आज भारत के सभी प्रदेशों में कोचिंग संस्थानों की काफी मौजूदगी है। कई तरह के कोचिंग संस्थान हैं – परीक्षाओं
की तैयारी करने के लिए, तकनीकी एवं अन्य संस्थाओं में
नामांकन के लिए, नौकरियों को पाने के लिए, खेलने के लिए, कौशल विकास के लिए, व्यक्तित्व विकास के लिए, अन्य कलाओं को सीखने
के लिए, अन्य विधाओं में पारंगत होने के लिए, और इसी तरह के अन्य कोचिंग संस्था। परन्तु सरकारी नौकरियों को दिलाने के
लिए कोचिंग संस्थानों की ही बहुतायत है। अब कुछ तथ्यों का भी विश्लेषण किया जाना
चाहिए।
शैक्षणिक पढ़ाई के लिए कोचिंग संस्थान भी मूलत:
प्रतियोगी परीक्षाओ की ही तैयारी को ध्यान मे रख कर पढ़ाते हैं। प्रतियोगी
परीक्षायों के लिए भी कोचिंग संस्थानों की बाढ़ आयी हुई है, जिनमें इंजीनियरिंग, मेडिकल, लॉ, प्रबंधन के संस्थानो में नामांकन कराना प्रमुख है। इन विशेषज्ञ विषयों में नामांकन के लिए संस्थानों में काफी सीटें होती है, भले ही संस्थानों के स्तर में काफी अंतर होता है। इनमें नामांकन पाना नौकरियों की तरह
स्थान सीमित और अल्प नही होते। इनमें प्रवेश (नामांकन) के लिए उम्मीदवार एक या दो साल ही
इंतजार करते हैं, परन्तु नौकरियों को पाने के लिए दशक लगा देना साधारण बात हो जाती है। इन संस्थाओं में नामांकन हेतु प्रतियोगी परीक्षायों के पैटर्न महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से बिल्कुल अलग होते है और इसलिए इन कोचिंग संस्थानों का होना जरुरी माना जा सकता है|
सरकारी नौकरियों की संख्या सम्पूर्ण आबादी का 2-3
% से अधिक नहीं है और इसके लिए उम्मीदवारों की संख्या बेतहाशा बढ़ती ही जा रही है। शिक्षा पद्धति का वर्तमान स्वरूप, सरकारी नौकरियों का बढ़ता आकर्षण, और घटती
सरकारी नौकरियाँ इस समस्या को और जटिल बना दे रही
है। सरकारी नौकरियों के कई आकर्षण हैं – सरकारी भूमिका, सामाजिक सम्मान, निश्चित वेतन या मानदेय, भ्रष्टाचार, अन्य सुविधाये हैं, परन्तु पहले वाली पेंशन व्यवस्था वर्ष 2004 से ही समाप्त
है। अब वेतन भोगियों को पेंशन फंड में सरकारी हिस्सेदारी के बराबर ही अपना अंशदान
करना पड़ता है' जिस राशि का निवेश अनिश्चित पूँजी बाज़ार में किया जाता है। पूँजी
बाज़ार की निश्चितता या अनिश्चितता पूँजी बाज़ार के स्वरूप से ज्यादा से उस व्यक्ति
या संस्थानों से निर्धारित होता है, जो (फंड संचालक) इस फंड का संचालन या निवेश का
निर्णय करते हैं। इसलिए आपके पेंशन फंड की जमा
राशि अनिश्चित रहती है। हां, तुलनात्मक निश्चित वेतन और
भ्रष्टाचार को ही सरकारी नौकरियों का मुख्य आकर्षण कहा जा सकता है। सुचना अधिकार अधिनियम, 2005 को अधिक प्रभावशाली
बनाने और लोगों मे इसकी पर्याप्त जागरूकता लाने से भ्रष्टाचार पर आसानी से अंकुश
लगाया जा सकता है। बिहार में बिहार लोक शिकायत निवारण अधिकार अधिनियम, 2015 के सम्बंध मे भी यही बात कही जा सकती है।
कोचिंग संस्थानों के नौकरियां दिलाने के दावों का
भी विश्लेषण किया जाएँ। ये संस्थान ये दावे करती है कि उसने इतनी नौकरियां दिलाई
है। क्या ये संस्थान उतनी नौकरियां दे सकता है, जितनी नौकरियों की आवश्यकता
इन बेरोजगारों को है? क्या यदि ये संस्थान
नहीं होते तो क्या सरकार के इन विभागों या उपक्रमों की ये स्थान खाली रह जाता? नहीं। आजकल
सरकार की कोई रिक्तियाँ खाली नहीं जाती है। यदि खाली रह जाती है तो उम्मीदवार के
लिखित अंकों के कारण नही, उसके साक्षात्कार के अंकों के
आधार पर उनको नियुक्त नहीं किए जाने के कारण होता है, जिसमें उम्मीदवार को ज्यादा
दोषी नहीं ठहराया जा सकता। ये कोचिंग संस्थान इन
रिक्तियों को बढ़ा या घटा नही सकता। ये रिक्तियाँ पूर्णतया
सरकार पर निर्भर करता है। पर ये रिक्तियाँ आज के
युवाओं की संख्या को देखते हुए नगण्य है। ये युवा
इन छोटी रिक्तियों के पीछे अपने लम्बे बहुमुल्य समय देता है, जिनके सफल होने की
प्रतिशतता दिनों दिन घटती जा रही है। इससे इनको निराशा ही नहीं मिलती, अपितु ये अपने को बाद में किसी भी काम के लायक ही नही समझते, जो उस व्यक्ति और समाज
के लिए घातक है। इससे समाज एक योग्य और होनहार युवा का सदुपयोग नहीं कर पाता है। उनका
नौकरियों में चयन इसलिए नहीं हो पाता क्योँकि उतनी रिक्तिया नहीं थी। मेरा कहने का
तात्पर्य यह है कि अक्सर मेधावी और योग्य उम्मीदवार अपने मेरिट के होते हुए भी
चयनित नही हो पाता, क्योंकि उतनी रिक्तिया नही थी। हां, ये संस्थान किसी मोहन के स्थान पर किसी
सोहन को नौकरी दिला देता है, पर समाज को कुछ अंतर नहीं दे पाता है। अर्थात व्यक्ति
विशेष को अंतर पड़ता है, पर समाज को कोई अंतर नहीं पड़ता है। ये युवा वित्तीय मामलों में जीवन भर के लिए आत्मनिर्भर होना चाहते हैं। इन
उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या के लिए सरकारी नौकरियां पर्याप्त नहीं है। आटोमेशन, कम्पुटराईजेशन, कृत्रिम बुद्धिमता, गैर सरकारी संगठनों की बढती भूमिका, निजीकरण और सेवायों के हस्तांतरण किए जाने से भी
सरकारी रिक्तियों की संख्या घटती जा रही है। ऐसे
में सरकारी नौकरियों के विकल्प पर गम्भीरता से विचार किए जाने की नितांत आवश्यकता
है. ताकि इन युवाओं की ऊर्जा, इनकी बुद्धिमता और इनकी
उत्पादकता का लाभ देश और मानवता को मिल सके।
इन कोचिंग संस्थानों का अर्थ है कि इन युवाओं को
जो शिक्षा विद्यालयों, महाविद्यालयो और विश्वविद्यालयों द्वारा दी गयी है, उसकी गुणवत्ता एवं स्तर प्रतियोगी
परीक्षाओ के अनुरूप नहीं है और इस स्वरूप पर इस तरह बड़ा प्रश्न चिन्ह लग जाता है।
सरकारी एव गैर सरकारी दोनों तरह के शिक्षण संस्थानों के स्तर एवं गुणवत्ता पर
गम्भीरता से विचार और विमर्श किए जाने की अनिवार्य आवश्यकता है।
आज युवाओं को रोजगार की आवश्यकता है, जो खुद को भी
रोजगार दे और दूसरों को भी रोजगार उपलब्ध कराए। मीडिया भी सरकारी नौकरियों में सफलता पाने वाले को इस तरह स्थान देता है, मानों उसने समाज का बड़ा कल्याण कर दिया
है या मानवता के विकास में कोई ऐतिहासिक छलांग लगायी है, जबकि उसे नौकरों को नही अपितु रोजगार
प्रदाताओं को इससे अधिक सम्मान देना चाहिए। ऐसा व्यक्ति समाज को अपने निर्धारित
सेवाओं के अतिरिक्त क्या देता है, मुझे नहीं पता है। मेरे अनुसार एक सरकारी नौकरी करने वाला अपना परिवार को
पालता है, अपने बच्चों
को पढ़ाता है और कोई कोई अपना घर भी बना लेता है। इनके पास अपने परिवार के
अतिरिक्त समाज को देने के लिए नहीं तो कोई सोच होता है और नही ही समय होता है। मैंने कुछ कड़वी बातें लिख दी है, जो शायद नहीं लिखना चाहिए था।
मेरे अनुसार इन कोचिंग संस्थानों को व्यक्तित्व
विकास, सम्प्रेषण
कौशल, अँगरेजी सम्प्रेषण कौशल, उद्यमिता कौशल, वित्तीय जागरूकता, सामाजिक अंकेक्षण, पर्यटन कौशल इत्यादि इत्यादि
पर ध्यान देने के लिए विचार करना चाहिए। यदि इन कोचिंग संस्थानो के लिए ऐसा करना
कई कारणों से व्यवहारिक नहीं हो, तो भी अपने मुख्य कार्यों के अतिरिक्त उपरोक्त
विषयों पर भी विचार एवं विमर्श होना चाहिए।
ई० निरंजन सिन्हा
स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त
बिहार, पटना।
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