गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्विकास के सफ़र की कहानी

सामान्यत: लोग सामाजिक उद्विकास या सांस्कृतिक उद्विकास के सफ़र की भिन्न भिन्न कहानियाँ सुनते रहते हैं| इस उद्विकास के सफ़र को कहानियाँ इसलिए कहा गया, क्योंकि ये कहानियाँ बिना सिर पैर की भी होती है| यह बिना किसी सम्पूर्ण तार्किकता एवं वैज्ञानिकता के होती है, और समर्थन में उनका कोई सम्यक साक्ष्य एवं तथ्य भी नहीं होता है| हालाँकि सभी संस्कृतियों एवं समाजों की कहानियाँ अलग अलग होती है, लेकिन हमलोग भारत भूमि के सन्दर्भ में बात करेंगे| फिर भी भारत के बहाने वैश्विकता की व्यापकता एवं सामान्यीकरण के सिद्धांतों पर भी नजर रहेगी| लोग बिना आधार पर ही कहते हैं, कि हमारा समाज आर्कटिक प्रदेशों से, बाल्टिक प्रदेशों से, आस्ट्रोनेटिक प्रदेशों से या किसी अन्य क्षेत्रों से भारत आया है, या भारत में ही विकसित हुआ है|

इन सब प्रसंगों में कई सवाल उभरते हैं, लेकिन मौलिक (Original), मूल (Core) एवं मूलभूत (Basic/ Fundamental) सवाल एवं उत्तर भी उभरने चाहिए, लेकिन इन मौलिक, मूल एवं मूलभूत सवाल एवं उत्तर को छोड़ कर बाकि सभी थोथले सवाल एवं उत्तर ही बहस या विमर्श के हिस्से होते हैं| सबसे पहले तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि समाज एवं संस्कृति से तात्पर्य क्या होता है? क्या कोई झुण्ड या समूह ही समाज कहलाता है, या इसके अतिरिक्त इसमें कोई और शर्त होता है? यदि यह मानव का झुण्ड मात्र ही है, तो फिर समाज शब्द की आवश्यकता क्यों हुई? समाज मानवीय ‘संबंधों का जाल’ (web of relashionship) होता है| दूसरे सब्दों में, समाज कुछ “संस्थाओं” (Institutions, not Institutes) का ‘पारितंत्र’ (Eco system) होता है| कहने का तात्पर्य यह है कि सामाजिक उद्विकास का सफ़र ऐसे संस्थाओं के निर्माण के बाद ही शुरू होता है, और इसके पहले की सामाजिक उद्विकास की कहानी मात्र स्वप्निल कहानी मानी जानी चाहिए| मतलब यह कि आठ हजार साल से पहले की सभ्यता एवं संस्कृति की सारी कहानियाँ थोथली ही हैं| संस्कृति सामाजिक सदस्य होने से संस्कारित स्वरूप है। 

मानवविज्ञानियों ने यह स्थापित कर दिया है कि वर्तमान सभी मानव होमो सेपियन्स सेपियन्स हैं, और होमो के बाकि उत्पन्न सभी प्रजातियाँ समय के साथ नष्ट होते गये हैं| इससे आपकी असहमति हो सकती है, लेकिन इसका संतोषजनक उत्तर तो स्थापित सर्वमान्य मानवविज्ञानियों से ही पाया जा सकता है, वैसे असहमति के लिए कोई भी स्वतंत्र है| वर्तमान सभी मानव अफ्रीका के वोत्सवाना के घाटी के मैदान में एक ही आदि परिवार समूह से उत्पन्न माने जाते हैं| मतलब यह है कि जब सभी वर्तमान मानव एक ही आदि परिवार से उत्पन्न हैं, तो मानव समाजों के विभिन्न प्रदेशों से उत्पन्न सामाजिक समूहों की कहानी पूर्णतया बेईमानी है, और कोई घटिया उद्देश्य या उद्देश्यविहीन भावों से परिकल्पित है| इस आधार पर कोई भी देशज और विदेशी नहीं है, चूँकि सभी एक ही परिवार से उत्पन्न हैं| तो आप यह कह सकते हैं कि समय के सन्दर्भ में लोग भिन्न भिन्न क्षेत्रों से आए हैं, यह सही हो सकता है, या है, लेकिन इससे हम क्या स्थापित करना चाहते हैं, जब सभी एक ही परिवार और संस्कृति से उत्पन्न हैं| बाहय शारीरिक भिन्नता तो ‘भौगोलिक अनुकूलन’ (Geographic Adoptation) के मात्र परिणाम हैं| जीनीय रूप में यह भिन्नता फेनोटाइप (Phenotype) संरचना है, लेकिन जीनोटाइप (Genotype) संरचना एक सामान रहता है| सतही भिन्नता का आधार सिर्फ भौगोलिक अनुकूलन होता है| भौगोलिक एवं सामाजिक विभाजन के आधार से जीनीय पूल में भिन्नता ‘जीनीय प्रवाह’ (Genetic Flow) एवं ‘जीनीय विस्थापन’ (Genetic Dispalcement) से आता है|

स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति मानव समाज के उद्विकास को इस उत्पत्ति स्थान को छोड़कर किसी भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्विकास की कहानी रचता है, या कहता है, तो वह चटपटा हो सकता है, और आकर्षक भी हो सकता है, लेकिन वह एक ऐतिहासिक चुटकुले से ज्यादा कुछ नहीं है| सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्विकास के इस कड़ी को छोड़कर, यानि इस तारतम्यता को छोड़कर कोई कहीं और से, किसी अन्य क्षेत्र से सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्विकास की कहानी बताना शुरू करता है, तो उसे उद्विकासवाद की मूलभूत समझ नहीं है, और इसीलिए उसकी कथाएँ महज एक तमाशा हो सकता है, इतिहास का कोई हिस्सा नहीं हो सकता है| उद्विकास किसी जीव का हो, किसी भाषा का हो, किसी समाज का हो, या किसी संस्कृति का हो, संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक (Functional) विन्यास में सदैव ही सरलतम से जटिलतम अवस्था की ओर अग्रसर होगा, यानि साधारणतम स्तर से से उच्चतर स्तर की ओर अग्रसर होता है| यह उद्विकासवाद किसी भी दैवीय या चमत्कारिक उत्पत्ति या विकास की किसी भी अवधारणा को कोई भी स्थान नहीं देता है, इसे दुबारा फिर से, एवं स्थिरता से पढ़ें|

सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्विकास समाज का एक ऐसा विकास सिद्धांत है, जिसके अनुसार मानव समाज समय के साथ परिवर्तित परितंत्र के अनुकूलन के साथ साथ उच्चतर विकास की ओर बढ़ता जाता है| यह नई दिशाओं में नई संभावनाओं को भी आधार देता है| तय है कि इनके सदस्यों की प्रारंभिक संख्या भी नगण्य ही होगी| वर्तमान मानव अपनी उत्पत्ति के समय यानि कोई सत्तर हजार साल पहले एक छोटा सा मानव समूह ही मात्र था| जनसंख्याविदों का मानना है कि कोई पचास हजार साल पहले तक इनकी सम्पूर्ण जनसंख्या कोई दस हजार के ही आसपास थी, और उसी समय वर्तमान मानव के पूर्वज अफ्रीका से बाहर निकलने लगे| कोई पांच हजार साल पहले विश्व की सम्पूर्ण आबादी कोई पचास लाख अनुमानित है| तय है कि ऐसी स्थिति में भौगोलिक संपर्क संभव -स्थानों के लोग एक दूसरे से मिलते रहते रहते थे, और प्रवासन का दौर आज की ही तरह जारी था| सिर्फ मध्य काल की सामन्ती शक्तियों के कारण यह प्रवासन बाधित रहा था| ऐसी स्थितियों में संस्कृतियों के प्रवासन की बात अपने ठोस अवस्था में एवं सम्पूर्णता की स्थिति में करना बेमानी है| संस्कृतियाँ आपसी सम्पर्क में सदैव एक दूसरे को प्रभावित करती रही है|

जब किसी भी सामाजिक उद्विकास के सफरनामा का अध्ययन करते हैं, और उससे सम्बन्धित परिभाषाएँ और अवधारणाएँ ही पूर्णतया स्पष्ट नहीं हो, तो सारा विमर्श या बहस बकवास हो जाता है| तो हमें ‘समाज’, ‘संस्था’, ‘परिवर्तन’, ‘प्रक्रिया’, ‘क्रियाविधि’, ‘रूपांतरण’, ‘वृद्धि’, ‘विकास’, ‘उद्विकास’, ‘प्रगति’, ‘अनुकूलन’, की अवधारणा को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए|

एक “समाज” (Society) मानव संबंधों का एक जाल या व्यवस्था है|

कोई भी “संस्था” (Institution) एक मूल एवं मौलिक उद्देश्य या दर्शन (Essence) के लिए स्थापित होती है, और इसके बिना यह संस्था जीवित नहीं रह सकती| परिवार, विवाह, राज्य आदि सभी संस्थाएँ हैं|

“परिवर्तन” (Change) में संरचना, या प्रकार्य, या दोनों में अंतर आता है। इसे बदलाव भी कहते हैं| 

प्रक्रिया” (Process) एक निरंतर परिवर्तन होते रहने की अवस्था है| यह सामान्यत: एक देशीय होता है, और यह अवधारणात्मक बदलाव की दशा है|

“क्रियाविधि” (Mechanism) वह प्रक्रिया है, जो किसी भी तंत्र में उनके ‘छोटे भागों’ (उप तंत्रों) के मध्य होता रहता है, और यह द्विदेशीय दिशा में भी हो सकता है| यह ‘प्रक्रिया’ से ज्यादा व्यापक अवधारणा है|

“रूपान्तरण” (Transformation) स्थायी निश्चित परिवर्तन होता है, और यह परिवर्तन आसानी से अपने मूल स्वरुप में वापस  नहीं आ पाता है|

“वृद्धि” (Growth) किसी निश्चित दिशा में अग्रगमन या निरन्तर परिवर्तन है| इसे एकदेशीय बढ़ोतरी (increament) कहा जा सकता है, जैसे सीमेंट के खपत में वृद्धि|

“विकास” (Development) में बहुदेशीय गुणात्मक एवं सकारात्मक बदलाव होता है| यह सामान्य वृद्धि नहीं है| यह आपसी संबंधों में सकारात्मक एवं रचनात्मक सृजन की अवस्था है| इस तरह यह ‘वृद्धि’ से बहुत व्यापक है| इसे 'क्षमता निर्माण' (Capability Formation) भी माना जाता है|

“प्रगति " (Progress) में किसी व्यवस्था या किसी प्रक्रिया में गुणात्मक दृष्टि से प्रकृति का सकारात्मक बदलाव होता है|

“उद्विकास” (Evolution) धीमी गति से, लेकिन निरन्तर ढाँचागत, या संरचनात्मक, या विन्यास सम्बन्धी सकारात्मक रूपान्तरण होने की प्रक्रिया है|  

“अनुकूलन” (Adoptation) किसी के जीवित रहने या और बेहतर करने के लिए एक प्रक्रिया या क्रियाविधि है, जिसमे कोई इसके लिए स्वयं एवं अपने आसपास में बदलाव लाता रहता है| यह उसके जीवन काल में सदैव चलता रहता है|

अब आप ऐसी कहानियों को कहने वाले से उपरोक्त आधारित प्रश्न कीजिए| उपरोक्त मानव के उद्विकास से भिन्न कोई और कड़ी है, तो उसके उत्पत्ति का आधार और साक्ष्य क्या है? जब सभी वर्तमान मानव ‘होमो सेपियंस सेपियंस’ ही हैं, तो उनके भिन्न भिन्न स्थानों से उत्पत्ति को मानव वैज्ञानिक समूह क्यों नहीं मानता? जब पांच हजार साल पहले और उसके बाद भौगोलिक संपर्क से जुड़े हुए लोग आपस में मिलते रहे, और एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवसन करते रहे, तो भिन्नताओं एवं समानताओं को तलाशना कौन सी मकसद को पूरा करता है? तय है कि संस्कृतियों का भी यदि प्रवाह हुआ है, तो वह अवश्य ही पानी की तरह उच्चतर विभव (Potential) से निम्नतर विभव की ओर प्रवाहित होगा|

और सबसे अन्त में,

ऐसी कहानियों को सम्यक रूप में पूर्णता में, और लिखित में मांग की जाय, जो ‘होमो सेपियंस सेपियंस’ की उत्पत्ति से अब तक की कड़ियों की, यानि उद्विकास की सम्पूर्ण व्याख्या करता हो| अन्यथा वह मात्र कथा ही है| उद्विकासवाद इसमें बहुत ही महत्वपूर्ण तार्किक आधार है|  

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

'पूँजीवाद का द्वन्द' ही धर्म का नाश करेगा|

आपको लगता है कि मैंने इस शीर्षक को कुछ अटपटा बना दिया है, लेकिन ऐसा नहीं है| ऐसा इसलिए लगता है कि क्योंकि धर्म के बारे में हमारी दृष्टि मौलिक, मूलभूत एवं आधारभूत  रुप में स्पष्ट नहीं हैं| प्रचलित एवं परम्परागत धर्म अब खतरे में हैं, चाहे उसको सुरक्षित रखने का कोई भी प्रयास कर लिया जाय| धर्म बाजार के गुणात्मक विस्तार एवं वृद्धि में बाधक बनता है। वैश्विक जगत पर ठहर कर देखने समझने की जरुरत है| आज अमेरिका, चीन, रूस आदि शक्तियाँ एक सुर में आकार क्या बताना चाह रही है? समझने की जरुरत है । लेकिन इन सभी को समझने के लिए हमें धर्म की उत्पत्ति, क्रियाविधि एवं उद्देश्य को समझना होगा, और पूँजीवाद को भी वैज्ञानिक विधि से समझना होगा, तो सभी चीजें स्पष्ट होने लगेगी|

यह भी स्पष्ट है कि किसी एक ही शब्द का 'भाव सहित अर्थ' संस्कृतियों की भिन्नता के साथ बदलता जाता है| पुरातात्विक साक्ष्यों से समर्थित भारत की प्राचीनतम भाषा ‘पालि’ में इस प्रचलित एवं परम्परागत ‘धर्म’ को ‘धम्म’ बताया गया, जो संस्कारित अवस्था में ‘धर्म’ कहलाया| यह ध्यान रखना है कि पहले धम्म आया, और उससे ही धर्म बना। इसी तरह यूरोप के किसी रीजन (Region) की परम्परा एवं संस्कृति रिलीजन (Religion) है, और इसी तरह मध्य पूर्व के किसी मजलिश की ‘सामूहिक अचेतन’ (Collective Unconscious) ‘मजहब’ कहलाया| ऐसे ही शब्दों के सतही अर्थ एवं निहितार्थ समझने में महान भाषाविद फर्डीनांड डी सौसुरे का ‘संरचनावाद’ (Structuralism) और प्रसिद्ध दार्शनिक जाक देरिदा का ‘विखंडनवाद’ (Deconstructionism) आता है|  अर्थात किसी एक संस्कृति की “सांस्कृतिक पदावली” (Cultural Term) का सम्यक अर्थ दूसरी संस्कृति में बदल जाता है| भारत में ‘धम्म’ के बारे में कहा गया है – ‘धारेति ति धम्मो’, यानि ‘जो धारण करने योग्य है, वही धम्म है’| इस तरह प्राचीन काल में यह ‘धम्म’ किसी का प्राकृतिक गुण, स्वाभाव, प्रकृति हुआ| इसी ‘धम्म’ से यह परंपरागत ‘धर्म’ शब्द आया, जिसका नाम तो वही रहा, परन्तु सब कुछ बदल गया,  अर्थात बाह्य ढाँचा स्थिर होते हुए भी आन्तरिक संरचना एवं विन्यास बदल गया, और ‘सतही’ अर्थ स्थिर रखते हुए भी ‘निहित’ अर्थ पूरा ही बदल गया| पति का (धर्म) धम्म, आग का धर्म, माता का धर्म, आदि आदि| लेकिन हमलोग यहाँ प्रचलित परंपरागत ‘धर्म’ को मानकर आगे बढ़ते हैं|

चूँकि वर्तमान सभी प्रचलित परंपरागत धर्म अपने सभी प्रचलित स्वरूपों में अपने भौगोलिक सांस्कृतिक उत्पाद होते हैं, इसीलिए ‘भाव’ (Essence) की समानता के बावजूद इन धर्मों के बाह्य स्वरुप एवं आंतरिक संरचना एवं विन्यास भिन्नताएँ रखती हैं| दरअसल वर्तमान सभी धर्म अपने सभी प्रचलित स्वरूपों में सामन्ती स्वरूपों में विद्यमान होते हैं, यानि वर्तमान सभी धर्म अपने सभी प्रचलित स्वरूपों में मध्य काल में ही ‘आकार’ (Shape) लिया है| इन सभी धर्मों से जुड़े सभी व्यक्तियों के व्यक्तित्व एवं अधिकतर स्थानों के नाम भले ही प्राचीन काल के हों, लेकिन सभी में सामन्ती व्यवस्था के अनुरूप या सामन्ती व्यवस्था का विरोध – स्वरुप भाव अवश्य ही रखता है| सभी धर्म को सर्व स्वीकार्य कराने के लिए इसकी सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्थाओं की व्याख्या के लिए प्राचीनतम संस्कृतियों को ही आधार बनाया जाता है| और इसी आवश्यकता की पूर्ति ने सभी नव सामाजिक- सांस्कृतिक परम्पराओं की व्याख्याओं, यानि कथानकों, यानि आख्यानों (Narratives) को ‘सांस्कृतिक खोल’ ओढना पड़ता है, और सभी कथानक, यानि आख्यान प्राचीनतम होने का दावा करती है| ‘धम्म’ में जहाँ अप्राकृतिक शक्तियों को कोई स्थान नहीं होता है, वहीं धर्म के सभी प्रचलित स्वरुपों में उस अप्राकृतिक शक्तियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहारा लिया गया है| ‘अप्राकृतिक शक्ति’ से तात्पर्य ‘अप्राकृतिक शक्ति को मानवीकृत स्वरुप में प्रस्तुत करना, जो किसी विशिष्ट मानव से बात कर सकता है, सुन समझ सकता है, और कार्य भी करता हुआ माना जाता है| स्पष्ट है कि ‘अप्राकृतिक शक्ति के मानवीकृत स्वरुप को ही सामान्य साधारण जनता ‘ईश्वर’ (God) कहते हैं|

यूरोप में पुनर्जागरण के साथ ही ‘भौतिकवाद’ का उद्भव हो रहा  था| प्रकृति को एवं उसके गतिविधियों को तार्किक विधि से तथ्यों एवं साक्ष्यों के आधार पर समझना ही विज्ञान कहलाया, यानि वैज्ञानिक विधि का आगमन हुआ| इस तरह विज्ञान एक विषय नहीं होकर, यह ‘अध्ययन की विधि’ (Methodology) हो गयी| प्राचीन काल में तत्कालीन दुनिया में ‘बुद्धि’ का उद्विकास हुआ था, जो मध्य काल के सामन्तवाद में ध्वस्त हो गया था| फिर से उसी ‘बुद्धि’ के विकास काल को ‘पुनर्जागरण’ कहा गया| ‘भौतिकवादी’ दृष्टिकोण ने ही ‘प्राकृतिक विज्ञान’ को वैज्ञानिक आधार दिया, जिससे विज्ञान ने अभूतपूर्व विकास किया| कार्ल मार्क्स पहले आधुनिक दार्शनिक थे, जिन्होंने सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण को समझने के लिए भी उसी “वैज्ञानिक भौतिकवाद’ का सहारा लिया, जिसके आधार पर आधुनिक विज्ञान इस स्थिति तक आ सका था| इसी के आधार पर उन्होंने पूँजीवाद के चरित्र का विश्लेष्णात्मक मूल्याङ्कन किया| इसके लिए ‘द्वंदवाद’ को वैज्ञानिक आधार पर विकसित किया| इन्ही सामाजिक सांस्कृतिक उद्विकास के कारण यूरोप में धर्म (चर्च) का भौगोलिक क्षेत्र एवं सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियाँ सीमित होकर सिकुड़ती चली गयी|  इस द्वन्दवाद में आत्मवाद और भौतिकवाद में अन्तत: भौतिकवाद ही जीतता है। आज पश्चिमी जगत में धर्म (चर्च) की गतिविधियाँ इतनी सीमित हो गयी है, कि इन संस्थानों को अपने भौतिक संरचना यानि भवन (चर्च की इमारत) की भी गौरवमयी विरासत को संरक्षित एवं सुरक्षित रखने के प्रयास में बेदम हो रहे है| आज सभी विकसित प्रदेश ऐसे ही स्थान या क्षेत्र की श्रेणी में आते हैं|

लेकिन धर्म जैसे संस्थाओं के साथ ऐसा क्यों हो रहा है? मानव का सामाजिक सांस्कृतिक अस्तित्व ही उसके चेतनाओं के सभी स्तर के स्वरुप को निश्चित करता है| आज जहाँ भी पूँजीवाद है, वह समृद्ध है, भले ही उसका स्थानीय नामकरण जो है| वहाँ धर्म अपने प्रचलित एवं परम्परागत स्वरुप में निष्क्रिय या मृत प्राय: है| जो समाज आज ज्यादा ‘आत्मिक’ या ‘आत्मा’ से प्रभावित है, वह संस्कृति विकास के दौड़ में अत्यधिक पिछड़ी हुई है, भले ही वह अपने को विकासशील समझ कर ‘आत्ममुग्ध’ होता रहे|

जो ‘धन’ (Wealth) उत्पादक होता है, वही धन ‘पूँजी’ (Capital) कहलाता है| और इसी ‘पूँजी’ के हित में, इसी के संवर्धन के लिए जो व्यवस्था का तानाबाना संचालित होता है, उसी व्यवस्था को पूँजीवाद कहते हैं| दुनिया की तमाम विकसित कही जाने वाली व्यवस्था इसी पूँजी के संवर्धन की व्यवस्था में लगी हुई है, भले वह अपने को किसी भी ‘वाद’ का समर्थक माने| और इसी लिए ऐसी व्यवस्थाओं में प्रचलित एवं परम्परागत धर्म का नाश  हो गया है, या हो रहा है| बिना मानसिकता बदले हुए भौतिक उपलब्धि पाना ‘वृद्धि’ (Growth) कहला सकता है, लेकिन ‘विकसित’ (Developed) की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है|

तो पूँजीवाद की कौन सी अनिवार्यता होती है, जो प्रचलित एवं परम्परागत धर्म का नाश करता है? मतलब यह है कि प्रचलित एवं परम्परागत धर्म का चरित्र एवं स्वाभाव ही पूँजीवाद का विरोध कर देता है|  प्रचलित एवं परम्परागत धर्म ‘आस्था’ का विषय होता है। लेकिन ‘धम्म’ ‘आस्था’ का ही विरोध कर देता है, और यह सब कुछ समझ कर ही अनुगामी होने का सलाह देता है| आस्था बौद्धिकता के मौलिक विकास में बाधक बनता है और इस तरह वह समाज अपनी अर्थव्यवस्था में भी पिछडी हुइ होती है। ऐसे लोग पूँजीवाद के विकास में सहायक नहीं हो सकते। 

द्वंदवाद (Dialectism) किसी सत्य की खोज करने की वाद- प्रतिवाद की विधि है| यही विधि भौतिकवाद के विकास के परिणाम को समझने के लिए किया गया| प्रकृति की तरह समाज भी निरन्तर परिवर्तनशील है, और इसके परिणामस्वरूप परिस्थितियाँ बदलती रहती है| बदली हुई परिस्थितियों में अनुकूलित कर जाने वाले बचे रह जाते है, और संवर्धित भी होते हैं, जबकि इसके आलावा अन्य नष्ट हो जाने को बाध्य हो जाते हैं| ये परिवर्तन जटिल होते हैं, और इनके छोटे परिवर्तन भी बड़े गुणात्मक परिवर्तन कर देते हैं| ऐसे परिवर्तनों के लिए किसी व्यक्ति विशेष की इच्छा शक्ति पर्याप्त नहीं होता है, बल्कि ‘भौतिक स्थितियाँ’ (Material conditions) ही नियामक एवं निर्धारक होता है| इन शक्तियों को भौतिक शक्तियाँ कहते हैं, जो ऐतिहासिक काल में ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ कहलाता है|

पूँजीवाद चाहता है कि प्रत्येक पूँजी अपना महत्तम प्रतिफल दे, और यह उस समय संभव है, जब लोगों में बढ़ते ‘उत्पादन’ (Production) के अनुरूप लोगों की ‘उपभोग’ (Consumption) क्षमता एवं क्रय क्षमता बढ़ता रहे| जब जनता का स्तर ‘पशुवत’ होती है, यानि भूख, प्यास, यौन सम्बन्ध जैसे मूलभूत ‘सहज प्रवृति’ (Basic Intincts) तक सीमित होती है, तब उसकी आवश्यकताएँ भी ‘पशुवत’ ही रहती है| तब उपभोग का स्तर भी प्राथमिक स्तर का होता है, लेकिन जब उपभोग का स्तर उच्चतर होता है, तब खपत के लिए अधिक धनराशि की जरुरत हो जाती है, यानि सामान्य जनता का उच्चतर क्रय क्षमता होना चाहिए| जनता के उच्चतर क्रय क्षमता के लिए उसकी आय भी उच्चतर स्तर का होना चाहिए| इसके लिए उनके बौद्धिक स्तर को भी उच्चतर होना चाहिए| किसी भी गुणात्मक शिक्षा का मूलभूत आधार ‘सवाल खड़ा करना’ ही होता है, और ‘आस्था’ किसी भी गुणात्मक शिक्षा की नीव के ही विरुद्ध हो जाता है| इसीलिए ‘आस्था’ पर आधारित सभी  संस्कृतियाँ कोई मौलिक उत्पादन या योगदान नहीं करती है, भले ही जो दावा करता रहे| इसीलिए पूँजीवादी व्यवस्था में ऐसी ‘आस्था’ पर आधारित संस्थानों’ को अवश्य ही नष्ट होना होता है, जैसे पश्चिम जगत में हुआ| ‘प्रचलित एवं परम्परागत धर्म भी एक सांस्कृतिक संस्था है|

यदि आप आधुनिक एवं विकसित देशों, या समाजों, या संस्कृतियों का अवलोकन करते हैं, तो आप पाते हैं कि वहाँ ‘आस्था’ पर आधारित कोई सांस्कृतिक संस्था वजूद में नहीं है| यदि आप ऐसा नहीं देख पा रहे हैं, आपको आपकी अपनी ‘आलोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking)’ के स्तर का एक बार समुचित मूल्याङ्कन करने की आवश्यकता है| आप क्या कर पा रहे हैं, यह आप ही जानें, लेकिन यही सत्य है, यही आज के संदर्भ में सत्य है| तब आपको गंभीरता से ठहर जाना चाहिए|

स्पष्ट है कि पूँजीवाद का द्वन्द ही इस प्रचलित एवं परम्परागत धर्म का नाश करेगा|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

मैं कौन हूँ?

मैं कौन हूँ? , एक बड़ा ही सहज और स्वाभाविक प्रश्न है। लेकिन इसका उत्तर सरल (Simple) भी नहीं है , और साधारण (Ordinary) भी नहीं है। मतलब इसका...