शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2024

कट्टरता क्यों आती है?

आज यह बहुत बड़ा और अहम् सवाल है कि "कट्टरता" क्यों आती है, या 'कट्टरता' को क्यों लानी पड़ती है? कट्टरता क्यों बरकरार रहती है, या इसकी निरंतरता की किसी को आवश्यकता क्यों होती है? क्या हम अपनी और दूसरों की भी कट्टरता समाप्त करना चाहते हैं या सिर्फ दूसरों की ही  कट्टरता समाप्त करना चाहते हैं? क्या कट्टरता इसलिए टिका हुआ है कि हमारे कुछ शिखर व्यक्तियों एवं कुछ वर्ग आधारित समाजों के सम्मान का अस्तित्व भी इसी पर वजूद में है? हालाँकि यह विषय अतिसंवेदनशील है, लेकिन यह हमारे भविष्य के लिए बहुत गंभीर भी है| हमने ‘वृहतर भारत’ (Greater India)  को पहले ही कई कई खण्डों में बाँट लिया हैं| और यदि हम बंटना अपना स्वभाव/ आदत ही बना लें, तो भारत की इस पुरातन एवं विविध संस्कृति वाले समाज में बंटने के लिए कई आधार पहले से ही उपलब्ध होते है| वैसे बंटने के लिए आधार के रूप में पंथ एवं सम्प्रदाय के आलावा ‘जाति’ या जाति- समूह प्रमुख है, लेकिन भाषा, क्षेत्र, तथाकथित आर्थिक विषमता, एवं शोषण का आधार भी आवश्यकतानुसार बना लिए जा सकते हैं| वैसे यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारे दुश्मन शक्तियां इसी के इन्तजार में भी रहती हैं| तो अब हमलोग मुख्य मुद्दे पर चलते हैं|

वैज्ञानिक दार्शनिक जन समझाते हैं कि समाज के जिस वर्ग का बाजार के साधनों एवं शक्तियों पर नियंत्रण होता है, यानि जिस सामाजिक वर्ग का आर्थिक उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधन एवं शक्तियों पर प्रभावी नियंत्रण होता है, उसी वर्ग का नियंत्रण एवं नियमन उस समाज की बौद्धिकता (मानसिकता) के भी उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग पर भी होता है| ऐसे प्रभावी नियंत्रण तंत्र में हमारी बौद्धिकता (मानसिकता) के उत्पादन, वितरण, एवं विनिमय में आपकी हमारी भूमिका कहाँ है और यह कैसे कार्य करती है? इसे भी ठहर कर हमें सोचना होगा|

हमारा मौलिक अस्तित्व ही भौतिक (Material) है, भले ही हम उर्जा (Energy), समय (Time) एवं आकाश (Space) से भी संचालित, नियमित एवं प्रभावित होते हों| हमारा शरीर (Body) ही भौतिक वस्तु है, हमारा मस्तिष्क यानि दिमाग (Brain) भी भौतिक वस्तु है| हमारा मन (Mind) कहाँ निवास करता है और कैसे काम करता है? यह अभी तक वैज्ञानिकों को अज्ञात तो हैं, लेकिन मन का अस्तित्व हमारे शरीर से ही है और हमारे शरीर के अस्तित्व तक ही यह मन सीमित भी है| कुछ विद्वान् ‘मन’ को ही ‘चेतना’ (Consciousness) या ‘आत्म’ (Self) (यह आत्मा – Soul से अलग अवधारणा है) भी कहते हैं| इसीलिए हमें स्वयं, समाज, मानवता, दर्शन और अन्य विज्ञान  को भी “भौतिकवाद” से ही व्याख्यापित करना हमारी अनिवार्यता हो जाती है| लेकिन यह “भौतिकवाद” भी आधुनिक विज्ञान पर आधारित होना चाहिए| इसीलिए यह  “वैज्ञानिक भौतिकवाद” हमें  वैज्ञानिक विश्वदृष्टिकोण देता है|

लेकिन “वैज्ञानिक भौतिकवाद” (Scientific Materialiasm) शोषक वर्ग का एवं शोषक शासक सत्ता की व्यवस्था, तंत्र और उसकी क्रियाविधि का पोल खोल देता है, और इसीलिए ऐसे शोषक वर्ग इस “वैज्ञानिक भौतिकवाद” को पसंद नहीं करते हैं| सांप्रदायिक आस्थाएँ, विश्वास, पौराणिक कथाएँ आदि इस “वैज्ञानिक भौतिकवाद” के मामूली गर्मी से ही पिघलने लगता है, यानि समाप्त हो जाता है| इसीलिए व्यक्तिगत धार्मिक एवं सांप्रदायिक ‘आस्थाओं’, ‘विश्वासों’, ‘मूल्यों’, एवं ‘परम्पराओं’ का ‘बाजारीकरण’ (Marketisation) करना पड़ता है| इन व्यक्तिगत धार्मिक एवं सांप्रदायिक ‘आस्थाओं’, ‘विश्वासों’, ‘मूल्यों’, एवं ‘परम्पराओं’ को इस तरह प्रदर्शित करना पड़ता है, ताकि इस पर आधारित आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक लाभ लिया जा सके| इस ‘प्रदर्शन’ को  शायद ‘कट्टरता’ के दृष्टिकोण से भी देखने समझने की आवश्यकता हो सकती है| इसीलिए शोषक शासक वर्ग “वैज्ञानिक भौतिकवाद” की क्रियाविधि से, यानि इस पर आधारित व्याख्या से डरता है| इसी कारण शोषक वर्ग ‘नित्यवाद’ का समर्थन करता है – इस जन्म में सब कुछ नित्य है, निश्चित है, अचल है, स्थिर है और कुछ भी नहीं बदला जा सकता है| ‘नित्यवाद’ (नित्य = अचल/ स्थिर) के विरोध में ही ‘अनित्यवाद’ है, जिसके अनुसार सभी कुछ गतिशील है| अर्थात कुछ भी नित्य यानि अचल /अस्थिर नहीं है, यानि सब कुछ गत्यात्मक अवस्था में है और इसीलिए बदलता रहता है| अत: आपका भविष्य भी अभी बदल सकता है| अनित्यवाद कट्टरता का खंडन करता है|

भारत के लोकतांत्रिक सरकार के इतिहास में पहली बार सन 1937 में प्रांतीय सरकारे बनी थी| वैसे भारत की आजादी को कुछ विद्वान् साम्राज्यवाद के बदलते हुए स्वरुप एवं साम्राज्यवादियों के आपसी संघर्ष का अनिवार्य परिणाम बताते हैं| द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व पटल पर कई देश स्वतंत्र हुए है, सिर्फ भारत ही स्वतंत्र नहीं हुआ| इस पृथ्वी पर साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद के इस औद्योगिक स्वरुप के विस्तार के लिए भूमि का विस्तार नहीं किया जा सकता था,  इसीलिए ‘औद्योगिक साम्राज्यवाद’ (Industrial Imperialism) अपने नए स्वरुप ‘वित्तीय साम्राज्यवाद’ (Financial Imperialism) में बदल गया और सभी उपनिवेश देशों को भौतिक (राजनीतिक) स्वतन्त्रता मिलने लगी| लेकिन इस प्रांतीय लोकतांत्रिक चुनाव में पंजाब, बंगाल, सिंध एवं असम प्रान्त में क्रांतिकारियों की सरकार बन गयी, जो शायद मुख्य धारा के नेताओं के भविष्य के लिए खतरे की घंटी थी| किन्ही शक्तियों ने इन ‘क्रन्तिकारी विचारों के उभार’ को ‘साम्प्रदायिक कट्टरता’ के विचारों’ में बदलने को बाध्य कर दिया| यह 'उभार' यथास्थितिवादी शक्तियों के भविष्य के लिए खतरा इसलिए था, क्योंकि यह माना जाता है कि ‘क्रान्तिकारी विचार एवं आदर्श कल पूरे राष्ट्र के लिए कैंसर की बिमारी की तरह फैलने वाली थी, इसिलिए ही इन तथाकथित ‘रोगग्रस्त’ क्षेत्रों को मुख्य भारत से अलग ही करने की अनिवार्यता हो गयी| इन प्रान्तीय सरकार के बनने के अगले एक दशक में “कट्टरता” इस कदर बढ़ गयी कि इस  ‘साम्प्रदायिक कट्टरता’ के आधार पर भारत ही खंडित हो गया| ठहर कर विचार करें|

आजकल भारत में कट्टरता का मूख्य आधार साम्प्रदायिकता और जातीयका होता जा रहा है| इस ‘साम्प्रदायिक  कट्टरता’ के लिए इतिहास भी बदले जा रहे हैं और ‘जातीय कट्टरता’ के लिए ‘गौरवशाली जातीय इतिहास’ भी लिखे जा रहे हैं| यह सब ऐसे रचित किए जा रहे हैं, मानो ये साम्प्रदायिक एवं जातीय समूह का आगमन या उद्भव समाज के उद्विकास (Evolution) से नहीं होकर, किसी दैवीय आधार से ही जनित हुआ है, ध्यान दें| 

इसी साम्प्रदायिक और जातीय आधार पर ‘सामाजिक पूंजी’ (Social Capital) भी तैयार किए जा रहे हैं|इसी ‘सामाजिक पूंजी’ के निर्माण एवं उपयोग के मुहिम में बड़े बड़े पदधारी (जिनमे राजनीतिक एवं प्रशासनिक शीर्ष भी शामिल हैं), पूंजीधारी (उद्यमी) और सांस्कृतिक मठाधीश भी शामिल हैं| इसी पर आधारित सभी  प्रकार रहभ के लिए साम्प्रदायिक फसलें भी बोयी जा रही है| डिजिटल मीडिया के प्लेटफार्म पर फर्जी नामों से भड़काऊ समाचारों का उत्पादन एवं प्रसारण किया जा रहा है, और शासन भी इस पर पूरी तरह से अंकुश लगाने में अभी तक सफल नहीं हो पा रहा है| इस खेल में ‘विरोधी लोग अपने विरोधी साम्प्रदायिक समूहों की वेशभूषा एवं भाषा का भौतिक रूप अपना कर भी खूब दुरुपयोग किए जाने के समाचार आ रहे हैं, जिनका खुलासा तत्पर सामाजिक एवं प्रशासनिक करवाई में सामने आ जा रहा है| अब तो कट्टरता के उत्पादन एवं प्रसारण में ‘कृत्रिम बुद्धिमता’ (AI) का भी खूब दुरूपयोग किया जाने लगा| इतना ही नहीं, इन साम्प्रदायिक कट्टरता के नेतृत्व को भी व्यावहारिक रूप से सम्मानित किया जाता है| देश का प्रबुद्ध नेतृत्व देश और समाज को कहाँ ले जाना चाहता है, वही जाने|

कट्टरता के समापन के लिए शिक्षा और विमर्श में ‘आलोचनात्मक चिंतन’ की अनिवार्यता होती है और यह ‘आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन’ से आता है| लेकिन भारत में तो शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता की कौन कहें, यहाँ तो साक्षरता ही ढंग से नहीं आई है| व्यवस्था भी दूसरों की कट्टरता नहीं मिटाना चाहता, क्योंकि हमारी भी कट्टरता भी उसी अशिक्षा  एवं संकीर्णता पर आधारित है| कट्टरता के लिए दोनों या सभी पक्षों की अशिक्षा  एवं संकीर्णता ही उर्वरक का काम करती है| शायद इसीलिए सभी पक्षों में कट्टरता को बरक़रार रखने की अनिवार्यता होती है|

कुछ बौद्धिक विमर्श यदि इस ‘आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन’ दिशा की ओर बढना चाहती है, तो वर्तमान में समाज की बौद्धिकता (मानसिकता) के भी उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग की शक्तियां अपने प्रभाव में इस ‘आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन’ को ही "बेकार के विमर्श" में बदलने का सफल पराक्रम करता है| तब हमारा बौद्धिक वर्ग तथाकथित सतही मुद्दों तक अपने को समेट कर अपनी बौद्धिकता का शिखर प्रदर्शन करता रहता है|

यदि समाज की बौद्धिकता (मानसिकता) के भी उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग की शक्तियां अपने प्रभाव में ‘कट्टरता’ के विरुद्ध  और “एक भारत, श्रेष्ट भारत’ के समर्थन में पूरे मनोयोग से खड़ा हो जाय, तो यह कट्टरता तुरंत समाप्त हो सकता है| 

वैसे आप भी चिंतन करें, और इस विमर्श को दिशा दें|

आचार्य प्रवर निरंजन   

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

हिन्दू शब्द का सफरनामा

किसी भी शब्द का सफरनामा (Journey) अपने अर्थ में तत्कालीन समय, क्षेत्र, समाज, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, संस्कृति और उद्देश्य के अनुसार बदलते हुए तय करता हैं। अर्थात शब्द की रचनात्मक बनावट स्थिर रहते हुए भी, यानि एक ही होते हुए भी एक ही शब्द का अर्थ उपरोक्त के सापेक्ष बदलता जाता हैं। आप यह भी कह सकते हैं कि एक शब्द विभिन्न स्थितियों में अपना ध्वनि स्वरूप पूर्ववत बनाए रख कर बदलते उद्देश्य या बदलते प्रभाव में नया अर्थ पा लेता है, या जानबूझकर नया अर्थ गढ़ दिया जाता है। 

एक ही शब्द का अर्थ समय, क्षेत्र, समाज, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, संस्कृति और उद्देश्य के सापेक्ष इसलिए भी बदलता रहता है, क्योंकि ये शब्द इनके बदलते सापेक्ष में अपनी अपनी 'संरचना' (Structure) को भी बदल कर नए अर्थ प्रस्तुत करता है। दरअसल शब्दों के अपने कोई अर्थ नहीं होते हैं, उन शब्दों को वह समाज एवं संस्कृति किस तरह लेता और समझता है, या जानबूझकर उद्देश्य पूर्ण प्राप्ति के लिए दे दिया जाता है, उस पर उनका अर्थ निर्भर करता है| इसिलिए इनकी संरचना बदल जाने से इनके शाब्दिक अर्थ, सतही अर्थ, निहित अर्थ और भावनात्मक अर्थ भी भिन्नता पैदा कर देती है। स्विस भाषा विज्ञानी फर्डीनांड डी सौसुरे भी अपने 'संरचनावाद' (Structurelism) की अवधारणा में यही समझाते हैं। हिन्दू' शब्द के सफरनामा को इसी संदर्भ में समझेंगे।

लेकिन हिन्दू' शब्द के सफरनामा को फ्रेंच दार्शनिक  ज़ाक डेरिदा का उल्लेख किए बिना सम्यक् ढंग से समझने का दावा बेमानी हो जाता है। ज़ाक डेरिदा अपने 'विखंडनवाद' (Deconstructionalism) की अवधारणा में समझाते हैं कि लेखकों के द्वारा रचित या लिखित पाठ्य (Text) लेखकों की समझ के अनुसार तो होते ही है, लेकिन इसके अर्थ पाठकों के अपने समय, क्षेत्र, समाज, पर्यावरण, पारिस्थितिकी, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, संस्कृति और उद्देश्य के सापेक्ष समझ के अनुसार निकलते होते हैं। यहाँ एक बात और जोडना हैं कि लेखक इसके अतिरिक्त अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए भी अपने समय, क्षेत्र, समाज, पर्यावरण, पारिस्थितिकी, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, संस्कृति और उद्देश्य के सापेक्ष शब्दों की प्रस्तुति इस तरह करता है, ताकि पाठक भी लेखकों के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से निदेशित अर्थ को ही प्राप्त करें। अर्थात कभी कभी कोई लेखक अपनी बातों के सन्देश को स्पष्ट रूप में व्यक्त नहीं कर भी अप्रत्यक्ष रूप से, यानि एक दार्शनिक अंदाज में पाठकों को उस अर्थ पर ले जाता है, जिसे उस ‘पाठ’ में स्पष्ट नहीं किया गया होता है| 

इसके बाद हमलोग 'हिन्दू' शब्द की सफरनामा की शुरुआत करते हैं। हम देखेंगे कि 'हिन्दू' शब्द कैसे एक 'भौगोलिक' अर्थ से सफर शुरू कर 'सामाजिक' अर्थ, 'साम्प्रदायिक' (तथाकथित धार्मिक) अर्थ, 'सनातन' अर्थ, "सांस्कृतिक' अर्थ, 'राष्ट्रीयता' के अर्थ और 'राजनीतिक' अर्थ प्राप्त करता है? इस भौगोलिक क्षेत्र को भारतीय उपमहाद्वीप कहते हैं और इस देश का नाम भारत था और आज भी है। भारत का अर्थ 'आ (भा' से 'रत'), यानि आभा से युक्त, यानि विद्वता से युक्त देश हुआ। बौद्धिक काल में, यानि प्राचीन काल में भारत विश्व को प्रकाशित करने वाला देश था, आभा से रत (युक्त) देश था। बौद्धिक काल की समाप्ति और सामन्तवाद के उदय के साथ बहुत से राजनीतिक, सामाजिक,  सांस्कृतिक एवं आर्थिक समीकरण और संतुलन बदल गया। वैश्विक शक्तियों में अरबों के उदय एवं विकास ने कई स्थापित परिभाषाओं और अवधारणाओं के सतही और निहित (संरचनात्मक) अर्थ बदल दिए।

इनके भारत आने का रास्ता पूर्व से स्थापित पश्चिमोत्तर पर्वतमाला और सिन्धु नदी होकर ही था। नवोदित अरब शासकों द्वारा यह देखा गया कि यह विशाल और सदाबहार सिन्धु नदी इस क्षेत्र पर महान छाप छोडता है। सिन्धु नदी क्षेत्र को सिन्ध या सिन्धु क्षेत्र या इसी सिन्धु उच्चारित हिन्दू क्षेत्र से सम्बोधित किया गया। एक अनुमान है कि किसी अरब प्रमुख सेनापति (जो तुतलाता रहा होगा) के द्वारा उच्चारित अक्षर '' को '' कहता होगा या ऐसा समझा गया। लेकिन अरबी में '' को '' उच्चारित करने की बात गलत हो जाती है, क्योंकि 'फारस' को 'फारह' नहीं बोला जाता है। इसी 'सिन्धु' या ‘हिन्दू’ शब्द से हिन्द, हिन्दू, हिन्दी, हिन्दूकुश पर्वत, हिन्द महासागर आदि संज्ञापित किया गया। इस तरह ‘हिन्दू’ शब्द सबसे पहले एक “भौगोलिक” अर्थ में प्रयुक्त हुआ। अर्थात हिन्दू शब्द एक भौगोलिक अर्थ रखता है।

मध्ययुगीन अरब आक्रांताओं के भारतीय शासक बनने के साथ ही सामान्य स्थानीय शासित जनता का अवलोकन अध्ययन उनके दृष्टिकोण से शुरू हो गया। इन मध्ययुगीन अरब आक्रांताओं के भारत आगमन से पूर्व ही भारतीय बौद्धिक काल का समापन हो रहा था और सामन्ती व्यवस्था अपने उदय के साथ मजबूत एवं व्यवस्थित हो रही थी| सामन्ती व्यवस्था के उदय एवं मजबूती के साथ सामान्य जन जीवन का आर्थिक एवं सांस्कृतिक पतन हो रहा था| भारत की, यानि हिन्द की इस धरती पर इनके आगमन के पूर्व से रहने वाले सामान्य स्थानीय जनता को हिन्दू संज्ञा से नामित किया गया था। इन सामान्य स्थानीय जनता की आर्थिक एवं सांस्कृतिक दुर्दशा और हिन्दू को एक दुसरे का पर्यार्य मान लिया गया| इस तरह, अब हिन्दू का एक “समाजशात्र्यीय” अवधारणा प्राप्त हो गया।

इस काल में हिन्दू शब्द अपने मूल भौगोलिक स्वरूप से एक सामाजिक अवधारणा का स्वरूप प्राप्त कर लिया था| इसी समय कुछ बुद्धिमान भारतीय समूह या वर्ग अपने को शासक समुदाय से निकटता पाने के लिए इतिहास की प्रस्तुति नए ढंग से किया। तत्कालीन स्थानीय शासक शक्तिशाली भी थे और विदेशी भी थे, और इसीलिए इन शासकों से निकटता पाने के लिए ही इन भारतियों ने अपने समूह या वर्ग को भी विदेशी घोषित कर दिया और शेष भारतीयों को स्थानीय मूल निवासी बताया गया। इस तरह स्थानीय मूल निवासी हिन्दू कहलाए। इसी आधार पर इन बुद्धिमान भारतीय समूह या वर्ग को विदेशी मान लेने कारण ही गैर हिन्दू भी मान लिया गया| और इसी आधार पर ही इन तथाकथित भारतीय विदेशी समूहों और वर्गों को जाजिया कर के दायरे से बाहर रखा गया। यह विदेशी की अवधारणा इन भारतियों के लिए सल्तनत काल, मुगल काल और ब्रिटिश काल में भी कारगर, उपयोगी और लाभप्रद रहा। बाद के तथाकथित शोधों और अनुसंधानों के आंकड़ों में बाजागिरी करके आधुनिक जीनीय आधार भी स्थापिर करने के प्रयास हुए हैंजो एक तमाशा से ज्यादा कुछ नहीं है।

प्रथम विश्व युद्ध के समय समस्त ब्रिटिश जनता का समर्थन पाने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने ‘सार्वजनीन वयस्क मताधिकार’ की घोषणा कर दी| उस समय तक ब्रिटेन में प्रजातांत्रिक (Democratic) सरकार के निर्वाचन में कुछ विशिष्ट ‘प्रजा’ को ही मताधिकार प्राप्त था| यह स्पष्ट हो गया था कि भारत में लोकतांत्रिक (Democratic) सरकार के निर्वाचन में यह ‘सार्वजनीन वयस्क मताधिकार’ की व्यवस्था आज या कल लागू किया जाएगा ही| कहा जाता है कि पेड़ की फुनगी हवा का रुख सबसे पहले समझता है, इसीलिए भारतीय सामन्ती सामाजिक व्यवस्था के सर्वोच्च प्रबुद्धजन इनके भावी परिणाम को देखने समझने लगे| भारत में भारतीय सामन्ती व्यवस्था या वर्ण व्यवस्था ही भारतीय सामन्ती काल की कार्यपालिका व्यवस्था थी, जो आज की कार्यपालिका व्यवस्था की ही तरह समस्त आबादी का कोई तीन या चार प्रतिशत ही थी| इसी कारण भारत में ब्रिटिश प्रधान मंत्री के उक्त घोषणा के तुरंत बाद ही 1915 में ‘हिन्दू महासभा यानि ‘सर्वदेशक हिन्दू समाज’ की स्थापना किया गया| अब इस नए स्थापित संगठन के लिए बहुत कुछ अवधारणाओं एवं परिभाषाओं को बदलने एवं पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता हो गयी|

इस आवश्यकता ने सामन्ती कार्यपालिका को, जिसे वर्ण व्यवस्था के नाम से जाना जाता था, का सेवक वर्ग अपनी संख्या में भी एवं भूमिका में भी क्षुद्र यानि नगण्य थी| ब्रिटिश काल में भारतीय राजनीतिक एवं प्रशासनिक सामन्ती व्यवस्था के अभाव में ये क्षुद्र यानि शुद्र समाप्त हो गये थे| इस तरह वर्ण व्यवस्था के दो ही सर्वोच्च वर्ण अपने अस्तित्व बनाए रखने में सफल थे| तीसरा वर्ण ‘वैश्य’ अपनी गतिशीलता एवं प्रभावकारी आर्थिक भूमिका के कारण इस वर्गीकरण की व्यवस्था से उदासीन थे| ये अपनी प्रभावकारी आर्थिक भूमिका के साथ कल भी प्रभावशाली थे एवं आज भी प्रभावशाली हैं और इसीलिए इनको इस वर्ण व्यवस्था की अनुक्रमिका से कोई ख़ास मतलब नहीं रहता है| लेकिन इस वर्ण व्यवस्था का चौथा वर्ण ‘शुद्र’ या क्षुद्र’ ब्रिटिश शासन काल में लुप्त हो गया था| इस नयी व्याख्या में सम्पूर्ण “अवर्ण” आबादी को ही ‘शुद्र’ घोषित कर दिया गया| पूर्व के सामन्ती कार्यपालिका व्यवस्था के लिए बनाये गये ‘मनुस्मृति’ को नए रूप में व्याख्यापित किया गया| इस तरह ‘हिन्दू’, जो कल तक एक भौगिलिक शब्दावली था, उसे धार्मिक यानि साम्प्रदायिक ढाँचे में आकार दिया गया| इसके पहले के किसी भी धार्मिक या आध्यात्मिक ग्रन्थ में ‘हिन्दू’ शब्द नहीं है| सन 1896 में शिकागों शहर में आयोजित धर्म- सभा में भी ‘ब्राह्मण धर्म’ उपस्थित था, कोई हिन्दू धर्म नहीं था| इस तरह अब ‘हिन्दू’ शब्द अपने सफरनामे में एक “साम्प्रदायिक” या तथाकथित “धार्मिक” अर्थ ग्रहण कर लिया|  

फिर इस नव अवतरित शब्द ‘हिन्दू’ को प्राचीनतम एवं गौरवमयी विरासत साबित करने के लिए एक नया शब्द ‘सनातन’ लाया गया| सनातन का अर्थ होता है कि कोई भी अपने आदि से अब तक निरंतरता में पूरी शुद्धता के साथ बरक़रार है| इस तरह ‘हिन्दू’ शब्द ‘सनातन’ भी हो गया| अब तक महान गौरवशाली विशाल एवं शानदार "भारतीय सांस्कृतिक विरासत" अब ‘हिन्दू संस्कृति’ के नाम से आच्छादित हो गया| इस तरह अनेक भारतीय सांस्कृतिक एवं साम्प्रदायिक परम्परा को इस नयी व्याख्या में समाहित कर लिया गया| इस तरह यह ‘हिन्दू’ अब ‘सनातन धर्म’ में हो गया|

सन 1931 की जनगणना में जनगणना आयुक्त हट्टन ने भारत के मुख्य समाज से बहिष्कृत कतिपय जातियों को, जिन्हें अनुसूचित जाति कहा गया, हिन्दू के वर्गीकरण से बाहर रखा था| इसी तरह भारतीय जनजातीय आबादी भारतीय सामन्ती व्यवस्था से बाहर रही थी, उसको भी इस नयी शब्दावली में समेट लिया गया| अब यह ‘हिन्दू’ शब्द भारत की एक सांस्कृतिक व्याख्या प्रस्तुत करती है| इस तरह ‘हिन्दू’ एक ‘सांस्कृतिक इकाई’ बन गया|

हाल के दिनों में ‘राष्ट्र’ एवं ‘राष्ट्रवाद’ की परिभाषा का आधार ‘सामासिक’ (Composit) स्वरुप देकर, जो होना भी चाहिए, इसे ‘हिन्दू’ संस्कृति के भौगोलिक व्याख्या के साथ मिला कर व्याख्यापित कर दिया गया| राष्ट्र एक ऐतिहासिक एकापन (Historical Oneness) की भावना को कहा जाता है, जो ऐतिहासिक रूप में एक साथ रहने से आती है| इसके ही साथ ‘हिन्दू’ एक ‘राष्ट्रीयता’ का अर्थ ग्रहण कर लिया है|

इस तरह, ‘हिन्दू’ शब्द का सफरनामा भोगोलिक अर्थ से शुरू होकर ‘सामाजिक’ अर्थ, ‘सांप्रदायिक’ (धार्मिक) अर्थ, ‘सनातन’ अर्थ, ‘सांस्कृतिक’ अर्थ, ‘राष्ट्रीय’ अर्थ लेते हुए या बदलते हुआ अब ‘राजनीतिक’ अर्थ तक आ गया है| इसी का साथ ‘हिन्दू’ शब्द का सफरनामा समाप्त होता है|

एक भारत! श्रेष्ट भारत!!

आचार्य प्रवर निरंजन  

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

राजनीति का संस्कृतिकरण

(Sanskritisation of Politics)

‘राजनीति का संस्कृतिकरण’ एक ऐसा महत्वपूर्ण अवधारणात्मक विषय (Conceptual Subject) है, जिसे ‘राजनीति’ में रुचि रखने वाले हर शख्स को पढ़ना, जानना और समझना चाहिए। जो ‘राजनीति का संस्कृतिकरण’ कर ‘राजनीति’ करते हैं, वे लोग सदियों एवं सहस्त्राब्दियों की राजनीति करते हैं| और जो ‘राजनीति के संस्कृतिकरण’ के बिना ही ‘राजनीति’ करते हैं, वे लोग वर्षों एवं दशकों की राजनीति कर सकते हैं| अर्थात जिन्हें संस्कृति और उसकी क्रियाविधि (Mechanism) की समझ नहीं है, वे सिर्फ राजनीति का खेल खेलते हैं| यह बहुत महत्वपूर्ण हैं और इसे बड़ी स्थिरता से समझा जाय| इस समझ के बिना कोई भी राजनीति का सतही समझ रखता है। हालाँकि ‘राजनीति का संस्कृतिकरण’ और ‘संस्कृति का राजनीतिकारण’ दोनों एक जैसे दिखते हुए भी दोनों पूर्णतया भिन्न भिन्न हैं| राजनीति का संस्कृतिकरण में राजनीति (इनका राजनीतिक उद्देश्य कुछ भी हो सकता है) करने के लिए ‘संस्कृति’ का उपयोग एवं दुरूपयोग किया जाता है, जबकि ‘संस्कृति का राजनीतिकारण’ में गौरवमयी संस्कृति के व्यापक प्रसार प्रचार के लिए राजनीति का उपयोग किया जाता है| यह आपको अपनी विवेक एवं समझ से समझना है कि विश्व के किस क्षेत्र एवं किस कालखण्ड में ‘राजनीति का संस्कृतिकरण’ हो रहा है या ‘संस्कृति का राजनीतिकारण’ हो रहा है?

इस विषय का सम्यक दृष्टि से आलोचनात्मक विश्लेषण, विवेचना, और मूल्यांकन करने से ही इसे समझा जा सकता है। यह विषय अपने में समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन, राजनीति शास्त्र और सांस्कृतिक अध्ययन (इसी कारण इतिहास को भी अपने में समा लेता है) को समेटे हुए है। सबसे पहले हमें राजनीति, संस्कृति, संस्कृतिकरण, और समाज के मूल्यों एवं प्रतिमानों को समझते है। इसी में मानवीय मनोविज्ञान भी समाहित हो जाता है, क्योंकि मानवों के मनोविज्ञान को समझे बिना कोई भी मानवों को नहीं समझ सकता है, और ‘मानवों की मानसिकता’ को नहीं बदल सकता है| ‘मानवों की मानसिकता’ ही मानव एवं समाज को अदृश्य ढंग से संचालित एवं नियमित करता रहता है, जो उसकी आदतों, परम्पराओं, मूल्यों- प्रतिमानों एवं रीति-रिवाजों के रूप में दृश्य या अभिव्यक्त होता रहता है| ‘मानवों की मानसिकता’ को ही संस्कृति भी कहा जाता है, हालाँकि इसे आगे भी समझेंगे| समाज के सांस्कृतिक मानकों को ‘मूल्य’ कहते हैं, और उन ‘मूल्यों’ की अभिव्यक्ति के स्वरुप को ‘प्रतिमान’ कहते हैं|

राजनीति वह व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध विषय है या विज्ञान है, या अवधारणा है, जिसमें नीतियाँ होती है और उन नीतियों का निर्धारण, सञ्चालन एवं नियमन होता है| ये नीतियाँ विभिन्न विषयों में और विभिन्न सामाजिक इकाइयों यथा परिवार, समाज, संस्था, राज्य एवं अन्य को संचालित एवं नियमित करने में उपयोग या दुरूपयोग किया जाता है| राजनीति के साथ एक प्रमुख विशेषता यह होती है कि राजनीति में नीतियों में “राज” (Secrecy) बरक़रार रखना होता है, जिसे उस राजनीतिज्ञ के अलावे कोई नहीं जानता समझता है। और यदि उनकी नीतियों का राज ही दूसरे सब जानने समझने ही लगे, तो वह राजनीति ही नहीं है। स्पष्ट है कि राजनीति सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और प्रशासनिक आदि आदि सभी क्षेत्रों के नीतियों के निर्माण, संचालन, नियंत्रण और नियमन का विषय होता है।

‘संस्कृति’ भी मानव और मानव द्वारा निर्मित संस्थाओं (यथा परिवार, समाज, राज्य, मुद्रा, बाजार, राष्ट्र आदि) के द्वारा “प्राकृतिक पारिस्थितिकी” (Natural Ecosystem) या ‘प्रकृति’ में हस्तक्षेप से बना "द्वितीय पारिस्थितिकी” (Second Ecosystem) या ‘मानव निर्मित प्रकृति’ होता है। इस तरह यह ‘संस्कृति’ भी ‘द्वितीय प्रकृति’ (Second Nature) के रूप मानव जगत को संचालित, एवं नियमित करता है| स्पष्ट है कि मानव और मानव द्वारा निर्मित संस्थाओं (यथा परिवार, समाज, राज्य, मुद्रा, बाजार, राष्ट्र आदि) का निर्माण भी ‘संस्कृति’ के द्वारा होता है, और ‘संस्कृति’ भी इन्हीं तत्वों एवं क्रियाओं से निर्मित होता रहता है| लेकिन इस ‘द्वितीय प्रकृति’ के भौतिक अभिव्यक्ति को “सभ्यता” (Civilization) कहते हैं| यदि आप ‘सभ्यता’ से ‘संस्कृति’ को अलग करना चाहते हैं, तो ‘संस्कृति’ सम्पूर्ण व्यवस्था को संचालित एवं नियमित करने वाली अदृश्य शक्तियों को कहते हैं। इस तरह संस्कृति किसी व्यक्ति और समाज को अदृश्य रूप में संचालित नियमित करने की ‘मानसिक निधि’ (Mental Treasure) है, जिसे कोई भी अपने समाज से प्राप्त करता है। यह ‘संस्कृति’ भी किसी वर्ग या समूह के लिए ‘सांस्कृतिक एवं सामाजिक पूंजी’ बन जाती है| इस तरह ‘संस्कृति’ किसी वर्ग या समूह के लिए ‘पूंजी’ (Capital) (उत्पादक धन ही पूंजी है) है, और ‘धन’ (Wealth) भी है। संस्कृति की समझ ही ‘सांस्कृतिक पूंजी’ एवं ‘सामाजिक पूंजी’ के निर्माण में सहायक हो सकता है।

स्पष्ट है कि ‘संस्कृति का निर्माण’ व्यक्ति और समाज के "इतिहास बोध" (Perception of History) से होता है, अर्थात वे अपने समाज के लिए प्रस्तुत या उपलब्ध इतिहास को कैसे समझते हैं और उसे सही मानते हुए उसे स्वीकारते हैं? इसीलिए इतिहास को सही और वैज्ञानिक ढंग से जानने के लिए, सम्यक रूप से समझने के लिए वैज्ञानिक विधि से व्याख्यायित करना चाहिए। इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या आर्थिक साधनों और शक्तियों एवं उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर ही किया जा सकता है। उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों एवं उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर ही इतिहास की समुचित एवं वैज्ञानिक व्याख्या होती है। इस आधार पर व्याख्यापित इतिहास किसी भी काल एवं क्षेत्र की घटनाओं की समुचित रूप से करता है। वैसे ‘संस्कृतिकरण’ किसी अवधारणा या प्रक्रिया को “संस्कारित करने” के नाम पर की जाने वाली एक प्रक्रियात्मक अवस्था है।

 ‘सदियों की राजनीति’ करने वालों को “संस्कृति की गत्यात्मकता” (Dynamism of Culture) की समझ होती है| और इसी समझ की बारिकियों की विशेषज्ञता से वे सदियों की राजनीति करते हैं। इसी ‘सदियों की राजनीति’ करने के लिए ‘वर्तमान संस्कृति’ को अपने पक्ष में ‘मोड़ना’ पड़ता है| और ‘वर्तमान संस्कृति’ को अपने पक्ष में ‘मोड़ने’ के लिए ही उस संस्कृति के निर्धारक “इतिहास” की पुनर्व्याख्या करनी पड़ती है, यानि ‘इतिहास’ को ही नए ढंग से प्रस्तुत करना पड़ता है| इसे फिर से पढा जाय| स्पष्ट कहूं तो जो वर्षों की राजनीति करते हैं, उन्हें नहीं तो ‘संस्कृति’ की समझ होती है, नहीं ही ‘संस्कृति की गत्यात्मकता’ की जानकारी होती है और इसीलिए इनके उपयोग राजनीति में करने की कोई  संभावना ही नहीं होती|

आप यदि वैश्विक पटल पर नजर डालें, तो आपको कई शक्तिशाली सक्षम राष्ट्र को “मानवाधिकार” और “लोकतान्त्रिक मूल्यों” के स्वयम्भू “प्रहरी” नाम पर वैश्विक ‘दादागिरी’ करते दिखेंगे, यानि “मानवाधिकार” और “लोकतान्त्रिक मूल्यों” के नाम ‘राजनीति’ करते दिख जायेंगे| इसी तरह राजनीति का संस्कृतिकरणकरने वाले ‘महान सांस्कृतिक विरासत’ या ‘गौरवमयी संस्कृति’ या ‘सनातन विशाल संस्कृति’ के नाम पर ‘राजनीति’ करते दिख सकते हैं, या समझ सकते हैं| इसे  राजनीति करने के लिए ‘संस्कृति’ का उपयोग या दुरूपयोग कह सकते हैं| दरअसल इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या इन सभी की पोल ही खोल देते हैं| जो चीज इतिहास में दूसरों के द्वारा निर्मित या घटित किया गया है, उस पर दावा दूसरे कर लेते हैं, या कर सकते हैं| और ऐसी ‘राजनीति’ में उद्देश्य का ‘राज’ बरक़रार रखा जाता है|

यह आप पर निर्भर करता है कि आप उपर्युक्त विश्लेष्ण से क्या समझे हैं, और क्या निष्कर्ष निकालते हैं?

 “एक भारत ! श्रेष्ट भारत!!”

आचार्य प्रवर निरंजन 

कट्टरता क्यों आती है?

आज यह बहुत बड़ा और अहम् सवाल है कि "कट्टरता" क्यों आती है, या 'कट्टरता' को क्यों लानी पड़ती है? कट्टरता क्यों बरकरार रहती ह...