मंगलवार, 18 मार्च 2025

धर्म - व्यक्ति की, या सत्ता की आवश्यकता है?

धर्म एक बड़ा ही गंभीर, गहन, एवं विस्तृत अध्ययन क्षेत्र है, जो मानव जीवन की समझ को प्रभावित करने का कार्य करता है| और शायद इसीलिए यह विषय भी विवादास्पद और संवेदनशील भी माना जाता है| वैसे ‘धर्म’ के सम्बन्ध में यह भी समझना महत्वपूर्ण है कि ‘धर्म’ की संकल्पना यानि अवधारणा (Concept) क्या है? अर्थात कोई भी किसी धर्म से क्या समझता है? वैसे पालि के ‘धम्म’ एवं संस्कृत यानि हिंदी के ‘धर्म’ दिखते तो हैं एक समान, लेकिन संरचनात्मक एवं निहित अर्थ में सर्वथा भिन्न है, हालाँकि शब्द ‘धर्म’ पालि के ही ‘धम्म’ शब्द का ही सुसंस्कृत (संवर्धित) स्वरुप है| लेकिन ‘संरचनावाद’ (Structuralism) के विद्वान् एक ‘धर्म’ को एक ‘धम्म’ की ही तरह एक ‘मजहब’ और एक ‘रिलीजन’ से भी भिन्न मानते हैं| इस तरह, यहाँ एक प्रचलित एवं परंपरागत ‘धर्म’ को ही इस प्रसंग में रखूँगा| आप इसे कार्ल मार्क्स वह का ‘धर्म’ समझ सकते हैं, जिसे उसने ‘अफीम’ के नशे की तरह एक ‘नशा’ उत्पन्न करने वाला बताया|

जब भी धर्म को समझने की बात आती है, तब ‘दर्शन’ और ‘अध्यात्म’ की बात आ ही जाती है, या इन दोनों अवधारणाओं को ‘धर्म’ के साथ जबरदस्ती ला ही दिया जाता है| आप यह भी कह सकते हैं कि धर्म के मूलभूत, मौलिक एवं मूल तत्वों को समझने की प्रक्रिया में इन दोनों को, यानि ‘दर्शन’ और ‘अध्यात्म’ की अवधारणाओं को ढाल बना कर इस विषय को ‘और जटिलतर’ बना दिया जाता है|

हमें ‘दर्शन’ और ‘अध्यात्म’ की संकल्पना को भी समझ लेना चाहिए| सामान्यत: धर्माचार्य लोग ‘अध्यात्म’ की बात करते हैं, लेकिन इन संकल्पना को इस तरह प्रस्तुत करते हैं, कि वे जब चाहे तब कुछ नयी व्याख्या कर सकें, क्योंकि इस सम्बन्ध में वे खुद ही स्पष्ट नहीं जानते होते हैं| वे कहानियाँ गढ़ देंगे, उदाहरणों का अम्बार लगा देंगे, परन्तु सामान्यत: आपकी समझ के लिए उस अवधारणा को स्पष्ट नहीं करेंगे, या नहीं कर सकते| दरअसल ‘अध्यात्म’ दो शब्दों ‘अधि’ (Above) और आत्म (Self/ Mind) से बना है| जब कोई अपने ‘आत्म’ को, यानि अपने ‘मन’ को, यानि अपनी ‘चेतना’ को ‘अधि’ से, यानि ‘अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) से जोड़ लेता है, उस प्रक्रम या प्रक्रिया को ‘अध्यात्म’ कहते हैं| यह ‘ज्ञान’ प्राप्त करने की उत्कृष्ट विधि है, और इसे ही ‘अंतर्ज्ञान’ भी कहते हैं| यदि आप मुझसे कुछ उदहारण के साथ अध्यात्म की स्पष्टता चाहते हैं, तो मैं तीन आध्यात्मिक व्यक्तियों का उदाहरण देता हूँ – प्राचीन काल में ‘बुद्ध’, बीसवीं शताब्दी में ‘अल्बर्ट आइन्स्टीन’ और इस शताब्दी में ‘स्टीफन हावकिन्स’| इन तीनों ने अपनी ‘आत्म’ को, यानि अपनी ‘चेतना’ को ‘अनन्त प्रज्ञा’ के संपर्क में ला कर मानवता को वह ज्ञान दिया, जिससे व्यापक मानवता लाभान्वित है| वैसे ‘सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था’ (Cultural Economy – कुछ लोग इसे ही ‘धार्मिक अर्थव्यवस्था’ भी कहते समझते हैं) के बाजार में प्रचलित अन्य अवधारणाओं के सम्बन्ध में, या तथाकथित मठाधीशों के बारे में मुझे कुछ नहीं कहना है| यहाँ यह भी ध्यान रहे कि मैंने ‘आत्म’ (Self) की चर्चा की है, लेकिन इससे मिलता जुलता ‘आत्मा’ नहीं है|

वैसे ‘दर्शन’ किसी भी चीज को सम्यक एवं समुचित ढंग से देखना समझना होता है| इसीलिए दर्शन का मूल विषय ‘जीवन’, ‘समाज’ और ‘सत्ता’ के मूलभूत, मौलिक एवं मूल तत्वों को, यानि मूल भावों (Essence) को समझना ही है| समाज का अभिजात वर्ग ही सत्ता पर नियंत्रण रखता है, और संचालित एवं नियमित भी करता रहता है, भले आपको ‘सत्ता’ के भौतिक चेहरे या स्वरुप कुछ अलग दिखता हो| इसीलिए समाज का अभिजात वर्ग ‘दर्शन’ के उपकरणों, यानि ‘दर्शन’ की संकल्पनाओं के सहारे ही एक समानान्तर ‘आभासी’ (Virtual) एवं भ्रामक दुनिया बनाता है, जो तथाकथित ‘विशिष्टता’, ‘सर्वोच्चता’, ‘भिन्नता, और ‘दिव्यता’ पर आधारित होता है| अभिजात वर्ग इन्हीं ‘विशिष्टता’, ‘सर्वोच्चता’, ‘भिन्नता, और ‘दिव्यता’ के आधार पर सामान्य जनों को वास्तविक दुनिया की वास्तविक कठिनाइयों से विमुख करने में और कल्पनाओं की दुनिया पर विश्वास दिला पाने में सफल हो पाते हैं| इन तथाकथित दार्शनिक एवं आध्यात्मिक व्याख्यायों के आधार ही सामान्य जन अपनी गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी, सम्मान एवं गरिमा की समस्यायों पर ध्यान नहीं देकर अपनी काल्पनिक परलोक को सुधारने में ही विश्वास करते हैं| इसीलिए अधिसंख्य दार्शनिक सामान्य जीवन के अस्तित्व को बेहतर बनाने में, यानि सामान्य जीवन की प्रकृति एवं नियति को समझने या स्पष्ट करने में ‘अपना समय’ नहीं लगाते हैं| इसीलिए अधिकतर लोग दर्शन को ‘झूठ का बौद्धिकीकरण’ भी कहते या समझते हैं| इसीलिए सामान्य लोग ‘दर्शन’ को “मायावी तर्कशीलता” (Elusive Logic - काल्पनिक यानि दिखने मात्र के लिए तर्कशीलता) भी मानते हैं|  

‘दर्शन’ प्रत्यक्षत: किसी को ‘सत्ता’ तो नहीं देता या दिलाता है, लेकिन ‘सत्ता’ पर काबिज होने की समझ अवश्य ही देता है| इसीलिए जिनको ‘दर्शन’ की कोई भी समझ नहीं होती है, वे निश्चितया ही एवं सदैव ही ‘सत्ता’ से बहुत दूर होते हैं| दरअसल ‘सत्ता’ अलग कुछ नहीं है, यह मात्र ‘व्यवस्था की सुविधा’ का सुनिश्चयन होता है| ‘जीवन की व्यवस्था की सुविधा’ यानि ‘सत्ता’ से अलग कोई भी वास्तविक दर्शन हो भी नहीं सकता है| ‘धर्म’ को व्यक्ति की आवश्यकता से ज्यादा सत्ता के लिए “वैचारिक घातक अस्त्र” के रूप समझा जाना चाहिए| इसीलिए ‘सत्ता’ की यह अनिवार्यता होती है कि वह ‘धर्म’, ‘अध्यात्म’ और ‘दर्शन’ को एक साथ मिला कर अपनी दिशा में मोड़ ले, यानि अपने पक्ष में उपयोग एवं प्रयोग करे| दरअसल ‘वैज्ञानिक दर्शन’ वास्तव में ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ पर आधारित होता है, लेकिन ‘दर्शन’ को सत्ता के समर्थन में ‘मायावी तर्कशीलता’ के रूप में ही सामान्य जनों के मध्य प्रस्तुत किया जाता है, ताकि सामान्य जन इस उलझन से बाहर नहीं निकल सके|

‘दर्शन’ एवं ‘अध्यात्म’ ही कोई मौलिक, मूलभूत  एवं मूल नवाचारी विचार पैदा करता है, या कर सकता है, जो सब कुछ उलट पुलट कर सकता है, या कर देता है| इसीलिए विक्टर ह्यूगो कहते हैं कि ‘एक विचार का जब ‘उपयुक्त समय’ आता है, तब वह विचार दुनिया की समस्त शक्तिशाली सेनाओं से भी ज्यादा ताकतवर हो जाता है’| मैं इसमें एक संशोधन करता हूँ कि “कोई भी ‘उपयुक्त समय’ नहीं आता है, बल्कि ‘उपयुक्त विचार’ पैदा करना होता है, जो समकालिक होता है, और इसीलिए तत्कालीन समस्त सेनाओं से भी शक्तिशाली हो जाता है| यह ‘उपयुक्त विचार’ ‘दर्शन’ एवं ‘अध्यात्म’ ही उत्पन्न कर सकता है|

किसी भी प्रचलित धर्म का मूल एवं प्राथमिक तत्व “आत्मा” होता है, जो एक शरीर के जन्म के जीवन -कर्म को दूसरे शरीर के जन्म तक ढोता रहता है| मतलब कि एक ‘आत्मा’ के सहारे ही “पुनर्जन्म” होता है, और इस ‘आत्मा’ के बिना किसी का भी पुनर्जन्म नहीं हो सकता है| इस ‘आत्मा’ को ‘नित्य’ माना जाता है, निश्चित माना जाता है, और यह ‘अनित्य’ नहीं होता है, यानि यह ‘आत्मा’ ‘बदलने वाला नहीं’ होता है| जब किसी का ‘आत्मा’ नित्य होता है, तब उस व्यक्ति की जाति भी नित्य ही रहेगा| यही ‘आत्मा’ होती है, जो एक शरीर के जन्म के कर्मों के फल के परिणाम को अगले जन्म तक ले जाती है, और यही “कर्मवाद” कहलाता है| इसी कारण आपके जन्म की जाति यानि कर्म की सुनिश्चितता भी नित्य होता है, और इसे ही “नित्यवाद” कहते हैं| चूँकि यह सब नित्य होता है और इन सारी व्यवस्थाओं को नियमित, नियंत्रित एवं संचालित करने वाला भी कोई ‘नित्य प्राधिकार या सत्ता’ ही होगा, और उस नित्य को ही “ईश्वर” कहते हैं| यही पाँचों तत्व ही किसी भी धर्म के मूलभूत, मौलिक एवं मूल तत्व है, अन्यथा वह प्रचलित एवं पारम्परिक धर्म नहीं है, ‘कुछ अलग और कोई अन्य विशिष्ट’ चीज है| ‘आत्मा’ की अवधारणा ‘सत्ता’ को उसके ‘अव्यवस्था’ एवं ‘कुशासन’ के उत्तरदायित्व से मुक्त कर देता है, क्योंकि शासन के किसी ‘अव्यवस्था’ एवं ‘कुशासन’ का प्रतिफल को, जो कोई भी (सामान्य जन) भोग रहा है, वह उसके पूर्व के जन्म में किये गए उसके ही कर्मों के फल का परिणाम है| चूँकि कोई भी ‘सत्ता’ किसी के पूर्व जन्म में जाकर उसके कर्मों को सुधार नहीं कर सकता है, इसलिए किसी के कष्टमय एवं दुर्भाग्यमय जीवन के लिए कभी भी ‘सत्ता’ जबाबदेह नहीं हो सकता| अर्थात किसी के इन कष्टमय एवं दुर्भाग्यमय जीवन के लिए किसी शासन यानि सत्ता को दोष नहीं दे सकते हैं| आज के वैज्ञानिक युग में आत्म’, ‘मन’ एवं ‘चेतना’ तो वैज्ञानिक अवधारणा है, लेकिन इससे मिलता जुलता ‘आत्मा’ वैज्ञानिक अवधारणा नहीं है|

ऐसा लगता है कि ‘धर्म’ एक व्यक्तिगत उपयोग एवं प्रयोग की अवधारणा है, लेकिन वस्तुत: ‘धर्म’ सत्ता का मौलिक एवं आधारभूत हथियार है, उपकरण है, जिसके द्वारा जनमत को नियमित एवं नियंत्रित किया जाता है| एक ‘धर्म’ किसी को जीवन के प्रति सुधार की संभावना का आश्वासन देता दिखता है, लेकिन इस जीवन में नहीं, अपितु अगले जीवन में बेहतर जीवन का आश्वासन देता है, क्योंकि यह जीवन पिछले जन्म के कर्म के आधार पर पूर्व निर्धारित है| और किसी के अगले जीवन के होने का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है| अर्थात अगले जीवन को, यानि अगले शरीर में पुनर्जन्म को कोई भी आधुनिक विज्ञान मान्यता नहीं देता है| आप किसी धर्म के कर्म या काण्ड के नाम पर अपने को विश्वास दिला सकते हैं, उर्जा एवं शक्ति पाने का दावा कर सकते हैं| यदि कोई शासन यानि सत्ता सामान्य जनता को कष्टमय एवं दुर्भाग्यमय जीवन ही दे रहा है, तो उस सत्ता के लिए यही धर्म ही ‘उद्धारक’ साबित होता है| इसीलिए सभी पारम्परिक प्रचलित धर्म मध्य युग के सामन्तवादी काल में ही अपने वर्तमान स्वरुप ग्रहण किया है, भले उसके साथ किसी भी काल के ऐतिहासिक व्यक्ति से उसे सम्बद्ध कर दिया हो| जब आप किसी भी धर्म के समर्थन में कोई ‘प्राथमिक प्रमाणिक प्रमाणों’ (पुरातात्विक प्रमाणों सहित) साक्ष्यों सम्बन्धित प्रश्नों की बात करेंगे, तो ‘उपरोक्त विवेचित अवधारणा’ ही  स्पष्टतया उभर कर सामने आता है, बाकि सब मिथक है|

आप भी इस पर मनन एवं मंथन करें, आपको सब कुछ स्वत: स्पष्ट होता जायगा|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

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