इसी कारण हमारे ऐतिहासिक समाज में बहुसंख्यक समाज को शिक्षा से वंचित कर दिया गया तथा शिक्षित प्रचारक अपने स्वार्थी उद्देश्य को सामाजिक व्यवस्था पर थोपने एवं उसे संचालित किए रहने में कामयाब रहे जिसे अब दिमागी गुलामी भी कहा जाता है। जनमत ऐसा प्रभावित है कि वह अपनी गुलामी समझना ही नहीं चाहता, फेंकना तो दूर की बात है। यहाँ भी प्रचार का अघ्ययन आवश्यक है। शिक्षा के द्वारा ही व्यक्ति एवं समाज का समुचित सर्वागीण विकास संभव है। इसी कारण बुद्ध बुद्धिवादी बनने पर और डा0 आम्बेडकर शिक्षा पर जोर देते रहे। शिक्षा के व्यापक प्रचार -प्रसार के लिए प्रचार के पहलुओं को समझ कर अमल में लाने के लिए विचार करना है।
समय एवं उद्देश्य के अनुसार प्रचारक मंच से भाषण देते है, पचें बांटते है, गाना सुनाते है, वीडियों दिखाते है, सोशल नेटवर्किग तथा इेमेल भी करते हैं। वर्ष 1937 में अमेरिकी जनता को शिक्षित करने के लिए प्रचार विश्लेषण संस्थान -The Institute of Propaganda Analysis की स्थापना की गयी। इस व्यवस्थित अघ्ययन से कर्इ बातें सामने आयी। प्रचार में मनोवैज्ञानिक अवलोकन एवं विधियों को उपयोग करके मनुष्यों की मनोवृतियों तथा मानव व्यवहार को भावनात्मक रूप से प्रभावित किया जा सकता है। प्रचार जानबूझकर किया जाता है। प्रचार सुझावों के रूप में होता है। इसमें असत्यता और अस्पष्टता भी होती है। यंग किम्बाल (A Handbook
of Social Psychology, 1957) मानते है कि प्रचार के कार्य में सुझावों की मुख्य भूमिका होती है। सुझावों के विकल्पों के द्वारा व्यक्ति को इच्छित दिशा में ही ढकेला जाता है और उपलब्ध विकल्प में ही एक को अपना मानता है; फिर उसे अपना निर्णय मानते हुए उसके समर्थन में जी -जान से लगा रहता है। सवाल है कि आप भारत के किस व्यवस्था को पंसद करते हैं- सत्तर साल की पुरानी व्यवस्था को या वर्त्तमान व्यवस्था को ? यहाँ आपको दो विकल्प मिला। आप इन दोनों विकल्पों में व्यवस्था की बात में असत्यता को तलाश सकते हैं। इस तरह यह सवाल आपको इतिहास
की गहराइयों में जाकर सामंती व्यवस्था यानि
असमानता की व्यवस्था की जड़ों तक
जाने से रोक देती है और जनमत निर्धारण में अपनी भूमिका निर्धारित कर देती है।
प्रचार अघ्ययन में The Institute of Propaganda Analysis के द्वारा सात सामान्य प्रचार विधियों के बारे में बताया तो निम्न हैं –
1.Name Calling – इस विधि में प्रचारक अपने समर्थकों, नेताओं तथा अनुयायियों को अच्छे - अच्छे नामों के द्वारा अलकृंत करता है तथा विरोधियों को बुरे नामों तथा अलंकरणों से पुकारा जाता है। प्रचारक स्वयं को सच्चा राष्ट्रभक्त, देशप्रेमी, समाजवादी, हिन्दूवादी तथा विरोधियों को देशद्रोही, अवसरवादी, शोषक, कालाधन वाला इत्यादि कहता है। इस प्रकार के नामों से कम पढ़े -लिखे लोग तथा भावुक लोग तुरन्त प्रभावित होकर प्रचारक की बातों में आ जाते हैं।
2.Glittering Generalities – इस प्रकार की प्रचार विधियों में प्रचारक लोक लुभावन बातों / नारों के द्वारा जनता को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करता है। भारत की अधिकांश जनता मानसिक गुलाम एवं भावुक भी होती है। इस कारण जनता लोक - लुभावन नारों में जल्दी प्रभावित हो जाते है, जैसे - ‘गरीबों की सरकार, ‘मुफ्त राशन, ‘दलित का उत्थान‘ आदि - आदि।
3. Transfer – प्रचारक अपनी बात को जनता तक पहुँचाने के लिए अलौकिक शक्तियों के नाम का सहारा लेता है तथा अपने प्रचार में देवी - देवता, पीर - फकीर तथा जन समुदाय से संबंधित महापुरूषों आदि का प्रयोग करता है। प्रचारक को पता होता है कि जनसमुदाय की भावना इन प्रतीकों से जुड़ी रहती है। अलौकिक शक्तियों में गंगा की आरती तथा महापुरूषों में डा0 आम्बेडकर एवं सरदार पटेल से जुड़े भावनात्मक स्थलों / संदेशो का उपयोग इसके उदाहरण हैं।
4. Testimonial – इस विधि में प्रचारक तथा उनका समूह जाने - माने, सम्मानित तथा स्थापित व्यक्तियों या संस्तुतियों को अपने पक्ष में एकत्र करके जनता को दिखाते हैं। इससे यह साबित हो जाता है कि अमुक व्यक्ति भी हमारा समर्थक है। उदाहरण के लिए चुनाव के समय राजनैतिक दल अपने पक्ष में जनप्रिय एवं प्रसिद्व छवि वाले को अपने पक्ष में दिखाते है जैसे जामा मस्जिद के प्रमुख, शंकराचार्य, बाबा रामदेव या अन्ना हजारे को लाते हैं। फिल्मी सितारों का उपयोग भी राजनीतिक एवं गैर - राजनीतिक होता है।
5.Simple Folkways – जनता की भावनाओं को अपने पक्ष में नियन्त्रित करने के लिए नेता या प्रचारक वे कार्य करते है जो जनता तथा जनसामान्य व्यक्ति लोकाचार में करते हैं। इससे जनता में यह संदेश भेजा जाता है कि हम भी आम जनता जैसे हैं। दलितों के घर जाकर भोजन या महात्मा गाँधी का अधनंगे बदन रहना इसका ही उदाहरण है। गॉवों में जाना या गरीबों की दशा पर रोना या विपदा की घड़ी में शरीक होना भी इसी का उदाहरण है।
6.Card Stacking – छल - कपट तथा जोड़ -तोड़ का प्रयोग जनता के व्यवहार को अपने उद्देश्य के अनुसार मोड़ने के लिए किया जा रहा है। इस विधि द्वारा तथ्यों एवं परिस्थितियों को अपने पक्ष में मोड़ा जाता है। बर्ष 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के
श्री मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी वक्तव्य को आरक्षण समाप्त करने वाला उद्देश्य में व्याख्यापित किया जाना
भी इसका ही उदाहरण है।
7. Bandwagon – इस विधि में यह प्रचारित किया जाता है कि जनता का सहयोग व समर्थन प्रचारक को प्राप्त हो रहा है अर्थात् इस प्रविधि में भ्रामक विजय का ढ़िढोरा पीटा जाता है। इस प्रकार के प्रचार से प्रचारक यह सिद्व करता है कि वह जो प्रचार कर रहा है, उसे जनसमुदाय की बहुसंख्यक आबादी सही मानती है। इसमें भ्रामक सार्वभैमिकता का प्रभाव दिखाकर जनता का घ्यान अपनी ओर केन्द्रित किया जाता है। इसको सार्वभौमिकता का भ्रम भी कहा जाता है। भारत में चुनाव के समय या चुनाव के पूर्व तथाकथित चुनावी सर्वेक्षण का खेल इसी का उदाहरण है और इसी कारण चुनाव के दौरान ऐसे सर्वेक्षणों पर रोक लगा दिया गया है। हम जीतने ही वाले है, का संदेश देकर मतदाताओं पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना लिया जाता है।
प्रचार को सफल बनाने में मीडिया अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते है। भारत में सभी स्थापित प्रिन्ट एवं डिजीटल मीडिया पर यथास्थिति बनाए रखने तथा सामाजिक हाशिए के लोगो का प्रतिनिधित्व नहीं करने का गंभीर आरोप है। इनकी विश्वनीयता भारत के बहुसंख्यक में अब नहीं रही है लेकिन समुचित विकल्पहीनता का लाभ ये स्थापित मीडिया अब भी ले रहे है। आधुनिक समाज में युवाओं की हिस्सेदारी बढ़ने तथा सूचना तकनीक में क्रान्तिकारी परिवर्त्तन के कारण प्रचार के माध्यमों में इन्टरनेट तथा सोशल नेटवर्किग महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। ये संचार साधन हैण्डी टूल तथा तत्काल उपलब्ध रहते हैं। आजकल परिवर्त्तन के कारण के रूप में इन्टरनेट एवं सोशल नेटवर्किग पूरी तरह स्थापित है।
उपरोक्त का अध्ययन समाज में व्याप्त गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, मानसिक गुलामी, बीमारी, संकीर्णतावाद एवं अन्ध विश्वास के विरूद्व सफल एवं रचनात्मक विजय प्राप्त करने के लिए करना है।
निरंजन सिन्हा
स्वैच्छिक
सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना।
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