(Sanskritisation of
Politics)
‘राजनीति का संस्कृतिकरण’ एक
ऐसा महत्वपूर्ण अवधारणात्मक विषय (Conceptual Subject) है, जिसे ‘राजनीति’ में रुचि रखने वाले हर शख्स को पढ़ना, जानना और समझना चाहिए। जो ‘राजनीति का
संस्कृतिकरण’ कर ‘राजनीति’ करते हैं, वे लोग सदियों एवं सहस्त्राब्दियों की
राजनीति करते हैं| और जो ‘राजनीति के
संस्कृतिकरण’ के बिना ही ‘राजनीति’ करते हैं, वे लोग वर्षों एवं दशकों की राजनीति
कर सकते हैं| अर्थात जिन्हें
संस्कृति और उसकी क्रियाविधि (Mechanism) की समझ नहीं है, वे सिर्फ राजनीति का खेल
खेलते हैं| यह बहुत महत्वपूर्ण हैं और इसे बड़ी स्थिरता से समझा जाय| इस समझ के
बिना कोई भी राजनीति का सतही समझ रखता है। हालाँकि ‘राजनीति का संस्कृतिकरण’
और ‘संस्कृति का राजनीतिकारण’ दोनों एक जैसे दिखते हुए भी दोनों पूर्णतया
भिन्न भिन्न हैं| ‘राजनीति का संस्कृतिकरण’
में राजनीति (इनका राजनीतिक उद्देश्य कुछ भी हो सकता है) करने के लिए ‘संस्कृति’
का उपयोग एवं दुरूपयोग किया जाता है, जबकि ‘संस्कृति
का राजनीतिकारण’ में गौरवमयी संस्कृति के व्यापक प्रसार प्रचार
के लिए राजनीति का उपयोग किया जाता है| यह आपको अपनी विवेक एवं समझ से समझना
है कि विश्व के किस क्षेत्र एवं किस कालखण्ड में ‘राजनीति का संस्कृतिकरण’ हो रहा
है या ‘संस्कृति का राजनीतिकारण’ हो रहा है?
इस विषय का सम्यक दृष्टि से आलोचनात्मक विश्लेषण, विवेचना, और मूल्यांकन करने से ही इसे समझा जा सकता है।
यह विषय अपने में समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन, राजनीति शास्त्र और सांस्कृतिक अध्ययन (इसी
कारण इतिहास को भी अपने में समा लेता है) को समेटे हुए है। सबसे पहले हमें राजनीति,
संस्कृति, संस्कृतिकरण, और
समाज के मूल्यों एवं प्रतिमानों को समझते है। इसी में मानवीय मनोविज्ञान भी समाहित
हो जाता है, क्योंकि मानवों के मनोविज्ञान को समझे बिना कोई
भी मानवों को नहीं समझ सकता है, और ‘मानवों की मानसिकता’ को नहीं
बदल सकता है| ‘मानवों की मानसिकता’ ही मानव एवं समाज को अदृश्य ढंग से संचालित एवं
नियमित करता रहता है, जो उसकी आदतों, परम्पराओं, मूल्यों- प्रतिमानों एवं रीति-रिवाजों
के रूप में दृश्य या अभिव्यक्त होता रहता है| ‘मानवों की मानसिकता’ को ही संस्कृति
भी कहा जाता है, हालाँकि इसे आगे भी समझेंगे| समाज के सांस्कृतिक मानकों को ‘मूल्य’
कहते हैं, और उन ‘मूल्यों’ की अभिव्यक्ति के स्वरुप को ‘प्रतिमान’ कहते हैं|
राजनीति वह व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध विषय है या विज्ञान है, या अवधारणा है, जिसमें नीतियाँ होती है और उन नीतियों
का निर्धारण, सञ्चालन एवं नियमन होता है| ये नीतियाँ विभिन्न विषयों में और
विभिन्न सामाजिक इकाइयों यथा परिवार, समाज, संस्था, राज्य एवं अन्य को संचालित एवं
नियमित करने में उपयोग या दुरूपयोग किया जाता है| राजनीति के साथ एक प्रमुख
विशेषता यह होती है कि राजनीति में नीतियों में “राज”
(Secrecy) बरक़रार रखना होता है,
जिसे उस राजनीतिज्ञ के अलावे कोई नहीं जानता समझता है। और यदि उनकी नीतियों का राज ही दूसरे सब जानने समझने ही लगे,
तो वह राजनीति ही नहीं है। स्पष्ट है कि
राजनीति सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक,
शैक्षणिक और प्रशासनिक आदि आदि सभी क्षेत्रों के नीतियों के निर्माण,
संचालन, नियंत्रण और नियमन का विषय होता है।
‘संस्कृति’ भी मानव और
मानव द्वारा निर्मित संस्थाओं (यथा परिवार, समाज, राज्य, मुद्रा, बाजार, राष्ट्र आदि)
के द्वारा “प्राकृतिक पारिस्थितिकी” (Natural
Ecosystem) या ‘प्रकृति’ में हस्तक्षेप से बना "द्वितीय पारिस्थितिकी” (Second Ecosystem)
या ‘मानव निर्मित प्रकृति’ होता है। इस
तरह यह ‘संस्कृति’ भी ‘द्वितीय प्रकृति’ (Second
Nature) के रूप मानव जगत को संचालित, एवं नियमित करता है| स्पष्ट है कि
मानव और मानव द्वारा निर्मित संस्थाओं (यथा परिवार, समाज, राज्य, मुद्रा, बाजार,
राष्ट्र आदि) का निर्माण भी ‘संस्कृति’ के द्वारा होता है, और ‘संस्कृति’ भी
इन्हीं तत्वों एवं क्रियाओं से निर्मित होता रहता है| लेकिन इस ‘द्वितीय
प्रकृति’ के भौतिक अभिव्यक्ति को “सभ्यता” (Civilization)
कहते हैं| यदि आप ‘सभ्यता’ से ‘संस्कृति’ को अलग करना चाहते हैं, तो ‘संस्कृति’ सम्पूर्ण व्यवस्था को संचालित एवं नियमित
करने वाली अदृश्य शक्तियों को कहते हैं। इस तरह संस्कृति किसी व्यक्ति और समाज
को अदृश्य रूप में संचालित नियमित करने की ‘मानसिक
निधि’ (Mental Treasure) है, जिसे कोई भी अपने समाज से प्राप्त करता
है। यह ‘संस्कृति’ भी किसी वर्ग या समूह के लिए ‘सांस्कृतिक
एवं सामाजिक पूंजी’ बन जाती है| इस तरह ‘संस्कृति’ किसी वर्ग या समूह
के लिए ‘पूंजी’ (Capital) (उत्पादक धन ही पूंजी है) है, और ‘धन’ (Wealth) भी है। संस्कृति की समझ ही ‘सांस्कृतिक पूंजी’ एवं ‘सामाजिक
पूंजी’ के निर्माण में सहायक हो सकता है।
स्पष्ट है कि ‘संस्कृति का
निर्माण’ व्यक्ति और समाज के "इतिहास
बोध" (Perception of History) से
होता है, अर्थात वे अपने समाज के लिए प्रस्तुत या
उपलब्ध इतिहास को कैसे समझते हैं और उसे सही मानते हुए उसे स्वीकारते हैं? इसीलिए इतिहास को सही और वैज्ञानिक ढंग से जानने के लिए, सम्यक रूप से समझने के लिए वैज्ञानिक विधि से व्याख्यायित करना चाहिए। इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या आर्थिक साधनों और शक्तियों
एवं उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर ही किया जा सकता है। उत्पादन,
वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों और
शक्तियों एवं उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर ही इतिहास की समुचित एवं वैज्ञानिक
व्याख्या होती है। इस आधार पर व्याख्यापित इतिहास किसी
भी काल एवं क्षेत्र की घटनाओं की समुचित रूप से करता है। वैसे ‘संस्कृतिकरण’ किसी
अवधारणा या प्रक्रिया को “संस्कारित करने” के नाम पर की जाने वाली एक
प्रक्रियात्मक अवस्था है।
‘सदियों की राजनीति’
करने वालों को “संस्कृति की गत्यात्मकता” (Dynamism of Culture) की समझ होती है| और इसी समझ की बारिकियों की
विशेषज्ञता से वे सदियों की राजनीति करते हैं। इसी ‘सदियों
की राजनीति’ करने के लिए ‘वर्तमान संस्कृति’ को अपने पक्ष में ‘मोड़ना’ पड़ता है| और
‘वर्तमान संस्कृति’ को अपने पक्ष में ‘मोड़ने’ के लिए ही उस संस्कृति के निर्धारक “इतिहास”
की पुनर्व्याख्या करनी पड़ती है, यानि ‘इतिहास’ को ही नए ढंग से प्रस्तुत करना पड़ता
है| इसे फिर से पढा जाय| स्पष्ट
कहूं तो जो वर्षों की राजनीति करते हैं, उन्हें नहीं तो ‘संस्कृति’
की समझ होती है, नहीं ही ‘संस्कृति की गत्यात्मकता’ की
जानकारी होती है और इसीलिए इनके उपयोग राजनीति में करने की कोई संभावना ही नहीं होती|
आप यदि वैश्विक पटल पर नजर डालें, तो आपको कई शक्तिशाली सक्षम राष्ट्र को “मानवाधिकार” और “लोकतान्त्रिक
मूल्यों” के स्वयम्भू “प्रहरी” नाम पर वैश्विक ‘दादागिरी’ करते दिखेंगे,
यानि “मानवाधिकार” और “लोकतान्त्रिक मूल्यों” के नाम ‘राजनीति’ करते दिख जायेंगे|
इसी तरह ‘राजनीति
का संस्कृतिकरण’ करने वाले ‘महान सांस्कृतिक
विरासत’ या ‘गौरवमयी संस्कृति’ या ‘सनातन विशाल संस्कृति’ के नाम पर ‘राजनीति’
करते दिख सकते हैं, या समझ सकते हैं| इसे राजनीति करने के लिए ‘संस्कृति’ का
उपयोग या दुरूपयोग कह सकते हैं| दरअसल इतिहास की
वैज्ञानिक व्याख्या इन सभी की पोल ही खोल देते हैं| जो चीज इतिहास में
दूसरों के द्वारा निर्मित या घटित किया गया है, उस पर दावा दूसरे कर लेते हैं, या
कर सकते हैं| और ऐसी ‘राजनीति’ में उद्देश्य का ‘राज’ बरक़रार रखा जाता है|
यह आप पर निर्भर करता है कि आप उपर्युक्त विश्लेष्ण से क्या
समझे हैं, और क्या निष्कर्ष निकालते हैं?
“एक
भारत ! श्रेष्ट भारत!!”
आचार्य प्रवर निरंजन
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