शनिवार, 28 जून 2025

नीत्शे ने ईश्वर की हत्या क्यों की?

फ्रेडरिक नीत्शे ने घोषणा की थी कि “उसने ईश्वर की हत्या कर दी है, और ईश्वर अब मर चुका है”| लेकिन प्रश्न यह उठता है कि उसने ‘ईश्वर’ (God) की हत्या क्यों की? उसने अपने विश्वविद्यालीय छात्रों के समक्ष बीच चौराहे पर ईश्वर की हत्या कर उसका अंतिम संस्कार कर रहा था| नीत्शे उन्नीसवीं शताब्दी का एक महान जर्मन दार्शनिक प्रोफ़ेसर था| उनका यह प्रसिद्ध घोषणा रहा कि ‘ईश्वर मर चुका है’ (God is dead)| यह कहा जा सकता है कि इस घोषणा का कोई शाब्दिक मतलब नहीं है, बल्कि यह एक रूपक (Metaphor) मात्र था| फिर भी, उसने ईश्वर को क्यों मारा?

इस प्रसंग को समझने के लिए हमें उस क्षेत्र, समाज, राष्ट्र एवं संस्कृति को उस समय एवं उस पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में समझना चाहिए| चूँकि शब्दों के अर्थ, शब्दों के ढांचे एवं संरचना भी अपने सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, क्षेत्र एवं काल के अनुसार बदल सकता है, या बदल ही जाता है, इसीलिए किसी भी ‘असामान्य शब्द’ को उसके सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, क्षेत्र एवं काल के अनुसार ही समझना चाहिए| उस समय लगभग सभी प्रमुख यूरोपीय देश अपना साम्राज्यवादी विस्तार कर चुका था, और इस दौड़ में पिछड़ गए देशों की सूचि में जर्मनी भी शामिल था| यूरोपीय प्रबुद्धता के जागरण आन्दोलन से लगभग सभी यूरोपीय देश लाभान्वित था, लेकिन इस दौड़ में जर्मनी कहीं नहीं था, जहाँ इसे होना चाहिए था| ऐसी स्थिति में किसी भी प्रबुद्ध नागरिक को अपने समाज, राष्ट्र एवं संस्कृति की चिंता होना स्वाभाविक है, यदि उनमे कुछ भी चेतना का स्तर होगा तो, यानि यदि वह वास्तविक रूप में जीवित होगा तो| फ्रेडरिक नीत्शे जर्मनी के वैसे ही चेतनायुक्त यानि जीवित महान दार्शनिक हुए|

नीत्शे के समकालीन समाज एवं संस्कृति पर धर्म का आडम्बर छाया हुआ था| हर कार्य एवं परिणाम के लिए ईश्वर की ओर और उसके अभिकर्ताओं की ओर ही उन्मुख हुआ जाता था| जैसी ईश्वर की इच्छा होगी, वैसा ही परिणाम होगा, फल मिलेगा| तो फिर किसी भी अलग एवं विशिष्ट परिणाम के लिए चिंतन एवं प्रयास क्यों किया जाय, जब सब कुछ पहले से ही नियोजित एवं निर्धारित है? यह एक बहुत अहम् सवाल सामान्य जनमानस के समक्ष था|

यूरोप में विज्ञान की प्रगति धर्म ग्रंथों में स्थापित तथ्यों, यानि स्थापित सत्यों को एवं प्रतिपादित सर्वकालिक सिद्धांतों को क्रमश: ध्वस्त करता जा रहा था| समाज के प्रबुद्ध वर्गों में ईश्वर की स्थापित अवधारणा भी टूट कर ध्वस्त होती जा रही थी| चार्ल्स डार्विन आदमी के ईश्वरीय कृति मानने के सर्वव्यापक और सर्वस्थापित धार्मिक सिद्धांत को अपने ‘उद्विकासीय सिद्धांत’ (Evolution Theory) से पहले ही ध्वस्त कर चुके थे|

धर्म आस्था का विषय होता है, और इसीलिए ईश्वर से सम्बन्धित कोई प्रश्न कभी भी नहीं किया जा सकता| धर्म में ‘ईश्वर’ को बिना तथ्य, तर्क, कारण के ही मान लेना होता है| लेकिन विज्ञान सदैव संदेह पर खड़ा होता है, और यही संदेह/ संशय ही विज्ञान के विस्तार एवं गहराई को पाने का आधार होता है, और इसी विधि से विज्ञान विकसित होता रहता है|

विज्ञान का प्रकाश तेजी से और अपने तीखे प्रभाव से समाज एवं संस्कृति को गहराई तक व्याप्त कर रहा था| ऐसी स्थिति में विज्ञान के प्रकाश में ईश्वर को पहाड़ों और जमीनों की कंदाराओं एवं दरारों में छिप जाना पड़ा था (और यह आज भी छिपा हुआ है)| लेकिन जब भी विज्ञान अपने विकास- यात्रा की अवस्था में किसी गहन एवं नवाचारी सवालों से जूझने लगता था, तब ही धार्मिक व्यक्ति उस सर्वशक्तिमान, सर्वव्याप्त, सर्वकालिक ईश्वर को उन कंदराओं से बाहर निकाल कर प्रकट करने का प्रयास करता रहता था (और आज भी करता रहता है)| तब वे लोग यह कहते हैं कि विज्ञान की एक सीमा होती है, और उसके बाद ईश्वरीय व्याख्या ही काम आता है| महान वैज्ञानिक आइजक न्यूटन ने भी ग्रहों के गतियों के सम्बन्ध में रह गयी त्रुटि के सम्बन्ध में ऐसे ही ईश्वरीय व्याख्या की घोषणा की थी, क्योंकि वे एक धार्मिक पादरी भी थे| इस त्रुटि को बाद में महान वैज्ञानिक ‘पियरे साइमन लैप्लास’ ने दूर किया था| वैज्ञानिक समाधान पा लेने, या विज्ञान के और विकास के बाद ईश्वर फिर से उन्ही स्थानों में छुप जाता है, और कुछ समय के लिए प्रसंग से बाहर भी हो जाता है|

दरअसल नीत्शे यह समझ गये थे, कि सरल, साधारण एवं अशिक्षित जनता के समक्ष प्राकृतिक शक्तियों की क्रियाविधि को ‘मानवीय स्वरुप’ (Personification) में प्रस्तुतीकरण किया जाना ही ‘ईश्वर’ है| प्राकृतिक शक्तियों के ‘मानवीय स्वरुप’ के रूप में प्रस्तुतीकरण करने से उन प्राकृतिक शक्तियों के मध्यस्थ (Middle-Man) या  अभिकर्ता (Agent) के रूप में कोई विशेष व्यक्ति बन सकता था, और फिर वह शेष बहुसंख्यक को अपनी व्याख्या से अपना धंधा (व्यवसाय) चला सकता था, या चला रहा था| इस तरह वह एजेंट सत्ता की एवं सामान्य जनमानस की यथास्थितिवादी नजरिया, प्रवृति और इच्छा की निरंतरता को बनाए रखता था| नीत्शे सत्ता और धर्म के इस गठजोड़ को देख समझ रहे थे, जो ईश्वर नामक कल्पना पर आधारित एक ‘व्यक्ति स्वरुप’ मात्र था| ईश्वर की कोई उपयोगिता और सार्थकता इस विज्ञान के युग में नहीं रह गयो थी| इस ईश्वर के नाम पर तत्कालीन धर्म जर्मन युवाओं को काहिल, निकम्मा, निठल्ला, अतार्किक और बेकार बना दिया था, और तथाकथित डिग्रीधारी युवा भी एक मूर्ख से ज्यादा कुछ भी नहीं था| इस स्थिति को एक तेज तर्रार युवा, संवेदनशील और प्रबुद्ध प्रोफ़ेसर कैसे बर्दास्त कर सकता था? जर्मन युवाओं को व्यावहारिक रूप से समझाना इनके लिए एक बड़ी चुनौती था|

आदमी एक चेतना युक्त प्राणी है, जिसका उदय तो उदविकासीय सिद्धांत से हुआ, और जैवकीय प्रक्रियायों से उत्पत्ति होती है| यह मानव कोई अचेतन वस्तु नहीं है, जिसका निर्माण किसी की पूर्व संकल्पना एवं पूर्व नियोजन से नहीं हो सकता है| पहले मानव का “अस्तित्व” (Existence) आता है, और फिर मानव अपनी इच्छाओं से, यानि अपनी स्वतंत्रताओं से अपने वर्तमान एवं भविष्य का निर्माण करता है| अर्थात मानव अपना भाग्य निर्धारण के लिए स्वतंत्र है, और किसी भी मानव का अस्तित्व से पहले उसका निर्माण, यानि उसके भविष्य का निर्धारण नहीं होता है| यही अवधारणा अगली शताब्दी में महान जर्मन दार्शनिक ज्या पॉल सार्त्र के “अस्तित्ववाद” (Existentialism) के रूप में आया| उनका मानना था कि धर्म के आडम्बर के विलोपन से जो स्थान रिक्त होगा, उसे विज्ञान, कला, साहित्य, संस्कृति, जीवन मूल्य, नैतिकता आदि द्वारा भरे जाएंगे|

जब ईश्वर लोगों को काहिल, निकम्म, निठल्ला आदि ही बना रहा था, और यदि वह ईश्वर किसी भी स्वरुप में जीवित ही है, तो उसकी हत्या कर देने से मात्र से ही लोग अपने कर्मों पर आश्रित हो जाएंगे| इस हत्या मात्र से ही जर्मनी की सामान्य मानसिकता में जो महत्वपूर्ण बदलाव हुआ, उसी का परिणाम है आज मानव -इतिहास में जर्मनी को उच्चतर स्थान का दर्जा प्राप्त है| आज भी जर्मनी विश्व की चौथी अर्थव्यवस्था है, जबकि इसकी आबादी सम्पूर्ण भारत की आबादी का पांच प्रतिशत भी नहीं है|

नीत्शे दूरदर्शी था, और जर्मनी के इसी बदलाव के लिए ही नीत्शे ने ‘ईश्वर’ की हत्या कर दी थी|        

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान| 

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