गुरुवार, 27 मार्च 2025

हमें किससे विवाह नहीं करना चाहिए?

क्या हम सभी से विवाह नहीं कर सकते? यदि हम एक ‘स्तनपायी पशु’ हैं, तो क्या हम सभी प्रकार के स्तनपायी पशुओं से विवाह कर सकते हैं? यदि हम सभी ‘होमो सेपियन्स सेपियन्स’ हैं, तो क्या हम सभी प्रकार के होमो सेपियन्स सेपियन्स से विवाह कर सकते हैं? ध्यान रहे कि वर्तमान सभी मानव ही ‘होमो सेपियन्स सेपियन्स’ कहलाते हैं| तो क्या विवाह का एकमात्र उद्देश्य ‘यौन संतुष्टि’ ही है? इन सभी का एक स्पष्ट उत्तर है – नहीं, ऐसी बात नहीं है| तो विवाह क्या होता है, क्यों होता है, और इसकी मूल, मौलिक एवं आधारभूत अनिवार्यताएं क्या है?

विवाह एक ‘सामाजिक सांस्कृतिक संस्था’ है| पशुओं और मानव में इसी ‘सामाजिक सांस्कृतिक संस्था’ के निर्माण एवं कार्य ही आधारभूत भिन्नता देता है, जो एक मानव को अन्य पशुओं से अलग करता है| यही ‘सामाजिक सांस्कृतिक संस्था’ ही सभ्यता एवं संस्कृति के नियमन एवं सञ्चालन की ‘निर्मात्री इकाई’ होती है, जिसके बिना मानव सभ्य एवं सुसंस्कृत नहीं हो सकता| इस ‘सामाजिक सांस्कृतिक संस्था’ के बिना तो मानव भी पशुओं का एक झुण्ड मात्र होता| सभी वर्तमान राजनीतिक, आर्थिक एवं अन्य संस्थाएँ इन्ही अवधारणाओं पर आधारित है| लेकिन किसी भी संस्था का निर्माण प्रकृति के मूल, मौलिक एवं आधारभूत स्वभाव, लक्षण एवं क्रियाविधियों के विरुद्ध लम्बे समय के लिए नहीं किया जा सकता| यदि किसी भी संस्था का निर्माण प्रकृति के किसी भी स्वभाव के विरुद्ध किया जाता है, तो वह सब परिवार, समाज, संस्कृति एवं मानवता को नष्ट करता हुआ होगा| आपने ने भी प्रकृति में देखा होगा कि सभी उच्चतर चेतना के पशु पक्षी आदि विपरीत लिंगी का युग्म ही एक साथ रहकर प्रकृति की नियति को आगे बढाता हुआ होता है| विपरीत लिंगी मानव, यानि ‘Man’ एवं ‘Womb’ वाला ‘Man’ (Woman) ही मिलकर एक ‘प्राकृतिक इकाई’ बनता है| मतलब एक सामान्य मानव (पुरुष) एवं एक ‘गर्भाशय’ वाला मानव (स्त्री)_ही प्राकृतिक रूप में एक दुसरे का पूरक है, और दोनों ही मिलकर एक प्राकृतिक इकाई बनाता है| बाकी सब अप्राकृतिक है| इसे समझना है, यदि कोई अप्राकृतिक स्वभाव का नहीं है|   

कुछ लोग समझते हैं कि एक विवाह का मूल एवं मौलिक आधार दो मानवों की यौन संतुष्टि है, और इसी आधार दो ‘विपरीत लिंगी मानवों’ (स्त्री एवं पुरुष) के अतिरिक्त अब ‘समान लिंगी मानवों’ (स्त्री एवं स्त्री और पुरुष एवं पुरुष के बीच) के विवाह की बातें भी होने लगी है, और कुछ संस्कृतियों में वैधानिक मान्यता भी दे दिया गया है| विवाह एकमात्र यौन संतुष्टि के लिए के लिए गठित प्रक्रम नहीं है| किसी भी संस्था का गठन एक मूल, मौलिक एवं आधारभूत उद्देश्य के लिए होता है, जिसका अंतिम लक्ष्य मानवता की सेवा करना है, और भविष्य को सुरक्षित रखना है| मानवता के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए मानवों की निरंतरता अनिवार्य है, और इसके लिए बच्चे का जनन होना और उसका पालन पोषण कर उसे वयस्क एवं समझदार बनाना जरुरी है| कोई भी किसी बच्चे का पालन पोषण तो कर सकता है, लेकिन बच्चे जनने के लिए विपरीत लिंगी मनवो के मिलन के द्वारा ही संभव है| किसी विपरीत लिंगी मानवो के द्वारा बच्चा जनना कतिपय कारणों (बीमारी/ विकलांगता) से संभव नहीं भी हो सकता है, लेकिन इन अपवादों को सामान्य सिद्धांत मान लेना और इसे संस्थागत स्वरुप दे देना भी प्रकृति के मौलिक चरित्र के विरुद्ध है|

प्रकृति के अनुकूल एवं अनुरूप परिवार का मूल एवं मौलिक कार्य बच्चे का जनन करना एवं पालन पोषण करना है| वैसे बच्चे के पालन पोषण के लिए ‘खंडित परिवार’, ‘संयुक्त परिवार’, एवं ‘विस्तारित परिवार’ हो सकता है, और समाज भी इस कार्य को एक परिवार के रूप में करता है, लेकिन बच्चे का जनन करना एवं उसे सामाजिक वैधता देना ही ‘विवाह’ संस्था का एकमात्र प्राथमिक कार्य होता है| वैध यौन संतुष्टि के लिए अन्य व्यवस्था हो सकता है| यदि कोई समान लिंगी यौन संतुष्टि चाहता है, या कोई अन्य व्यवस्था उसे संतुष्टि देता है, तो एक व्यक्ति की स्वतन्त्रता के रूप में, व्यक्तिवाद के रूप में उसे मान्यता मिल सकती है, सामाजिक स्वीकृति मिल सकती है, और उसे बनाये रखना किन्ही व्यक्तियों का आपसी मामला हो सकता है, लेकिन इसे ‘विवाह’ नहीं माना जा सकता है, जो एक संस्था है|

इसी प्राकृतिक स्वभाव की अनिवार्यता के कारण सामान लिंगी में विवाह प्राकृतिक नहीं है| जैसा अब बदलते समाज में सामान्य होता जा रहा है कि कोई भी व्यक्ति किसी के साथ विवाह के अतिरिक्त अन्य के साथ, यौन सम्बन्ध बना ले रहा है और जीवन जी रहा है| लेकिन ऐसे समान लिंगी विवाह को एक संस्था के रूप में वैधानिक स्वीकृति नहीं ही दी जानी चाहिए| ‘यौन संतुष्टि’ एक अलग मामला है, और एक ‘संस्थागत गठन’ दूसरा एवं गंभीर मामला है| सभी मानवीय भावनाओं को ‘संस्थागत स्वीकृति’ नहीं दी जा सकती है, अन्यथा कोई पशुओं के साथ भी अपने यौन संतुष्टि, जिसे अप्राकृतिक कहा जाता है, को सामाजिक स्वीकृति के साथ साथ ‘संस्थागत स्वीकृति’ भी चाहेंगे|

ध्यान दें, विपरीत लिंगी मानवों के मध्य सभी विवाह वैधानिक होते हुए भी उपयुक्त एवं समुचित नहीं माना जाता है| आप समाज में अक्सर देखते हैं कि विवाह से गठित परिवार भी तनाव का शिकार रहता है, जिसके कई कारण हैं| पहला एवं सबसे महत्पूर्ण कारण तो स्त्री एवं पुरुषों के भिन्न भिन्न मनोवैज्ञानिक गठन एवं समझ है, जिसके बारे में लेखक John Grey की प्रसिद्ध पुस्तक “Men are from Mars, Women are from Venus” में बेहतर ढंग से समझाया गया है| यदि दोनों वैवाहिक युगल में ‘चेतना’ का स्तर  उच्चतर होता है, यानि समझदारी का स्तर उच्चतर होता है, तो एक विवाह, यानि इससे गठित परिवार मजे से चलता होता है| यदि किसी वैवाहिक युग्म में कोई एक भी चेतना या समझदारी  के उच्चतर स्तर पर होता है, तो उस विवाह को दिक्कत नहीं आती है| लेकिन यदि दोनों ही चेतना के निम्न स्तर पर रहता है, यानि चेतना के स्तर पर एक पशु के समान स्तर का होता है, तो जीवन तनावग्रस्त रहना भी एक सामान्य जीवन हो जाता है|

इसीलिए यदि आपने यदि अभी तक विवाह नहीं किया है, या अपने किसी नजदीकी के विवाह होने की जानकारी है, तो उसकी प्रकृति को समझ लें| चूँकि सभी वर्तमान मानव एक परिवार- समूह से जन्मे हैं, और इसीलिए सभी की जीनीय गठन में फेनो टाईप (Pheno Type) संरचना में भिन्नता होते हुए भी जीनों टाईप (Geno Type) संरचना समान होती है| अर्थात किसी भी आदमी का बच्चा आदमी (जीनों टाईप समानता) ही होगा, भले उसका रूप-रंग एवं कद- काठी यानि बाह्य स्वरुप (फेनो टाईप संरचना) भिन्न भिन्न होगा| कहने का तात्पर्य यह है कि वैसे आप किसी भी विपरीत लिंगी से विवाह कर सकते हैं| लेकिन चूँकि मानव चेतना युक्त प्राणी है और इसी कारण यह एक पशु से मानव भी बन सका है, इसीलिए जीवन भर साथ रहने के लिए समान चेतना यानि समझ की जरुरत होती है|

‘परिस्थिति’ बदलती रहती है, और इसीलिए इसके ‘अनुकूलन’ की अनिवार्यता के लिए ‘समाज’ भी बदलता रहता है, और इसी कारण सामाजिक ‘मानक’ ‘मूल्य’ (Value) एवं ‘प्रतिमान’ (Norm) भी बदलता रहता है| इसी को “संस्कृति का बदलना” भी कहते हैं| आज विश्व की सभी संस्कृतियाँ एक ‘वैश्विक संस्कृति’ के निर्माण की ओर अग्रसर है| इस परिवर्तन को कोई भी नियंत्रित नहीं कर सकता है, कोई भी नहीं रोक सकता है, क्योंकि सभी सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्कृतियाँ वैश्चिक बाजार की शक्तियों से नियमित, निर्देशित एवं नियंत्रित हो रही है| कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी किसी भी संस्कृति के, यानि किसी भी जाति, प्रजाति, धर्म एवं सम्प्रदाय में विवाह कर सकता है, लेकिन इतना अवश्य ही ध्यान रहे कि वैवाहिक युग्म में न्यूनतम किसी एक का चेतना स्तर उच्चतर स्तर का हो, या समान स्तर का अवश्य हो| तब ही उस विवाह के सफल होने की संभावना है| दरअसल समायोजन के लिए समझदारी चाहिए, जिसे ही “चेतना” का उच्चतर स्तर कहते हैं| इसीलिए कोई भी सभी से विवाह नहीं कर सकता है, या नहीं करना चाहिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष. भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्था

1 टिप्पणी:

  1. यह एक सम सामयिक और बेहद जरूरी आलेख है। पश्चिम से आई इस प्रकार की वैवाहिक विकृति भारतीय समाज को पतन के गहरे गर्त में ले जा रही है।
    लेखक द्वारा किए गए इस वैज्ञानिक विश्लेषण में नई पीढ़ी को सावधान करने या जागरूक और प्रभावित करने की पूर्ण क्षमता है।
    वर्षों पूर्व कपिला वात्स्यायन जी ने और कई लेखकों ने भी ऐसी संस्थाओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति में समाहित दर्शन और उद्दात महान तत्वों को प्रसारित करने और लोगों को सोच और कार्य कलापों में शुचिता रखने हेतू प्रेरित करने का कार्य किया है।
    लेखक और उनकी संस्था को कोटिशः धन्यवाद और पुष्पित पल्लवित होने के लिए शुभ कामनाएं।

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