भारत में आजकल जाति
आधारित संघर्ष के आगाज के रूप में धीमें स्वर में, लेकिन
व्यापक रूप में रुप से चर्चा हो रही है। इस जाति
आधारित संघर्ष को ही कुछ लोग वर्ग संघर्ष बता रहे हैं। कोई वर्ग का
आधार गरीबी-अमीरी बता रहा है, तो कोई वर्ग का आधार जाति एवं धर्म को ही महत्वपूर्ण
साबित करना चाहता है। तो यहां वर्ग और वर्गीकरण क्या
है और यह किस पर आधारित है? वर्ग संघर्ष
में गरीबी-अमीरी का आधार फिसड्डी क्यों है? जाति और धर्म की
संकल्पना की प्रस्तुति में 'बौद्धिक षड्यंत्र' क्या है और
कैसे है? उपरोक्त सभी को मौलिक रुप में समझे और विश्लेषण किए बिना भारत में
वर्ग संघर्ष की स्थिति का सम्यक विवेचना और आलोचनात्मक मूल्यांकन नहीं
किया जा सकता है। तो हमलोग उपरोक्त को समझते हुए आगे बढ़ते हैं।
किसी भी समाज का सुविधाजनक अध्ययन या अन्य किसी उद्देश्य से खण्डों
में विभाजित करने की ही प्रक्रिया को वर्गीकरण कहा
जाता है और उस विभाजित खण्ड को ही वर्ग कहा
जाता है। स्पष्ट है कि वर्ग का आधार हमारे अध्ययन की, या
उद्देश्य की आवश्यकता या सुविधा के अनुसार कुछ भी हो सकता है और बदलता हुआ हो सकता
है। तो वर्तमान समय में भारतीय समाज में प्रचलित वर्गों का आधार धन आधारित
अमीरी-गरीबी, क्षेत्र, भाषा, संस्कृति, तथाकथित धर्म एवं पंथ, जाति, प्रजाति, बौद्धिकता और
लिंग व उम्र आदि हो सकता है।
लेकिन वर्तमान भारत में वर्ग संघर्ष की चर्चा के
सन्दर्भ में धर्म और जाति ही है। अभी अमीरी-गरीबी
और अन्य आधार गौण हैं। इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में
चुनाव हर पांच साल में आता है और यह चुनाव भी तीन स्तर होता है। यह चुनाव केन्द्र
स्तर पर, प्रान्त स्तर पर और स्थानीय स्तर पर साधारणतया अलग
अलग समय पर होता रहता है। लिहाजा भारत में ये जाति और धर्म का वर्ग विशेष रुप में
अलग तरह से और प्रमुखता से चर्चा में होते हैं। यह धर्म और
जाति लोकतान्त्रिक व्यवस्था की चुनावी रणनीति की
अनिवार्यता होती है, क्योंकि चुनाव परिणाम को बहुमत अपने
पक्ष में ले आता है।
लिंग और उम्र आधारित वर्गीकरण में हर परिवार शामिल होता है और यह समाज का
मूलभूत एवं मौलिक निर्मात्री इकाईयां है। कहने का तात्पर्य यह है कि यह आधार यानि
यह वर्गीकरण वर्ग संघर्ष का आधार नहीं बन सकता है।
वर्तमान आधुनिक युग की अमीरी-गरीबी की मौलिक और मूलभूत विशेषताएं भी
बदल गयी है और बाजार की शक्तियों यानि आर्थिक शक्तियों ने
सामाजिक सांस्कृतिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं और क्रियाविधियों में बड़ी सूक्ष्मता
से मौलिक और मूलभूत बदलाव किया है। बाजार की शक्तियों
ने,
अर्थात आर्थिक शक्तियों ने भौतिक पदार्थों और सुविधाओं के अतिरिक्त
बौद्धिक एवं मानसिक उत्पादन, वितरण, विनिमय
तथा उपयोग उपभोग को अपने नियंत्रण में कर रखा है। इसका परिणाम
यह हुआ है कि वैचारिकी के उत्पादन, वितरण, विनिमय तथा उपयोग उपभोग
पर उन्हीं बाजारु आर्थिक शक्तियों का प्रभावशाली नियंत्रण, नियमन,
और निर्देशन हो गया है और वही इसे पूर्णतया संचालित कर रहे हैं। इसलिए
भारत में आधुनिक एवं वर्तमान युग में गरीबी-अमीरी पर आधारित वर्गों में संघर्ष की
कोई वास्तविक संभावना नहीं है। कुछ सिद्धांतकारों को यदि यह लगता है कि इस आधार पर
वर्ग संघर्ष हो सकता है और निकट भविष्य में उसे जीता भी जा सकता है, तो कोई भी भ्रम में जीने के लिए और बात बनाने बढ़ाने के लिए स्वतंत्र हैं।
स्पष्ट है कि ऐसे हवाई सिद्धांतकारों को आधुनिक एवं वर्तमान आर्थिक शक्तियों की
क्रियाविधि एवं परिणाम की बारीक समझ नहीं है।
अभी भारत में सामान्य जनमानस को समझ में आने वाली वर्गों में धर्म
और जाति ही प्रमुख हैं। ध्यान रहे कि मशीन कारणों से संचालित और निर्देशित होता है और मानव भावनाओं से
नियमित और संतुलित होता है। सामान्य जनमानस अपने बौद्धिक क्षमता एवं समझ के
कारण भावनात्मक मुद्दों से बहुत ही आसानी एवं सरलता से नियंत्रित, नियमित, निर्देशित और संचालित होते हैं। इन मुद्दों
को अखिल भारतीय विस्तार भी मिला हुआ है और यही मुद्दे बहुमत की दिशा भी तय करती
है। दरअसल धर्म तो मानव के लिए एक ही होता है और वह मानव धर्म होता है। इसी
महत्वपूर्ण मानव धर्म को सामाजिक सांस्कृतिक संरचना एवं व्यवस्था के अनुसार
विभिन्न सम्प्रदायों और पंथों में विभाजित किया गया है और
यही पंथ एवं सम्प्रदाय आज धर्म के रूप में प्रचलित है। इसी तरह जाति और कास्ट
में भी भ्रम बनाया गया है और इन दोनों को एक ही अर्थ में
लेने के लिए भारत में एक सूक्ष्म एवं गहन बौद्धिक षड्यंत्र किया गया है। भारतीय
कास्ट पुर्तगाली कास्टा पर आधारित संकल्पना है, जो
पेशों का क्षैतिज विभाजन तो करता है, लेकिन ऊर्ध्वाधर विभाजन
नहीं करता है, अर्थात ऐसा कोई भी विभाजन श्रेष्ठता और नीचता
पर आधारित नहीं होता है। भारतीय जाति व्यवस्था में समाज का विभाजन
क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर दोनों एक ही साथ है और वह जन्म आधारित भी है, अर्थात एक ही साथ पेशागत विभाजन भी करता है और ऊँच- नीच का विभाजन करता
है। इसलिए कोई भी देश के जवाबदेह व्यक्ति भारतीय
जाति को भारतीय कास्ट कहने - लिखने - समझने के बौद्धिक षड्यंत्र का हिस्सा नही
बनें।
भारत में अब धर्म की लोकतान्त्रिक चुनावी राजनीतिक रणनीति
धीमी पड़ गई लगती है, हालांकि इसमें भरपूर ईंधन झोंकने के
प्रयास में कोई कमी नहीं आयी है। हाल में जाति आधारित
राजनीतिक रणनीति तेज होने लगी है। वैसे भी भारत मे जो सामाजिक सांस्कृतिक
संरचना एवं व्यवस्था में ऊर्ध्वाधर शिखर के लाभार्थी है, वे इस
सामाजिक सांस्कृतिक संरचना एवं व्यवस्था की निरंतरता चाहते हैं और इसका आधार
सांस्कृतिक विरासत बताते हैं। लेकिन यदि इतिहास की
वैज्ञानिक और आधुनिक व्याख्या आर्थिक साधनो और शक्तियों के आधार पर, यानि बाजार के साधनो और शक्तियों के आधार पर किया जाता है, तो स्पष्टतया एक भिन्न तस्वीर उभरती है। हम जानते हैं कि इतिहास की
व्याख्या यानि 'इतिहास का अवबोध' (Perception of
History) ही सांस्कृतिक विरासत और संस्कार को निर्मित, नियमित, निर्धारित और संचालित करती है।
भारतीय संविधान के उद्देशिका (Preamble, प्रस्तावना नहीं) में “राष्ट्र” की एकता और
अखंडता सुनिश्चित करने की संकल्पना की बात की गयी है। ध्यान रहे कि यहां देश और
सम्प्रभु राज्य की चर्चा नहीं है। आज भारत के जो भी
नागरिक किसी भी विरासत के नाम पर अवैज्ञानिक और अतार्किक जातीय व्यवस्था की
निरंतरता का हिमायती हैं, उसे
संविधान के इस उद्देशिका का ध्यान नहीं है। किसी भी पेशे का श्रेष्ठता निम्नता
संबंधित कोई जीनीय संरचनात्मक आधार अवैज्ञानिक है। इसी तरह किसी भी सामान्य पेशे की योग्यता और कुशलता की दक्षता एवं क्षमता का संबंध भी
वैज्ञानिक आधार पर जीनीय संरचनात्मक से सिद्ध नहीं है। हालांकि कुछ ‘आंकड़ों
के बाजीगर’ आंकड़ों को तोड़ मरोड़ कर जीनीय संरचनात्मक तथ्यों को अपने हितों के
पक्ष में दिखाने का भरपूर प्रयास करते हैं। यदि आपकी आलोचनात्मक
एवं विश्लेषणात्मक मूल्यांकन की दक्षता और क्षमता पैनी और गहरी नहीं है, तो आप ऐसे बाजीगरों के झांसे में आ ही जाएंगे।
भारत में आज जातीय आधारित सर्वेक्षण और जनगणना की मांग की जाने लगी
है। चूंकि जनगणना भारतीय
संविधान की संघ सूची में दर्ज है, इसलिए कुछ राज्य सर्वेक्षण ही
कराकर संबंधित आंकड़े प्राप्त कर रहे हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री
श्री अभीजीत बनर्जी भी भारत की आर्थिक
समस्याओं और उसके समाधान की सबसे बड़ी बाधा के रूप में संबंधित आंकड़े की
अनुपलब्धता, अप्रामाणिकता, अपर्याप्तता
और विमर्श में अभाव को बताते हैं। भारत के लगभग सभी
परम्परागत बौद्धिक भी जातीय व्यवस्था की निरंतरता चाहते हैं और इसीलिए यह जातीय
व्यवस्था अवैज्ञानिक संकल्पना भी एक ठोस भौतिक तथ्य बना हुआ है। और इसी कारण यह
जाति भी राष्ट्रीय हितों को क्षति पहुंचा रहे हैं, फिर भी यह जाति आज लोकतान्त्रिक चुनावी राजनीतिक रणनीति
का मुख्य आधार बनता जा रहा है। जाति आधारित उद्दात
भावना ही एक दूसरे को शोषक समझ रहे हैं और घृणा भड़कानेवाला का उपकरण साबित हो रहे
हैं। वैसे इसके लाभार्थी सभी राजनीतिक दल हैं, लेकिन इस जातीय
व्यवस्था के कारण वर्ग संघर्ष की प्रवृत्ति की उत्पत्ति की ओर ध्यान नहीं दे रहे
हैं। ये लोग इस राष्ट्र को इस रूप में क्या देना चाहते हैं, वे ही जानें। लेकिन आसार अच्छे नहीं हैं।
आचार्य प्रवर निरंजन
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