बुधवार, 18 मई 2022

मंदिरों को क्यों टूटना हुआ?

सवाल यह है कि मंदिर क्यों टूटा? इसके लिए मंदिर को समझना होगा, उस काल को समझना होगा जिसमे मंदिर टूटा, उस प्रक्रिया को समझना होगा जिन प्रक्रियाओं से यह टूटा, और उन स्थितियों को समझना होगा जिन परिस्थितियों में यह टूटा| फिर हमें यह भी समझना होगा कि हमें आज क्या चाहिए? सिर्फ वही मंदिर चाहिए या अपने नागरिकों के लिए और भी कुछ ज्यादा चाहिए?

एक मंदिर क्या है? प्राकृत बहुत प्राचीन भाषा है, क्योंकि यह ‘प्रा’ एवं ‘कृत’ से बना है| ‘कृत’ का अंग्रेजी अर्थ होता है  - Creation यानि ‘किसी चीज के बनने की स्थिति’ या 'कोई रचना', और ‘प्रा’ (Pre) का अर्थ हुआ 'पहले" यानि पूर्व की स्थिति| इस तरह 'प्राकृत' का अर्थ हुआ - किसी भी रचना की पहले की अवस्था| यानि किसी भाषा की रचना की पूर्व अवस्था| प्राकृत का उद्भव क्षेत्र मगध माना जाता है और आज भी यह मगही भाषा या मागधी भाषा के रूप में जीवित है| मगही में ‘मंदिर’ को “मंदिल” (मन + दिल) कहा जाता है, जो ‘मन’ और ‘दिल’ के संयोग से बना है| अर्थात यह ‘मन’ और ‘दिल’ से सम्बंधित है| ‘मन’ मानव के चेतना से सम्बंधित है और ‘दिल’ मानव की भावनाओं से संबधित माना जाता है| इस तरह एक “मंदिल” (MANDIL) यानि मंदिर चेतना को प्रखर करता है और भावनाओं को बौद्धिक बनाकर एक मानव को समझदारी एवं सुकून देता है| मंदिर का उपरी आकृति ब्रह्माण्डीय किरणों को मंदिरों के मध्य में केन्द्रीत करता है। यह भारत की परंपरा रही है|

यदि हम भारत में मंदिल यानि मंदिर की परम्परा देखें, तो यह पायेंगे कि यह परंपरा भारत के सभी पन्थो के साथ रही| बौद्ध परंपरा हो या जैन परंपरा या अन्य कोई और परंपरा, भले आज उनके अवशेष मिलते हों या भग्न अवस्था में हो, यह परंपरा प्राचीन भारत में भी यानी बौद्धिक काल में भी रही है|प्राचीन काल में यह चैत्यो की परम्परा थी। मध्यकाल यानि सामन्ती काल में हिन्दू परम्परा, जिसे प्रोफ़ेसर आर्थर लेवेलिन (ए एल) बाशम ब्राह्मणी परंपरा कहते हैं, के हिन्दु मंदिर बनने शुरू हो गए| सभी क्षेत्रों के भवनों को उनके भौगोलिक अनिवार्यताओं, उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं, सामाजिक एवं जनान्कीय (Demographic) आवश्यकताओं के अनुरूप ढलना एवं ढालना होता है, यानि संरचनात्मक आंतरिक एवं बाह्य आकृति और स्वरुप को बदलना होता है|

जनान्कीय एवं सामाजिक बाध्यताओं में आबादी की मात्रा और भागेदारियों का सामाजिक स्तरीकरण महत्वपूर्ण रहा| अर्थात आबादी के अनुसार इस मंदिरों का आकार छोटा –बड़ा हो सकता है| सामाजिक स्तरीकरण में पुरुष एवं स्त्री का विभेद, गुरु –शिष्य का अंतर, या और कोई अन्य सामाजिक स्तरीकरण जैसे वर्ण यां जाति का अंतर संरचना की आन्तरिक रुप रेखा को तय करता है और इसलिए भी यह सब इसकी इसकी बनाबट और सजावट में शामिल हो जाती रही। भौगोलिक आवश्यकताओं में उस क्षेत्र में बर्षा, धुप एवं हिमपात की मात्रा, तीव्रता और प्रवृत्ति प्रमुख कारक होगा| अत्यधिक वर्षा के क्षेत्र में छतों को ढालुआ (Steeep) होना होता है, बर्फ गिरने के क्षेत्र में छतों और अत्यधिक ढालुआ बनाया जाता है, लेकिन कम बर्षा या नगण्य बर्षा क्षेत्र में ढालुआ नहीं भी बनाया जा सकता है, जैसे गुप्त कालीन ‘देवगढ’ का मंदिर|

लेकिन मंदिरों के छतों की अभियांत्रिकी संरचना के सम्बन्ध में एक और दूसरा तथ्य महत्वपूर्ण है| प्राचीन कालीन बौद्ध मंदिर “चैत्य” भी कहलाते थे, जहां मानवीय चेतानाओं का अध्ययन किया जाता था, उस पर विमर्श किया जाता था, और वहां सामान्य जन एवं बौद्धिक लोग इसे विस्तार से समझते थे| इसकी छतें गुम्बदाकार (Dome) होती थी या ढालुआ (Steepy) होती थी| यह तकनीक ईसा पूर्व में भारत से पश्चिम चला गया, जिसने मस्जिद, चर्च एवं अन्य भवनों को आकार दिया| लेकिन और पश्चिम एवं उत्तर (यूरोप) में बर्फ गिरने का क्षेत्र था, जिसने बर्फ गिरने की मात्रा एवं प्रकृति के अनुसार चर्चों को और ढालुआ बना कर आकार दिया| गुम्बदाकार छत की अभियांत्रिकी में तनाव (Tension) बल कम और दवाब (Compression) का बल (Force) ही ज्यादा लगता है, और उसमें 'नमन आघूर्ण' (Bending Moment) बल नहीं लगता है, जिससे गर्भ गृह बड़ा हो जाता है| इंटों के समतल छत का गर्भ गृह बहुत बड़ा नहीं हो सकता, इसलिए ईंटों की छतों के साथ साथ गुम्बदाकार छतों की लम्बाई ही बढा दी जाती है, जैसा चैत्यों एवं दक्षिण के मंदिरों में होता रहा है|

वैसे छतों की गोलाई का एक प्रमुख कारण आकाशीय विकिरण तरंगों (Cosmic Radiation Waves) का एक मुख्य स्थल पर अपवर्तन (Refraction) द्वारा संकेन्द्रण (Concentration) रहा है| इसी तकनीक का प्रयोग कर पिरामिडों में वस्तुओं को संरक्षित किया जाता रहा है| छतों का क्षेत्रफल बढ़ा देने से विकिरण संकेन्द्रण की मात्रा भी बढ़ जाती है, चाहे उसकी सामग्री कुछ भी हो| छतों के परावलीय (Parabolic) होने या तीखा ढालुआ (Steepy) होने से यही प्रभाव उत्पन्न होता है| छतों के आकार बढ़ने से ज्यादा लोगों की उन सभाओं में हिस्सेदारी बढती है| ऐसे में सभा स्थल उर्जावान रहते हैं| इस पक्ष पर भी ध्यान देने की जरुरत है| यह सब एक पूजा स्थल यानि प्रार्थना स्थल यानि आध्यात्मिक स्थलों की विशेषताएं हैं|

अब हम मंदिरों के टूटने पर वापस आते है| हमको यह ध्यान रखना चाहिए कि सभी परम्परागत धर्मों (पंथों/ सम्प्रदायों) की उत्पति एवं विकास सामन्ती काल में सामन्ती आवश्यकताओं के अनुरूप हुई है| यह काल इतिहास का मध्य काल है| हम इसके पहले के काल में परंपरागत धर्म (धर्म का वर्तमान मान्यता) का जो भी दावा कर लें, हमें तथाकथित धर्म के समर्थन में कोई भी प्रमाणिक प्राथमिक साक्ष्य उप्लब्ध नहीं करा सकता| मौखिक परम्परा का दावा और अन्य साक्ष्यों का समय काल में नाश हो जाने का दावा हर कोई कर सकता है, जिसे कुछ लोग 'थेथ्रोलाजी' भी मानते हैं| प्राचीन काल "बुद्धि के विकास" का काल था यानि बौद्धिक काल था| इसलिए मानवीय चेतनाओं या समझदारी को विकसित करने या शान्ति पाने के केंद्र को नष्ट करने या बदलने की जरुरत नहीं पड़ी| यह आवश्यकता सामन्ती काल में पड़ी, क्योंकि यह सामन्ती व्यवस्था के अनुरूप समकालिक शक्तियों की मांग थी| मध्य काल के पहले के जिन धार्मिक महापुरुषों का नाम आता है, वे वस्तुत: उन क्षेत्रों में सामाजिक सांस्कृतिक सुधारों एवं मानवीय मूल्यों के महान क्रान्तिकारी अग्रदूत रहे हैं| इसीलिए उनके सम्मानीय नामों को उन तथाकथित धर्म से जोड़ने या मिलाने का जुगत बाद में किया गया या उन्हीं के नाम पर कर किया गया|

जब ऐतिहासिक शक्तियों अर्थात तात्कालिक समकालीन शक्तियों के प्रभाव में समाज में सांस्कृतिक और धार्मिक आस्थाओं का बदलना शुरू हुआ, तब बहुत से बदलाव हुए और बहुत कुछ में निरंतरता भी बनी रही| हम जानते हैं कि सामन्ती व्यवस्था का आगमन ही प्राचीन काल का समापन है| यह समकालिक शक्तियों का ऐतिहासिक परिणाम एवं प्रभाव है| सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अनिवार्यताओं ने बहुत सी धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन किए और परिणामस्वरूप लोगों ने अपनी आस्थाओं में भी परिवर्तन कर लिए| लोग वही रहे, निवास स्थान वही रहे, जीविका के साधन भी मूलत: वही रहे, सांस्कृतिक अवस्था भी कमोबेश वही रहा, समाज का पिछड़ापन भी स्थिर रहा, सामाजिक व्यवस्था भी वही रहा और सामाजिक सामुदायिक सम्पदा भी वही रहा, लेकिन उन्होंने अपनी धार्मिक आस्था बदल लिया| अब उन्ही लोगों को अपने आराधना स्थल, यानि पूजा स्थल यानि प्रार्थना स्थल की अतिरिक्त जरुरत थी|

वे लोग अपने हिस्से के पहले से मौजूद (जिस सम्प्रदाय को अब बदल दिया था) आराधना स्थल यानि पूजा स्थल के आन्तरिक संरचना और बाह्य स्वरूप को भी बदल दिया|

चूँकि वे उनके बाप दादाओं के अराधना स्थल थे,

उनकी स्मृतियाँ सम्मानित थी,

उसे इसीलिए उन स्मृतियो को संरक्षित कर दिया,

और बाकी संरचनाओ में अपनी आवश्यकतानुसार 

रूप परिवर्तन एवं संरचना परिवर्तन कर दिया|

यह ऐसा ही हुआ, जैसे किसी को अपने हिस्से में मिले चीजों या मकानों में यानि सम्पदा में आवश्यकता अनुसार बदलाव, परिवर्द्धन, संशोधन, परिवर्तन, परिमार्जन, विलोपन एवं रूपांतरण की जरुरत पड़ती है|

प्राचीन काल के बौद्धों एवं अन्य सम्प्रदाय के आराधना या पूजा या प्रार्थना स्थलों को समयानुसार मध्य काल में मंदिर आदि में बदल देना पड़ा| ऐसे ही मंदिरों को समाज के कुछ लोगों द्वारा अपनी सांस्कृतिक एवं धार्मिक आस्था बदलने के कारण उनके हिस्से के आध्यात्मिक स्थलों को अपनी आवश्यकतानुसार बदल देना पडा| प्राचीन काल में अधिकतर लोग बौद्धिक संस्कृति के थे, जो सामन्ती शक्तियों के प्रभाव में हिन्दू संस्कृति में ढल गए| परिणामस्वरूप लगभग सभी बौद्धिक संस्कृति के आध्यात्मिक भवनों को उन्ही लोगों ने हिन्दू मंदिरों में बदल दिया, क्योंकि परम्परा से वे सब उन्ही के थे| बाद में इस्लाम की आस्था अपनाने वाले अनुयायियों ने भी अपनी आस्था बदलने के बाद अपने हिस्से के साथ भी ऐसा ही हुआ|

भारत में विदेशों से आने वाले इस्लाम के अनुयायियों की संख्या सम्पूर्ण आबादी का नगण्य हिस्सा है| सामन्ती काल में सामन्ती व्यवस्था के निचले सामंतो के आतंक एवं शोषण से पीड़ित लोगों को यह विकल्प मिल गया था, कि वे बड़े सामंतों की आस्था के अनुयायी बन कर उनके नजदीकी बन कर अपने शोषण को कम कर सकते थे या कमतर महसूस कर सकते थे| उन्होंने समाज में यह पाया कि छोटे सामंत बड़े सामंतो की कृपा दृष्टि पाने के लिए बड़े सामंतो से वैवाहिक सम्बन्ध भी बना रहे थे| इसलिए छोटे सामंतो के व्यवहार एवं प्रतिमान उनके लिए अनुकरणीय बन कर समाधान का प्रकाश बना| इन्होने आस्था बदल लिया, पर इनके संस्कार वही रहे, इनके निवास स्थान वही रहे, और उसने अपने पूर्व के आराधना स्थल वही रखे, जिसका सिर्फ बाह्य एवं आंतरिक स्वरुप बदल दिया| ये भी भारत के ही धरती पुत्र थे, इन भारत पुत्रों ने सामान्य तरीके से सब कुछ अपने नए आस्था के अनुरूप व्यवस्थित कर लिया| आज हमें यह बदलाव वर्तमान चश्मों में अटपटा सा लग रहा है| इसके लिए हमें “इतिहास का गुरुत्वीय ताल” (Gravitational Lensing of History) की अवधारणा समझनी होगी|

अब हमें यह निर्णय करना है कि भारत को आज यदि विश्व की शक्ति बननी है, तो इन घटनाओं का इसमें योगदान क्या हो सकता है और यह कैसे काम करेगा, इसे भी समझना है?

निरंजन सिन्हा

www.niranjansinha.com

रविवार, 8 मई 2022

समकालिक शक्तियों को समझें (Understand the Contemporary Forces)

क्या आप अपनी मंजिल पाने के लिए अपनी नौका को हवाओं के अनुकूल चलाना चाहेंगे या आप हवाओं का रुख ही बदल देना चाहेंगे? कौन सा उत्तर सही होगा और क्यों? यदि मैं कहूं कि दोनों स्थितियां ही सही है, बशर्ते संदर्भ यानि परिदृश्य क्या है? मतलब स्थितियों यानि परिस्थितियों के बदलने के अनुसार एक सही और दूसरा ग़लत हो जाता है। दरअसल यह निष्कर्ष भी अनुचित होगा। कोई निर्णय गलत और कोई निर्णय ही नहीं होगा, अपितु कोई एक उत्तर ज्यादा उपयुक्त होगा, और दूसरा कम उपयुक्त होगा।

समकालिक शक्तियों (Synchronous Forces) यानि समकालीन शक्तियों (Contemporary Forces) को इतिहास में ऐतिहासिक शक्तियां (Historical Forces) कहा जाता है। मतलब कि समकालिक शक्तियां ही समय बीतने के साथ 'ऐतिहासिक शक्तियां' कहलाती है| 'समकालिक शक्तियों' को बदलना आसान नहीं होता। या यों कहें कि कोई समकालीन शक्तियों को बदलने का जो भी दम भर लें, लेकिन समकालिक यानि समकालीन शक्तियों को कोई व्यक्ति एक झटके से नहीं बदल सकता। हां, किसी व्यक्ति के शुरुआती नवाचारी बदलाव और परिस्थितियों के समेकित स्वरुप के कारण भी समकालीन शक्तियां बदलती है, परन्तु मैं समकालीन शक्तियों के सामने किसी व्यक्ति को ज्यादा महत्व देने के पक्ष मे नहीं हूं। इस पर आप मतभिन्नता रख सकते हैं। मतभिन्नता भी जरूरी है, ताकि नवाचारी विचारों का संश्लेषण और विकास हो सके। मतभिन्नता ही नए विचारों को जन्म देता है| इसीलिए असहमति यानि मतभिन्नता का मैं भी समर्थक हूं।

यदि मैं अपने को वर्तमान आदमी यानि 'होमो सेपियंस' तक ही सीमित रखूं, तो हमें ऐतिहासिक शक्तियों का विश्लेषण भी यही तक सीमित रखना चाहिए। सभी कालों और सभी क्षेत्रों की ऐतिहासिक शक्तियों के विश्लेषण में मुझे एक बात स्पष्ट हुआ कि सभी शक्तियों को उत्पादन (Production), वितरण (Distribution), विनिमय (Exchange) और उपभोग (Consumption) को प्रभावित करने वाले शक्तियों में शामिल किया जा सकता है और इसे उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर आसानी से, वैज्ञानिक ढंग से और तार्किक आधार पर समझा जा सकता है। इन शक्तियों की प्रवृतियों (Tendencies), प्रतिरुपों (Patterns), संरचनाओं (Structures) आदि का भी अध्ययन किया जाना चाहिए, जो इन शक्तियों को प्रभावित, संचालित एवं नियंत्रित करता है| इतिहास में आग, पहिया, धातु, बाष्प ईंजन, विद्युत, कम्प्यूटर, राकेट, डाटा, डिजीटल मोड, एवं मानव निर्मित कई संस्थाओं यथा परिवार, समाज, मुद्रा, राष्ट्र, कंपनी एवं पूंजी के प्रयोग ने उत्पादन, वितरण, विनिमय, और उपभोग के प्रवृत्ति और प्रतिरुप को बदल दिया। मध्य काल में विनिमय और वितरण की शक्तियों ने सामंतवाद (Feudalism) लाया, जिससे मध्य काल का उदय हुआ। पूंजी ने पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद के रूप में आर्थिक शक्तियों को प्रभावित किया। मतलब यह है कि आर्थिक शक्तियों में उत्पादन को, वितरण को, विनिमय को, और उपभोग को प्रभावित, संचालित एवं नियंत्रित करने का क्षमता है| इसीलिए इनमे से कोई भी शक्ति स्वतंत्र रूप में रूपांतरण (Transformation) के स्तर को प्रभावित एवं संचालित कर सकता है, और फिर उपरोक्त चारों के संयुक्त एवं संश्लेषित प्रभाव से काम करने लगता है| इस तरह रूपांतरण की प्रक्रिया को जो शक्ति प्रारंभ करे, परन्तु आगे सभी के द्वारा संचालित एवं नियंत्रित होता रहता है|

जब हम इन ऐतिहासिक शक्तियों यानि समकालिक शक्तियों को पहचानते हैं, और उसके वास्तविक स्वभाव को समझते हैं, तो उसे नियत्रित, प्रभावित एवं संचालित कर पाना आसान होता है| तब हम इन शक्तियों को अपने उद्देश्यों को पाने के लिए उसके महत्तम हितों के अनुरूप ढाल सकते हैं, दक्षतापूर्वक उपयोग कर सकते हैं| आज की समकालीन शक्तियों में “पूंजी”, “डिजीटल मोड”, “डाटावाद”, और “विज्ञान” की भूमिका को समझना है। इन शक्तियों के स्वरुप (Form), प्रतिरुप (Pattern), संरचना (Structure) को समझने से हम इसे अपने पक्ष में सफलतापूर्वक उपयोग कर सकते हैं। विरोधियों के विचारों को समाप्त करने के कई तरीके हैं, कोई सिर्फ “दिखावा” दिखाना चाहता हैं, कोई वास्तविक सफलता पाना चाहता है।

'दिखावा' दिखाने को ही भारत में “तमाशा करना” कहा जाता है,

जिसमें अधिकांश लगे हुए हैं।

“दिखावा दिखाना पसंद” यानि “तमाशा” का क्या पहचान है?

जब किसी कार्यक्रम में खूब तालियाँ बजे,

स्पष्ट समझ लीजिए कि वह कार्यक्रम एक बेहतरीन तमाशा है|

 थोडा या ज्यादा कडवा लग रहा होगा, पर सत्य भी यही है| आप भी मानते होंगे कि गंभीर चिंतन में, नवाचारी (Innovative) दिशा के सोच में, और क्रान्तिकारी रणनीति (Strategic) के विमर्श में सभासदों में सन्नाटा छा जाएगा| उपस्थित लोग तालियाँ नहीं बजायेंगे, अपितु वे सब गंभीर हो जायेंगे| आपने भी देखा होगा कि तालियों वाली बैठकों एवं चिंतन शिविरों के चिंतकों का कोई विरोध द्वारा नहीं किया जाता है| ऐसा इसलिए कि इनके विचार यथास्थितिवादियों के पक्ष में ही होते हैं, जिसे सब कोई जानता होता है, यानि कोई मौलिक बदलाव नहीं होता है| ये तथाकथित क्रान्तिकारी वक्ता अपने तथाकथित विरोधियों के पक्ष में ही काम करते होते हैं| यानि अपने तथाकथित विरोधियों के लिए ही काम करते होते हैं या भटके हुए क्रान्तिकारी होते हैं, जो अपने समय के साथ साथ श्रोताओं का भी समय गुजार रहे होते हैं| कोई भी फासिस्ट शक्तियां ऐसे क्रान्तिकारी बदलाव को, जो उसके मौलिकता के विरुद्ध होता है, उसके नेतृत्व को ही नष्ट कर देता है|

ये तथाकथित क्रान्तिकारी विचारक

अपने लोगों की “जवानियाँ”, ‘शक्तियां’, ‘संसाधन’, ‘ऊर्जा’ ' समय' एवं ‘धन’

                                     को क्रान्ति के रचनात्मक एवं सकारात्मक दिशा में नहीं लगाकर, 

                                                     उसे मोड़ कर विधवा विलाप में लगा देता है| 

इसके लिए इन क्रांतिकारियों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष “प्रोत्साहन लाभ” भी मिलता है| हालाँकि अक्सर ऐसे लाभ के भी बिना ये “तालियाँ पसंद” चिन्तक एवं रणनीतिकार अपने कार्यों में लगे हुए रहते हैं, जिनसे उनके विरोधियों का कार्य सुगमतापूर्वक होता रहता है|

भारत के राष्ट्र निर्माण एवं सशक्तिकरण में ये सभी तत्व तथाकथित रूप से बखूबी लगे हुए हैं| भारत के राष्ट्र निर्माण एवं सशक्तिकरण का पहला दुश्मन तो "यथास्थितिवादी" हैं, और दूसरा इन यथास्थितिवादियों को लाभ पहुंचाने वाले तथाकथित क्रान्तिकारी बदलाव लाने वाले चिन्तक एवं विचारक हैं| यथास्थितिवादियों में सबसे ज्यादा घातक (Fatal) 'सांस्कृतिक यथास्थितिवादी' ही है, क्योंकि संस्कृति ही किसी समाज का साफ्टवेअर है, जो अदृश्य रहकर पुरे समाज के सोच, मूल्य, प्रतिमान एवं मानसिकता को प्रभावित, संचालित एवं नियंत्रित करता रहता है| आपने ध्यान दिया होगा कि सारे परिवर्तनकारी चिन्तक बदलाव के 'सांस्कृतिक पक्ष' को ही छोड़ देते हैं, जो सबसे महत्वपूर्ण हैं| वे सारे सिर्फ व्यवस्था यानि तंत्र के हार्डवेयर पर फोकस किये रहेंगे| कुछ लोग इस स्थिति को समझ कर भी इसे छूना नहीं चाहते यानि इसे समझाना नहीं चाहते, और कुछ लोग इस भिन्नता को समझ ही नहीं पाते| भारत के लिए यही दुखदायी है|

भारत एक साधारण एवं सरल देश नहीं है| साधारण (Ordinary) का अर्थ विकास के निम्न स्तर से है, जबकि सरल (Simple) का अर्थ बनावट में पेचादिगी (Complexities) का अभाव है| भारत कई राष्ट्रों से मिलकर 'बनता हुआ एक राष्ट्र' (making a Nation) है| इसकी संस्कृति पुरातन है, पर कौन सी संस्कृति पुरातन है, जिसका पुरातात्विक एवं प्रमाणिक साक्ष्य दोनों उपलब्ध है? यह सवाल बड़ा महत्वपूर्ण है| यह दरअसल एक देश नहीं, एक महादेश है, जो कई मायने में एक यूरोप की तरह हैं| इतना बड़ा देश, इतने विविध संसाधनों से समर्थित, मानवीय संसाधन में विश्व का सबसे अग्रणी, फिर कौन इसे विश्व का “नंबर एक” बनने से रोके हुए है| यही तथाकथित समझदार एवं क्रान्तिकारी चिन्तक, जिन्हें “तालिया पसंद” हैं|

मेरा विषय है कि समकालिक शक्तियों को अपने अनुरूप कैसे करे? यानि हम 'विधवा विलाप' ही करते रहें, या अपने हिस्से का कोई सकारात्मक एवं सृजनात्मक कार्य भी करें? क्या कोई नवाचारी उपाय है, जिस ओर हमें अपनी नजर घुमानी है? मैंने ऊपर भी लिखा है कि समकालिक शक्तियों को पहचाना जाय| उसके प्रभाव एवं स्थिति का विस्तारित वर्णन भी किया है| आज की समकालीन शक्तियों में पूंजी, डिजीटल मोड, डाटावाद, सोशल मीडिया, और विज्ञान की भूमिका प्रमुख है| इसके अलावा वैश्विक जनमत या वैश्विक जगत का प्रभाव भी एक महत्वपूर्ण शक्ति है, जिससे कोई इन्कार नहीं कर सकता| आज विश्व एक छोटा सा गाँव हो गया और कोई एक देश उसका टोला, भारत भी उसका ही कोई एक टोला हो गया| यदि कोई आगे नहीं बढा, तो तय मानिए वह पीछे छुट ही जाएगा और बर्बाद भी होगा|

हमें पूंजी और कंपनी की प्रक्रिया एवं प्रभाव समझना है और अपने युवाओं को बताना है| धन (Wealth/ Assets) कब पूंजी (Capital) बनता है और धन को पूंजी बनाने के क्या तरीके हैं? हमें डिजीटल  क्रान्ति की समझ एवं नेटीजन (Netizen - वह Citizen जो internet पर सक्रिय एवं रचनात्मक हो) की भूमिका को जानना, समझना एवं अपनाना है। इसके माध्यम से कोई भी अपने प्रभाव क्षेत्र का दायरा आसानी से बढ़ाता है| आज डाटावाद सफलता का आधार है, कैसे? यह क्या है? इसकी प्रक्रिया क्या है? डाटावाद में सूचनाओं का संग्रहण, विश्लेषण, पुनर्संरचना, पुनर्विन्यास, पुनर्व्यवस्थापन कर अचूक नीतियों का निर्माण करता है। यह अर्थव्यवस्था का पांचवां प्रक्षेत्र (Quinary Sector) कहलाता है।  विज्ञान तो सारी समझ का आधार है, इसके बिना कोई चीज समझना एवं मान लेना, अपनी आँखें बंद कर किसी चीज को सही मान लेना होगा| विज्ञान के आधार पर हम किसी भी बात एवं विचार से बकवास को अलग करते हैं। आस्था (Devotion) से आप सही नहीं हो जाते| आप अपनी नई एवं नवाचारी बातें विश्व जनमत के सामने रखें| ये सब बातें समझना हमें समकालिक शक्तियों के दक्षतापूर्वक उपयोग में सक्षम बनाता है। इस पंक्ति पर ज़रा ठहर कर विचार किया जाय, यही कारगर और उचित भी है| 

इन सभी से आपकी हमारी सफलता  सुनिश्चित है| भारत फिर से विश्व गुरु बनेगा, मैं आपको आश्वस्त करता हूँ|

निरंजन सिन्हा

www.niranjansinha.com

शनिवार, 30 अप्रैल 2022

हमारा समाज कहाँ जा रहा?

                                                        हमारा समाज यानि हमारी व्यवस्था

यानि हमारा राज्य यानि हमारा राष्ट्र

यानि हम कहाँ जा रहे हैं?

30 अप्रैल (1945) को जर्मन तानाशाह हिटलर को आत्म हत्या करना पड़ा था| आज पडोसी देश श्रीलंका अपनी अव्यवस्था से परेशान है| यह सब किन किन प्रक्रियायों की परकाष्ठा है? ये दो उदाहरण हमारे समाज के सामयिक विश्लेषण को बाध्य करता है|

इन विषयों के मूल तत्व को यदि देखा जाय, तो यह सुस्पष्ट होगा कि हमारी अवधारणा एकात्मकतायानि एकत्व” (Unity) के सम्बन्ध में अस्पष्ट है या गलत है या पूर्णरुपेण भ्रमित है| हमें एकता में विविधताएवं विविधता में एकताको समझना होगा| एकता में भी विविधता होती है, और विविधता से भी एकता स्थापित होती है| एक देश में कई राज्य, और एक राज्य में कई जनपद (जिला); एक संविधान में कई भाग, और एक भाग में कई अनुच्छेद; एक राष्ट्र में कई सामाजिक समूह, और एक सामाजिक समूह में कई जातियां; एक समाज में कई सम्प्रदाय, और एक सम्प्रदाय में कई पंथ| एक भारत में निवासियों की विविधता, खेतों की विविधता, मौसम की विविधता, भाषाओं की विविधता, पहाड़ों एवं मैदानों की विविधता| ऐसे कई अनन्त उदहारण है, जो एकता में विविधता को स्पष्ट करता हैयदि हमें यह विविधता स्वीकार्य नहीं हो, तो इन कई आधारों पर एक ही क्षेत्र में कई राष्ट्रों की झड़ी लग जाएगी, कई राष्ट्रों में देश को विभाजित करना पड़ सकता है| और बात यही समाप्त नहीं होती है| जिसे एकता देखने नहीं आता, सिर्फ विविधता में भिन्नता ही देखने की आदत हो जाती है, वो अपने परिवार एवं समाज में भी विविधता या विभाजन के आधार बना ही लेते हैं, खोज लेते हैं, अपने जाति में भी विविधता यानि विभाजन के आधार बना लेते हैं|

शायद एकात्मकतायानि एकत्वमें भी विविधता अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligence) यानि तथाकथित ईश्वरको भी स्वीकार्य है| और इसलिए ब्रह्माण्ड में वस्तुओं में भी मैटर एवं एंटी मैटर है, आवेश में भी घनात्मक एवं ऋणात्मक है, और मानवता या किसी भी जीव में भी विविधता (Duality यानि Diversity) है, यानि हर एक्य में विभाजन यानि विविधता है, यानि विविधता ही प्रकृति को मान्य है, स्थापित है| हम भी एक स्त्री और एक पुरुष (दो भिन्नता) के एकात्मकता (मिलन) के परिणाम हैंशून्य (Zero, not Nothing) भी विविधता का एक्य स्वरुप है| यदि विविधता नहीं है, तो वह निश्चित शून्य है|

क्या आपको लगता है कि धर्म हमें एक कर सकता है? नहीं| दुनिया में सभी कुछ सापेक्ष है| कोई यदि हिन्दू के नाम पर एक है, तो वह दुसरे किसी और धर्म के सन्दर्भ में एक है| अर्थात कोई दूसरा धर्म भी है और उसी सन्दर्भ में दूसरा कोई एक हैंजब कोई दूसरा धर्म सन्दर्भ में नहीं होता है, तो कोई हिन्दू में भी अछूत होता है, कोई दलित होता है, कोई पवित्र जाति का होता है, कोई नीच जाति का होता है| कोई यदि इस्लाम के नाम पर एक है, तो वह किसी और दुसरे धर्म के सन्दर्भ में एक है, अन्यथा वह भी शिया एवं सुन्नी के नाम पर, या क्षेत्रीयता के नाम पर या वंश के नाम पर विभक्त होता है| इसी कारण जहां ईसाई बहुसंख्यक हैं, वहां भी विभाजनकारी अपने को कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट आदि में विभक्त कर लेते हैंइतिहास से भी कुछ सिखा एवं समझा जा सकता है| अपना सब कुछ जला कर या बर्बाद कर ही नहीं सिखा जाता| कम से कम समझदार लोग या समाज तो दूसरी घटनाओं से सीख लेते हैं|

एक राष्ट्र एक धर्म पर नहीं बनता| यदि एक राष्ट्र का आधार धर्म होता, पाकिस्तान देश पूर्वी पकिस्तान (बांग्लादेश) और पश्चिमी पाकिस्तान में नहीं टूटता? आज एक ही धर्म ईसाई के देश उक्रेन और रूस आपस में लड़ता हुआ नहीं होता| चीन और ताइवान आपसी दुश्मन नहीं होता| इस आधार पर ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि अलग अलग राष्ट्र नहीं होते| धर्म को राष्ट्र से जोड़ कर नहीं देखा जाताराष्ट्र तो ऐतिहासिक रूप से एकायानि एकात्मकताकी भावना है, और इसके अलावे यह कुछ भी नहीं है|

कोई धर्म इतना कमजोर या नाजुक नहीं होता कि दुसरे धर्म के संपर्क में आकर टूट जाय या नष्ट हो जाय या बिगड़ जाय| कोई धर्म कमजोर होता है, टूटता है, तो उसके अगुआ के दुष्टता, नासमझी एवं शैतानियों के कारण| अपने सदस्यों के प्रति किसी दुसरे फालतू यानि अवैज्ञानिक आधार पर विभाजन करना यानि विभेदकारी मानसिकता ही उस धर्म को कमजोर करता है| आर्थिक शोषण को जन्म के आधार पर और संस्कृतिक आवरण में करना ही अपने धर्म के सदस्यों के बीच ही दुर्भावना पैदा कर देता हैभारत में जाति, उपजाति, सम्प्रदाय, पंथ, आदि के आधार पर अपने तथाकथित धर्म के अन्दर ही दुर्भावना पैदा किया जाता है, जो व्यवस्था के मौन समर्थन एवं संरक्षण मिलने से अमरबेल की भांति फैलता जाता है| इसके लिए दुसरे तथाकथित धर्म का डर दिखाया जाता है| आधुनिक युग में इस आधार पर यह देश एक बार टूट (भारत विभाजन) चुका है, लेकिन इस विद्वेष के आधार पर आज फिर भावनाओं को भड़क जाने दिया जाता है| तात्कालिक लाभ तो कुछ लोग को मिलता है, परन्तु समाज और देश के नुकसान से किसी को कोई मतलब नहीं है| ऐसे तत्वों से सरकार भी परेशान है|

यदि भारत का राष्ट्रवाद हिन्दू धर्म पर आधारित है और यह राष्ट्र निर्माण के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, तो तथाकथित बुद्धिवादियों एवं तथाकथित प्रगतिवादियों को चाहिए कि इस अभियान में सिर्फ दूसरों को ही शामिल होने का आह्वान नहीं करें, बल्कि अपने परिवार के सदस्यों को भी इसमें शामिल करें| राष्ट्र निर्माण अभियान को कौन फर्जी और फालतू मानता हैऐसे लोग वही है, जो किसी धर्म के पक्ष में और किसी धर्मं के विरोध में लम्बी लम्बी बातें करेगा, बड़ी बड़ी बातें लिखेगा और सामान्य जनों को धर्मों के आधार पर भावनाएँ भड़काएंगें, लेकिन अपने बेटों बेटियों एवं पत्नी को इससे दूर रखेगें| अंग्रेजी में ऐसे लोगों को ड्युअल कैरेक्टर (Dual Character) का लोग कहते हैं, हिंदी में इसके लिए अभद्र शब्द होता है, जिसे लिखना कुछ लोगों को आपत्तिजनक लग सकता है| ऐसे फर्जी और फालतू लोगों की पहचान का यही एकमात्र शर्त है, कि अपनी ऐसी घोषणाओं से अपने परिवार को दूर ही रखते हैंइसी शर्त पर देश, समाज एवं मानवता के दुश्मनों को जाना और पहचाना जा सकता है|

इस आलेख के शुरू में मैंने यह सवाल किया कि हिटलर को आत्महत्या क्यों करना पड़ा? उसने एक अवैज्ञानिक आधार पर अपनी जाति के लोगों को सर्वोत्कृष्ट बताया और शेष को नीच यानि निम्न समझा| इसी आधार उसने तथाकथित राष्ट्रवादको उभारा, लोगों को भड़काया और देश को युद्ध (आंतरिक एवं बाह्य) में झोंक दिया| धर्म के नाम पर उसने अपने देश को फ्रांस या रूस में शामिल नहीं किया, बल्कि विभाजन का नया आधार प्रजाति बना लियाविभाजनकारी लोग विभाजनकारी मानसिकता के बीमार लोग होते हैं, और वे सदैव विभाजनकारी आधार खोज ही लेते हैं| इसने जर्मनी को दो टुकड़े में बाँट दिया और बिस्मार्क के उभरते हुए जर्मनी को पीछे ठेल दिया| परिणामत: हिटलर को आत्महत्या करना पडा|

श्रीलंका का संकट क्या है? उसके द्वारा अनाप सनाप लिया अनुत्पादक कर्ज तो है ही, उसकी सबसे बड़ी समस्या को भारतीय मीडिया रेखांकित नही करता| यह अनुत्पादक कर्ज क्यों लेना पडा? राजनीतिक कारणों से श्रीलंका में सिंहली, तमिल एवं मुस्लिमों में भयानक दुर्भावना को बढ़ने दिया| सभी का लक्ष्य राजनीतिक सफलता रहा| परिणाम यह हुआ कि लोगों के इस वर्ग को या उस वर्ग को लुभाने के लिए बेतहाशा अनुत्पादक खर्च किया गया, देश की उत्पादक शक्तियों एवं व्यवस्था को अंदरूनी संघर्ष को बढ़ाने और निपटाने में लगा दिया| और उसका परिणाम विश्व के सामने है|

यदि धर्म के लिए जान देने से तथाकथित स्वर्गमिलता है, इन तथाकथित बुद्धिवादियों एवं तथाकथित प्रगतिवादियों को क्यों नहीं इस स्वर्ग में रूचि है? यदि स्वर्ग वास्तव में सच्चा है, और यदि धर्म के लिए मरने से स्वर्ग मिलता ही है, तो इन उपदेशों को देने वाले लोग इसमें अपनी जान देने में पीछे क्यों रहते हैं? जो अत्यधिक समृद्ध हैं, वे तो विदेशों में भी आशियाना तैयार कर लिए हैं, लेकिन जिनकी औकात अरबों” (एक सौ करोड़ का एक अरब) रुपयों की नहीं है, उनको समृद्ध विदेशों में कोई पूछने वाला नहीं है| आप धर्मों के लिए मरने वालों का आंकड़ा उठा कर देख लीजिए| जितने लोग इस तथाकथित पवित्र कार्य के लिए आह्वान कर रहे हैं, वे अपने बीबी बच्चों को क्यों नहीं इस पवित्र कार्य में लगाते हैंइन दुहरे चरित्र के लोगों को पहचानिए, अपने समाज, देश और राष्ट्र को बचाइए| सम्हालने का समय अभी भी है| पहले अपनी मानसिकता पर तो विचार कर लीजिए, अन्यथा हांकने वाले तो हांक कर ले जाने के लिए हांका”  लगाने को तो तैयार बैठे ही हैं| जो आदमी है, वे इनसे सावधान हैं| ये हांका वाले लोग भी जंगल के इसी भयानक आग के हवाले होंगे, जैसे आम जन होगें|

निरंजन सिन्हा


 

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

लेनिन और भारत

आज महान क्रान्तिकारी एवं राष्ट्र निर्माता लेनिन का जन्मदिन है, और उनके बहाने भारत के प्रसंग में उनसे जुड़ी कुछ बातो का विश्लेषण ज़रूरी हैविश्व मानवता को प्रभावित करने वाले दो महानायक में एक तथागत बुद्ध है और दूसरे कार्ल मार्क्स है। कार्ल मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक थे, जो कई प्रमुख मानविकी विषयों में गहराई से अध्ययन कर कई तथ्य और अवधारणाएं विश्व को दिया। पूंजीवाद अपने चरम पर था और कामगारों का कष्ट भी चरम पर था। पूंजीवाद एक राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक अवधारणा है, जिसमें पूंजी के निवेशको को महत्तम लाभांश उपलब्ध कराना एकमात्र लक्ष्य होता है। इस लक्ष्य के साथ अन्य मूल्यों को कोई महत्व नहीं दिया जाता है,  मानवीयसामाजिक एवं अन्य मुद्दों को गौण कर दिया जाता है। इस अवस्था में बदलाव के लिए मार्क्स ने अध्ययन और बदलाव के तरीके पर काफी प्रकाश डाला है। लेनिन पहले ऐसे व्यक्ति थे, जो मार्क्स के दर्शन से काफी प्रभावित थे और किसी भी राज्य में सत्ता परिवर्तन कर शासन के नेतृत्व को सम्हाला।

मार्क्स का दर्शन एक ऐसी व्यवस्था के लिए था, जहां औद्योगिक विकास काफी हो चुका थाआबादी का प्रभावशाली हिस्सा कामगार था और पूंजीवाद भी चरम पर था| लेकिन रुस में वैसी स्थिति नहीं थी। लेनिन को रुसी जमीनी हकीकत को समझना थाइसका आर्थिकसामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं को जानना थाऔर उसके अनुसार मार्क्स के अवधारणाओं में व्यापक बदलाव करना था। इन्होंने जो व्यापक बदलाव किएउसे लेनिन के जीवनोपरांत लेनिनवाद के नाम से जाना जाता है। इसी तरह मार्क्स और लेनिन के विचारधाराओं को चीन में माओ त्से तुंग ने चीन की आर्थिकराजनीतिकसामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप संशोधित कर चीन में सफल परिवर्तन किया। इसी कारण माओ त्से तुंग के विचारधारा को माओवाद कहा जाता है।

भारत में मार्क्सलेनिन और माओ के विचारधाराओं से प्रभावित अनेक व्यक्ति और समूह इन विचारधाराओं को भारत भूमि पर क्रियान्वित करना चाहते हैंबदलाव लाना चाहते हैं। लेकिन वे यह नहीं समझ पाते हैं, कि यहां न तो उस हद तक औद्योगिक विकास हुआन पूंजीवाद स्थापित हैन ही संगठित कामगारों की आबादी है। भारत न तो रुस हैभारत न तो चीन है और भारत न तो पश्चिम यूरोप ही है। मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष पर आधारित है, और भारत में वह वर्ग या क्लास नहीं है, जो दूसरे देशों में है। भारत में जाति और वर्ण है, जो विश्व के किसी भी समुदाय के लिए अनूठी व्यवस्था है।

इन लोगों के सन्दर्भ में भारतीय सांस्कृतिकसामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को ही नहीं समझा गया। भारतीय विद्वानों ने भी यूरोपीय परिवेशो और भारत की सांस्कृतिक आवश्यकताओं को ठीक से व्याख्यापित नहीं कर पाएं। बिना मौलिक अध्ययन के आन्दोलन खड़ा करने से भारत में अन्य संसाधनों के अतिरिक्त मानव संसाधन का भारी विनाश हुआ है। भारत में प्रजातंत्र है और विचारों के सम्प्रेषण के लिए वैधानिक साधन उपलब्ध है। भारत यूरोपीय देशों की तरह छोटी आबादी वाला देश नहीं हैअपितु एक यूरोप की तरह एक महादेश तुल्य राष्ट्र है। यहां औद्योगिकीकरण उस स्तर तक नहीं हुआ है और इसी कारण नगरीकरण भी नहीं हुआ है। भारतीय विद्वानों और दार्शनिकों को समझना चाहिए, कि परिस्थितियों में परिवर्तन समय के अनुसार होता रहता है और उसका सम्यक अवलोकन एवं अध्ययन होना चाहिए। ये भारतीय विद्वान अपने इष्ट को इतना सम्मान देते हैं कि उन्हें पथ-प्रदर्शक रहने ही नहीं देते हैंउन्हें ईश्वर तुल्य बना देते हैं। ईश्वर मान लेने पर उनके विचारों की आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं किया जाता है और विचारों के विकास की प्रक्रिया वहीं बाधित हो जाती है। कभी कभी तो उन्हें देव मानकर उनसे कृपा बरसाने की उम्मीद भी करने लगते हैं।

विचारों के सम्यक अवलोकनअध्ययन के साथ साथ आवश्यक आलोचनाओं से ही विचारों का सम्यक विकास होता है। उसमें भौगोलिक स्थितिऐतिहासिक विरासतसामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं एवं राजनीतिक आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विश्लेषण करने से ही विचारों में अनुकूलन क्षमता’ (Adaptation Capacity) मजबूत होती है। आप एक शताब्दी और उससे पहले नहीं जाइए। मैं आधी शताब्दी ही पहले की बात करना चाहता हूं। आधी शताब्दी पहले जो विचार दर्शन भारत के भविष्य के लिए गढ़े गएक्या आज उसी अवस्था में अनुकूल है, या अपेक्षित संशोधन चाहता है?

यहां मैं एपलकम्प्युटर के संस्थापक श्री स्टीव जॉब्स को भी स्मरण करता हूं। उसने एक ग्राफ के द्वारा सामाजिक परिवर्तन की गतिको समय और तकनीकी सुधार के सन्दर्भ में समझाया और भविष्य का प्रक्षेपण (projection) भी किया। उन्होंने बताया कि विगत पांच हजार वर्षों में तकनीकी सुधार या विकास के कारण जितना सामाजिक रुपांतरण हुआ हैतकनीकी सुधार के वर्तमान गति के कारण आगामी कुछ दशकों में उससे भी कई गुणा सामाजिक रुपांतरण हो जाएगा। इसके द्वारा मैं यह कहना चाहता हूं कि विगत आधी शताब्दी में भारत में तीन स्पष्ट परिवर्तन हुए हैं। सर्वप्रथमइसमें जीवन से संबंधित सभी विधाओं में विज्ञान और प्रौद्योगिकी में शोध एवं आविष्कार द्वारा काफी बदलाव हुए हैंपुराने कई अवधारणाएं ध्वस्त हो गईकई नवीन अवधारणाएं अवतरित हुए। दूसरा बदलावसंचार सेवाओं में डिजिटल क्रांति आई है, अर्थात विचारों के प्रसार प्रचार के लिए परंपरागत साधनों के अलावे न्यूनतम खर्च के साधन ज्यादा असरदार हो गए हैं। तीसरा भारत के लिए विशेष महत्वपूर्ण है, कि जनांनकीय (Demographic) आंकड़े में युवाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका बनी है। जब आधी शताब्दी पहले की अवधारणाओं और विचारों में यथावश्यक संशोधन की आवश्यकता हैतो शताब्दी या शताब्दियों पूर्व की अवधारणाओं और विचारों का क्या होगाइसलिए अपने श्रद्धेय की पूजा नहीं कीजिएउनके विचारों और अवधारणाओं की समालोचना करना शुरू कीजिए। इससे आपको संशोधित अनुकूलित अवधारणा मिलेगा। उन्हें मार्गदर्शक ही रहने दीजिए।

आस्था (Faith) ही देश एवं समाज का दुश्मन है। आस्था ही बाधा हैअवरोध पैदा करता है। आस्था सामंतवादी अवधारणा है। आस्था विश्वास (Belief) से अलग है| आस्था ज्ञान (तर्क) के आधार के बिना ही किसी चीज को सत्य मान लेता है, जबकि विश्वास ज्ञान के साथ सही मानना होता है| अत: हम प्रश्न करेंविचारों का विकास होगासमाज और देश का नवनिर्माण होगामानवता स्थापित होगा।

भारत के संदर्भ में एक ध्यान देने योग्य बात है। भारत में वर्ग यानि क्लास (Class) क्या जाति या वर्ण के समतुल्य है?  भारतीय विद्वानों ने भारत की इस अनूठी व्यवस्था - जाति और वर्ण को विश्व के सामने किस रुप में उपस्थापित किया हैइन विद्वानों ने वर्णका अंग्रेजी रुपांतरण तो वर्ण’ (Varn) ही कियाजैसे साड़ीधोतीबड़ी आदि का अंग्रेजी रुपांतरण में इसे ऐसे ही रहने दिया। ऐसा इसलिए किया गया कि इन विशिष्टताधारी वस्तुओं (साड़ी, धोती आदि) को यूरोपीय लोगों को समझाने के लिए इसे इन्हीं नामों में रखना समुचित था।

पर इन भारतीय विद्वानों ने जातिके अंग्रेजी अनुवाद या रुपांतरण में बहुत बड़ी गड़बड़ी कर दी। इन्होंने जाति का अनुवाद कास्ट’ (caste) में कर दिया। कुछ लोग तो इस अनुवाद को ही एक शातिर बौद्धिक साजिश मानते हैं|  ‘कास्टमूलत: एक पुर्तगाली शब्द है, जो पुर्तगाल के एक परिवर्तनीय सामाजिक वर्ग को सूचित करता है| परन्तु भारतीय जातिएक बन्द वर्गहै, जिसे ताउम्र बदला नहीं जा सकता। जातिएक जीवन में नहीं बदल सकता, पर कास्टजीवन में बदल भी सकता है। जाति” (Jati) को यदि अंग्रेजी में भी जाति’ (Jati) ही रखा जाता, तो पश्चिमी बौद्धिक लोगों को इस नए अवधारणा को समझने में कोई भ्रम नहीं होता। इनका ग़लत अनुवाद तो हुआ हैगलती से हुआ या सजिशतन जानबूझकर, यह अलग विषय हो सकता है। इसी कारण पश्चिमी बौद्धिक विचारक भारत के संदर्भ में मार्क्सलेनिन और माओ के विचारों को व्यक्त नहीं कर पाए।

लेनिन: भारत के लिए सीख

इन्होंने यूरोप के विशाल परन्तु अति पिछड़ा देश को सीमित समय में ऐसा स्वरुप दिया कि रुस विकास की तेज गति से आगे निकल गया। इनकी बुनियाद पर खड़ा यह देश तीन दशक के अन्दर संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे सशक्त देश के बराबर पहुंच गया। आज रूस की आबादी पन्द्रह करोड़ ही है, परन्तु शक्ति के मामले में पश्चिमी देशों को NATO का गठन करना पड़ा|

ऐसे में बुनियाद के सिद्धांतों” (Principles for Foundation) का अवलोकन और अध्ययन करना भारत के संदर्भ में सम्यक प्रतीत होता है। उस समय रुस यूरोप में हर स्तर पर पिछड़े देशों की श्रेणी में था। उनके कार्य प्रणाली का अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण है। लेनिन का संगठनात्मक ढांचा नीचे ग्रामीण स्तर से शुरू होकर मास्को तक पिरामिड के स्वरुप में था। ग्रामीण स्तर पर विकास एवं अन्य कार्य विचार पर प्रस्ताव तैयार कर उपरी कमिटी को भेजा जाता रहा। इसी तरह अन्तिम प्रारुप पर केन्द्रीय पोलित ब्यूरो में विचार कर अंतिम निर्णय लिया जाता था। पोलित ब्यूरो में खुलकर बहस करने की पूरी छूट रहता था, परन्तु अंतिम निर्णय के बाद मतभिन्नता कदापि स्वीकार्य नहीं होता था। अंतिम निर्णय के बाद राष्ट्र की ऊर्जा का एक ही दिशा में जाना कई विशेषताओं को बनाता था। विकास के लिए यह कार्य प्रणाली महत्वपूर्ण है।

सभी कृषकों को भूमि उपलब्ध कराने के लिए बड़े जागीरदारों और धार्मिक संस्थाओं की सम्पति सहित सभी भूसम्पत्ति पर राष्ट्र का स्वामित्व स्थापित कर दिया गया। सभी किसानों को कृषि योग्य भूमि उपलब्ध कराया गया।

सभी को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए परिवहन और बैंकों का भी राष्ट्रीयकरण किया गया। खेतों को पानी और औद्योगिक गति के लिए बिजली पर बहुत जोर दिया गया। इसे बिजली क्रान्तिभी कहा गया। बड़े बड़े पनबिजली परियोजनाएंताप बिजली घर एवं परमाणु बिजली संयंत्र स्थापित किए गए। विश्व के सबसे बड़े भौगोलिक विस्तार वाले देश में परिवहन तंत्र का सम्यक विकास किया गया।

छोटे छोटे जोतों को मिलाकर सहयोग समितियों के आधार पर फार्म स्थापित किया गया, ताकि उनका समुचित यंत्रीकरण किया जा सके। इससे आधुनिक प्रविधियों को अपनाने में सहायता मिली। समाज में वर्गरंग और लिंग के आधार पर भेदभाव की समाप्ति सिर्फ कानूनों में ही नहींजमीनी स्तर पर किया गया। शिक्षा को सर्वव्यापक और सर्वसुलभ बनाया गया।

कार्य करने का अधिकार सुनिश्चित कराया गया। इससे युवा शक्तियों का सकारात्मक उपयोग हुआ और भटकाव एवं दुरुपयोग को रोका गया। सारे लोगों को रोजगार देने के लिए एक विस्तृत समावेशी योजना को बनाया गया। इसका परिणाम विश्व देख रहा है।

जो काम नहीं कर सकताउसे खाने का अधिकार नहीं है" के सिद्धान्त पर बल देने से श्रमिकों को सम्मान मिला। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि स्टालिन की पत्नी भी एक कारखाने में श्रमिक थीउस समय भी जब  स्टालिन सोवियत प्रमुख था।

लेनिन की बुनियादी ढांचे का अध्ययन आज भी नवनिर्माण के लिए दृष्टि देता है, जिसके आधार पर त्वरित विकास किया जा सकता है। हमारे यहां कुछ प्रभावशाली यथास्थितिवादी संस्कृति की तथाकथित गौरवशाली अतीत के नाम पर मौलिक परिवर्तन नहीं होने देते हैं। ये यथास्थितिवादी येन-केन प्रकारेन तथाकथित प्रजातांत्रिक मूल्यों के नाम पर यथास्थितिवाद बनाएं रखने में सफल रहे हैं। इन्हे तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का भी मूर्खतापूर्ण समर्थन मिलता रहता है। हमें निष्पक्ष भाव से मानवता और देश के विकास के लिए फिर से इनका अध्ययन करना होगा। विश्व अग्रणी की भूमिका में आना भारत का अधिकार भी हैक्षमता भी हैसंभावनाएं भी है।

बससिर्फ सोच शुरू होनी है।

निरंजन सिन्हा

(www.niranjansinha.com)

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

अन्दर का ठण्ड और टूटता राष्ट्र

  (Inner Coldness and Collapse of Nation

आपसी घृणा और विद्वेष कैसे शक्तिशाली समाजों एवं राष्ट्रों का नाश करता है? एक व्यक्ति की तरह एक समाज और राष्ट्र भी आंतरिक एवं बाहरी शक्तियों से शासित, प्रभावित, नियंत्रित, एवं संचालित होता है| अक्सर बाहरी शक्तियों को आसानी से देखा, पहचाना, और समझा जा सकता है, या समझ लिया जाता है| इसी विशेषता के कारण उस बाहरी शक्तियों के विरुद्ध पर्याप्त तैयारी भी कर लेते हैं, या हो जाती है| इसी कारण बाहरी शक्तियों से निपटना आसान भी होता है| लेकिन आंतरिक शक्तियां हमारे अपने अन्दर होती है, और इसीलिए इसे पहचान पाना भी कठिन होता है| आंतरिक शक्तियां जब आदत बन जाती है, तब उसका विश्लेषण करना और उसे समझना बड़ा ही दुष्कर कार्य हो जाता है| तब आदतन किए गए कामों पर ध्यान भी नहीं जाता| चूंकि उस ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता है, इसीलिए यह व्याधि के रूप में कब छा जाता है, इसका पता ही नहीं चलता है| इसे एक प्रेरक कविता के सन्दर्भ में स्पष्ट करने की कोशिश करूँगा| जो भी विभाजनकारी या विध्वंसकारी शक्तियां होती है, वे विभाजन या विध्वंस का आधार बना ही लेता है, यानि आधार तैयार कर ही लेता है, आधार पहले से मौजूद हो या नहीं हो।

तो मैं उस प्रेरक कविता पर आता हूँ, जिसकी चर्चा मैंने अभी किया है| यह शायद एक अमेरिकन कवि के द्वारा साठ के दशक में रचा गया था| इसमें एक प्रसंग का वर्णन है| एक बार पांच यात्रियों को किसी प्राकृतिक आपदा में किसी ठण्ढे स्थान में एक साथ रुकने की नौबत आ गयी| पाँचों यात्रियों में एक ‘श्वेत’ (तथाकथित उत्कृष्ट ), एक ‘काला’ (तथाकथित वंचित/ उपेक्षित), एक ‘अमीर’, एक ‘गरीब’, और एक ‘व्यापारी’ था| श्वेत और काले को एक दुसरे से सख्त घृणा थी, अमीर और गरीब को भी एक दुसरे से सख्त घृणा थी, और व्यापारी को अपने ‘लाभ’ से अंध भक्ति थी| वहां एक “अलाव” (Bonfire) जल रहा था, परन्तु जलावन  की लकड़ी (Firewood) पर्याप्त नहीं बचे थे| चूँकि घृणा का माहौल व्यापक था, और वह आदत में बदल चूका था। यही आदतें समय के साथ समाज का संस्कार भी बन जाता है, जिसे समन्वित रुप में संस्कृति भी कहते हैं। सभी के हाथ में लकड़ी का एक एक मजबूत एवं मोटा लठ्ठ रक्षात्मक हथियार के रूप में मौजूद था| रात चढ़ती जा रही थी, और ठण्ड बढती जा रही थी, परन्तु लकड़ी के अभाव में ‘अलाव’ कमजोर यानि फीकी पड़ती जा रही थी| सुबह होने को था, यानि सूर्य की उष्मा जीवन बचाने वाला था, लेकिन जीवन बचाने के लिए इन लोगो को अपने लठ्ठ को आग में डालने की आवश्यकता पड़ने लगी| 

श्वेत यानि उत्कृष्ट जन ने अपनी लठ्ठ आग को बनाए रखने के लिए आग में डालना चाहा, परन्तु जब उसका ध्यान सामने के ‘काले’ (The Black/ वंचित) पर गया, तो वह काले के प्रति घृणा एवं विद्वेष से भर गया| उसने सोचा कि सब बच जाए, कोई बात नहीं, परन्तु इस ‘काले’ का बचना उसे कतई मंजूर नहीं था| उसने लकड़ी के उस लठ्ठ को और कस कर पकड़ लिया और उसे आग में नहीं डाला| काले ने भी ऐसा ही उस गोरे को देख कर किया, और अपने लठ्ठ को और कस कर जकड़ लिया| उस अमीर ने भी उस गरीब को देख कर ऐसा ही किया, क्योंकि वह गरीबों के प्रति उसी घृणा एवं विद्वेष की संस्कार में ढल चुका था| उस गरीब का भी भाव उस अमीर के प्रति वैसा ही था, जैसा उस अमीर का उस गरीब के प्रति था| इन दोनों ने भी अपने अपने लठ्ठ को और कस कर पकड लिया| एक व्यापारी अपने लाभ को सोच कर कि अपने सामान से सभी का हित करे, यह बिना लाभ लिए करना इसके लिए संभव नहीं था| वह लाभ के अंधभक्ति में डूबा हुआ था| किसी ने भी आग के सुबह तक जलने देने के लिए अपना लकड़ी का लठ्ठ आग में नहीं डाला और आग सुबह होने से पहले ही बुझ गया था| परिणाम यह हुआ कि सुबह तक वे पाँचों ठण्ड से मर चुके थे,और सभी अपने अपने लठ्ठ को जकड़े हुए थे| यहाँ कवि लिखता है कि ये पाँचों व्यक्ति किसी बाहरी ठण्ड से नहीं मरे थे, बल्कि अपने अन्दर की ठंढ से मरे थे| यह आपसी घृणा और विद्वेष का भाव लोगों की समझ यानि तार्किकता में ठण्ड पैदा कर दी थी| इससे ऐसा आदमी एक सामान्य पशु से भी बदतर हो जाता है| इस अन्दर की ठंढ, यानि इन लोगों की मानसिक ठंढ ने इन सबों की जान ले लिया|

भौतिक विज्ञान भी कहता है कि अत्यधिक ठंड में धातुओं में भी भुरभुरापन (Brittleness) आ जाता है और वह साधारण आघात (Stress/ Impact) को बर्दाश्त नहीं कर पाता है। यही स्थिति एक समाज और राष्ट्र की भी होती है। अत्यधिक ठंड संबंधों (बंधनों) में सूखापन (Dryness) लाकर भी भुरभुरापन बढ़ा देता है। भावनाओं (Emotions) के मामले में आपसी घृणा और विद्वेष का ठंड ज्यादा खतरनाक और भयावह हो जाता है।

पहले घृणा और विद्वेष के अर्थ को समझा जाय| ये दोनों ही किसी के व्यक्तित्व के नकारात्मक भाव है| घृणा और विद्वेष ऐसे भाव हैं, जिसके द्वारा लोग अपनी अयोग्यता, अक्षमता एवं आलस को छिपाते है, या ढकते हैं, या पहचान नहीं पाते हैं, या समझ नहीं पाते हैं| इसे आप मानसिक रोग के लक्षण मान सकते हैं, या स्पष्ट कहें, तो उन्हें मानसिक रोगी मान सकते हैं| ये सभी आवेश (भाव) जनित मन के ,यानि व्यक्तित्व के विकार हैं|

यह सब ‘ईर्ष्या’ से सम्बन्धित है| ईर्ष्या को ‘दूसरे के सुखों को देख कर उत्पन्न नकारात्मक भाव’ कह सकते हैं| लेकिन जब ईर्ष्या इस हद तक बढ़ जाती है, कि लोग उनके सुखों को बर्दास्त नहीं कर पाते हैं, और उसे नष्ट या बरबाद कर देना चाहते हैं, तो उसे ‘द्वेष’ कहते हैं| अत: द्वेष ईर्ष्या का उग्र स्वरूप है| ईर्ष्या का साधारण स्वरुप ‘जलन’ कहलाता है| इस तरह द्वेष में ‘जिससे ईर्ष्या किया जाता है, उसे हानि पहुँचाने की ‘सोच’ आ जाती है, और इसीलिए इस हानि को  मुकाम पर पहुँचाने के लिए साजिश एवं कोशिश होती है| लेकिन जब द्वेष ज्यादा विकृत या वीभत्स हो जाता है, तो यह ‘विद्वेष’ कहलाता है| और जब यह द्वेष या विद्वेष का भाव स्थायी हो जाता है, यानि इस भाव में स्थायित्व आ जाता है, तो यह ‘घृणा’ कहलाता है| इसे ही साधारण शब्दों में ‘नफरत’ कहते हैं|

घृणा’ का भाव भी ‘प्रेम’ की तरह ही अँधा होता है| ‘घृणा करने वाले’ को ‘घृणित व्यक्ति’ में सिर्फ और सिर्फ अवगुण ही दिखता होता है, उसमे कुछ भी अच्छा नहीं दिखता है| घृणा का स्वरुप ऐसा बना दिया जाता है, मानों समूहों के आपसी हितों का टकराहट हो रहा है| जब इसका स्वरुप ‘हितों के टकराव’ में बदल जाता है, तो ‘शत्रुता’ का जन्म होता है|

जब ईर्ष्या का भाव आएगा, तो इसके विपरीत भाव में ‘मोह’ या ‘लगाव’ आएगा| इसे ही ‘भक्ति’ या ‘अंध भक्ति’ कहते हैं| अत: जिसे अंध भक्ति आएगा, वह व्यक्ति या समाज ‘मूढ़’ हो जाएगा, और जिसे द्वेष या विद्वेष आएगा, वह ‘दुष्ट’ हो जाएगा| ‘मूढ़’ का अर्थ मुर्ख, अज्ञानी , या निर्बुद्धि है, यानि दो पैर वाला पशु; हालाँकि एक पशु को मुर्ख नहीं कहा जाना चाहिए| इन दोनों में यानि एक मूढ़ और एक पशु में समानता यह है कि इन दोनों को तर्क करना नहीं आता है| तर्क का नहीं होना ही अज्ञानता का प्राथमिक लक्षण है, भले ही उसके पास कोई लम्बी उपाधि हो, या कोई बड़ा पद भी हो| तो मूढ़ एवं दुष्ट व्यक्ति के पास तर्क को समझने, और तर्क को करने की क्षमता एवं योग्यता, दोनों का ही अभाव होता है| ऐसे व्यक्तियों को कोई भी आसानी से पशुओं की तरह ‘हांक’ ले जाता है, यानि बहा कर ले जाता है|

यही हाल यानि अवस्था एक समाज की और एक राष्ट्र की होती है| एक समाज और एक राष्ट्र जब अपने लोगों में समझ और तार्किकता को हटा कर घृणा और अंधभक्ति का धुंध (Mist) पैदा कर देता है, तो उन मूर्खों को उस धुंध में वही दिखता है, जो हांकने वाले यानि बहा कर ले जाने वाले दिखाना चाहते हैं| जब घृणा एवं विद्वेष की उत्पत्ति एवं विकास ही “अज्ञानता” पर आधारित होता है, तब व्यवस्था भी अज्ञानता को बनाए और फैलाए रखना चाहता है| ‘अज्ञानता के धुंध’ में ही “कथानक” (Narratives) भी इतिहास हो जाता है| तब कोई भी प्रवचनों, फिल्मों एवं नाटकों, सोशल मीडिया के अन्य साधनों, इलेक्ट्रोनिक एवं प्रिंट मीडिया के सहयोग से “कथानक” के साथ “इतिहास का बोध” (Perception of History) पैदा किया जाता है, या बदल दिया जाता है| अज्ञानियों की दुनिया में ये कथानक ही इतिहास कहलाते हैं, या बन जाते हैं|

आप भी जानते हैं कि किसी समाज का “इतिहास बोध” ही उस समाज की संस्कृति, यानि उसके ‘सोच- विचार’ के प्रतिरूप (Pattern) को बनाते हैं| यह गलत इतिहास बोध ही मिलकर घृणा एवं विद्वेष को मजबूत करते हैं और अपने ‘समाज’ एवं ‘राष्ट्र’ की संस्कृति, यानि ‘सोच- विचार के प्रतिरूप’ में “ठंड” (Coldness) पैदा कर देता है| ऐसे माहौल में समाज एवं राष्ट्र विरोधी शक्तियों को उनके बीच सक्रिय होने में मदद मिलती है| विचारों के इस ठण्ड से जो ‘सूखापन’ (Dryness) पैदा होता है, वह जंगल के आग को और भयावह बना देता है| ‘कुछ चूहों’ को तथा ‘कुछ उड़ने वाले पक्षियों’ को लगता है कि जंगल की आग से वे सब तो बच ही जाएंगे, परन्तु उन्हें जंगल की आग और आग की लपटों की भयावहता का अंदाजा नहीं होता है| और वे सब भी जंगल के अन्य जानवरों की तरह नष्ट होने को बाध्य हो जाते हैं|

इस वैचारिक “ठण्ड” से अपने समाज और राष्ट्र को बचा लेने का विमर्श को बढाया जा सकता है|

 आचार्य प्रवर निरंजन जी


महाभारत को अर्जुन ने कैसे जीता?

शिक्षक दिवस पर   .......  भारत में ‘महाभारत’ नाम का एक भयंकर युद्ध हुआ था| ऐसा युद्ध पहले नहीं हुआ था| नाम से भी स्पष्ट है कि इस युद्ध में ...