गुरुवार, 30 मई 2024

हमलोग परेशान क्यों हैं?

दरअसल परेशानी से ही हमारा उद्विकास (Evolution) हुआ है| अर्थात हमारे होमो सेपियंस (पशु मानव) बनने की कहानी भी हमारी परेशानी से ही शुरू हुआ है| जब हमारे पूर्वज वानर (Ape) थे, और पेड़ों पर जीवन व्यतीत कर रहे थे, उसी समय कोई मजबूत वानर या बन्दर या कोई अन्य ने एक कमजोर वानर को पेड़ से धकेल कर गिरा दिया और फिर उसे पेड़ों पर चढ़ने भी नहीं दिया| वह कमजोर और डरा हुआ वानर धरती पर विचरण करने वाले अन्य घातक एवं हिंसक जीवों से अपनी जान बचने की जुगत करने लगा| इसी जुगत में उसे बार बार पिछले टांगों पर खड़े होकर अपने आसपास के खतरों का मुआयना  करना उसके लिए बहुत जरुरी हो गया| इससे उसके अगले दोनों पैर अन्य कामों के लिए स्वतंत्र हो गया और वह ‘’हाथ’’ के रूप में विकसित होने लगा| एक डरे हुए वानर को अपनी अस्तित्व बचाने के लिए मानसिक रूप से सक्रिय, सजग एवं सचेत रहना पड़ा, और इसी प्रक्रिया ने उसे बौद्धिक भी बना दिया|

जीवन की इसी परेशानी ने हमें वानर जैसे एक पशु से ‘होमो सेपियंस’ (बुद्धिमान मानव), ‘होमो सोसियस’ (सामाजिक मानव), ‘होमो फेबर’ (निर्माता मानव) और अब “होमो साइन्टिफिक” (वैज्ञानिक मानव) बना दिया| आज भी परेशानी यानि समस्याएँ ही हमें इनके निराकरण के लिए प्रेरित करते हैं, जो आविष्कार और खोज के रूप में हमारे सामने आकर समस्यायों का समाधान देते हैं और बौद्धिक रूप में अग्रसर होने देते हैं| इसलिए परेशानी को किसी बड़े संभावना के यानि किसी अवसर के रूप में देखना चाहिए| जब हम किसी स्थिति में परेशान होते हैं, तभी ही हम उसके समाधान के लिए प्रेरित होते हैं, तत्पर होते हैं और उसका समाधान निकाल कर समग्र मानवता को अग्रसर भी करते हैं| वैसे परेशानियाँ दूसरे से तुलना करने और अपनी इच्छाओं को तीव्र करने से भी आती है, हालांकि यही प्रेरणा का भी कार्य करता है। यह सब हमारे नजरिया पर भी निर्भर करता है। 

लेकिन यहाँ यह सन्दर्भ नहीं है| अभी हमलोग जो वर्तमान में परेशान है, उसके बारे में समझना जानना चाहते हैं और उसका समाधान खोजना चाहते है| तो हमलोग वर्तमान मानव की वर्तमान परेशानियों की जड़ों को खोजने की ओर चलते हैं, जहाँ से ही हमें इसका समुचित समाधान मिल सकता है| जब हम वर्तमान समस्यायों का विश्लेषण तथा मूल्याङ्कन करते हैं एवं उस पर विभिन्न दृष्टिकोणों से सवाल खड़ा करते हैं, तब ही हम उनकी जड़ों तक पहुँच पाते हैं| कोई भी आदमी उसी समय परेशान होता है, जब वह बदलते हुए परिवार, समाज, संस्कृति, सन्दर्भ, वातावरण और परितंत्र की जड़ता (Inertia) में होता है| अर्थात वह बदलती हुई परिवार, समाज, संस्कृति, सन्दर्भ, वातावरण और परितंत्र के मूल्यों, मानकों और प्रतिमानों के अनुरूप अपने को अनुकूलित (Adoptation) यानि ढाल नहीं पाता है| यानि वह बदलते हुए माहौल मे समायोजन (Adjust) नहीं कर पाता है| वह बदलते हुए परिवार, समाज, संस्कृति, सन्दर्भ, वातावरण और परितंत्र के मूल्यों, मानकों और प्रतिमानों के अनुरूप अपने को इसलिए ढाल नहीं पाता है, क्योंकि वह इसकों बदलने वाली शक्तियों, प्रक्रियायों और प्रभावों को ही नहीं जानता और समझता है|

व्यक्ति, परिवार, समाज, संस्कृति, सन्दर्भ, वातावरण और परितंत्र को बदलने वाली शक्तियों को समकालिक या समकालीन शक्तियां कहते हैं| यह ‘बाजार की शक्तियां’ (Market Forces) होती है, जो उपभोग, उत्पादन, वितरण एवं विनिमय के साधनों एवं शक्तियों द्वारा संचालित, नियमित, नियंत्रित एवं प्रभावित होती है| यही ‘आर्थिक शक्तियों’ (Economic Forces) हुई| इसका प्रभाव सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, धार्मिक पर आच्छादित होता हैं| यह प्रभाव अपने परिणाम में इतने सूक्ष्म (Micro) होता है, कि इसका अहसास सामान्य आदमी को अपने जीवन में अपनी शारीरिक संवेदनाओं से नहीं हो पाता है| इसके तत्काल प्रभाव को जानने और समझने के लिए मानसिक संवेदनाओं को सक्रिय करना पड़ता है| यहाँ मानसिक संवेदनाओं से तात्पर्य आपकी ‘आलोचनात्मक चिंतन’ (Critical Thinking) है, या हो सकता है| यही सूक्ष्म प्रभाव इतिहास के लम्बे काल में समेकित होकर स्थूल (Macro) हो जाता हैं, और तब इसे कोई भी शारीरिक आँखों से देख समझ सकता है| इन्हीं शक्तियों की क्रियाविधि और प्रभावों को नहीं जान पाने के कारण ही साधारण मानवों की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, धार्मिक जड़ता आ जाती है| इस जड़ता का अहसास डिग्रीधारी व्यक्तियों को भी नहीं हो पाता है| ऐसा ही व्यक्ति अपने बदलते हुए परिस्थितियों नहीं समझ पाने के कारण ही अपने को बदलने की तैयारी भी नहीं कर पाता है|  इसलिए सभी को चाहिए कि वह बाजार की शक्तियों की क्रियाविधि, प्रक्रिया एवं प्रभावों को जाने और समझें|

ऐसा ही अज्ञानी और जड़ता में जड़ा हुआ आदमी अपने परिवार, समाज, संस्कृति, सन्दर्भ, वातावरण और परितंत्र में दोष ही देखता रहता है, और दोषारोपण करते हुए इस धरती से विदा भी हो जाता है, लेकिन अपनी समझ में दोष नहीं देख पाता है| चूँकि वह बाजार की शक्तियों को ही नहीं समझ पा रहा है, तो वह अपने परिवार, अपने समाज और अपनी संस्कृति के सदस्यों को क्या समझा पायेगा? ऐसा व्यक्ति अपनी समस्यायों की जड़ यानि कारण दरअसल अपने अग्रेत्तर वंश, यानि अपने बेटें, बहुए, बेटियों और दामाद या परिवार के अन्य सदस्यों में ही खोजने तक सीमित रहता है| वह अपनी सारी समस्यायों का सूत्र उसी में खोजता और देखता रहता है, और उसे बदलते समय में अपने में कोई भी कारण नहीं दिख पाता है| ऐसा व्यक्ति जब उन शक्तियों की क्रियाविधि को ही नहीं समझ है, तब वह व्यक्ति नहीं तो खुद को बदलाव के लिए तैयार कर पाता है और नहीं ही अपने अगले पीढ़ी को ही इसके लिए तैयार कर पाता है| ऐसा व्यक्ति यह समझता है कि बच्चों को पालना, पढ़ाना,और अपने परिवार को पोषने लायक बना देना ही उसके जीवन उद्देश्य का इतिश्री है| वह सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों और उनकी आवश्यकताओं को नहीं समझता है और इसीलिए उन्हें ऐसे संस्कार भी नहीं दे पाता है|  इसीलिए कहा गया है कि ‘रोपे पेड़ बबूल के, आम कहाँ से होय”|

ऐसा ही व्यक्ति पशुवत होता है, जो एक पशु की तरह बच्चे जनता है, पालता है, और उसे ही देखते हुए मर भी जाता है| मानव तो वह होता है, जिसके सोच में, यानि मानसिकता में समाज, मानवता और प्रकृति समाया हुआ होता है| आप इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि एक मानव की मानसिकता में जब मानवता का भविष्य समाहित रहता है, तभी यह मानसिकता किसी भी व्यक्ति या सामज को महान बना देता है, अन्यथा वह तो एक साधारण पशु मात्र है| इसीलिए समाज, मानवता और प्रकृति के कल्याण को जीवन का उद्देश्य बनाने के लिए कहा जाता है| यही जीवन उद्देश्य जीवित रहने और कार्यशील रहने की प्रेरणा देता रहता है और ऐसा ही आदमी ज्यादा दिनों तक कार्यशील भी रहता है|

बुद्ध ने तो परेशानियों के समाधान के लिए “आत्म अवलोकन” की विधि बतायी है, जिसे ‘विपस्सना’ भी कहा जाता है|  इसमें ‘आत्म’ का ‘अवलोकन’ किया जाता है| इसमें ‘स्वयं’ को जाना समझा जाता है| जो अभी आपको बहुत परेशानी दे रहा है, वह सिर्फ सन्दर्भ बदल देने से यानि नजरिया बदल लेने से ही बदल जाता है, यानि समाप्त हो सकता है| आप चीजों को ‘सापेक्षता’ (Relativity) के सन्दर्भ में समझना शुरू कीजिए, सब कुछ बदल जायगा| आप अपने को बदलते हुए वातावरण में यानि सन्दर्भ में अपने को समायोजित करना सीखिए| आप बाजार की शक्तियों को बदल नहीं सकते, सिर्फ समझ सकते हैं और अपने को अनुकूलित कर सकते हैं| इसीलिए समायोजन करना ही एक समुचित मार्ग है| समय से पूर्व इसकी तैयारी भी एक विकल्प है| आप समस्यायों में संभावना खोजिए, आप आनन्दित रहिएगा| यदि आप ऐसा नहीं करना चाहते हैं, तो माध्यम मार्गी बनिए| आपकी परेशानियां आपसे दूर रहेगी| 

आचार्य निरंजन सिन्हा

 

 

 

बुधवार, 15 मई 2024

भारतीय संस्कृति की गौरवमयी विरासत

भारतीय संस्कृति ही हमारी महान विरासत है। हम समस्त भारतीयों को भारत के उत्थान और पुनरोद्धार के लिए भारतीय सांस्कृतिक पुनरोद्धार करना होगा, और यह सब पुरोहितों और संस्कारको के माध्यम से ही होगा। संस्कृति ही समाज को संचालित करने वाला साफ्टवेयर है। यदि हमलोग भारतीय संस्कृति को जानना समझना चाहते हैं, यदि हमलोग भारतीय संस्कृति की विशालता, भव्यता, सनातनता यानि निरंतरता, और गौरवमयी उत्कृष्टता को मानने पर गर्व करना चाहते हैं, यदि हमलोग उस भारतीय संस्कृति को फिर से पुनर्स्थापित करना चाहते हैं जिसके कारण प्राचीन काल  में भारत विश्व गुरु बन गया था; तो हमें उसके लिए महान भारतीय संस्कृति के निर्माण करने वाले कारकों – ‘पुरोहितों’ और ‘संस्कर्कों’ को अच्छी तरह से जानना समझना चाहिए| आज हमलोग एक बार फिर से पुरोहित और संस्कारक को समझते है, उनकी भूमिका को व्यक्ति, समाज, संस्कृति, राष्ट्र, देश, और मानवता के संदर्भ में समझते हैं, और आज के संदर्भ में इन दोनों के प्रशिक्षण एवं शोध मिशन की अनिवार्यता का विवेचन करते हैं। अर्थात आज हमलोग ‘पुरिहिती’ और ‘संस्कारक’ का संरचनात्मक अर्थ यानि आशय समझते हैं, फिर आगे बढ़ते हैं|

भारत में आज प्रचलित ‘पुरोहिताई’ एवं ‘संस्कार’ बहुत ही संकुचित हो गया है, और इसीलिए यह बहुत ही उपेक्षित भी हो गया है| इन कार्य क्षेत्रों में लगे हुए अधिकतर लोगों की यह स्थिति है कि वे लोग अपनी शानदार आजीविका के नहीं मिलने पर ही इस क्षेत्र में पदार्पण करते हैं, या कर रहे हैं| कहने का तात्पर्य यह है कि इस कार्य क्षेत्रों में लगे हुए लगभग सभी लोगों की प्राथमिकता में यह क्षेत्र नहीं रहा है| इसी कारण इस क्षेत्र में अशिक्षित, या अल्प- शिक्षित, संस्कारविहीन, कामी, लोभी और अज्ञानी लोगों की भीड़ बढती जा रही है| इसमें ऐसे लोगों की बहुलता हो गई है, जिनको भारतीय महान संस्कृति के तत्व, दर्शन और आधार की कोई समझ या जानकारी ही नहीं है| यही स्थिति भारतीय शानदार संस्कृति का सबसे दुखदायी पक्ष है और स्थिति है| और हमलोगों को इस पक्ष एवं स्थिति पर गंभीरता से तत्काल विमर्श करना चाहिए, या कहें कि इस की गई शुरुआती विमर्श में सक्रिय सहभागी बनना चाहिए| इसके लिए यानि इसकी पुनर्स्थापना के लिए भारत के सभी वर्गों, सभी समाजों, सभी पंथों एवं धर्मों, सभी क्षेत्रों एवं सभी संस्कृतियों के लोगों की सक्रिय भागीदारी की अनिवार्यता है|

मैं भारतीय संस्कृति की बात कर रहा हूँ, जिसे मध्य काल में ‘हिन्द’ की संस्कृति भी कहा गया| यह ‘हिन्द’ या ‘हिन्दू’ शब्द एक भौगोलिक भावार्थ का बहुत ही व्यापक एवं विस्तृत अवधारणा है| इस तरह ‘हिन्द या हिंदवी’ संस्कृति और भारत की संस्कृति कई अर्थों में एक ही है| चूँकि यह शब्द इधर एक शताब्दी से धार्मिक स्वरुप भी ले लिया है, इसीलिए विवादस्पद मानते हुए इसे फिलहाल आगे के विमर्श के लिए स्थगित कर देना चाहिए| कहने का तात्पर्य यह है कि यह भारतीय संस्कृति ही हमारी संस्कृति है, और इसीलिए हमारी गौरवशाली विरासत भी है| संस्कृति एक व्यापक और गहन भावार्थ का अवधारणा है, जिस पर अल्प जानकार लोग बड़ी बड़ी भावनात्मक व्याख्या देते रहते हैं, हालाँकि उनको संस्कृति के बनावट, निर्माण एवं विकास की प्रक्रियायों की अच्छी समझ नहीं होती है| यदि हम भारत के सभी संस्कृतियों को ध्यान में रख कर यह पुरोहित एवं संस्कारक का प्रशिक्षण एवं शोध मिशन को आगे बढ़ाते हैं, तो जल्दी ही भारत विश्व के सभी धर्मों –पंथों के संस्कृतियों के लिए पुरोहित एवं संस्कारक ही तैयार नहीं करेगा, अपितु यह यह संसार के विविध समस्यायों एवं पहलुओं को कई पक्षों, संदर्भो एवं नजरियों से देखने समझने और उसके समाधान प्रस्तुत करने में भी सहयोग एवं पथ प्रदर्शन करेगा| यह वास्तव में मानवता और प्रकृति की अपूर्व सेवा होगा| इस तरह भारत एक बार फिर से वैश्विक गुरु की भूमिका में आ जायगा| आज वैश्विक संगठन “संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम” (UNDP) के सोलह “धारणीय” (Sustainable) लक्ष्यों में भी यह मिशन कई लक्ष्यों में भी सहयोग करता दिखता है, क्योंकि यह विविध संस्कृतियों को समझने में सहयोग करेगा|

"पुर" अर्थात ''बसावट, यानि 'बसी हुई आबादी', या 'किला ' का "हित" यानि 'हितों' का संरक्षक, सम्वर्द्धन करने वाला व्यक्ति ही ‘पुरोहित’ होता है। यानि एक पुरोहित किसी बसावट, यानि गांव, नगर आदि के विकास और उत्थान के लिए प्रयासरत व्यक्ति ही होता था, जो आज उन हितों को कुछ कर्मकाण्डीय प्रक्रियाओं तक सीमित कर लिया है। आज भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति में कई आबादी की बसावट को "पुर" के नाम से जाना जाता है, जैसे शोलापुर, जबलपुर, जयपुर, गोरखपुर, कानपुर, भागलपुर, बुरहानपुर, खडगपुर, सम्बलपुर, बिलासपुर, जमशेदपुर, नागपुर आदि आदि। इस तरह इन नगरों के व्यापक हित सम्वर्द्धन करने वाले ही पुरोहित होते थे, जो सामंती काल में अन्य रुपांतरण के साथ इस सांस्कृतिक रुपांतरण में यह कुछ कर्मकाण्डीय प्रक्रियाओं तक सीमित हो गया। दरअसल सांस्कृतिक उद्भव एवं विकास की प्रक्रिया में शुरुआती समय से पुरोहित एक व्यापक और गहन हितों के उत्तरदायित्व से जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण अवधारणा था, जिसके पुनरोद्धार और पुनरोत्थान की आज फिर अनिवार्यता हो गई है।

इसी तरह "संस्कारक"  शब्द की अवधारणा भी भारतीय संस्कृति और सभ्यता से बहुत गहराई और व्यापकता से घुली मिली है, जिसे भी स्थिरता से जानना और समझना चाहिए। 'संस्कार' से ही संस्कृति और संस्कृत शब्द की अवधारणा उत्पन्न और विकसित हुई है। संस्कार  मानवीय  विचारों , भावनाओं एवं व्यवहारों की एक संयुक्त यानि सम्मिलित प्रक्रिया और उसकी अभिव्यक्ति है, जो सामाजिक मूल्यों, प्रतिमानों, भावनाओं और अभिवृत्तियों  का विकास और सम्वर्द्धन  करता है। आप संस्कार को संवेदना को आकार देने वाली अभिव्यक्ति कह सकते हैं। स्पष्ट है कि किसी भी व्यक्ति, समाज, संस्कृति, राष्ट्र या क्षेत्र की संस्कृति उन लोगों के संस्कारों के ऐतिहासिक समुच्चय से बनता है। मतलब  किसी भी संस्कृति का निर्माण इकाई उसका संस्कार ही है, अर्थात संस्कार ही किसी उत्कृष्ट, उच्च, विकसित एवं सभ्य समाज की निर्माता ईंट के रूप में इकाई हुईं। इन्हीं संस्कारों से कोई व्यक्ति, समाज, संस्कृति, राष्ट्र, मानवता और प्रकृति पल्लवित, विकसित और अग्रणी होता है। इन्हीं संस्कारों से कोई समुचित और सार्थक रुप से शिक्षित होता है। ऐसे ही लोग सुसंस्कृत कहलाते हैं। इस तरह संस्कार समेकित एवं उत्कृष्ट शिक्षा से संबंधित है। इसी संस्कार को उत्पन्न, विकसित और सम्वर्द्धन करने वाले को ही एक "संस्कारक" कहते हैं, जो स्वत: स्पष्ट है कि यह मानव जीवन में कितना महत्वपूर्ण है।

स्पष्ट है कि हमलोगों को पुरोहिती और संस्कार को प्राचीन भारतीय संस्कृति के मौलिक दर्शन के आलोक में पुनर्व्याख्यायित करना चाहिए, पुनर्स्थापित करना चाहिए, ताकि भारतीय सांस्कृतिक गौरव को पुनर्सम्मानित किया जा सके। इसीलिए हमलोगों ने शोध मिशन को भी अपनी प्राथमिकता में स्थान दिया है। अतः यह भी स्पष्ट है कि भारत के पुनः विश्वगुरु बनने की अनिवार्य शर्त में पुरोहित और संस्कारक की भूमिका महत्वपूर्ण है। ऐसी स्थिति में इस पर शोध भी करना होगा, इसे एक मिशन के रूप में लेना होगा, और इसके लिए उत्कृष्ट और उच्च स्तरीय प्रशिक्षण की भी व्यवस्था करनी होगी। इसकी महत्ता और अनिवार्यता से यह भी स्पष्ट है कि इसमें बहुत बड़ी संख्या में हम भारतीयों की समर्पित सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी। इसके लिए सुझाव और  सहयोग के साथ सक्रिय समर्थन और समर्पण भी चाहिए, और यह उसी समय संभव है, जब हमलोग इस मिशन अभियान में शामिल होंगे, इस अभियान से जुड़ेंगे और इस पर संबंधित प्रश्न करने एवं सुझाव देने के लिए इसमें शामिल होकर सुनेंगे।

लेकिन सभी अभियान या मिशन की सफलता के प्रमुख अनिवार्यताओं में अनुशासन सबसे प्रमुख होता है। किसी भी प्रश्न को उठाने के लिए पहले उसे सुनना होता है, उसे समझना होता है और उसके बाद ही उससे संबंधित प्रश्न पुछा जाना समुचित और उपयुक्त होता है। इससे संबंधित संवाद को अनिवार्य रूप से "विमर्श" के रूप में होना चाहिए, नहीं कि "बहस" के रूप में। विमर्श में मुद्दा प्रमुख होता है और यह विमर्श मुद्दे में निखार और विकास के लिए होता है, जबकि बहस में, यानि बहसबाजी में मुद्दा गौण हो जाता है और बहस में शामिल व्यक्ति का जीतना हारना ही प्रमुख उद्देश्य हो जाता है। स्पष्ट है कि हमलोग व्यक्तियों के हारने जीतने के लिए बैठकें नहीं करते हैं, बल्कि हमलोग भारतीय संस्कृति को पुनर्स्थापित और पुनर्जीवित करने के लिए बैठकें करते हैं। यह मूल बातें सभी प्रतिभागियों, समर्थको और समर्पितों को स्पष्ट रहना चाहिए और उन्हें अपने विचार, भावनाएं और व्यवहार (अभिव्यक्ति) वहीं तक सीमित रहने चाहिए। अन्य महत्वपूर्ण विषयों के लिए और भी फ़ोरम या प्लेटफार्म हो सकते हैं, होते हैं और होने भी चाहिए, लेकिन इसे इसी मिशन तक सीमित रखा जाएगा।

चूंकि भारतीय संस्कृति हमारी विरासत है, हमलोगों की थाती है, हमलोगों का गौरव है, हमलोगों का सम्मान है, इसीलिए हम समस्त भारतवासियों की जबावदेही बनती है कि इस गौरवशाली, प्राचीन, और विस्तृत संस्कृति का संवर्द्धन करें, पुनर्स्थापित करें, पुनर्जीवित करें और पुनः गौरवान्वित करें। लेकिन इसके लिए हमलोगों को संयुक्त रूप में आगे आना होगा, संयुक्त रूप में सक्रिय होना होगा, और सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। भारतीय उपमहाद्वीप एक विविध संस्कृतियों, विविध भाषाओं, विविध पंथों एवं धर्मों और विभिन्न भौगोलिक अनिवार्यताओं के क्षेत्रों का संकलन यानि समुच्चय है। भारत एक ऐसा विशाल और बहुविध पंथों और धर्मों का देश है, जहां विश्व के सभी धर्मों की परम्परा अपने गौरव और सम्मान के साथ प्रचलित और सक्रिय है; ऐसा कोई अन्य उदाहरण विश्व में और कहीं नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि हमलोगों के इस सांस्कृतिक विरासत के पुनरोत्थान अभियान में सभी संस्कृतियों, सभी क्षेत्रों, सभी धर्मों, सभी पंथों, और सभी भाषायी वर्गों की सहभागिता, समर्थन, समर्पण, सुझाव, सहयोग अवश्य ही चाहिए, वरना यह गौरवमयी  सांस्कृतिक अभियान सफल नहीं मानी जा सकती है। स्पष्ट है कि यह अभियान किसी भी वर्ग, या समूह, या जाति वर्ण के सापेक्ष नहीं है, यानि किसी के विरुद्ध या किसी के समर्थन में नहीं है, यानि कोई भी विशेष वर्ग इसके लक्ष्य में नहीं है। इसमें सभी परम्परागत और गैर परम्परागत वर्ग, समूह और समाज की सक्रिय भागीदारी अपेक्षित है और किसी को इससे अलग नहीं होना चाहिए|

पुरोहिताई और संस्कारक एक कौशल है, एक योग्यता है, एक ज्ञान है, जिसे कोई भी प्रशिक्षित होकर सीख सकता है, पारंगत होता है, या हो सकता है| यदि आप किसी पेशे में, किसी सेवा में, किसी व्यवसाय या उद्यम में कुशल और सक्षम हो सकते हैं, तो आप इसमें भी कुशल, सक्षम, योग्य, पारंगत और व्यवहारिक हो सकते हैं| यह पुरोहिताई और संस्कारक भी एक पेशा है, एक सेवा है, एक उद्यम है, एक व्यवसाय है, जिसमे सम्मान, प्रतिष्ठा, समृद्धि,और आत्मसंतुष्टि जुड़ा हुआ है| यह आध्यात्मिक क्षेत्र का प्रवेशद्वार भी है| आध्यात्म क्या है, यह एक अलग विषय है, जिस पर मैं अलग से लिख चुका हूँ| चूँकि यह महान संस्कृति आपकी भी विरासत है, इसीलिए इसके उत्तरदायित्व में आप भी शामिल हैं, और आपको भी शामिल होना चाहिए|

इस संस्कृति में संस्कारक एवं पुरोहिताई की एक विशाल एवं शानदार अर्थव्यवस्था है, जिसमे सभी सामाजिक वर्गों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए| इससे अर्जित धन से सभी सामाजिक वर्गों के विकास में भूमिका होनी चाहिए, या मिलनी चाहिए| इसके लिए ही सभी सामाजिक वर्गों के समझदार, जागरूक एवं प्रबुद्ध सदस्यों को आगे आना चाहिए| लगभग सभी सामाजिक वर्गों में सेवा निवृत सदस्य उपलब्ध होते हैं, जिनके पास ज्ञान आधारित योग्यता के साथ साथ विशाल कार्य अनुभव भी होता है, जिसका लाभ वह सामाजिक वर्ग उठा सकता है| इन सेवा निवृत सदस्यों की सक्रियता और समर्पण से बहुत कम लगत से या बिना लगत के सामाजिक पूंजी का निर्माण होता है, और इन सेवा निवृत सदस्यों की उम्र भी बढ़ जाती है| इस अभियान से समाज को और राष्ट्र को एक सुसंस्कृत, शालीन. शिष्ट, शिक्षित और संस्कारी पुरोहित एवं संस्कारक मिलता है|, और समाज एक कामी, लोभी, अशिक्षित, संस्कारविहीन और भ्रष्ट पुरोहित एवं संस्कारक के दुष्प्रभाव से बचता है| ऐसे लोग हमारी महान भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का अपमान भी करते होते हैं|  

चूँकि यह एक सेवा है, एक व्यवसाय है, एक उद्यम है, एक कौशल है, इसलिए यह हमारे युवाओं के लिए प्रशिक्षण का एक शानदार सम्मानित एवं प्रतिष्ठित अवसर भी है| ये युवा हमरे व्यापक शोध मिशन को आगे बढ़ा सकते हैं, या बढ़ाएंगे ही| इससे हमारे राष्ट्र के सभी सामाजिक वर्गों का सांस्कृतिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक मूल्यवर्धन होगा, और सभी सामाजिक वर्ग ‘आध्यात्मिक’ रूप में समृद्ध, संपन्न और आत्मनिर्भर भी होगा| इससे हमारी संस्कृति कई अर्थों में संपन्न और व्यापक होगा| हमारे प्रशिक्षित संस्कारक समाज को ढोंग, पाखंड, अंधविश्वास एवं अनावश्यक कर्मकांड से उबरने में सहायक भी होंगे| हमरे संस्कारक समाज में शिक्षा एवं विविध सेवाओं के प्रसारक एवं प्रचारक भी बनेंगे| ये संस्कारक कई ऐसे कार्य भी करेंगे, या कई ऐसे क्षेत्रों के सूत्रधार भी बनेंगे, जिन्हें हमलोग आपके सहयोग एवं सलाह से सुनिश्चित और निर्धारित करेंगे| चूँकि एक संस्कारक एवं पुरोहित अपने अपने कार्य क्षेत्रों में प्रभावशाली एवं नियंत्रणकारी होते हैं, इसीलिए ये संस्कारक एवं पुरोहित अपने अपने कार्य क्षेत्रों में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि कई क्षेत्रों के बदलाव के क्रान्तिकारी प्रकाश स्तम्भ साबित होंगे| यह सब भविष्य के गर्त में है, जो आपके सहयोग, समर्थन, समर्पण से ही आगे निकल सकता है, आगे बढ़ सकता है| इस क्षेत्र में पहले भी कई महानुभावों ने शुरुआत भी किया था, जैसे गायत्री परिवार, आर्य समाज, अर्जक संघ, बौद्ध परम्परा, रामकृष्ण मिशन, सांविधानिक प्रक्रिया, वैदिक रीति आदि आदि। लेकिन आज की अपेक्षित गतिशीलता आपके बिना संभव भी नहीं है|

इसलिए आप सभी भारतीय इसमें आगे आइए| एक फिर से भारतीय संस्कृति को वैश्विक पटल पर स्थापित करने में मदद कीजिए|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

शनिवार, 11 मई 2024

इतनी बढती आबादी का क्या होगा?

पृथ्वी की इस बढती आबादी का कोरोना और उसके वैक्सीन से क्या संबंध है? इस बढती आबादी का अंतिम परिणाम क्या हो सकता है? क्या यह आबादी घट सकती है, या घटाया जा सकता है, या स्पष्ट कहें तो, क्या इस बढ़ी हुई आबादी को घटाया जा रहा है? इसका उत्तर यह हो सकता है - हाँ, इसे घटाए जाने पर काम हो रहा है| कोरोना की बीमारी और उसका तथाकथित टीकाकरण पर उठे हुए विवाद पर थोडा नजर घुमाइए, आपको बहुत कुछ समझ में आने लगेगा| यह तो एक शुरूआती ट्रायल है| यह सब कुछ आपके स्वास्थ्य की सुरक्षा एवं संरक्षा के नाम पर होगा| यह सब आपको अटपटा लग रहा होगा, लेकिन इस आलेख को पढने के बाद आपको थोडा भी अटपटा नहीं लगेगा| विश्व की आठ सौ करोड़ की आबादी को इस शताब्दी के अन्त तक लगभग पचास करोड़ के पास पहुंचा दिया जायगा| प्रजनन क्षमता को प्रभावित होना या करना और ‘सोमैटिक/ न्यूरो चिप’ का शरीर में लगाया जाना इस प्रक्रिया का पहला कदम होगा| इस प्रक्रिया को आप लगभग सुनिश्चित समझें, यही पृथ्वी ग्रह के भविष्य की  भी मांग है| विश्व के “सुपर बौद्धिकों” का चिंतन एवं कार्यक्रम इसी दिशा में अग्रसर है|

इस पृथ्वी पर ऐसी घटना ‘मानव – इतिहास’ (Homo History) में पहले भी घटित हुआ है, जब विश्व पर प्रभुत्व जमाये रखने वाली शक्तिशाली और व्याप्त दो मानव (Homo) प्रजाति का समापन हो गया था| जो साधन और शक्ति उस बदलाव के समय प्रभावी था, उसी प्रकृति के साधन और शक्ति यानि आधार यानि कारक फिर से काम करने लगा है| इन सब साधन और शक्ति के कारक बुद्धि का एक विशिष्ट स्तर है| आधुनिक एवं वर्तमान मानव को विज्ञानियों की भाषा में ‘होमो सेपियंस’ (Homo Sapiens) कहते हैं| मानव विज्ञानियों की माने, तो वर्तमान होमो सेपियंस का उदय ही कोई एक दो लाख वर्ष पूर्व हुआ है| इस होमो सेपियंस की उत्पत्ति अफ्रीका के वोत्सवाना के मैदान में हुआ है, और कोई पचास हजार पहले उसी अफ्रीका से निकल कर पुरे विश्व में फ़ैल गए| लम्बे अवधि तक विश्व के विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूलन (Adoptation) के परिणाम स्वरुप अब यह वर्तमान मानव प्रजाति कई अलग अलग शारीरिक विशेषताओं के साथ दिखने लगे हैं| यह सब चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के अनुरूप ही है|

जब वर्तमान मानव प्रजाति “होमो सेपियंस” का उदय एवं विकास हो रहा था, उस समय इस प्रथ्वी पर सबसे बुद्धिमान और शक्तिशाली मानव “होमो नियंडरथल” (Homo Neanderthalensis) और “होमो इरेक्टस” (Homo Erectus) थे| होमो सेपियंस के उदय एवं विकास के समय यही दोनों इस पृथ्वी पर व्याप्त थे, लेकिन इन होमो सेपियंस के बुद्धि के विकास के साथ उन दोनों मानव जातियों का समापन (Extinction) हो गया| कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्धि के विशिष्ट विकास के साथ ही विज्ञान, अभियंत्रण (Engineering), एवं प्रोद्योगिकी (Technology) उन्नत होता रहता है, जो “आर्थिक शक्तियों” (Economic Forces) की क्रियाविधि को ही बदलने लगता है| यही आर्थिक शक्तियाँ ही तत्कालीन समय में “बाजार की शक्तियाँ” (Market Forces) कहलाती है| और यही ‘बाजार की शक्तियाँ’ समय के साथ इतिहास के साधन एवं शक्तियाँ बदलती रहती है, और यह साधन एवं शक्तियाँ दोनों ही एक साथ कार्य कर वर्तमान को ही बदलता रहता है| यही “तत्कालीन शक्तियाँ” (Contemporary Forces) ही यानि समकालीन घटनाओं को बदलने वाली शक्तियों के ही बदलने से ही इतिहास बदलता रहता है| ‘इतिहास’ के काल में इन शक्तियों को ही “ऐतिहासिक शक्तियाँ” (Historical Forces) कहते हैं||

 इजरायल के प्रसिद्ध लेखक युवाल नोहा हरारी बताते हैं, कि मानव की अगली प्रजाति “होमो ड्यूस” (Homo Deus) के उदय एवं विकास के साथ ही “होमो सेपियंस” का समापन निश्चित है| मानव की यह प्रजाति होमो ड्यूस अपने पूर्व के, यानि वर्तमान के इस मानव प्रजाति होमो सेपियंस से जीनीय संरचना में उत्कृष्ट होंगे, यानि यह होमो ड्यूस अपने पूर्व के मानव प्रजाति होमो सेपियंस से शारीरिक एवं मानसिक गठन में श्रेष्ठतर होंगे| होमो ड्यूस अपनी “आलोचनात्मक चिंतन” (Critical Thinking) में होमो सेपियंस से बहुत ही आगे और बहुत भिन्न होगा| जिनके पास ‘आलोचनात्मक चिंतन’ का कोई स्तर ही नहीं होगा, उनकी इस पृथ्वी पर कोई आवश्यकता ही नहीं होगी, भले ही गेहूँ के साथ कुछ ‘घुन’ (गेहूँ को खाने वाला एह सूक्ष्म जीव) भी पिसा जाय| अमेरिका के प्रसिद्ध उद्योगपति एलन मस्क के “न्यूरालिंक” (Neuralink) परियोजना को आप जानते ही होंगे, जिसमे जीवों के शरीर या दिमाग में ‘माइक्रो (ब्रेन) चिप्स’ लगा कर उनकी भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को नियंत्रित, संचालित, नियमित, संवर्धित, परिवर्तित एवं प्रभावित किए जायेंगे, और उनको इसमें शरुआती सफलता भी मिल रही है|

वर्तमान विज्ञान, अभियंत्रण, एवं प्रोद्योगिकी के विकास के साथ आज हम लोग “कृत्रिम बुद्धिमता” (Artificial Intelligence), “ह्युमोनोइड रोबोटिक्स” (Humanoid Robots), “इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स” (Inernet of Things), “सायको- सोमैटिक टूल” (Pscho -Somatic Tools), “इंडस्ट्री- 4”, 3D प्रिंटिंग’ (3D Printing), “ब्लाकचेन तकनीक” (Blockchain Technology) आदि में बहुत आगे बढ़ चुके हैं| कहने का तात्पर्य यह है कि आदमी के शारीरिक श्रम के कार्यों को और दिमागी श्रम के कामों को करने के लिए ये अभियंत्रण एवं प्रोद्योगिकी के साधन, शक्ति और क्रियाविधि तैयार हो चुके हैं, और आगे भी संवर्धित हो रहे हैं| अभियंत्रण एवं प्रोद्योगिकी के ये साधन, शक्ति और क्रियाविधि इनको सौपे गए कार्यों को शुद्धता एवं सम्पूर्णता के साथ और कम समय में एवं कम स्थान को घेरते हुए पूरी दक्षता के साथ कही भी एवं कभी भी पूरी तत्परता के साथ करता है, जिनमे कुछ कार्य मानव की सीमाओं से बहार भी होता है| ऐसी स्थिति में एक मानव के पास सिर्फ “मन” (Mind) यानि चेतना से सम्बन्धित कार्य ही रह जाएंगे, जिसमे सिर्फ ‘मानसिक’ एवं ‘आध्यात्मिक’ कार्य ही शामिल होते हैं| एक ‘मन’ उस व्यक्ति के ‘दिमाग’ (Brain) से अलग और भिन्न होता है| एक दिमाग यानि मस्तिष्क उस व्यक्ति के लिए उसके ‘मन’ का “मोड्यूलेटर” (Modulator) होता है| कहने का अर्थ यह हुआ कि एक दिमाग (Brain, not Mind) का विकल्प “कृत्रिम बुद्धिमत्ता” (AI) हो चुका है, लेकिन यह “कृत्रिम बुद्धिमत्ता” मानव ‘मन’ का, यानि ‘चेतनता’ (Consciousness) का विकल्प नहीं दे पाया है| एक बार स्टीव जाब्स ने कहा था कि विज्ञान एवं तकनीक विगत पांच हजार वर्षों में जितना सामाजिक परिवर्तन कर चुका है, विज्ञान एवं तकनीक के साथ उससे भी ज्यादा परिवर्तन आगामी कुछ दशकों में होगा|

किसी का भी वही “मन” (Mind) उन्नत एवं परिष्कृत माना जाता है, जिनमे उच्च स्तरीय ‘आलोचनात्मक चिंतन’ (Critical Thinking) का स्तर एवं क्षमता हो| असली ‘शिक्षित’ (Educated) व्यक्ति वही हैं, जिनमे उच्च स्तरीय आलोचनात्मक चिंतन की क्षमता एवं दक्षता है, बाकि सब ती डिग्रीधारी “साक्षर” (Literate) मात्र हैं, लेकिन शिक्षित नहीं हैं| स्पष्ट है कि ऐसे “डिग्रीधारी साक्षरों” की इस विज्ञान एवं तकनिकी युग में अब कोई जरुरत ही नहीं रह गई है| शारीरिक श्रमिकों का विकल्प तो पहले ही निकल चुका है| ऐसे ही स्थिति में होमो सेपियंस को होमो ड्यूस विस्थापित करने वाले हैं| और इस विस्थापन, यानि प्रतिस्थापन (Substitution) का कार्य इस शताब्दी के समापन के पूर्व ही हो जाना सुनिश्चित है| तो प्रश्न यह है कि इस प्रतिस्थापन के कार्य परियोजना पर क्या कार्य प्रगति पर है?

एक “डिग्रीधारी साक्षर” के पास धन हो सकता है, पद एवं प्रतिष्ठा हो सकता है, क्योंकि उसे शिक्षित डिग्रीधारी माना जा सकता है| चूँकि एक ‘शिक्षित’ होना एक सापेक्षिक, यानि तुलनीय स्तर है, इसलिए एक एक तथाकथित शिक्षित अपने से कमतर शिक्षित यानि मूर्खों की अपेक्षा ज्यादा समझदार हो जाता है| चूँकि आज का वैश्विक परिदृश्य पहले के यानि पुराने अलग थलग रहने वाले या अल्प निर्भर विश्व से पूर्णतया अलग एवं भिन्न हो गया है| यानि पहले जो हुआ, सो हुआ, अब वही फिर नहीं होने वाला है| आज का विश्व एक ‘वैश्विक गाँव’ (Global Village) हो गया है, और कोई भी समाज, संस्कृति, देश एवं राष्ट्र इस वैश्विक बदलाव से अछूता नहीं रह सकता| आप इसे “कोरोना” की महामारी और उसके ईलाज की विधि से भी समझ सकते हैं| इस कोरोना ने पुरे विश्व को एक साथ ही नियमित एवं नियंत्रित कर दिखा दिया, यह पहला कदम था, जो अपने उद्देश्य में सफल रहा| अत: जो वर्तमान में अपमे समाज में, संस्कृति में, देश में, या राष्ट्र में तथाकथित चतुर, चालाक, और धूर्त हैं, या ऐसा समझते हैं, तो वे यदि वैश्विक स्तर पर तुलनात्मक रूप में ‘मूर्ख’ ही हैं| ऐसे सभी लोगो को इस शताब्दी के अन्त तक विदा होना तय है| ऐसे ‘तथाकथित बुद्धिमान’ इसीलिए हैं, क्योंकि ये जिनके सापेक्ष बुद्धिमान हैं, वे ही अज्ञानी हैं और इसीलिए ये ‘मूर्ख’ समझे जाते हैं| वैसे होमो सेपियंस भी एक पशु ही है, जो अपनी बुद्धिमत्ता के साथ ही ‘निर्माता मानव' यानि 'होमो फेबर’ (Homo Faber) और ‘सामाजिक मानव' यानि 'होमो सोशियस’ (Homo Socius) बन सका, अर्थात ‘बुद्धि’ ही पशु और मानव में अन्तर करता है|

अर्थात आज के विज्ञान, अभियंत्रण, एवं प्रोद्योगिकी में जिन कार्यो का विकल्प मिल गया है, या जल्दी ही मिलने वाला है, ऐसे कार्यों को करने वालों जीवों की अब क्या जरुरत है? ऐसे लोग अब इस धरती के भार यानि बोझ होने जा रहे हैं| इसीलिए “वैश्विक थिंक टैंक” ऐसे बोझ से इस धरती को मुक्त करना चाहती है| लेकिन ऐसे अनावश्यक लोगों की कोई हत्या नहीं होने जा रहा है, ऐसे लोगों के निपटान के लिए “साफ्ट हथियार” काफी है, जिसमे नवोदित बीमारियाँ एवं उनके वैक्सीन भी शामिल है| आगे एलन मस्क के न्युरालिंक का चिप्स भी प्रभावशाली होने जा रहा है| ये चिप्स आपको स्वथ्य रखेंगे, सचेत रखेंगे, जानकार बनायेंगे, बुद्धिमान बनायेंगे, दक्ष भी बनायेंगे, आपके कठिन परिस्थितियों आपको समाधान भी सुझायेंगे, और इस तरह आपको पूर्णतया अपने नियंत्रण में रखेंगे| जो साधन आपको किसी भी एक निश्चित दिशा में ले जा सकने में सक्षम होंगे, वही साधन आपको किसी भी दिशा में आपके किसी पूर्व अनुमति के ही ले जाने में भी सक्षम होंगे| किसी को सूर्य जैसे तपते तारे पर भेज दिया जायगा और वहां भी जलने के लिए चले जाने में विरोध नहीं कर पाएंगे|

तब वर्तमान विज्ञान, अभियंत्रण, एवं प्रोद्योगिकी के विकास के युग में इस धरती पर वैसे ही लोगों की आवश्यकता रह जायगी, जिनका ‘मन’ (Mind) या चेतनता का स्तर उत्कृष्ट होगा| उन्ही लोगों का मन यानि चेतनता उन्नत एवं उत्कृष्ट हो सकता है, जिनमे उच्च स्तरीय ‘आलोचनात्मक चिंतन’ की योग्यता एवं दक्षता होगा| मैं क्या कहना चाह रहा हूँ, जो आपको अभी तक स्पष्ट नहीं हो पा रहा है? इसे भारतीय सन्दर्भ में और कुछ उदाहरण के साथ समझें| जिन लोगों को ‘ईश्वर’ (God) और ‘अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) में, यानि ‘ईश्वर’ और ‘प्राकृतिक शक्तियों’ (Natural Forces) में अन्तर समझ में नहीं आता; जिन्हें ‘आत्म’ (Self) और ‘आत्मा’ (Soul) में अन्तर, ‘इस शरीर के साथ पुनर्जन्म’ (Rebirth) और ‘इस शरीर के बाद के पुनर्जन्म’ में अन्तर; इस शरीर में कर्म का फल पाना और तथाकथित पुनर्जन्म के शरीर में फल को पाने के धोखे में अन्तर करना समझ नहीं आता है, तो वैसे लोगों का “आलोचनात्मक चिंतन” का स्तर बहुत ही निम्नतर होता है| उपरोक्त कुछ भारतीय उदाहरण हैं, जबकि ऐसे कई और उदाहरण हो सकते हैं| ऐसे लोगों की इस वैश्विक गाँव में इस स्तर के विज्ञान, अभियंत्रण, एवं प्रोद्योगिकी के युग में कोई आवश्यकता ही नहीं रह गई है| ऐसे लोगों को “वैश्विक थिंक टैंक” के द्वारा इस धरती का बोझ समझा और माना जा रहा है|

वैसे युवाओं को तो बहुत कुछ जानना, सीखना, और अनुभव करना है, इनके पास तैयारी के लिए यानि बदलाव के लिए पर्याप्त समय भी है, इसलिए वे समय के साथ आगे भी  समझ सकते हैं| लेकिन उन लोगों को ‘चिंतन’ करनी होगी, जो बदलते समय को पहचानना और समझना नहीं जानते हैं, या नहीं चाहते हैं|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

गुरुवार, 9 मई 2024

भ्रष्टाचार : भारत की एक राष्ट्रीय समस्या

क्या भ्रष्टाचार भारत की एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है? क्या अब यह एक राष्ट्रीय संस्कृति बन चुकी है? यदि यह भ्रष्टाचार भारत की सबसे प्रमुख राष्ट्रीय समस्या है, तो इसके निवारण के लिए, यानि इस राष्ट्रीय कोढ़ से मुक्ति पाने के लिए क्या क्या किया जाना समुचित एवं न्यायोचित होगा? इस भ्रष्टाचार की प्रकृति क्या है, यानि इसका स्वभाव एवं गुणधर्म क्या है? इसकी व्यापकता एवं इसके व्यापक प्रभाव क्या क्या है? इसके साथ सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि इसका स्थायी एवं प्रभावी समाधान यानि इसका निदान कैसे हो? उपरोक्त सब को समझना जरुरी है, अन्यथा हमलोग भारत के विकास की सम्पूर्ण बातें सतही करते है, या दिखावटी करते है, या सब कुछ एक महज तमाशा ही है| तो हमलोग भ्रष्टाचार पर आगे बढ़ते हैं|

यह प्रश्न कि क्या अब यह एक राष्ट्रीय संस्कृति बन चुकी है, आपको आपत्तिजनक लग सकता है? लेकिन जब कोई संस्कृति राष्ट्रीय स्तर पर व्याप्त  हो जाती है, तो उसे राष्ट्रीय संस्कृति ही कहा जायगा| संस्कृति क्या है? यह समाज द्वारा मान्यता प्राप्त या इनके मानको के अनुरूप भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों की अपेक्षा प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज से करता है| यही मानक संस्कृति के रूप में अदृश्य रह कर व्यक्ति एवं समाज को संचालित, नियंत्रित, नियमित एवं प्रभावित करती रहती है| आधुनिक शब्दावली में, इसे मानव समाज का 'साफ्टवेयर' भी कह सकते हैं| मैंने इस भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय संस्कृति इसलिए कहा, क्योंकि इस भ्रष्टाचार को लगभग प्रत्येक व्यक्त एक सामान्य जीवन मान चुका है, और कोई इस गंभीर समस्या पर विमर्श को ही आगे बढ़ाने को तैयार नहीं है| ऐसी स्थिति में इसे राष्ट्रीय संस्कृति ही कहना उपयुक हो जाता है|

भ्रष्टाचार को रोकने या समाप्त करने की बातें सोचने से पहले हमें यह समझना होगा कि यह भ्रष्टाचार क्या होता है? वैसा आचरण या व्यवहार, विचार या भावना, जो भ्रष्ट हो गया है, यानि ऐसा आचरण जो उस समय प्रचलित सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में निर्धारित एवं नियमित मानको, यानि मानक व्यवहारों से विचलित या विपरीत हो गया हो, भ्रष्टाचार कहते हैं। यदि यही अवधारणा या परिभाषा ही भ्रष्टाचार की समुचित व्याख्या करता है, तो इस भ्रष्ट आचरण का घेरा बहुत व्यापक और गहरा हो जाता है और इसमें सभी कामकाजी वर्ग या समूह शामिल हो जाते हैं। किसी किसी राष्ट्र में ‘विधि –व्यवस्था (Law n Order)’ में ‘विधि (Law) का प्रावधान’ ‘विधि के लिए व्यवस्था (Order)’ से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, तो किसी अन्य राष्ट्र में ‘व्यवस्था (Order)’ से ज्यादा महत्वपूर्ण ‘विधि या कानून का प्रावधान’ ही हो जाता है| विश्व में ऐसे देश बहुत ही कम हैं, जहाँ ‘विधि’ एवं ‘व्यवस्था’ दोनों में समुचित संतुलन रहता है| भारत में तो ‘विधि –व्यवस्था (Law n Order)’ में ‘विधि’ का महत्व है, लेकिन इसके लिए ‘व्यवस्था’ (Order/ System) की स्थिति पूरी तरह से “लचर” है| इसीलिए भारत में ‘धडाधड’ कानून और नियम बनाये जाते रहते हैं, भले ही उसके लिए कोई व्यवहारिक सुविधा या व्यवस्था या तंत्र नहीं दी जाती हो| भारत में किसी भी विधि के लिए कोई भी समुचित सुविधा या व्यवस्था या तंत्र के प्रावधान की व्यवस्था किए बिना ‘विधि’ को लागू करने पर जोर दिया जाता है, और उसका ही परिणाम होता है - नौकरशाही में व्यापक भ्रष्टाचार| अब प्रश्न यह है कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानकों  से ऐसे विचलित आचरण को कैसे रोका जाए?

स्पष्ट है कि इस भ्रष्ट आचरण में, यानि भ्रष्टाचार की परिधि में सामान्य जनता, सामान्य मतदाता, सामान्य सरकारी एवं गैर-सरकारी कर्मचारी एवं अधिकारी, राजनेता और मंत्री गण, सभी  शामिल हो जाते हैं। जब इसमें सामान्य जनता और मतदाता भी शामिल हैं, तो स्पष्ट है कि किसी भी देश की सम्पूर्ण आबादी ही अपवाद सहित या रहित इस भ्रष्टाचार में शामिल हो जाता है, यानि भ्रष्टाचारी हो जाता है। शायद इसीलिए भारत में यह उक्ति प्रचलित है कि जिन्हें भ्रष्ट आचरण करने का मौका नहीं मिलता है, वह अपने को तथाकथित ईमानदार समझ सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब भ्रष्टाचार किसी देश का, या किसी राष्ट्र का, या किसी संस्कृति का, या किसी समाज का सामान्य चरित्र बन जाता है, तो इस प्रकृति के भ्रष्टाचार की भयावहता के परिणाम व्यापक और विस्तृत होता है|

जब भ्रष्टाचार किसी देश का, या किसी राष्ट्र का, या किसी संस्कृति का, या किसी समाज का सामान्य चरित्र बन जाता है, तो ऐसे नागरिकों के प्रति अन्य विकसित एवं समृद्ध नागरिकों का नजरिया और दृष्टिकोण बदलने लगता है, यानि उनके प्रति नकारात्मक होने लगता है। तब उस देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज के बारे लोगों की यह धारणा मजबूत होने लगती है कि ऐसे भ्रष्टाचारी देशों, राष्ट्रों, संस्कृतियों और समाजों की न्यायिक चरित्र विश्वनीय नहीं रह जाता है। परिणाम यह होता है कि ऐसे भ्रष्टाचारी संस्कृति वाला देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज को किसी भी लम्बी एवं विशाल योजनाओं के लिए और वहाँ निवेश के लिए उपयुक्त एवं विश्वसनीय नहीं माना जाता हैं| ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज ‘पूंजी’ के निवेश के लिए खतरनाक हो जाता है, या ऐसा माना जाता है। विदेशी तो विदेशी, ऐसा ही विश्वास वहां के भी स्थानीय सक्षम, योग्य और समृद्ध लोग भी करने लगते हैं, और अपने अगले निवेश के लिए विदेश को ही उपयुक्त समझने लगते हैं| इसीलिए बेहतर विकल्प मिलने पर ऐसे स्थानीय सक्षम, योग्य और समृद्ध लोग उस देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज को भी त्यागने लगते हैं।  हाल के वर्षों में किसी देश की नागरिकता त्यागने और दूसरे देशों की नागरिकता अपनाने की संख्या में वृद्धि होती जाने की प्रक्रिया या घटना को इसी दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है। ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज में वही लोग उसी देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज में रहने को विवश समझते और मानते हैं, जिन्हें विकल्प तलाशने का समझ और सामर्थ्य नहीं होता है।

किसी भी भ्रष्टाचारी में न्यायिक चरित्र का अभाव रहता है| इसीलिए जब भ्रष्टाचार किसी देश का, या किसी राष्ट्र का, या किसी संस्कृति का, या किसी समाज का सामान्य चरित्र बन जाता है, तो स्पष्ट है कि न्यायिक चरित्र के अभाव में उस देश, राष्ट्र, संस्कृति एवं समाज में बड़े निवेश से बचना चाहता है। इतिहास गवाह है कि “सामुद्रिक परिवहन क्रांति” में और “उपनिवेशवाद” में अग्रणी रहने के बावजूद भी, यानि इसकी शुरुआत करने वाले स्पेन और पुर्तगाल इसी न्यायिक चरित्र के अभाव में पिछड़ता चला गया| इस नकारात्मक राष्ट्रीय चरित्र का परिणाम यह हुआ कि “सामुद्रिक परिवहन क्रांति” में और “उपनिवेशवाद” में अग्रणी रहने के बावजूद भी इसे बनाए रखने और इसे विस्तार के लिए आवश्यक आवश्यक धन एवं पूंजी के लिए तत्कालीन वैश्विक पूंजी बाजार को ही विमुख कर दिया| इस तरह अन्य नवोदित यथा इंग्लिश, डच, डेनिश, फ्रेंच उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी देशों का उदय एवं विकास अपने मजबूत राष्ट्रीय चरित्र के कारण हो गया। स्पेन और पुर्तगाल के ऐसे ही भ्रष्टाचार के राष्ट्रीय चरित्र की पहचान के कारण ही उसकी यह स्थिति बन गई। स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार का प्रत्यक्ष संबंध न्यायिक चरित्र से है, और निवेश से भी है। आप भी अपने आसपास यह देख सकते हैं कि बड़े और महत्वपूर्ण वैश्विक निवेशक भी ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज में बड़े और महत्वपूर्ण निवेश से बचते रहते हैं। ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज में यदि कोई महत्वपूर्ण निवेश होता भी है, तो वह विकल्पहीनता की स्थिति में होता है। यह स्थिति उस आरोपित राष्ट्र या समाज या संस्कृति के लिए बड़ी ही  दुर्भाग्यपूर्ण होता है| यदि ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज को सोचने समझने का थोड़ा भी सामर्थ्य है, तो वह सब कुछ समझ सकता है।

जब ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज में भ्रष्टाचार उसकी सामान्यीकृत स्वरुप धारण कर लेता है, तो यह कहा जाना अनुचित नहीं होगा कि इससे “आचरण में दोहरापन” आ जाता है। इसे ठेठ देशी भाषा में “दोगलापन” भी कहा जाता है और अंग्रेजी में “दोहरा चरित्र” (“Double Character) कहते हैं। ‘आचरण में दोहरापन’ से आशय यह है कि आप या हम जो बोलते हैं, आश्वासन देते हैं, लेकिन व्यवहार उनके अनुरूप नहीं होता है, या विपरीत भी होता है। यह “दोहरापन की समस्या” भारत की राष्ट्रीय समस्या भी है। इसे अखंडता या सत्यनिष्ठा (Integrity) की समस्या भी कहते हैं। इसी चरित्र के कारण जो मतदाता चार वर्ष ग्यारह महीने और पच्चीस दिन  (भारत में लोकतांत्रिक निर्वाचन सामान्यतः पांच वर्ष का होता है) आलोचना करता रहता है, चुनाव में अपने जातीय, धार्मिक या अन्य चश्मे से देखकर अपना मत उस निर्णय के विपरीत देता है, जैसा वह सामान्यत: कहता रहता है। यह सामान्य जनता यानि सामान्य मतदाता का ‘दोहरा चरित्र’ हुआ, या यह उनका भ्रष्ट आचरण हुआ। कहने का तात्पर्य यह हुआ कि यह दुहरापन जनता, नेता, अधिकारी, कर्मचारी सभी का प्राकृतिक स्वभाव बन जाता है, अर्थात यह सब ‘स्वचालित’ हो जाता है और उसमे उसमे कोई भी असहजता नहीं होती है|

इसीलिए ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज भ्रष्टाचार के लिए निवारण के लिए, यानि इसके समाधान के लिए सम्बन्धी प्राधिकार पर्याप्त नाटक करता रहता है| ऐसे ही नाटक को कुछ राजनेता या कार्यपालिका- प्रधान “जीरो टोलरेंस” या ऐसा ही भयानक अर्थ वाला नाम देता है| ऐसे आकर्षक नाम से सामान्य जनता उसे न्यायिक चरित्र का बड़ा प्रतिमान या न्याय का मूर्ति समझ लेता है| ऐसे ही कुछ राजनेता “जनता दरबार” या “खुला दरबार” का नाटक करता रहता है, जिसका कोई व्यावहारिक परिणाम नहीं निकलता है, लेकिन ऐसे राजनेता मीडिया को नियंत्रित एवं प्रभावित कर जनता में अपना ‘इम्प्रेशन’ बनाता रहता है| ‘अनपढ़’ एवं “आलोचनात्मक चिंतन की क्षमता -शून्य डिग्रीधारी” व्यक्ति तो ऐसे नाटकों से प्रभावित हो सकते हैं, लेकिन “आलोचनात्मक चिंतन की क्षमता” वाले व्यक्तियों एवं समाजों को सब कुछ समझा रहता है| कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे नाटकों को समझदार आदमी सब कुछ समझता है और उसी के अनुरूप अपना भावी कार्यक्रम बनता है| इसीलिए ऐसे देशों एवं राष्ट्रों से पलायन बढ़ता जा रहा है| ऐसे देशों एवं राष्ट्रों का महत्व उनकी उपभोग –क्षमता (खाने और पचाने की क्षमता) से ही होती है, और उसमे उनकी बुद्धिमता की कोई भूमिका नहीं होती है; यद्यपि उनको खुश रखने के लिए यह दिखाया जाता है कि उनका यह महत्व उनकी बुद्धिमता के कारण है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं होता है|

अधिकतर देशों में इस भ्रष्टाचार के निवारण के लिए पर्याप्त नियम /अधिनियम बना दिए जाते हैं, लेकिन उसके पर्यवेक्षण के लिए उन्ही आरोपियों को अधिकृत कर दिया जाता है| सामान्यत: ऐसा कोई भी नियामक प्राधिकार नहीं होता है, जिसमे न्यायिक चरित्र हो| भारत में तो ऐसे अधिकांश नियामक प्राधिकार है, जो नौकरशाही के ही पूर्व सदस्य होते हैं, और इसीलिए उनकी स्वाभाविक झुकाव नौकरशाही के ही प्रति होती है| मैंने बहुतों मामलों में यह अनुभव किया है कि उन न्यायिक प्राधिकारों मे प्राकृतिक न्याय की समझ ही नहीं होती है| यदि आप कोई शिकायत दर्ज करते हैं, तो उस सरकारी प्रतिवादी पक्ष से उत्तर मंगा कर उस वाद को ही समाप्त कर दिया जाता है, जबकि उस सरकारी प्रतिवादी पक्ष यानि प्राधिकार के दिए गये उत्तर के संबध में वादी से भी उसका पक्ष जानना चाहिए| ऐसा करना स्पष्टतया न्यायिक चरित्र का अभाव के कारण है, और वे प्राधिकार सिर्फ सारी सुविधाएं भोग रहे हैं| बहुत से मामलों में भ्रष्टाचार के राष्ट्रीय चरित्र के हो जाने के कारण न्यायिक प्राधिकार की भी रूचि अपने लाभ से संचालित होने लगता है, यानि न्यायिक प्राधिकार ही भ्रष्टाचारी हो जाते हैं|

प्रिंट एवं डिजीटल मीडिया पर प्रभावी एवं सख्त नियंत्रण भी भ्रष्टाचार की व्यापकता एवं भयावहता को छिपाने में किया जाता है| इस भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए तो इस भ्रष्टाचार की परिभाषा ही बदल दिया जाता है| कुछ देशों में तो भ्रष्टाचार पर आवाज उठाने वाले को ही भ्रष्टाचारी और अनैतिक साबित कर शासन प्रशासन प्रताड़ित करता रहता है| कुछ देशों में तो भ्रष्टाचारी को ही सम्मानित कर, या विशिष्ट पद से देकर विराटकाय बना दिया जाता है, जिससे सामान्य जनता की औकात ही नहीं होती, या हिम्मत ही नहीं होती कि वह भ्रष्टाचारी पर कोई प्रश्न कर सके| नौकरशाही एक स्थायी व्यवस्था होता है, और सामान्यत: स्थायी प्रकृति वाले सेवक से “अस्थायी” सेवक भी डरते हैं, अर्थात राजनेता ही अपने को ‘अस्थायी’ समझ कर “स्थायी वरिष्ठ नौकरशाहों” से डरे रहते हैं, और इनमे उनकी ‘सामाजिक पूंजी’ महत्वपूर्ण होती है| कुछ अविकसित एवं तथाकथित विकासशील देशों में भ्रष्टाचारी और न्यायिक प्राधिकार में “सामाजिक पूंजी” के आधार पर, या “सांस्कृतिक समानता” के आधार पर ‘गठजोड़’ बना रहता है, जो उनके न्यायिक प्रवृति को विकृत कर देता है| “सामाजिक पूंजी”  या “सांस्कृतिक समानता” के मूलभूत आधार को भारत में ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘भाषा’ एवं ‘धर्म’के आधार पर भी समझा जा सकता है|

अभी तक तो हमने भ्रष्टाचार के समाधान के प्रमुख कारकों की ओर अंगुली से इशारा मात्र किया है, क्योंकि उपर्युक्त सभी पक्ष सिर्फ ‘सतही’ स्पर्श मात्र है| यह भ्रष्टाचार स्पष्टतया न्याय, स्वतंत्रता, समता व् समानता, एवं बंधुत्व विरोधी होता है, यानि यह स्पष्टतया मानवता विरोधी होगा| इसलिए इस भ्रष्टाचार को अवश्य ही समाप्त किया जाना चाहिए, यदि आप इस देश को और राष्ट्र को बहुत आगे और शिखर पर ले जाना चाहता है| स्पष्ट कहा जाय तो किसी भी ‘राष्ट्रीय चरित्र’ के समाधान में ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ (National Culture) की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है| भारत की राष्ट्रीय संस्कृति का मूलभूत तत्व में प्रमुख ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’, ‘भाषा’ आदि है| यही सब तत्व भारत में “सांस्कृतिक जड़ता” (Cultural Inertia) का निर्माण करता है, जो इन ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’, ‘भाषा’ से लाभान्वित व्यक्तियों एवं समाजों को उनके “सांस्कृतिक जड़ता” में ‘जड़’ (Fix) कर देता है| भारत में यही ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’, ‘भाषा’ समाज में “सामाजिक पूंजी” (Social Capital) का निर्माण करता है|

भारतीय इतिहास को जला कर, नष्ट कर भारत के प्राचीन इतिहास को ही बदल गिया दिया गया है| इस ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’ को सही एवं समुचित ढंग से समझने के लिए इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या करनी होगी, जो ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’ के इतिहास के नष्ट कर दिए कड़ी (Chain) को ही खोल देता है और सब कुछ स्पष्ट कर देता है| बाजार की आर्थिक शक्तियों, यानि उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों के आधार पर सब कुछ स्पष्ट हो जाता है| ऐसी व्याख्या से ही भ्रष्टाचार के बनावटी यानि कृत्रिम एवं मनगढ़ंत मिथकीय आधार को नष्ट किया जा सकता है, समाप्त किया जा सकता है, जो आज इतिहास के रूप में मान्य एवं प्रचलित होकर भ्रस्ग्ताचार को मजबूती दे रहा है| कोई भी दूसरा विकल्प भारत को ठगने का एक कुत्सित प्रयास है| और इसीलिए यह प्राचीन काल की ‘सोने की चिड़िया’ की यह दुर्दशा व्याप्त है|

आप इन सब पर थोडा ठहर कर गंभीरता से सोचिएगा|  

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक 

बुधवार, 1 मई 2024

चुनाव कौन जीतता है?

अहम् सवाल है चुनाव कौन जीतता है, या चुनाव कैसे जीता जाता है? जीतता तो कोई एक ही है, यानि उन लोगों का प्रतिनिधित्व कोई एक ही करता है| तो वह कौन व्यक्ति है, जिससे जनता या मतदाता प्रभावित होता है, यानि उनकी बातों में ही वह बह जाता है, उड़ जाता है, चला जाता है? यही सब वैज्ञानिक ढंग से, यानि व्यवस्थित एवं संगठित रूप में समझने जानने के लिए ही यह आलेख है|  

चुनाव का अर्थ ही होता है कि कई उपलब्ध विकल्प में से किसी एक या कई का चयन करने की प्रक्रिया| अधिकतर चुनाव में सिर्फ एक ही पद के लिए, यानि एक ही व्यक्ति का चुनाव किया जाता है, लेकिन कभी कभी वरीयता निर्धारण के मत (Vote) के द्वारा एक से अधिक व्यक्तियों का भी चयन एक साथ किया जा सकता है|अब तो चुनाव लोकतंत्र (Democracy) और गणतंत्र (Republic), दोनों तंत्र की ही आधारशिला हैं| इस तरह लोकतंत्र एवं गणतंत्र, दोनों ही लोगों के द्वारा चुनाव प्रक्रिया पर निर्भर करता है| जैसा कि आप जानते ही हैं कि लोकतंत्र में वास्तविक ‘शासन प्रमुख’ (Head of the Government) का चयन लोगों के द्वारा होता है, और गणतंत्र में “राज्य प्रमुख” ((Head of the State/ Country/ Nation) का चयन  लोगों के द्वारा होता है|

तो चुनाव प्रत्यक्षत: हो या अप्रत्यक्षत: हो, #"चुनाव_जीतने_की_क्रियाविधि" (#Mechanism_of_Winning_Elections) एक ही होगा| यानि #"चुनाव_जीतने_का_मनोविज्ञान (#Psychology_of_Winning_Elections) की प्रक्रिया या क्रियाविधि एक जैसी ही होगी| ऐसा इसलिए होता है कि क्योंकि चुनाव भी व्यक्ति का होता है, और चुनाव करने वाले भी व्यक्तियों का समूह ही होता है, यानि चुनाव की प्रक्रिया में सारा खेल ही व्यक्तियों या इनके समूह की समझ के द्वारा ही होता है| इसीलिए चुनाव में शामिल एक व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह भी मनोविज्ञान के कारणों एवं प्रक्रियाओं से ही प्रभावित, संचालित, नियमित, एवं नियंत्रित होता है| चूँकि मनोविज्ञान मानव की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों की क्रियाविधि एवं प्रतिक्रिया को समझाता है, इसीलिए जो मतदाताओं के इस मनोविज्ञान को समझता है और उसका समझदारी के साथ व्यवस्थित एवं संगठित उपयोग करता है, वही चुनाव को भी प्रभावित, संचालित, नियमित, एवं नियंत्रित भी करता है, या कर सकता है|

आपने भी सुना होगा, कि दिमाग हमेशा दिल से हार जाता है| दिमाग (Brain) कहने का तात्पर्य उसकी तर्कशीलता यानि बुद्धि के प्रयोग एवं उपयोग से होता है, और दिल कहने का तात्पर्य उसका मन (Mind) हुआ, जो उसकी भावनाओं का प्रयोग एवं उपयोग करता है| कहने का अर्थ यह हुआ कि मानव की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को संचालित, नियमित, प्रभावित एवं नियंत्रित करने में तर्कशीलता यानि बुद्धि से ज्यादा प्रभावी एवं उपयोगी उसका मन होता है| यानि जो मन पर राज करेगा, यानि व्यक्ति के मन पर छाया रहेगा, वही व्यक्तियों के भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को नियंत्रित करेगा| शिक्षा के अभाव में या इसकी गुणवत्ता के निम्न स्तर के लोगों में भावना और बुद्धि में अन्तर समझ में नहीं आता है, दिमाग और मन में अन्तर समझ में नहीं आता है, और इसीलिए कोई भी चतुर चालाक व्यक्ति अज्ञानता के धुंध (Mist) में उन व्यक्तियों को यानि मतदाताओं को मनचाहा चित्र दिखा सकता है, मनचाहा अर्थ समझा सकता है| ऐसी स्थिति में लोगों को, यानि मतदाताओं को भावनाओं में बहा ले जाना, या उडा ले जाना बहुत ही आसान हो जाता है| ऐसा ही नेता यानि नेतृत्व प्रभावशाली होता है, चमत्कारी होता है, जो मतदाताओं या जनता पर जादू फैला देता है| 

सामान्य लोग या तथाकथित बुद्धिजीवी लोग वैसे लोगों को #“अंधभक्त” की भी उपमा या उपाधि से संबोधित करते हैं, जो अपने नेतृत्व या नेताओं या नेता को चमत्कारी और करिश्माई मानकर उनकी भक्ति करते हैं|ऐसे अंधभक्तो को भावनाओं और बुद्धि यानि तर्कशीलता में कोई फर्क नजर नहीं आता, या समझ में नहीं आता। वे मन की क्रियाविधि और दिमाग की क्रियाविधि में अन्तर नहीं कर पाते हैं। वे मन और मस्तिष्क, दोनों को एक ही समझते या मानते हैं। ऐसा नहीं है कि अंधभक्तो की कोई एक ही श्रेणी होती है, बल्कि उन अंधभक्तो के विरोध में भी अंधभक्ति होती है, जो विरोध करने के लिए ही विरोध करते दिखते है। इस तरह दोनों प्रकार के, यानि समर्थन और विरोध करने वाले अंधभक्तो को अपने नेतृत्व में दैवीय गुण दिखते है, या दैवीय अवतार भी मानते हैं, या मान सकते हैं। 

मानव का  दिमाग उसके मस्तिष्क (Brain) को कहते हैं और दिल उसके मन (Mind) को कहते हैं| जैसा की आप भी जानते हैं कि किसी व्यक्ति का दिमाग यानि मस्तिष्क उसके मन के लिए मोड्यूलेटर (Modulator) का काम करता है, जो मन की तरंगों को शरीर को समझाने योग्य अनुदेशों (Instructions) में बदल देता है, ताकि शरीर उस पर कार्य या प्रतिक्रिया कर सके| आप मन (Mind) और मस्तिष्क (Brain) के संबंधों को बेहतर ढंग से समझने के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित भौतिकी विज्ञानी सर रोजर पेनरोज को भी पढ़ सकते हैं|

लेकिन भावनाएँ भी भूखे पेट पर काम नहीं करता है| आपने भी सुना होगा कि एक समझदार व्यक्ति जब भूखा रह कर कोई शानदार चुटकुला भी सुनता है, तो उसकी हँसी नहीं निकलती है| लेकिन जब वही व्यक्ति अपने भरे हुए पेट के बाद उसी चुटकुला को सुनता है, तो उसकी हँसी रूकती ही नहीं है| कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी भूखे को जब उसके पेट भर, यानि पांच किलों अनाज जब सुनिश्चित हो जाता है, तो उस व्यक्ति को भावनाओं में उड़ाया जा सकता है, बहाया जा सकता है| जब किसी की भौतिक आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती है, तब ही उसके भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को साधारण ढंग से और बहुत आसानी से संचालित, नियमित, प्रभावित एवं नियंत्रित किया जा सकता है| जनता यानि मतदाताओं को प्रभावित एवं नियंत्रित करने के लिए उनके बीच प्रचार करना पड़ता है, जिसे ही प्रोपेगेंडा (Propaganda) भी कहा जाता है| तो कैसा प्रोपेगेंडा यानि प्रचार प्रभावशाली होता है, प्रभावकारी होता है?

उपरोक्त सभी बातों को अच्छी तरह से समझाने के लिए एक व्यवस्थित एवं संगठित प्रयास किया गया है, जिसका अवलोकन किया जाना जरुरी हो जाता है| 1937 में संयुक्त राज्य अमेरिका में लोगों की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को संचालित, नियमित, प्रभावित एवं नियंत्रित करने के विज्ञान को ही समझने के लिए “Institute of Praopaganda Analysis” की स्थापना की गई थी| इसमें कोई सात तकनीकों का उपयोग किया गया, जिसे भारतीय सन्दर्भ में समझना और जानना जरुरी हो जाता है| तब ही आप जान और समझ सकते हैं कि कौन चुनाव जीतता है, जीत सकता है| यही “चुनाव जीतने का विज्ञान” (Science of Winning Elections) है| इस संस्थान का अध्ययन “The Fine Art of Propaganda” में 1939 में प्रकाशित हुआ था, जिसे अल्फ्रेड एवं एलिजाबेथ ने सम्पादित किया था|

इन सात तकनीकों का नाम 1. Name Calling, 2. Glittering Generalities, 3. Transfer, 4. Testomonial, 5 Plain – Folk, 6. Card – Stacking, 7. Band Wagan दिया गया था, जो आज भी समुचित और उपयुक्त है| अब इन सभी को हमलोग भारतीय सन्दर्भ में उदाहरण के साथ समझते हैं|

1.                 Name Calling: इस तकनीक में अपने विरोधियों को यानि विरोधी व्यक्तियों या समूहों को उन नामों से पुकारा या संबोधित किया जाता है, जिससे उनका उपहास होता है, उनका मजाक बनाया जाता है, उनका अपमान किया जाता है| इन नामों में विरोधियों को “पप्पू” या “गप्पू” कहा जा सकता है| भारत में “पप्पू” अबोध यानि नादान बच्चा को कहा जाता है, और “गप्पू” उस व्यक्ति को कहा जाता है, जो सिर्फ गप्पें ही हांकता रहता है एवं कोई भी सार्थक कार्य नहीं करता है| इसी तरह अपने विरोधियों को देश या बहुसंख्यक समाज या गौरवशाली माने जाने वाली संस्कृति के तथाकथित दुश्मन, बताना, ऐसे लोगों को अपने देश या समाज या संस्कृति के दुश्मन देशों के मित्र या शुभचिंतक बताया जाता है, या पुकारा जाता है| इसमें अपने विरोधियों को किसी पड़ोसी देश, या कुख्यात देश, या अल्पसंख्यक समाज, या किसी अप्रभावशाली माने जाने वाली संस्कृति के शुभचिंतक या दोस्त बताया जाता है|

2.  Glittering Generalities: इसमें उच्च मूल्यों यानि उच्च स्तरीय विश्वासों से ओतप्रोत भावनाओं को आकर्षित करने वाली या अपील करने वाले मुहावरों का प्रयोग या उपयोग किया जाता है| जैसे राष्ट्र, या समाज, या संस्कृति के लिए प्रेम दिखाता हुआ कोई बात, जो राष्ट्रीयता को, संस्कृति के और अतीत से चली आ रही निरन्तरता के गौरव को. या बहुसंख्यक के हितों की तथाकथित उपेक्षा के विरोध की बातें होती है| इसमें स्वतंत्रता, समता, समानता, बंधुत्व, न्याय, आरक्षण, समाजवाद, साम्यवाद, लोकतान्त्रिक, सबको रोजगार, सबको समृद्धि, सबको घर, आदि मूल्यों के आकर्षक एवं लुभावने नारों या मुहावरों का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है| ‘गरीबी हटाओं’ भी एक ऐसा ही नारा है  या था|

3. Transfer: इस तकनीक में किसी चित्र का यानि किसी ऐसे फोटो का उपयोग किया जाता है, जिसमे उस चित्र या फोटो से जनता या मतदाता अपने पूर्व के विचार या दृष्टिकोण या पृष्ठभूमि से, यानि उस भावना के अनुसार उस चित्र या फोटो का मिलान उस गौरवशाली परम्परा या संस्कृति से करता है, जिससे वह व्यक्ति या समूह उस परम्परा या संस्कृति का समर्थक या संरक्षक समझा जाय| जैसे पौराणिक या सांस्कृतिक स्थलों पर उसी गरिमामयी वेशभूषा एवं भावभंगिमा के साथ का फोटो| या किसी वैज्ञानिक केन्द्रों में, या किसी विद्यालयों में, या किसी सैनिक के दुर्गम एवं कठिन परिस्थितियों की फोटो को साझा करना| झाड़ू लगाना, खेत से फसल काटना या बोना, कहीं सफाई करना या किसी के साथ खाना खाना इत्यादि भी इन्हीं के उदहारण हैं|

4. Testomonial: इस तकनीक में किसी भी सम्मानित देशी या विदेशी व्यक्ति या संस्थान के द्वारा इनकी बातों, या तथ्यों, या निर्णयों, या नीतियों की प्रशंसा करवा दिया जाता है| जैसे हार्वर्ड विश्विद्यालय या नासा ने भी इसे माना, या सहमति जताई, भले ही ऐसी सहमति ‘कृत्रिम बुद्धिमता’ (AI) का उपयोग कर या ऐसे ही दुरूपयोग कर प्रसारित या प्रचारित किया जा सकता है| जब ऐसे दुरूपयोग पर प्रभावशाली नियंत्रण की व्यवस्था शासन में नहीं होती है, तो ऐसे उदाहरण भी बहुतायत में हो जाते हैं| भारत में तो किसी भी यूरोपीय व्यक्ति और किसी भी विदेशी भाषा में कही गयी बात को “एक सन्दर्भ” के रूप लिया जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि भारतीय उन्हें उत्कृष्ट एवं श्रेष्ट स्तर का संदर्भ या तथ्य मानते समझते रहे हैं| इस तकनीक में वीडियों या आडियो का जालसाजी एडिटिंग कर मनचाहा प्रभाव उत्पन्न किया जाता है, जैसा कि आजकल सोशल मीडिया में बहुत हो रहे हैं, जो गैर क़ानूनी होते हुए भी जनता को प्रभावित कर रहे हैं|  

5 Plain – Folk: इस तकनीक में Logical Fallacy का उपयोग किया जाता है, जिससे सामान्य एवं साधारण जनता समरूपता खोज लेता है या देखता है| जैसे महात्मा गाँधी का अधनंगा रहना, यानि कमर के ऊपर नंगा रहना उनका एक फ़क़ीर की वेशभूषा होती है और यह वेशभूषा भारत की अधनंगी जनता को समरूपता दिखाते हुए अपना हितैषी बना देता है| ‘मेरा क्या है, मैं तो एक फ़क़ीर हूँ’ जैसी बात जनता को यह भरोसा दिखाती है या दिलाती है कि मेरा अपना कुछ भी नहीं है, या मेरा कोई भी अपना नहीं है और मेरा सब कुछ आप जनता के लिए ही है, यानि मेरा सब कुछ साधारण सामान्य जनता के लिए ही न्योछावर है और मेरा कोई अपना सगा सम्बन्धी नहीं है| इसी कड़ी में इनका स्थानीय भाषा बोलना, स्थानीय वेशभूषा पहन कर स्थानीय परम्परा एवं संस्कृति का सम्मान करना या अपनापन दिखाना, या सामान्य लोगों के साधारण गतिविधियों में शामिल होना भी प्रमुख हैं|

6. Card – Stacking: इस तकनीक को Cherry Picking भी कहते हैं| यह तकनीक साक्ष्यों को दबाने या छुपाने में उपयोग किया जाता है| इसमें आंकड़ों एवं तथ्यों यानि साक्ष्यों को इस तरह प्रस्तुत किया जाता है, जिससे विरोधात्मक सम्पूर्ण साक्ष्य, तथ्य एवं आकंडे को छोड़कर मात्र वैसे हिस्से या अंश को ही प्रस्तुत किया जाता है, जो उनक अनुसार उनके लिए सकारात्मक अर्थ उत्पन्न करता है| इसीलिए इस विधि को Cherry Picking भी कहा जाता है, क्योंकि मनचाहे हिस्से को ही Pick किया जाता है| जैसे वैश्विक भुखमरी के इंडेक्स में अपने देश के स्थान को छोड़कर देश के परंपरागत दुश्मन माने जाने वाले पड़ोसी देश को ही इंडेक्स में दिखया जायगा कि उनकी स्थिति कितनी दयनीय है| इसमें किसी ग्राफ का वह हिस्सा दिखाया जा सकता है, जिसमे वृद्धि दर तुलनात्मक रूप में ज्यादा होता है| चूँकि ‘वृद्धि दर’ (Rate) के लिए आधार (Base) ही यदि कमतर होता है, तो वृद्धि दर ज्यादा दिखता है, जैसे विकसित देशों की अपेक्षा पिछड़े हुए देशों की वृद्धि दर ज्यादा ही दिखती है|

7. Band Wagan: इस तकनीक में लोगों के कुछ वैसे निश्चित व्यवहार, स्टाइल, अभिवृति एवं प्रवृति को अपनाने की होती है, जिसमे बहुत से लोग इसे करते होते हैं| इस तकनीक में कोई खास झन्डा घर, बाहर एवं रास्तों पर फहराना, कोई ख़ास तरह का ड्रेस पहनना, कोई ख़ास नारा बोलना या किसी खास नारा के शब्दावली से संबोधन करना इत्यादि जिसका सामान्य लोग अनुकरण करते हैं| जब आप अपने आसपास के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिदृश्य देखते हैं, तो इनका सम्मिश्रण के साथ उपयोग, प्रयोग एवं दुरूपयोग होते हुए आसानी से पहचान सकते हैं|

अब आपको अपने आसपास या अपने क्षेत्र/ प्रान्त में या अपने देश में देखना समझना है कि कौन से संगठन या राजनीतिक दल इन तकनीकों का व्यवस्थित एवं संगठित ढंग से समझ रहा है और उसका सजगता एवं समर्पण के साथ  उपयोग करता है, करता आ रहा है, या कर रहा है; वही संगठन या राजनीतिक दल चुनाव को जीतता है, या जीतेगा| 

आप इस भ्रम में मत रहिए कि जो तथ्यों एवं तर्कों के मुद्दों के साथ चुनाव के मैदान में उतरता है, वही चुनाव जीतता है या जीतेगा| भारत के अधिकतर तथाकथित ऐसे बौद्धिक विद्वान् हैं (जो ऐसा बनते हैं या दिखने की कोशिश करते हैं), जो जिस राजनीतिक दल को चार साल ग्यारह महीने और पच्चीस दिन विरोध करेंगे, आलोचना करेंगे, लेकिन जब वोट देना होगा तो अपनी जाति और धर्म के चश्मे से ही उम्मीदवार को देख समझ कर अपना वोट यानि निर्णय उसी के पक्ष में देंगे| यही जनता का दोहरा चरित्र होता हैं, और यही चरित्र में दोहरापन की समस्या भारतीय राष्ट्रीय समस्या हो गयी है, जो अब देश का सामान्य चरित्र बन चूका है|

इस आलेख का उपयोग सामाजिक सांस्कृतिक नेतृत्व पाने में भी किया जा सकता है, यानि इसे उस दृष्टिकोण से भी समझा जा सकता है, यानि समझा भी जाना चाहिए। 

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक 

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