शनिवार, 8 मार्च 2025

मैं कौन हूँ?

मैं कौन हूँ?, एक बड़ा ही सहज और स्वाभाविक प्रश्न है। लेकिन इसका उत्तर सरल (Simple) भी नहीं है, और साधारण (Ordinary) भी नहीं है। मतलब इसका उत्तर संरचना में जटिलतर भी है, और अपने उद्विकासीय अवस्था के प्रथम सोपान का ही नहीं होकर, उच्चतर अवस्था का है। यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यही प्रश्न जीवन का मूल है, और यही मानव जीवन का उद्देश्य भी स्पष्ट करता है| जब आप किसी भी वस्तु (Objects, not only goods) या किसी भी क्रिया, यानि किसी भी घटनाक्रम को यथास्थिति स्वरुप में जान लेते हैं, जैसा वह उस समय एवं उस सन्दर्भ और पृष्ठभूमि में रहा था, तो उन चीजों को समझ पाना बेहद आसान हो जाता है| किसी भी वस्तु या क्रिया या अवस्था को उसी स्वरुप में जान पाना, जैसा वह उस समय वास्तव में रहा है, ही ज्ञान कहलाता है| जब कोई अपने आप को ‘मूल’ (Core) स्वरुप में, ‘मूलभूत’ (Fundamental) अवस्था में, एवं ‘मौलिक’ (Original) संरचना में जान पाता है, यानि कोई अपने आप को ‘शुद्ध’ (Pure) अवस्था में जान पाता है, तो वह यह भी जान जाता है कि “मैं कौन हूँ?” इसी ज्ञान की अवस्था को “मुक्ति” (Liberation) भी कहते हैं|

फ्रांसीसी दार्शनिक रे देकार्ते कहते हैं कि ‘मैं सोचता हूँइसलिए मैं हूँ’। मतलब जब हम सोचते नहीं होते हैं, या सोचने लायक नहीं हैं, तब मैं नहीं हूँ। इसीलिए मृत्यु उपरांत मैं नहीं हूँ, या बेहोशी में भी मैं नहीं हूँ, या गहन निद्रा में भी मैं नहीं हूँ; क्योंकि उस समय हम सोचते नहीं होते हैं। एक और स्पष्ट अर्थ यह भी है  कि जब मैं सोचने लायक भी नहीं हूँ, तो मेरे होने या नहीं होने का कोई अर्थ भी नहीं है| लेकिन यह भी स्पष्ट रहना चाहिए कि चिंतन की प्रक्रिया सचेतन अवस्था के साथ साथ अचेतन अवस्था में भी चलती रहती है, क्योंकि ‘मन’ शान्त होकर भी सक्रिय एवं तत्पर रहता है, तभी तो किसी अवस्था में अचानक तत्काल प्रतिक्रिया दे पाते हैं| मतलब मेरे होने या नहीं होने में मेरी ‘चेतना’ यानि चेतनता की अवस्था ही मूल है, मौलिक है, और मूलभूत भी है| इसीलिए दुनिया के सभी कालों में, और सभी क्षेत्रों के सभी बुद्धिवादियों ने यही कहा है कि हम जैसा सदैव सोचते रहते हैं, वैसा स्वरुप या अवस्था हम पा लेते हैं| हालाँकि क्वांटम भौतिकी का कोपेनहेगन वक्तव्य यही कहता है कि कोई भी चीज वहाँ इसलिए हैं, क्योंकि हम वहाँ वही देखना चाहते हैं (अवलोकन का सिद्धांत)| लेकिन क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत यह कहता है कि जिस चीज के होने की संभावना जहाँ ज्यादा होती है, वहीं उसके प्रकट होने की संभावना भी ज्यादा होती है| इसे आप चेतना के उद्दीपन के रूप में भी मान सकते हैं| अर्थात जैसा हम सोचते रहते हैं, वैसा ही हो जाते हैं|

इसका एक और स्पष्ट अर्थ यह भी है कि  मेरा शरीर और मैं, दोनों ही एक नहीं है। अर्थात मैं (मेरा मन) अपने शरीर के साथ तो हूँ, लेकिन उसका हिस्सा नहीं हूँ। इसीलिए रे देकार्ते कहते हैं कि मानव अपने शरीर और अपने मन का संयुक्त उत्पाद है| तो “मैं” मेरा ‘मन’ (Mind) है, मेरी ‘चेतना’ (Consciousness) है, मेरा ‘आत्म’ (Self) तो है, लेकिन मैं मेरी ‘आत्मा’ (Soul) नहीं है, यह कोई वैज्ञानिक अवधारणा नहीं है और इसे ‘आत्म’ के पर्यार्य के रूप में दिखा कर ही सजिशतन या अज्ञानतावश उपयोग एवं प्रयोग कर अनर्थ किया जाता है। यानि हमें मन, चेतना, आत्म एवं आत्मा पर थोडा गंभीरता से ठहर कर समझना चाहिए|

पुनः मैं रे देकार्ते पर आता हूँ। मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ, यानि मैं चेतन हूँ| मैं अपनी सोच पर भी सोच सकता हूँ, जो शायद एक सामान्य पशु नहीं करता है, इसलिए ही मैं उत्कृष्ट चेतना की अवस्था में हूँ, और मैं एक पशु नहीं हूँ| इसीलिए यह स्पष्ट है कि चेतना के विकास की अवस्था ही उस मानव का स्तर निर्धारित एवं निश्चित करता है, अर्थात चेतना का विकास ही जीवन का मूल उद्देश्य है| एक पशु अपने अधिकतर कार्य व्यवहार अपनी रिफ्लेक्स (प्रतिवर्ती – Reflex) अनुक्रिया के अनुरूप ही कर पाता है, और इसमें चिंतन की प्रक्रिया महत्वपूर्ण नहीं होती है, या नगण्य होती है, या नहीं ही होती है| इसीलिए ‘तुरंत प्रतिक्रिया देना’, यानि ‘बिना सोचे समझे ही प्रतिक्रिया देना’ “पशुवत प्रवृति” (Animalistic Instincts) मानी जाती है| इसी कारण ऐसे लोगों का स्तर इन पशुओं के चिंतन स्तर की ही तरह निम्नतर ही रहता है| इसलिए मेरा मानना है कि एक पशु यदि सोच भी सकता है, लेकिन वह अपनी सोच की सामग्रियों यानि उन विषयों पर फिर से नहीं सोच सकता है।

तो सवाल यह है कि यह तथाकथित ‘सोचना’ क्या होता है? किसी भी विषय या सूचना पर अपनी चिंतन प्रक्रिया की अवस्था को ठहरा देना ही ‘सोचना’ है| अर्थात किसी भी ‘सूचना’ को ‘संसाधित’ करना ही ‘सोचना’ है, यानि किसी विषय पर अपने मन के द्वारा परीक्षण करवाना ही ‘सोचना’ है| किसी में प्रतिवर्ती अनुक्रिया (Reflex Action) उसके केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र तक ही सीमित रहता है, और यह ‘सूचना’ मस्तिष्क तक भी नहीं जा पाता है, और इसी कारण से इस प्रक्रिया में मन की कोई भूमिका नहीं हो पाती है| मन तो शरीर से अलग कोई ‘उर्जा मैट्रिक्स’ (Energy Matrix) है| ‘मस्तिष्क’ मन एवं शरीर के मध्य एक वह ‘मोड्यूलेटर’ (Modulator) है, जो इनके कम उर्जा, या कम लम्बाई के तरंग (Wave), या कम विभव (Potential) की सूचना को एक दूसरे के पास अनुवादित करता है, यानि शारीरिक व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियायों को समझने एवं अनुकूलित कर विचार, भावना, एवं व्यवहार को उत्पन्न करता है| मन अपनी लगभग सभी क्रियाओं के लिए उर्जा, सूचना, पदार्थ आदि वह अपने शरीर से ही लेता रहता है, अर्थात उसकी चेतन की अवस्था के अनुसार अपने शरीर के बाहर से भी ले सकता है|

तो क्या चेतना सदैव शुद्धता की अवस्था में ही रहता है, या अशुद्धता का भी मिश्रण होता है? चेतना की अवस्था ही किसी ज्ञान के स्तर को भी निर्धारित, नियमित, निश्चित एवं नियंत्रित करता रहता है| अपनी चेतना से अशुद्धता हटाना ही ज्ञान है। ज्ञान” (Wisdom) वह विधि एवं स्तरीय उपकरण है, जिससे किसी भी चीज़ को उसी स्वरूप एवं उसी संरचना, अवस्था में जाना जाय, जैसा वह है। और इस ज्ञान का स्तर ही चेतना की शुद्धता के स्तर पर आधारित है। इसी शुद्धता एवं अशुद्धता के मिश्रण के अनुपात के कारण ही भिन्न भिन्न लोग एक ही वस्तु या अवस्था को अपने भिन्न भिन्न तरीकों से देखते, समझते एवं व्यवहार करते हैं। जब कोई भी चेतन की शुद्धता एवं अशुद्धता को जान एवं समझ जाता है, तभी वह अज्ञानता से मुक्त होता है, यानि उसे ‘मुक्ति मिल जाना’ माना जाता है| जब कोई किसी वस्तु, या घटना, या अवस्था को शुद्धता की अवस्था को जान पाता है, तभी वह उसके सम्बन्ध में कोई नवाचारी’ (Innovative) विचार, या समाधान, या उपयोग, या प्रयोग, या ‘इन्जिनीरिंग’ (समस्या का समाधान करना ही Engineering है) कर पाता है| इसीलिए तमाम वैज्ञानिक सहित सभी सामाजिक एवं आर्थिक चिन्तक भी किसी चीज या अवस्था या क्रिया को उसके मूल, मौलिक एवं मूलभूत अवस्था को ही जानना चाहता है, इसे आप विश्व से सभी विकसित व्यवस्थाओं को देख कर समझ सकते हैं| मैं भी अपने मूल को जानना चाहता हूँ|

तो शुद्धता क्या है? विश्व या ब्रह्माण्ड में सभी चीजें अपने तत्वीय एवं यौगिक जैसी शुद्ध अवस्थाओं का सम्मिश्रण है। हम चेतना की अवस्था को निम्नता, उच्चता या उच्चतमता के स्तर को इसी शुद्धता के स्तर के पैमाने पर ही स्थापित करते हैं, यानि वर्गीकृत करते हैं। ब्रह्माण्ड की सभी चीजों को शुद्ध रूप में सिर्फ ‘फील्ड’ यानि ‘कणिका’ (Particle), ‘ऊर्जा’ (Energy), ‘समय’ (Time), एवं ‘आकाश’ (Space) के रूप में ही पाया जाता है| यह स्थापित है कि ‘बिंग बैंग’ (महाविस्फोट) सिद्धांत के अनुसार कोई साढ़े तेरह अरब साल पहले किसी एक बिन्दु के महाविस्फोट से ही ये चारों मूल, मौलिक एवं मूलभूत चीजों का, यानि ‘कणिका’, ‘ऊर्जा’, ‘समय’, एवं ‘आकाश’ निर्माण हुआ, यानि उस समय के पहले कुछ भी नहीं था|  बाकी सभी इसके ही मिश्रण हैं, यानि अशुद्ध स्वरुप है| उदाहरण के लिए, धातु- विज्ञान में अयस्क (Ore) धातुओं के तत्वीय एवं यौगिक अवस्थाओं का अशुद्ध मिश्रण होता है, और निश्चित प्रक्रियायों से ही गुजार कर इसे शुद्ध अवस्था में पाया जाता है| ऐसे ही अशुद्ध चेतना को शुद्ध करना पड़ता है|

भौतिकी के सर्वोच्च स्तर पर मौजूद क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत के ‘विलक्षणता सिद्धांत’ (Singularity Theory) उन मूल चारों चीजों में सम्बन्ध स्थापित करता है| इसके अनुसार बलों का क्षेत्र (Field) से ही ‘कणिका’ (Particle), ‘ऊर्जा’, ‘समय’ (Time), एवं ‘आकाश’ (Space) उत्पन्न हुआ| ‘क्षेत्र’ (Field) वस्तुत: ऊर्जा फील्ड ही है, जिसके उद्दीपन (Excitation) से ही’ ‘कणिका बनता है| दूसरे शब्दों, ‘उर्जा’ के एकत्रण से ही ‘कणिका’ बनते हैं| ‘कणिका’ के स्थान परिवर्तन से ‘आकाश’ बनता है, और इसी ‘स्थान परिवर्तन’ को ‘गति’ कहते हैं| इसी गति से ‘समय’ का आभास होता है| दरअसल समय की वास्तविकता को समझने वाले सबसे पहले आधुनिक व्यक्ति अल्बर्ट आइन्स्टीन ही थे, लेकिन आज भी ‘समय’ को समझने में कठिनाई होती है| ‘बल’ यानि Force भी मूलत: चार – ‘कमजोर’ (Weak) बल, ‘शक्तिशाली’ (Strong) बल, ‘गुरुत्व’ (Gravitation) बल, एवं ‘इलेक्ट्रो मैगनेटिक’ (Electro Magnetic) बल ही होते हैं| इसमें से भी अभी तक गुरुत्व बल की उत्त्पति सम्बन्धी क्रियाविधि को नहीं समझा जा सका है| अल्बर्ट आईंस्टीन का ‘एकीकृत सिद्धांत’ (Unified Theory) इन सभी बलों की एकीकृत व्याख्या का प्रयास रहा है| ‘परमाणु’ के अन्दर के ‘कणों’ के ‘कम्पन’ से ही ‘इलेक्ट्रो मैगनेटिक बल’ उत्पन्न होता है, परमाणु के अन्दर इलेक्ट्रोन एवं प्रोटोन के बीच ‘कमजोर’ बल लगता है, और नाभिक के अन्दर प्रोटोनों को एक साथ बाँधे रखने वाला बल ही ‘शक्तिशाली’ बल कहलाता है| ब्रह्माण्ड में यही बल अपने शुद्ध रूप में मौजूद रहता है| बाकी सभी बल अपने मिश्रित स्वरुप में होती है|

हमारी ‘चेतना’ यानि ‘मैं’ (Self) भी ब्रह्माण्ड के इसी एकीकृत बल का “उद्दीपन” (Excitation) मात्र है, जो मेरे शरीर को ‘मन’ (Mind) के रूप में प्राप्त करता है, और शरीर के समाप्त होते ही यह चेतन यानि मैं उसी ब्रह्माण्ड के चेतन में विलीन होकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त कर लेता है| इसीलिए आत्मा एक गलत अवधारणा है| अर्थात जब तक मेरा शरीर अपने अस्तित्व के साथ क्रियाशील नहीं है, तब तक मैं भी चेतनशील नहीं रह सकता| यही ‘मन’ ‘मैं’ हूँ, मेरी ‘आत्म’ है, मैं ‘स्वयं’ हूँ| मैं इसी मन की, इसी आत्म की, इसी चेतना की शुद्धता की बात कर रहा हूँ| जैसे, जल का उदाहरण लिया जाय| जल शुद्ध रूप में हाइड्रोजन के दो परमाणु एवं आक्सीजन के एक परमाणु का एक यौगिक है, एक अणु है और यही शुद्ध रूप है| जब आप किसी जल के अणु एवं परमाणु को, यानि शुद्ध अवस्था में जान एवं समझ जाते हैं, तब इसके स्रोत या समापन की अवस्था में इसे शुद्ध रूप में समझ पाते हैं| लेकिन यदि किसी ‘जल’ को कोई “विशिष्ट पहचान” देना चाहते हैं, तो वह अवश्य ही अशुद्ध अवस्था में होगी, अन्यथा उसका कोई अलग पहचान संभव नहीं है| यही स्थिति मेरे मन की है, यही मैं हूँ, यही मेरी चेतना है, यही मैं स्वयं हूँ, लेकिन यह मेरी आत्मा नहीं है| अर्थात मैं भी ब्रह्माण्ड के चेतन का अशुद्ध स्वरुप हूँ, और मुझे अपने चेतन के शुद्ध रूप में समझना है|

जब कोई अपनी चेतन को, यानि अपनी ‘आत्म’ को ‘अधि चेतन’ यानि ब्रह्माण्ड के ‘क्षेत्र’ (फील्ड) से संपर्क करता है, तो यही अध्यात्म”, या “अधि” + “आत्म” कहलाता है| इसी ‘आत्म’ को ब्रह्माण्ड के फील्ड से योग करने वाले को ‘योगी’ कहते हैं, और इस प्रक्रिया को ‘योग’ कहते हैं| जब मेरी या किसी की ‘चेतना’, यानि ‘स्वयं’, यानि ‘आत्म’, यानि ‘मैं’ ब्रह्माण्ड के क्षेत्र या चेतना में विलीन हो जायगा, यानि अपना अस्तित्व समाप्त कर लेगा|, तब फिर मेरा उस ‘क्षेत्र’ से कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहेगा|

मेरे आत्म, यानि मेरा (मैं), यानि मेरे स्वयं, यानि मेरी चेतना की यही वैज्ञानिक व्याख्या है, 

बाकी व्याख्याएँ आपके मन को झूठी सांत्वना दे सकता है और आप उसी में आनन्दित भी रह सकते है| इसके लिए हर कोई स्वतंत्र भी है| मैं अपने को इतना ही जान पाया हूँ|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

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