गुरुवार, 18 दिसंबर 2025

अगड़े और पिछड़े में क्या अन्तर है?

'अगड़ा' और 'पिछड़ा' एक सापेक्षिक अवधारणा है| अगड़ा और पिछड़ा जीवन के हर क्षेत्र, हर प्रक्रम और हर स्थिति में बना रहेगा| यह अगड़ा और पिछड़ा कोई भी हो सकता है| इस अवधारणा में व्यक्ति, परिवार, समाज, समूह, संस्कृति या राष्ट्र शामिल हो सकता है| आप इस सूची का अपनी स्वेच्छा से ‘और’ विस्तार करने के लिए कुछ और शब्द जोड़ सकते हैं| यहाँ यह प्रश्न महत्वपूर्ण होगा कि कोई 'अगड़ा' क्यों बन जाता है और कोई 'पिछड़ा' क्यों हो जाता है? मैं यहाँ किसी पर दोष –निर्धारण नहीं करने जा रहा हूँ, अपितु मैं सिर्फ कारण –परिणाम तक सीमित रहूँगा|

किसी के 'अगड़े' और 'पिछड़े' होने क्या अन्तर है? यह एक अनिवार्य प्रश्न है, जिसे हर कोई को समझना चाहिए। इस मूल कारण को पहचान कर कोई भी कभी भी अगड़ा बन सकता है। इस अगड़े और पिछड़े होने के अन्तर का एक ही कारण है, जिसे सावधानी से समझना चाहिए| दरअसल एक व्यक्ति, या परिवार, या समाज दो भिन्न समय में या दो भिन्न सन्दर्भ में कभी अगड़ा और कभी पिछड़ा हो जाता है। वैसे सभी मौजूदा जीवित मानव ‘होमो सेपियन्स सेपियन्स’ ही हैं, और सभी एक ही ‘विस्तारित परिवार’ (Extended Family) का सदस्य हैं। इसीलिए आज का सभी जीवित मानव हर बौद्धिक कार्य करने लिए समान रुप से सक्षम एवं योग्य है|

जो ज्ञान -अर्जन में अपने को पूर्ण समझेगा, वह अपने ज्ञान का संवर्धन छोड़ कर दूसरे क्षेर्त्रों में उलझा रहेगा, वह पिछड़ा ही रहेगा। जो अपने को ज्ञान में पूर्ण होना समझ लिया, वैसा व्यक्ति समय के बदलने के अनुरुप समायोजित और संवर्धित नहीं होना चाहता। समस्याओं का समाधान हमारे सोचने के तरीके में बदलाव से शुरू होता है, न कि केवल हमारे कार्यों में। ऐसा ही व्यक्ति विचार में परिमार्जन और संवर्धन छोड़ कर सिर्फ संसाधन जुटाने और संगठन बना कर अगड़े की श्रेणी में आना चाहता है|

जो भी ऐसा समझता है कि उसे अपनी समस्या के कारण की समुचित और पर्याप्त जानकारी है और वह उस समस्या के समाधान की पर्याप्त समझ भी रखता है, तभी वह सीखना समझना रोक देता है| जब उसे लगता है कि उसके महापुरुषों ने उसकी समस्यायों का समाधान का पता कर लिया है, तब वह ज्ञानार्जन में ठहर जाता है| उसका ध्यान इस पर नहीं जाता है कि हर क्षण परिस्थितीयाँ बदलती रहती है और इसीलिए हर समस्या की प्रकृति भी प्रवाहमान रहती है|

प्रसिद्ध वैज्ञानिक और दार्शनिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था कि समस्या चेतना के जिस स्तर खड़ा है, उसका समाधान चेतना के उसी स्तर पर रह कर नहीं पाया जा सकता है|इसके साथ यह भी कहते हैं कि एक ही तरह की सोच को दोहराने से संभवतः वही परिणाम प्राप्त होंगे। कई समस्याएं आदतों, मान्यताओं और धारणाओं का परिणाम होती हैं। किसी समस्या को हल करने के लिए केवल अधिक प्रयास करना ही काफी नहीं है, बल्कि अलग तरीके से सोचना भी जरूरी है।

प्रसिद्ध क्रान्तिकारी दार्शनिक एन्टोनियो ग्राम्शी ने भी ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ (Cultural Hegemony) में यही समझाते हैं, कि विरोधियों की अवधारणाओं को ही सही मानकर समाधान की उम्मीद करना उनकी दलदलों में डूब जाना होता है| समस्याएं केवल बाहरी चुनौतियां नहीं हैं, बल्कि आंतरिक चिंतन का प्रतिबिंब हैं। केवल गति ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि गहराई में उतरना भी जरूरी है। पुरानी सोच किसी समस्या के अस्तित्व का कारण तो समझा सकती है, लेकिन हमेशा उसे दूर नहीं कर सकती। ऐसे पिछड़े लोग अपने नवाचारी ज्ञानार्जन रोक कर सिर्फ सड़कों पर उतरना जानता है|         

अपने ज्ञान को अपूर्ण समझने की शास्वत प्रकृति, प्रवृत्ति और नजरिया वाले लोग ही 'अगड़े' होते हैं| ज्ञान किसी विषय में सूचनाओं का संगठित एवं व्यवस्थित संग्रह होता है| चेतना को विकसित करने को तत्पर रहने वाला ही ‘अगड़ा’ होता है| ऐसा समझने वाला व्यक्ति, परिवार, समाज, संस्कृति और राष्ट्र सदैव अग्रणी रहेगा। किसी के ‘अगड़ा’ होने का एकमात्र करण यही होता है|

यही पिछड़े और अगड़े में मूल, मौलिक और आधाभूत अन्तर है। लेकिन ऐसा क्यों होता है?

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक अल्फ्रेड एडलर अपने 'श्रेष्ठतावाद' (Striving for Superiority) में समझाते हैं कि प्रत्येक मानव हीनता की भावना से ग्रस्त होता है और वह श्रेष्ठ बनना या दिखना चाहता है। अल्फ्रेड एडलर का 'श्रेष्ठतावाद' का सिद्धांत बताता है कि हर व्यक्ति बचपन में हीनता (Inferiority) की भावना महसूस करता है और इस भावना पर काबू पाने और व्यक्तिगत विकास हासिल करने के लिए श्रेष्ठता चाहता है। यही भावना मानव व्यवहार की मुख्य प्रेरक शक्ति है। यह प्रयास किसी को स्वस्थ रूप से सामाजिक हित और उपलब्धि की ओर ले जा सकता है, या किसी को अस्वस्थ रूप से अहंकार या प्रभुत्व की ओर ले जा सकता है। मुख्य विषय पर जाने से पहले हमलोग एक प्रसंग पर ठहरते है

कुछ वर्षों पहले की बात है। एक प्रोफेसर ने अपने 'युद्ध विज्ञान' (Military Science) के क्लास में छात्रों से पूछा कि दुनिया में सबसे शक्तिशाली देश कौन है? उत्तर आया - संयुक्त राज्य अमेरिका। जवाब सही था। अगला सवाल था कि दुनिया का सबसे डरपोक देश कौन है? उत्तर की प्रत्याशा में क्लास में सन्नाटा छा गया। फिर प्रोफेसर ने बताया कि दुनिया सबसे डरपोक देश भी संयुक्त राज्य अमेरिका ही है। अकल्पनीय उत्तर था। परन्तु ऐसा कैसे सम्भव है? जो डरपोक होता है, वह अपने सभी संभावित खतरों के प्रति अति सावधान और सतर्क होता है। एक डरपोक ही अपने सभी संभावित कमजोर पक्षों को मजबूत करता है, ताकि उसे कोई किसी भी क्षेत्र में नुकसान नहीं पहुँचा सके| इसके लिए वह अति सावधान एवं सजग रहकर अपने कमजोर पक्षों को पहचानते रहते हैं और समय के अनुसार अपने को संशोधित, परिमार्जित और संवर्धित करते होते हैं|  उसका यही भाव उसे सशक्त बनने को बाध्य करता है|

आज का आधुनिक मानव भी इसी डर की भावना के कारण ही एक पशु से मानव बन सका| कोई चालीस लाख साल पहले हमारे पूर्वज वानर (Ape) थे और पेड़ों पर रहते थे| किसी खाद्य संकट के कारण कुछ कमजोर वानरों को पेड़ों से नीचे धकेल कर गिरा दिया गया और फिर से उन पेड़ों पर नहीं चढ़ने दिया गया| नीचे के झाड़ियों में छिपे खतरों को भापने और उनसे बचने के लिए उन्हें उचक उचक कर देखना होता था| इसी क्रम में वह सीधे खड़े होने का आदी होता गया और सीधा चलने वाला मानव बन सका| जंगल का सबसे कमजोर जीव अपने संभावित खतरों को समझने और उसका समाधान पाने के लिए अपनी चेतना के विकास करने को बाध्य हुआ| इसका परिणाम हमलोग के इस स्वरुप में सामने है|

उपरोक्त दोनों प्रसंगों पर ठहर कर विचार करें| दोनों से यही स्पष्ट होता हाँ कि कोई क्यों ‘वनमानुस’ ही रह गया और कोई क्यों विज्ञानमानुस’ बन गया| क्यों कोई जानवर ही रह गया और कोई क्यों ‘निर्माता मानव’ (Homo Faber), ‘सामाजिक मानव’ (Homo Socius), ‘वैज्ञानिक मानव’ (Homo Scientific) और ‘आध्यात्मिक मानव’ (Homo Spiritual ) बन सका| इन सभी का एक ही कारण है| कोई अपने चेतना के विकास को सदैव तत्पर रहता है और कोई चेतना के विकास में पर्याप्त  संतुष्ट होता है| किसी के अगड़े होने और किसी के पिछड़े रह जाने का यही एक कारण है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

 

1 टिप्पणी:

  1. सरल भाषा में बहुत ही तार्किक ढंग से विषय के मूल में जाकर उसे समझाया गया है।
    ऐसे ज्ञानवर्धक मौलिक आलेखों को प्रस्तुत करने के लिए "आचार्य निरंजन जी महाराज" को कोटि-कोटि नमन्।

    जवाब देंहटाएं

अगड़े और पिछड़े में क्या अन्तर है?

'अगड़ा' और 'पिछड़ा' एक सापेक्षिक अवधारणा है| अगड़ा और पिछड़ा जीवन के हर क्षेत्र, हर प्रक्रम और हर स्थिति में बना रहेगा| यह अगड़ा ...