शनिवार, 8 मार्च 2025

मैं कौन हूँ?

मैं कौन हूँ?, एक बड़ा ही सहज और स्वाभाविक प्रश्न है। लेकिन इसका उत्तर सरल (Simple) भी नहीं है, और साधारण (Ordinary) भी नहीं है। मतलब इसका उत्तर संरचना में जटिलतर भी है, और अपने उद्विकासीय अवस्था के प्रथम सोपान का ही नहीं होकर, उच्चतर अवस्था का है। यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यही प्रश्न जीवन का मूल है, और यही मानव जीवन का उद्देश्य भी स्पष्ट करता है| जब आप किसी भी वस्तु (Objects, not only goods) या किसी भी क्रिया, यानि किसी भी घटनाक्रम को यथास्थिति स्वरुप में जान लेते हैं, जैसा वह उस समय एवं उस सन्दर्भ और पृष्ठभूमि में रहा था, तो उन चीजों को समझ पाना बेहद आसान हो जाता है| किसी भी वस्तु या क्रिया या अवस्था को उसी स्वरुप में जान पाना, जैसा वह उस समय वास्तव में रहा है, ही ज्ञान कहलाता है| जब कोई अपने आप को ‘मूल’ (Core) स्वरुप में, ‘मूलभूत’ (Fundamental) अवस्था में, एवं ‘मौलिक’ (Original) संरचना में जान पाता है, यानि कोई अपने आप को ‘शुद्ध’ (Pure) अवस्था में जान पाता है, तो वह यह भी जान जाता है कि “मैं कौन हूँ?” इसी ज्ञान की अवस्था को “मुक्ति” (Liberation) भी कहते हैं|

फ्रांसीसी दार्शनिक रे देकार्ते कहते हैं कि ‘मैं सोचता हूँइसलिए मैं हूँ’। मतलब जब हम सोचते नहीं होते हैं, या सोचने लायक नहीं हैं, तब मैं नहीं हूँ। इसीलिए मृत्यु उपरांत मैं नहीं हूँ, या बेहोशी में भी मैं नहीं हूँ, या गहन निद्रा में भी मैं नहीं हूँ; क्योंकि उस समय हम सोचते नहीं होते हैं। एक और स्पष्ट अर्थ यह भी है  कि जब मैं सोचने लायक भी नहीं हूँ, तो मेरे होने या नहीं होने का कोई अर्थ भी नहीं है| लेकिन यह भी स्पष्ट रहना चाहिए कि चिंतन की प्रक्रिया सचेतन अवस्था के साथ साथ अचेतन अवस्था में भी चलती रहती है, क्योंकि ‘मन’ शान्त होकर भी सक्रिय एवं तत्पर रहता है, तभी तो किसी अवस्था में अचानक तत्काल प्रतिक्रिया दे पाते हैं| मतलब मेरे होने या नहीं होने में मेरी ‘चेतना’ यानि चेतनता की अवस्था ही मूल है, मौलिक है, और मूलभूत भी है| इसीलिए दुनिया के सभी कालों में, और सभी क्षेत्रों के सभी बुद्धिवादियों ने यही कहा है कि हम जैसा सदैव सोचते रहते हैं, वैसा स्वरुप या अवस्था हम पा लेते हैं| हालाँकि क्वांटम भौतिकी का कोपेनहेगन वक्तव्य यही कहता है कि कोई भी चीज वहाँ इसलिए हैं, क्योंकि हम वहाँ वही देखना चाहते हैं (अवलोकन का सिद्धांत)| लेकिन क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत यह कहता है कि जिस चीज के होने की संभावना जहाँ ज्यादा होती है, वहीं उसके प्रकट होने की संभावना भी ज्यादा होती है| इसे आप चेतना के उद्दीपन के रूप में भी मान सकते हैं| अर्थात जैसा हम सोचते रहते हैं, वैसा ही हो जाते हैं|

इसका एक और स्पष्ट अर्थ यह भी है कि  मेरा शरीर और मैं, दोनों ही एक नहीं है। अर्थात मैं (मेरा मन) अपने शरीर के साथ तो हूँ, लेकिन उसका हिस्सा नहीं हूँ। इसीलिए रे देकार्ते कहते हैं कि मानव अपने शरीर और अपने मन का संयुक्त उत्पाद है| तो “मैं” मेरा ‘मन’ (Mind) है, मेरी ‘चेतना’ (Consciousness) है, मेरा ‘आत्म’ (Self) तो है, लेकिन मैं मेरी ‘आत्मा’ (Soul) नहीं है, यह कोई वैज्ञानिक अवधारणा नहीं है और इसे ‘आत्म’ के पर्यार्य के रूप में दिखा कर ही सजिशतन या अज्ञानतावश उपयोग एवं प्रयोग कर अनर्थ किया जाता है। यानि हमें मन, चेतना, आत्म एवं आत्मा पर थोडा गंभीरता से ठहर कर समझना चाहिए|

पुनः मैं रे देकार्ते पर आता हूँ। मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ, यानि मैं चेतन हूँ| मैं अपनी सोच पर भी सोच सकता हूँ, जो शायद एक सामान्य पशु नहीं करता है, इसलिए ही मैं उत्कृष्ट चेतना की अवस्था में हूँ, और मैं एक पशु नहीं हूँ| इसीलिए यह स्पष्ट है कि चेतना के विकास की अवस्था ही उस मानव का स्तर निर्धारित एवं निश्चित करता है, अर्थात चेतना का विकास ही जीवन का मूल उद्देश्य है| एक पशु अपने अधिकतर कार्य व्यवहार अपनी रिफ्लेक्स (प्रतिवर्ती – Reflex) अनुक्रिया के अनुरूप ही कर पाता है, और इसमें चिंतन की प्रक्रिया महत्वपूर्ण नहीं होती है, या नगण्य होती है, या नहीं ही होती है| इसीलिए ‘तुरंत प्रतिक्रिया देना’, यानि ‘बिना सोचे समझे ही प्रतिक्रिया देना’ “पशुवत प्रवृति” (Animalistic Instincts) मानी जाती है| इसी कारण ऐसे लोगों का स्तर इन पशुओं के चिंतन स्तर की ही तरह निम्नतर ही रहता है| इसलिए मेरा मानना है कि एक पशु यदि सोच भी सकता है, लेकिन वह अपनी सोच की सामग्रियों यानि उन विषयों पर फिर से नहीं सोच सकता है।

तो सवाल यह है कि यह तथाकथित ‘सोचना’ क्या होता है? किसी भी विषय या सूचना पर अपनी चिंतन प्रक्रिया की अवस्था को ठहरा देना ही ‘सोचना’ है| अर्थात किसी भी ‘सूचना’ को ‘संसाधित’ करना ही ‘सोचना’ है, यानि किसी विषय पर अपने मन के द्वारा परीक्षण करवाना ही ‘सोचना’ है| किसी में प्रतिवर्ती अनुक्रिया (Reflex Action) उसके केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र तक ही सीमित रहता है, और यह ‘सूचना’ मस्तिष्क तक भी नहीं जा पाता है, और इसी कारण से इस प्रक्रिया में मन की कोई भूमिका नहीं हो पाती है| मन तो शरीर से अलग कोई ‘उर्जा मैट्रिक्स’ (Energy Matrix) है| ‘मस्तिष्क’ मन एवं शरीर के मध्य एक वह ‘मोड्यूलेटर’ (Modulator) है, जो इनके कम उर्जा, या कम लम्बाई के तरंग (Wave), या कम विभव (Potential) की सूचना को एक दूसरे के पास अनुवादित करता है, यानि शारीरिक व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियायों को समझने एवं अनुकूलित कर विचार, भावना, एवं व्यवहार को उत्पन्न करता है| मन अपनी लगभग सभी क्रियाओं के लिए उर्जा, सूचना, पदार्थ आदि वह अपने शरीर से ही लेता रहता है, अर्थात उसकी चेतन की अवस्था के अनुसार अपने शरीर के बाहर से भी ले सकता है|

तो क्या चेतना सदैव शुद्धता की अवस्था में ही रहता है, या अशुद्धता का भी मिश्रण होता है? चेतना की अवस्था ही किसी ज्ञान के स्तर को भी निर्धारित, नियमित, निश्चित एवं नियंत्रित करता रहता है| अपनी चेतना से अशुद्धता हटाना ही ज्ञान है। ज्ञान” (Wisdom) वह विधि एवं स्तरीय उपकरण है, जिससे किसी भी चीज़ को उसी स्वरूप एवं उसी संरचना, अवस्था में जाना जाय, जैसा वह है। और इस ज्ञान का स्तर ही चेतना की शुद्धता के स्तर पर आधारित है। इसी शुद्धता एवं अशुद्धता के मिश्रण के अनुपात के कारण ही भिन्न भिन्न लोग एक ही वस्तु या अवस्था को अपने भिन्न भिन्न तरीकों से देखते, समझते एवं व्यवहार करते हैं। जब कोई भी चेतन की शुद्धता एवं अशुद्धता को जान एवं समझ जाता है, तभी वह अज्ञानता से मुक्त होता है, यानि उसे ‘मुक्ति मिल जाना’ माना जाता है| जब कोई किसी वस्तु, या घटना, या अवस्था को शुद्धता की अवस्था को जान पाता है, तभी वह उसके सम्बन्ध में कोई नवाचारी’ (Innovative) विचार, या समाधान, या उपयोग, या प्रयोग, या ‘इन्जिनीरिंग’ (समस्या का समाधान करना ही Engineering है) कर पाता है| इसीलिए तमाम वैज्ञानिक सहित सभी सामाजिक एवं आर्थिक चिन्तक भी किसी चीज या अवस्था या क्रिया को उसके मूल, मौलिक एवं मूलभूत अवस्था को ही जानना चाहता है, इसे आप विश्व से सभी विकसित व्यवस्थाओं को देख कर समझ सकते हैं| मैं भी अपने मूल को जानना चाहता हूँ|

तो शुद्धता क्या है? विश्व या ब्रह्माण्ड में सभी चीजें अपने तत्वीय एवं यौगिक जैसी शुद्ध अवस्थाओं का सम्मिश्रण है। हम चेतना की अवस्था को निम्नता, उच्चता या उच्चतमता के स्तर को इसी शुद्धता के स्तर के पैमाने पर ही स्थापित करते हैं, यानि वर्गीकृत करते हैं। ब्रह्माण्ड की सभी चीजों को शुद्ध रूप में सिर्फ ‘फील्ड’ यानि ‘कणिका’ (Particle), ‘ऊर्जा’ (Energy), ‘समय’ (Time), एवं ‘आकाश’ (Space) के रूप में ही पाया जाता है| यह स्थापित है कि ‘बिंग बैंग’ (महाविस्फोट) सिद्धांत के अनुसार कोई साढ़े तेरह अरब साल पहले किसी एक बिन्दु के महाविस्फोट से ही ये चारों मूल, मौलिक एवं मूलभूत चीजों का, यानि ‘कणिका’, ‘ऊर्जा’, ‘समय’, एवं ‘आकाश’ निर्माण हुआ, यानि उस समय के पहले कुछ भी नहीं था|  बाकी सभी इसके ही मिश्रण हैं, यानि अशुद्ध स्वरुप है| उदाहरण के लिए, धातु- विज्ञान में अयस्क (Ore) धातुओं के तत्वीय एवं यौगिक अवस्थाओं का अशुद्ध मिश्रण होता है, और निश्चित प्रक्रियायों से ही गुजार कर इसे शुद्ध अवस्था में पाया जाता है| ऐसे ही अशुद्ध चेतना को शुद्ध करना पड़ता है|

भौतिकी के सर्वोच्च स्तर पर मौजूद क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत के ‘विलक्षणता सिद्धांत’ (Singularity Theory) उन मूल चारों चीजों में सम्बन्ध स्थापित करता है| इसके अनुसार बलों का क्षेत्र (Field) से ही ‘कणिका’ (Particle), ‘ऊर्जा’, ‘समय’ (Time), एवं ‘आकाश’ (Space) उत्पन्न हुआ| ‘क्षेत्र’ (Field) वस्तुत: ऊर्जा फील्ड ही है, जिसके उद्दीपन (Excitation) से ही’ ‘कणिका बनता है| दूसरे शब्दों, ‘उर्जा’ के एकत्रण से ही ‘कणिका’ बनते हैं| ‘कणिका’ के स्थान परिवर्तन से ‘आकाश’ बनता है, और इसी ‘स्थान परिवर्तन’ को ‘गति’ कहते हैं| इसी गति से ‘समय’ का आभास होता है| दरअसल समय की वास्तविकता को समझने वाले सबसे पहले आधुनिक व्यक्ति अल्बर्ट आइन्स्टीन ही थे, लेकिन आज भी ‘समय’ को समझने में कठिनाई होती है| ‘बल’ यानि Force भी मूलत: चार – ‘कमजोर’ (Weak) बल, ‘शक्तिशाली’ (Strong) बल, ‘गुरुत्व’ (Gravitation) बल, एवं ‘इलेक्ट्रो मैगनेटिक’ (Electro Magnetic) बल ही होते हैं| इसमें से भी अभी तक गुरुत्व बल की उत्त्पति सम्बन्धी क्रियाविधि को नहीं समझा जा सका है| अल्बर्ट आईंस्टीन का ‘एकीकृत सिद्धांत’ (Unified Theory) इन सभी बलों की एकीकृत व्याख्या का प्रयास रहा है| ‘परमाणु’ के अन्दर के ‘कणों’ के ‘कम्पन’ से ही ‘इलेक्ट्रो मैगनेटिक बल’ उत्पन्न होता है, परमाणु के अन्दर इलेक्ट्रोन एवं प्रोटोन के बीच ‘कमजोर’ बल लगता है, और नाभिक के अन्दर प्रोटोनों को एक साथ बाँधे रखने वाला बल ही ‘शक्तिशाली’ बल कहलाता है| ब्रह्माण्ड में यही बल अपने शुद्ध रूप में मौजूद रहता है| बाकी सभी बल अपने मिश्रित स्वरुप में होती है|

हमारी ‘चेतना’ यानि ‘मैं’ (Self) भी ब्रह्माण्ड के इसी एकीकृत बल का “उद्दीपन” (Excitation) मात्र है, जो मेरे शरीर को ‘मन’ (Mind) के रूप में प्राप्त करता है, और शरीर के समाप्त होते ही यह चेतन यानि मैं उसी ब्रह्माण्ड के चेतन में विलीन होकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त कर लेता है| इसीलिए आत्मा एक गलत अवधारणा है| अर्थात जब तक मेरा शरीर अपने अस्तित्व के साथ क्रियाशील नहीं है, तब तक मैं भी चेतनशील नहीं रह सकता| यही ‘मन’ ‘मैं’ हूँ, मेरी ‘आत्म’ है, मैं ‘स्वयं’ हूँ| मैं इसी मन की, इसी आत्म की, इसी चेतना की शुद्धता की बात कर रहा हूँ| जैसे, जल का उदाहरण लिया जाय| जल शुद्ध रूप में हाइड्रोजन के दो परमाणु एवं आक्सीजन के एक परमाणु का एक यौगिक है, एक अणु है और यही शुद्ध रूप है| जब आप किसी जल के अणु एवं परमाणु को, यानि शुद्ध अवस्था में जान एवं समझ जाते हैं, तब इसके स्रोत या समापन की अवस्था में इसे शुद्ध रूप में समझ पाते हैं| लेकिन यदि किसी ‘जल’ को कोई “विशिष्ट पहचान” देना चाहते हैं, तो वह अवश्य ही अशुद्ध अवस्था में होगी, अन्यथा उसका कोई अलग पहचान संभव नहीं है| यही स्थिति मेरे मन की है, यही मैं हूँ, यही मेरी चेतना है, यही मैं स्वयं हूँ, लेकिन यह मेरी आत्मा नहीं है| अर्थात मैं भी ब्रह्माण्ड के चेतन का अशुद्ध स्वरुप हूँ, और मुझे अपने चेतन के शुद्ध रूप में समझना है|

जब कोई अपनी चेतन को, यानि अपनी ‘आत्म’ को ‘अधि चेतन’ यानि ब्रह्माण्ड के ‘क्षेत्र’ (फील्ड) से संपर्क करता है, तो यही अध्यात्म”, या “अधि” + “आत्म” कहलाता है| इसी ‘आत्म’ को ब्रह्माण्ड के फील्ड से योग करने वाले को ‘योगी’ कहते हैं, और इस प्रक्रिया को ‘योग’ कहते हैं| जब मेरी या किसी की ‘चेतना’, यानि ‘स्वयं’, यानि ‘आत्म’, यानि ‘मैं’ ब्रह्माण्ड के क्षेत्र या चेतना में विलीन हो जायगा, यानि अपना अस्तित्व समाप्त कर लेगा|, तब फिर मेरा उस ‘क्षेत्र’ से कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहेगा|

मेरे आत्म, यानि मेरा (मैं), यानि मेरे स्वयं, यानि मेरी चेतना की यही वैज्ञानिक व्याख्या है, 

बाकी व्याख्याएँ आपके मन को झूठी सांत्वना दे सकता है और आप उसी में आनन्दित भी रह सकते है| इसके लिए हर कोई स्वतंत्र भी है| मैं अपने को इतना ही जान पाया हूँ|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

मंगलवार, 4 मार्च 2025

मैं क्या लिखूँ?

(मैं आज से दो दशक पहले फारबिसगंज, बिहार में कोषागार पदाधिकारी के रूप में पदस्थापित हुआ था। मेरे एक साहित्यिक मित्र ने मुझे वहाँ जाने के क्रम में बताया कि श्रद्धेय महान साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु का घर वहीं है। मेरे प्रधान लिपिक ने पहले ही दिन रेणु जी के बडे सुपुत्र से मिलवाया, जो उस समय मुखिया (ग्राम पंचायत प्रमुख) थे। अगले ही रविवार, मैं एक शिक्षक के साथ उनके गाँव औराही हिंगना में मौजूद था। उनके यहाँ उस दिन एक आस्ट्रेलियाई हिन्दी साहित्यकार ‘रेणु के साहित्य’ पर अध्ययन के लिए आया हुआ था। मैं भी वहाँ दिन भर रहा। शाम में वह शिक्षक स्थानीय अंगीभूत महाविद्यालय के एक हिन्दी प्राध्यापक श्री कमल प्रसाद सिंह बेखबर जो के पास ले गए। उन्होंने मुझे उनके ही द्वारा सम्पादित एक अनियतकालीन पत्रिका "शैली" दिया। उसमें कई आलेख और कहानियाँ पढी। मुझे भी विचार आया कि मैं कुछ लिखूँ। यह रेणु भूमि का प्रभाव था। सो उसी रात्रि में, मैंने अपनी प्रथम लेखन का शुभारम्भ किया। पर द्वन्द था कि 'क्या लिखूँ?' इस आलेख का आज पुनः सम्पादित स्वरूप प्रस्तुत कर रहा हूँ|)

मैं क्या लिखूँ?

मैं सोच रहा हूँ कि मैं भी कुछ लिखूँ, पर यह सोच कर ठिठक जाता हूँ कि मैं क्या लिखूँ? मैं इसलिए नही ठिठक जाता हूँ कि मुझे लिखना नहीं आता, या मैं कुछ भी नहीं लिख सकता। मैं भी, कुछ भी लिख सकता हूँ, किसी भी घटना का कोई ब्यौरा, विवरण, वृतांत, कविता, कहानी, या अन्य कोई आलेख| लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि मैं अपने लेखन के द्वारा क्या सन्देश, या समाधान देना चाहता हूँ, और यही सोच कर मैं ही ठिठक जाता हूँ, कि मैं क्या लिखूँ? यानि मेरे लेखन का विषय क्या हो, यानि मेरा लेखन समाज के किस उद्देश्य की सार्थकता स्थापित या साबित करेगा? दरअसल भाषा तो संपर्क का साधन माना जाता है, तो साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है| तब मेरा लेखन समाज के किस पक्ष का दर्पण बने? इसी दर्पण के पक्ष यानि उद्देश्य या सार्थकता की अस्पष्टता के कारण ही तो मैं ठिठक जा रहा हूँ कि मैं क्या लिखूँ?

मैं चाहूँ, तो मैं भी एक ‘फुलवा’ की कहानी लिख सकता हूँ| ‘फुलवा’ नाम की एक युवा लड़की एक गाँव में रहती थी| उसे पड़ोस के ही एक गाँव के एक लड़के से प्यार हो गया| बात छुपने वाली नहीं थी, लेकिन हलके धुएँ की तरह पूरे इलाके में फ़ैल गयी थी| प्यार के परवान में दोनों ने भाग जाने का निर्णय लिया| लेकिन भागने से पहले ही दोनों पकड़ लिए गए| पंचों ने धर्म और संस्कृति की दुहाई देकर फाँसी पर ही लटका दिया| कहानी ख़त्म हो गई| और मैं इस कहानी के ढाँचे का मनमाफिक विस्तार भी दे सकता था, एक लम्बा साहित्य हो जाता| लेकिन समाज और सन्दर्भ में इस कहानी के द्वारा मैं क्या सकारात्मक या सृजनात्मक सन्देश देना चाहता था, यही द्वन्द मझे लिखने में आगे नहीं बढ़ने दे रहा था| वैसे भी ई० रूजवेल्ट कहतीं है कि छोटे स्तर के लोग व्यक्तियों (व्यक्तिवाचक संज्ञा जैसे किसी नाम, किसी जाति या धर्म के नाम आदि के व्यक्ति) का ब्यौरा खूब देते हैं, मध्यम स्तर के लोग घटनाओं (व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के कार्यों या घटनाओं) का विवरण ज्यादा देते हैं, और बड़े चिन्तक विचारों एवं आदर्शों पर ही स्थिर रहते हैं, और विमर्श करते हैं| लेकिन इस कहानी से तो कोई अलग या स्तरीय विचार या आदर्श निकलता नहीं दिख रहा था, और यही सब सोच कर ही तो मैं ठिठक जा रहा था, कि मैं क्या लिखूँ?

आप कह सकते हैं कि समस्या का वर्णन या विवरण भी तो साहित्य हैं, और किसी समस्या के बारे में सामाजिक जागरूकता पैदा करना भी तो एक साहित्य है| मैं अपने आसपास देखता हूँ, कि इस विधा की कलाकारों की तो भारत में बाढ़ ही आई हुई हैं, अधिकतर  लेखक या साहित्यकार “विधवा- विलाप वर्णन” में, यानि “नाकारा व् नकारात्मक” लेखन में पारंगत हो चुके हैं| लेकिन समाधानपरक आलेखन में भारी कमी दिखती है| दरअसल ‘साहित्यिक रोना’ एक ऐसी विधा है, जिससे ऐसा लगता है कि उन्हें समाज की स्वीकृति आसानी से मिल जा सकती है, यानि ऐसे ‘साहित्यकार’ को सामाजिक सहानुभूति बहुत आसानी से मिल जाती है| आप ‘रोने’ का वर्णन कर किसी साधारण समाज (भारत में इसी की व्यापकता है) में ‘लोकप्रियता’ बहुत आसानी से पा सकते हैं, क्योंकि साधारण समझदारी के लोग अपनी “संज्ञानात्मक बौद्धिकता” (Cognitive Intelligence)  तक ही सीमित होते हैं, इसे ही ‘सामान्य बुद्धिमत्ता’ भी कहते हैं| साधारण लोगों में ‘भावनात्मक (Emotional) बुद्धिमता’ नहीं के बराबर होती है, और ‘सामाजिक (Social) बुद्धिमत्ता’ एवं ‘बौद्धिक (Wisdom) बुद्धिमत्ता’ तक तो उनके विचार ही नहीं छू पाते हैं| ‘सामान्य बुद्धिमत्ता’ में तो ‘शारीरिक ज्ञानेन्द्रियों’ से ही काम ‘दौड़’ जाता है, लेकिन इसके उपरी स्तर के सभी बुद्धिमत्ता के लिए ‘मानसिक ज्ञानेन्द्रियों’ का भी गंभीर एवं गहरे स्तर पर उपयोग करना पड़ता है| इन उपरी स्तरों के चिंतन एवं लेखन के लिए तो “आलोचनात्मक मूल्याङ्कन” की क्षमता एवं ‘बक्से से बाहर’ (Out-of-Box) चिंतन की आवश्यकता हो ही जाती है|  तो सवाल यह उठ रहा था कि क्या मैं भी उसी “रोने” की ‘चूहा दौड़’ में शामिल हो जाऊं, या कोई ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ (Paradigm Shift) करता हुआ कोई नवाचारी (Innovative) पक्ष रखूँ? यही सब सोच कर ही तो ठिठक जाता हूँ कि मैं क्या लिखूँ?

मुझे लगता है कि एक पशु की तरह ही कोई बच्चा जनता (जन्म देना) है, उसे पालता -पोषता है, और फिर उसे ही देखते हुए मर भी जाता है, तो क्या मैं भी अपने को उसी ‘पाशविक’ स्तर तक ही सीमित कर लूँ? मानव तो एक ‘सामाजिक प्राणी’ (Homo Socius) है, एक ‘निर्माता प्राणी’ (Homo Faber) भी है, और ‘वैज्ञानिक प्राणी’ (Homo Scientific) भी है, तो क्या मेरे जीवन का उद्देश्य भी ‘पशुवत’ (Animilistic) ही होना चाहिए, जो मेरे लेखन में पूरी स्पष्टता से दिखता रहे? यदि मेरे लेखन में व्यक्ति एवं परिवार के अलावे समाज, मानवता, या प्रकृति, या समेकित रुप में भविष्य ही शामिल नहीं हो सका, तो फिर मेरे लिखने का, या मेरा उद्देश्य ही निम्नतर हो जायगा| मानव समाज पशुओं की तरह कोई झुण्ड या भीड़ नहीं होता है, बल्कि मानव समाज “सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं (Institutions) का एक नेटवर्क होता है, जो पशुओं में नहीं होता है| यही सब सोच कर ही तो मैं ठिठक जा रहा हूँ, कि मैं क्या लिखूँ?

वैसे किसी भी लेखन का दायरा समाज, सरकार एवं संविधान को ध्यान में ही रखकर किया जाता है| सरकार तो संविधान के द्वारा ही नियमित एवं नियंत्रित होता है| लेकिन संविधान को भी एक जीवित जीव की तरह ही समाज की बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप या अनुकूल बदलना पड़ता है, अन्यथा समुचित अनुकूलन के अभाव में ‘वह समाज’ ही प्रासंगिकता से बाहर हो जा सकता है, या हो जाता है| मतलब कि समाज, सरकार एवं संविधान में सबसे प्रमुख समाज ही होता है, लेकिन उस समाज को समझने और सम्हालने का तरीका भी सरकार एवं संविधान होकर ही जाता है| हालाँकि अधिकतर लेखक इतना सोचते हैं, या नहीं, मैं नहीं जानता, लेकिन मुझे तो इतना अवश्य ही सोचना चाहिए| यह भी ध्यान में रखने की जरुरत है कि ‘संस्कृति’ एवं ‘धर्म’ भी अपने प्रसंग एवं पृष्ठभूमि में सामाजिक बेहतरी के लिए ही अपना अस्तित्व और अपने ‘आकार’ लेता है| यानि ‘संस्कृति’ एवं ‘धर्म’ को बदलते परिवेश के अनुकूलन में ‘लोचकता’ यानि ‘गतिशीलता’ रखनी पड़ती है, अन्यथा इसकी ‘जड़ता’ सामाजिक संवर्धन के लिए घातक होता है| हालाँकि मेरे ‘फुलवा’ की कहानी में इस 'सामाजिक जड़ता’ की तो बात करती हो सकती थी, लेकिन ऐसे तथाकथित बौद्धिक साहित्यकारों की भीड़ में मुझें भी शामिल होने में ‘कोफ़्त’ महसूस हो रही थी, और इसीलिए मैं यहाँ पर भी ठहर ही गया|

यदि मैं अपने आप को सकारात्मक और सृजनात्मक लेखकों की श्रेणी में रखना चाहता हूँ, तो मुझे अपने में जीवन की हर स्थिति एवं परिस्थिति में सदैव ही ‘आधे गिलास पानी’ में भरा हुआ ही पक्ष देखने का प्रयास रखना चाहिए| हमें मानवता के भविष्य को सम्हालने की समझदारी एवं जबावदेही से तो नहीं ही हटना चाहिए, इसीलिए हमें समाज, मानवता के साथ साथ प्रकृति को भी अपने ‘वैचारिकी’ में शामिल करना ही चाहिए| वैसे तथ्य, साक्ष्य एवं तर्क (कारण- कार्य सम्बन्ध) पर आधारित यानि 'वैज्ञानिक' लेखन की तो समझदारी अधिकतर लेखकों में आ ही गयी है, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या अभी भी भारत में कमतर ही है|इसी तरह समता (Equality), समानता (Equity), स्वतंत्रता, बन्धुत्व और प्राकृतिक न्याय का उद्देश्य लेखकों के जेहन में स्पष्ट रूप में होनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के “सत्रह धारणीय विकासात्मक लक्ष्य” (17 Sustainable Developmental Goals) भी इसी भविष्य को रेखांकित करता है| अर्थात ‘गरीबी का खात्मा’ (No Poverty), ‘भुखमरी का समापन’ (Zero Hunger), ‘अच्छा स्वास्थ्य’ (Good Health), ‘गुणवत्तापूर्ण शिक्षा’ (Quality Education), ‘लैंगिक समानता’ (Gender Equality), ‘गरिमामयी जीवन’ और स्वच्छ जल एवं उर्जा आदि आदि की सुनिश्चितता की 'अन्तर दृष्टि' मुझे अवश्य ही अपने लेखन में शामिल रखना चाहिए| अन्यथा मेरे अनुसार मेरे लेखन का औचित्यपूर्ण मकसद स्थापित ही नहीं होता| हमें अपने लेखन में सन्दर्भों के अनुरूप इनकी गतिशीलता पर भी ध्यान देना चाहिए|

यही सब सोच कर ही तो मैं ठिठक जाता हूँ, कि “मैं क्या लिखूँ?

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|


मैं कौन हूँ?

मैं कौन हूँ? , एक बड़ा ही सहज और स्वाभाविक प्रश्न है। लेकिन इसका उत्तर सरल (Simple) भी नहीं है , और साधारण (Ordinary) भी नहीं है। मतलब इसका...