कभी भी 'संघर्ष करना' किसी के लिए भी जीवन लक्ष्य नहीं होना चाहिए। आपने कभी अमरुद का फल पाने के लिए कभी आम का पौधा नहीं लगाया। भले ही वह अमरुद का पौधा सूख जाए या नहीं फले, अलग बात है, लेकिन वह जब भी फलेगा तो अमरुद ही। वह अमरुद का पौधा कभी भी आम या कटहल का फल निश्चितया नहीं ही फलेगा। यह एक साधारण उदाहरण है, जो आपके जीवन में आपके लक्ष्य निर्धारण की महत्ता और उसकी क्रियाविधि को स्पष्ट करते हुए बहुत बढ़िया से समझाता है। अब आप ही बताइए कि आपने अपने जीवन में 'संघर्ष करना 'जीवन का लक्ष्य’ या ‘जीवन का आदर्श’ बनाया है, तो जीवन में कुछ भी मिलेगा तो वह संघर्ष ही मिलेगा। अब आप इसे बारीकियों से समझिए।
यह हो सकता है कि आप अपने जीवन में किसी भी लक्ष्य को
प्राप्त करने के लिए सारे जूनून के साथ लगा हो और आपने अपना लक्ष्य भी पा
लिया| यहाँ यह स्पष्ट हो लीजिए कि उस प्राप्तकर्ता ने उसे प्राप्त करने में जिस
तरह लगा रहा, वह पूरी प्रक्रिया दूसरों को संघर्षमय दिखता हो, लेकिन उस प्राप्तकर्ता
का लक्ष्य कभी संघर्ष करना नहीं था| एक ही प्रक्रियात्मक घटना किसी को ‘संघर्ष करना’
दिखता है,जबकि लक्ष्य के प्राप्तकर्ता को वही प्रक्रियात्मक घटना कभी संघर्षमय
नहीं रहा, वह तो उस लक्ष्य के करीब जा रहा था| कहने का तात्पर्य यह है कि दुसरे देखने
वाले को ‘संघर्ष करने’ की प्रेरणा मिली, जबकि वही प्रक्रियात्मक घटना किसी और को
लक्ष्य प्राप्त करने की प्रेरणा दिया| उस लक्ष्य प्राप्तकर्ता का मानसिक दृष्टि उस
लक्ष्य पर रहां| उस लक्ष्य प्राप्त कर्ता से वह हो गया, जिसे अन्य लोग ‘मेहनत करना’
या ‘संघर्ष करना’ दिखा| ‘जूनून’ और ‘मेहनत’ करने
में यही अंतर है| इसीलिए एक जूनूनी व्यक्ति नहीं थकता है, क्योंकि वह
मेहनत नहीं करता है, मेहनत हो जाता है| जबकि मेहनत करने वाला व्यक्ति जल्दी थक
जाता है| इसीलिए आपने देखा होगा कि आपके अनुसार बहुत मेहनत के साथ पढने वाला भी असफल रहता है और दूसरा जूनूनी व्यक्ति कब
पढता कब सोता है, उसे भी पता ही नहीं चलता| उससे मेहनत हो जाता है, लेकिन वह मेहनत
नहीं करता है, यानि मेहनत करना उसका लक्ष्य नहीं होता है|
आप ही जानते और मानते हैं कि आपकी भावना और विचार ही आगे भौतिक
स्वरूप में उपलब्ध होते हैं। क्वांटम भौतिकी के
"अवलोकन कर्ता का सिद्धांत" (Observer Theory) भी यही कहता
है कि हम जिन चीजों को पाना चाहते हैं,
तो हिग्स फिल्ड से उत्पन्न हिग्स बोसोन कण और
ऊर्जा उसी भौतिक स्वरूप में उपस्थित होते हैं, जिस स्वरुप में हम पाना चाहते
हैं| यह अति सूक्ष्म कणों के मामलों में तो सही पाया गया है, लेकिन अन्य बड़े मामलों
की संतोषप्रद व्याख्या नहीं हो पाया है| सभी बुद्धि के उपासकों ने भी किसी भौतिक
पदार्थ एवं विचार तथा व्यवहार के प्राप्ति के सम्बन्ध में इसी भावना को मूलाधार
बताया है| यही भावना किसी के विचार को,
आदर्श को, व्यवहार
को और कर्म को एक निश्चित प्रक्रियाओं एवं अवस्थाओं से गुजरते हुए परिणाम फल के
रूप में उपलब्ध होता बताया है। भावनाएं मानव प्रजाति के लिए अतिमहत्वपूर्ण है।
कारण - कार्य से मशीनें नियमित और संचालित होती हैं, लेकिन एक मानव तो इस कारण - कार्य के अतिरिक्त मुख्यतया भावनाओं से ही संतुलित
होता है। ध्यान रहे कि इस भावना को संघर्ष के संदर्भ में समझना है। अत: लक्ष्य
अनुरूप भावना ही महत्वपूर्ण है|
एक प्रसंग मदर टेरेसा
से संबंधित है। यह महिला कोलकाता में रहतीं थीं और इन्हें शांति के लिए नोबल
पुरस्कार भी मिला था। एक बार एक प्रतिनिधिमंडल उनसे यह आग्रहपूर्वक आमंत्रित करने
के लिए आया था कि मदर टेरेसा उनके द्वारा आयोजित "युद्ध के विरोध" में एक आयोजन में शामिल हो। उन्होंने
"युद्ध के विरोध" के आयोजन में शामिल होने से स्पष्टतया मना कर दिया।
फिर उन्होंने कहा कि यदि आप लोग "शांति के समर्थन" में कोई आयोजन करना, तो मुझे
अवश्य ही आमंत्रित करना,
मैं उस आयोजन में अवश्य शामिल होऊंगी। आप थोड़ा ठहर कर विचार कीजिए कि इन
दोनों शब्दावली - "युद्ध के विरोध" और "शांति
के समर्थन" में क्या अंतर है? इन दोनों की क्रियाविधि और इसके परिणाम अलग अलग कैसे
निष्पादित होता है? ध्यान दें कि "युद्ध के विरोध" शब्दावली में दो
नकारात्मक शब्द हैं – ‘युद्ध’ एवं’विरोध’| वहीं "शांति के समर्थन"
शब्दावली में दोनों शब्द -’शांति’ एवं ‘समर्थन’ सकारात्मक हैं| कोई भी जिन शब्दों
को अर्थात जिन भावों को अपने मन मस्तिष्क में रखता है, उसके जीवन में वही शब्दों
के भाव उतर आता है, यानि वही भौतिकता में अवतरित हो जाता है| आप जिस शब्द की
अभिव्यक्ति करते हैं, वही दृश्य एवं भाव आपके मन मस्तिष्क में उभर जाता है| दोनों शब्दावली
का एक सामान अर्थ निकलते हुए भी अभिव्यक्ति के भावों में या भावों की अभिव्यक्ति
में अतर हुआ|
डॉ आम्बेडकर ने भी 1942
में नागपुर के अधिवेशन में अंग्रेजी में “Educate,
Agitate, Organise.” का नारा दिया| यह नारा बुद्ध के “बुद्धम, धम्मं, संघमं”
का ही अंग्रेजी रूप है, जिसमे कहा गया है कि ‘मैं बुद्धि के शरण में जाता हूँ’, उस
बुद्धि से ‘प्राप्त ज्ञान को मैं धारित करता हूँ’, और उस प्राप्त ज्ञान के संशोधन संवर्धन के लिए ‘मैं
संघ (संगठन) के शरण में जाता हूँ|‘ डॉ आम्बेडकर
ने भी कहा ‘शिक्षा प्राप्त करों’, उस प्राप्त शिक्षा का मनन मंथन करो’ और उस
प्राप्त ज्ञान को ‘संगठित (व्यवस्थित) करो’ या ‘संगठन में ले जाओ’| लेकिन कुछ
लोगों ने इन शब्दों का क्रम भी बदल दिया और शब्द भी बदल दिया, मानों डॉ आम्बेडकर
को ‘Agitate’ और ‘Struggle’ शब्द में अंतर
नहीं पता था| ऐसा सड़कों पर राजनीति की चाह रखने वालों ने किया| इस तरह इन
लोगों ने समाज के बड़े हिस्से के समय, संसाधन, ऊर्जा, धन, जवानी और वैचारिकी को
संघर्ष के लक्ष्य में झोंक कर समाज और राष्ट्र को नुकसान पहुंचाया है|
इसलिए आप सभी से अनुरोध है कि आप अपने जीवन में सदैव
सकारात्मक लक्ष्य निर्धारित करें और उसे पाने का उपक्रम करें| किसी के विरोध करने
के लक्ष्य से बहुत अच्छा है कि कुछ पाने का लक्ष्य निर्धारित हो| इसीलिए कहा गया
है कि किसी लकीर को छोटा करने के लिए उसे मिटाने या हटाने के बजाय उसके सामानांतर
बड़ी लकीर खींच दिया जाय| कुछ बड़े विद्वानों का तो यह भी मानना है कि किसी को भी अपने लक्ष्य निर्धारण में कभी भी छोटे महत्व की
चीजों को सन्दर्भ बिंदु नहीं बनाना चाहिए| क्योंकि ऐसा करने से आपके
ब्रह्माण्ड का केंद्र भी वही महत्वहीन सन्दर्भ या बिंदु बन जाता है और आका सारा समय,
संसाधन, ऊर्जा, धन, जवानी और वैचारिकी उसी के इर्द गिर्द चक्कर काटने लगता है, जो
आपके जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को नहीं करना चाहिए| अमर्त्य
सेन ने भी ‘विकास को स्वतंत्रता’ (Development
as Freedom) के रूप में देखा है, नहीं
कि ‘किसी संदर्भ बिंदु से मुक्ति’ (Liberty from any reference) के रूप में लिया
है| कृपया ‘Freedom’ और ‘Liberty’ के (अंतर) प्रयोग पर ध्यान
दिया जाय|
आशा है कि आप अब ‘संघर्ष’ को अपना जीवन लक्ष्य नहीं बनायेंगे| थोडा
ठहर कर विचार कर लीजिए|
आचार्य प्रवर निरंजन
मार्मिक सुन्दर व्याख्या की आचार्य निरंजन जी ने।
जवाब देंहटाएंExcellent Notes, Sir.
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