किसी भी शब्द का सफरनामा (Journey) अपने अर्थ में तत्कालीन समय, क्षेत्र, समाज, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, संस्कृति और उद्देश्य के अनुसार बदलते हुए तय करता हैं। अर्थात शब्द की रचनात्मक बनावट स्थिर रहते हुए भी, यानि एक ही होते हुए भी एक ही शब्द का अर्थ उपरोक्त के सापेक्ष बदलता जाता हैं। आप यह भी कह सकते हैं कि एक शब्द विभिन्न स्थितियों में अपना ध्वनि स्वरूप पूर्ववत बनाए रख कर बदलते उद्देश्य या बदलते प्रभाव में नया अर्थ पा लेता है, या जानबूझकर नया अर्थ गढ़ दिया जाता है।
एक ही शब्द का अर्थ समय, क्षेत्र, समाज, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, संस्कृति और उद्देश्य के सापेक्ष इसलिए भी बदलता रहता है, क्योंकि ये शब्द इनके बदलते सापेक्ष में अपनी अपनी 'संरचना' (Structure) को भी बदल कर नए अर्थ प्रस्तुत करता है। दरअसल शब्दों के अपने कोई अर्थ नहीं होते हैं, उन शब्दों को वह समाज एवं संस्कृति किस तरह लेता और समझता है, या जानबूझकर उद्देश्य पूर्ण प्राप्ति के लिए दे दिया जाता है, उस पर उनका अर्थ निर्भर करता है| इसिलिए इनकी संरचना बदल जाने से इनके शाब्दिक अर्थ, सतही अर्थ, निहित अर्थ और भावनात्मक अर्थ भी भिन्नता पैदा कर देती है। स्विस भाषा विज्ञानी फर्डीनांड डी सौसुरे भी अपने 'संरचनावाद' (Structurelism) की अवधारणा में यही समझाते हैं। हिन्दू' शब्द के सफरनामा को इसी संदर्भ में समझेंगे।
लेकिन हिन्दू' शब्द के सफरनामा को फ्रेंच दार्शनिक ज़ाक डेरिदा का उल्लेख किए बिना सम्यक् ढंग से समझने का दावा बेमानी हो जाता है। ज़ाक डेरिदा अपने 'विखंडनवाद' (Deconstructionalism) की अवधारणा में समझाते हैं कि लेखकों के द्वारा रचित या लिखित पाठ्य (Text) लेखकों की समझ के अनुसार तो होते ही है, लेकिन इसके अर्थ पाठकों के अपने समय, क्षेत्र, समाज, पर्यावरण, पारिस्थितिकी, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, संस्कृति और उद्देश्य के सापेक्ष समझ के अनुसार निकलते होते हैं। यहाँ एक बात और जोडना हैं कि लेखक इसके अतिरिक्त अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए भी अपने समय, क्षेत्र, समाज, पर्यावरण, पारिस्थितिकी, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, संस्कृति और उद्देश्य के सापेक्ष शब्दों की प्रस्तुति इस तरह करता है, ताकि पाठक भी लेखकों के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से निदेशित अर्थ को ही प्राप्त करें। अर्थात कभी कभी कोई लेखक अपनी बातों के सन्देश को स्पष्ट रूप में व्यक्त नहीं कर भी अप्रत्यक्ष रूप से, यानि एक दार्शनिक अंदाज में पाठकों को उस अर्थ पर ले जाता है, जिसे उस ‘पाठ’ में स्पष्ट नहीं किया गया होता है|
इसके बाद हमलोग 'हिन्दू' शब्द की
सफरनामा की शुरुआत करते हैं। हम देखेंगे कि 'हिन्दू' शब्द कैसे एक
'भौगोलिक' अर्थ से सफर
शुरू कर 'सामाजिक' अर्थ, 'साम्प्रदायिक' (तथाकथित
धार्मिक) अर्थ,
'सनातन'
अर्थ,
"सांस्कृतिक'
अर्थ, 'राष्ट्रीयता' के अर्थ और 'राजनीतिक' अर्थ प्राप्त
करता है? इस भौगोलिक
क्षेत्र को भारतीय उपमहाद्वीप कहते हैं और इस देश का नाम भारत था और आज भी है।
भारत का अर्थ 'आ (भा' से
'रत'), यानि
आभा से युक्त, यानि विद्वता से युक्त देश हुआ। बौद्धिक काल में, यानि
प्राचीन काल में भारत विश्व को प्रकाशित करने वाला देश था, आभा से रत
(युक्त) देश था। बौद्धिक काल की समाप्ति और सामन्तवाद के उदय के साथ बहुत से राजनीतिक,
सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक समीकरण और संतुलन बदल गया। वैश्विक शक्तियों में अरबों के उदय
एवं विकास ने कई स्थापित परिभाषाओं और अवधारणाओं के सतही और निहित (संरचनात्मक)
अर्थ बदल दिए।
इनके भारत आने का रास्ता पूर्व से स्थापित पश्चिमोत्तर
पर्वतमाला और सिन्धु नदी होकर ही था।
नवोदित अरब शासकों द्वारा यह देखा गया कि यह विशाल और सदाबहार सिन्धु नदी इस
क्षेत्र पर महान छाप छोडता है। सिन्धु नदी क्षेत्र
को सिन्ध या सिन्धु क्षेत्र या इसी सिन्धु उच्चारित हिन्दू क्षेत्र से सम्बोधित
किया गया। एक अनुमान है कि किसी अरब प्रमुख सेनापति (जो तुतलाता रहा
होगा) के द्वारा उच्चारित अक्षर 'स' को 'ह'
कहता होगा या ऐसा समझा गया। लेकिन अरबी
में 'स' को 'ह' उच्चारित
करने की बात गलत हो जाती है,
क्योंकि 'फारस' को 'फारह' नहीं बोला
जाता है। इसी 'सिन्धु' या ‘हिन्दू’ शब्द से हिन्द, हिन्दू,
हिन्दी, हिन्दूकुश
पर्वत, हिन्द
महासागर आदि संज्ञापित किया गया। इस तरह ‘हिन्दू’
शब्द सबसे पहले एक “भौगोलिक” अर्थ में प्रयुक्त हुआ।
मध्ययुगीन अरब आक्रांताओं के भारतीय शासक बनने के साथ ही
सामान्य स्थानीय शासित जनता का अवलोकन अध्ययन उनके दृष्टिकोण से शुरू हो गया। इन मध्ययुगीन
अरब आक्रांताओं के भारत आगमन से पूर्व ही भारतीय बौद्धिक काल का समापन हो रहा था
और सामन्ती व्यवस्था अपने उदय के साथ मजबूत एवं व्यवस्थित हो रही थी| सामन्ती व्यवस्था
के उदय एवं मजबूती के साथ सामान्य जन जीवन का आर्थिक एवं सांस्कृतिक पतन हो रहा
था| भारत की, यानि हिन्द की इस धरती पर इनके आगमन के पूर्व से रहने वाले
सामान्य स्थानीय जनता को हिन्दू संज्ञा से नामित किया गया था। इन सामान्य स्थानीय जनता की आर्थिक एवं सांस्कृतिक दुर्दशा और
हिन्दू को एक दुसरे का पर्यार्य मान लिया गया| इस तरह, अब हिन्दू का एक “समाजशात्र्यीय” अवधारणा प्राप्त हो गया।
इस काल में हिन्दू शब्द अपने मूल भौगोलिक स्वरूप से एक
सामाजिक अवधारणा का स्वरूप प्राप्त कर लिया था| इसी समय कुछ बुद्धिमान भारतीय
समूह या वर्ग अपने को शासक समुदाय से निकटता पाने के लिए इतिहास की प्रस्तुति नए
ढंग से किया। तत्कालीन स्थानीय शासक शक्तिशाली भी थे और विदेशी भी थे, और इसीलिए इन शासकों से निकटता पाने के लिए ही इन भारतियों ने अपने
समूह या वर्ग को भी विदेशी घोषित कर दिया और शेष भारतीयों को स्थानीय मूल निवासी
बताया गया। इस तरह स्थानीय मूल निवासी
हिन्दू कहलाए। इसी आधार पर इन बुद्धिमान भारतीय समूह या वर्ग को
विदेशी मान लेने कारण ही गैर हिन्दू भी मान लिया गया| और इसी आधार पर ही इन तथाकथित
भारतीय विदेशी समूहों और वर्गों को जाजिया कर के दायरे से बाहर रखा गया। यह विदेशी की अवधारणा इन भारतियों के लिए सल्तनत काल, मुगल काल और ब्रिटिश काल में भी कारगर, उपयोगी और लाभप्रद रहा। बाद के तथाकथित शोधों और अनुसंधानों के आंकड़ों में
बाजागिरी करके आधुनिक जीनीय आधार भी स्थापिर करने के प्रयास हुए हैं, जो एक तमाशा
से ज्यादा कुछ नहीं है।
प्रथम विश्व युद्ध के समय समस्त ब्रिटिश जनता का समर्थन
पाने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने ‘सार्वजनीन
वयस्क मताधिकार’ की घोषणा कर दी| उस समय तक ब्रिटेन
में प्रजातांत्रिक (Democratic) सरकार
के निर्वाचन में कुछ विशिष्ट ‘प्रजा’ को ही मताधिकार प्राप्त था| यह स्पष्ट हो गया
था कि भारत में लोकतांत्रिक (Democratic)
सरकार के निर्वाचन में यह ‘सार्वजनीन वयस्क मताधिकार’ की व्यवस्था आज या कल लागू
किया जाएगा ही| कहा जाता है कि
पेड़ की फुनगी हवा का रुख सबसे पहले समझता है, इसीलिए भारतीय सामन्ती सामाजिक व्यवस्था
के सर्वोच्च प्रबुद्धजन इनके भावी परिणाम को देखने समझने लगे| भारत में भारतीय सामन्ती व्यवस्था या वर्ण व्यवस्था ही भारतीय सामन्ती काल की कार्यपालिका व्यवस्था थी, जो
आज की कार्यपालिका व्यवस्था की ही तरह समस्त आबादी का कोई तीन या चार प्रतिशत ही
थी| इसी कारण भारत में ब्रिटिश प्रधान मंत्री के उक्त घोषणा के तुरंत बाद
ही 1915 में ‘हिन्दू
महासभा यानि ‘सर्वदेशक हिन्दू समाज’ की
स्थापना किया गया| अब इस नए स्थापित संगठन के लिए बहुत कुछ अवधारणाओं एवं परिभाषाओं
को बदलने एवं पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता हो गयी|
इस आवश्यकता ने सामन्ती कार्यपालिका को, जिसे वर्ण व्यवस्था
के नाम से जाना जाता था, का सेवक वर्ग अपनी संख्या में भी एवं भूमिका में भी
क्षुद्र यानि नगण्य थी| ब्रिटिश काल में भारतीय राजनीतिक
एवं प्रशासनिक सामन्ती व्यवस्था के अभाव में ये क्षुद्र यानि शुद्र समाप्त हो गये
थे| इस तरह वर्ण व्यवस्था के दो ही सर्वोच्च वर्ण अपने अस्तित्व
बनाए रखने में सफल थे| तीसरा वर्ण ‘वैश्य’ अपनी गतिशीलता एवं प्रभावकारी आर्थिक
भूमिका के कारण इस वर्गीकरण की व्यवस्था से उदासीन थे| ये अपनी प्रभावकारी आर्थिक
भूमिका के साथ कल भी प्रभावशाली थे एवं आज भी प्रभावशाली हैं और इसीलिए इनको इस
वर्ण व्यवस्था की अनुक्रमिका से कोई ख़ास मतलब नहीं रहता है| लेकिन इस वर्ण व्यवस्था का चौथा वर्ण ‘शुद्र’ या क्षुद्र’ ब्रिटिश
शासन काल में लुप्त हो गया था| इस नयी
व्याख्या में सम्पूर्ण “अवर्ण” आबादी को ही ‘शुद्र’ घोषित कर दिया गया| पूर्व
के सामन्ती कार्यपालिका व्यवस्था के लिए बनाये गये ‘मनुस्मृति’
को नए रूप में व्याख्यापित किया गया| इस तरह ‘हिन्दू’, जो कल तक एक भौगिलिक
शब्दावली था, उसे धार्मिक यानि साम्प्रदायिक ढाँचे में आकार दिया गया| इसके पहले के किसी भी धार्मिक या आध्यात्मिक ग्रन्थ में ‘हिन्दू’
शब्द नहीं है| सन 1896 में शिकागों शहर में आयोजित धर्म- सभा में भी ‘ब्राह्मण
धर्म’ उपस्थित था, कोई हिन्दू धर्म नहीं था| इस तरह अब ‘हिन्दू’ शब्द अपने सफरनामे में एक “साम्प्रदायिक” या
तथाकथित “धार्मिक” अर्थ ग्रहण कर लिया|
फिर इस नव अवतरित शब्द ‘हिन्दू’ को प्राचीनतम एवं गौरवमयी
विरासत साबित करने के लिए एक नया शब्द ‘सनातन’ लाया गया| सनातन का अर्थ
होता है कि कोई भी अपने आदि से अब तक निरंतरता में पूरी शुद्धता के साथ बरक़रार है|
इस तरह ‘हिन्दू’ शब्द ‘सनातन’ भी हो गया| अब तक महान गौरवशाली विशाल एवं
शानदार "भारतीय सांस्कृतिक विरासत" अब ‘हिन्दू संस्कृति’ के नाम से आच्छादित हो गया|
इस तरह अनेक भारतीय सांस्कृतिक एवं साम्प्रदायिक परम्परा को इस नयी व्याख्या में
समाहित कर लिया गया| इस तरह यह ‘हिन्दू’ अब ‘सनातन
धर्म’ में हो गया|
सन 1931 की जनगणना में जनगणना आयुक्त हट्टन ने भारत के मुख्य
समाज से बहिष्कृत कतिपय जातियों को, जिन्हें अनुसूचित जाति कहा गया, हिन्दू के
वर्गीकरण से बाहर रखा था| इसी तरह भारतीय जनजातीय आबादी भारतीय सामन्ती व्यवस्था
से बाहर रही थी, उसको भी इस नयी शब्दावली में समेट लिया गया| अब यह ‘हिन्दू’ शब्द
भारत की एक सांस्कृतिक व्याख्या प्रस्तुत करती है| इस तरह ‘हिन्दू’ एक ‘सांस्कृतिक इकाई’ बन गया|
हाल के दिनों में ‘राष्ट्र’ एवं ‘राष्ट्रवाद’ की परिभाषा का
आधार ‘सामासिक’ (Composit) स्वरुप देकर, जो होना भी चाहिए, इसे ‘हिन्दू’ संस्कृति
के भौगोलिक व्याख्या के साथ मिला कर व्याख्यापित कर दिया गया| राष्ट्र एक ऐतिहासिक एकापन (Historical
Oneness) की भावना को कहा जाता है, जो ऐतिहासिक रूप में एक साथ रहने से आती है| इसके ही साथ ‘हिन्दू’ एक ‘राष्ट्रीयता’ का अर्थ ग्रहण कर
लिया है|
इस तरह, ‘हिन्दू’ शब्द का सफरनामा भोगोलिक अर्थ से शुरू
होकर ‘सामाजिक’ अर्थ, ‘सांप्रदायिक’ (धार्मिक) अर्थ, ‘सनातन’ अर्थ, ‘सांस्कृतिक’
अर्थ, ‘राष्ट्रीय’ अर्थ लेते हुए या बदलते हुआ अब ‘राजनीतिक’
अर्थ तक आ गया है| इसी का साथ ‘हिन्दू’ शब्द का सफरनामा समाप्त होता
है|
एक भारत! श्रेष्ट भारत!!
आचार्य प्रवर निरंजन
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