भारतीय संस्कृति ही हमारी महान विरासत है। हम समस्त भारतीयों को भारत के उत्थान और पुनरोद्धार के लिए भारतीय सांस्कृतिक पुनरोद्धार करना होगा, और यह सब पुरोहितों और संस्कारको के माध्यम से ही होगा। संस्कृति ही समाज को संचालित करने वाला साफ्टवेयर है। यदि हमलोग
भारतीय संस्कृति को जानना समझना चाहते हैं, यदि हमलोग भारतीय संस्कृति की विशालता,
भव्यता, सनातनता यानि निरंतरता, और गौरवमयी उत्कृष्टता को मानने पर गर्व करना
चाहते हैं, यदि हमलोग उस भारतीय संस्कृति को फिर से पुनर्स्थापित करना चाहते हैं
जिसके कारण प्राचीन काल में भारत विश्व
गुरु बन गया था; तो हमें उसके लिए महान भारतीय संस्कृति के निर्माण करने वाले
कारकों – ‘पुरोहितों’ और ‘संस्कर्कों’ को अच्छी तरह से जानना समझना चाहिए| आज
हमलोग एक बार फिर से पुरोहित और संस्कारक को समझते है, उनकी भूमिका
को व्यक्ति, समाज, संस्कृति, राष्ट्र, देश, और मानवता के
संदर्भ में समझते हैं,
और आज के संदर्भ में इन दोनों के प्रशिक्षण एवं शोध मिशन की अनिवार्यता का
विवेचन करते हैं। अर्थात आज हमलोग ‘पुरिहिती’ और ‘संस्कारक’ का संरचनात्मक अर्थ
यानि आशय समझते हैं, फिर आगे बढ़ते हैं|
भारत में आज
प्रचलित ‘पुरोहिताई’ एवं ‘संस्कार’ बहुत ही संकुचित हो गया है, और इसीलिए यह बहुत
ही उपेक्षित भी हो गया है| इन कार्य क्षेत्रों में लगे हुए अधिकतर लोगों की यह
स्थिति है कि वे लोग अपनी शानदार आजीविका के नहीं मिलने पर ही इस क्षेत्र में
पदार्पण करते हैं, या कर रहे हैं| कहने का तात्पर्य यह है कि इस कार्य क्षेत्रों
में लगे हुए लगभग सभी लोगों की प्राथमिकता में यह क्षेत्र नहीं रहा है| इसी कारण
इस क्षेत्र में अशिक्षित, या अल्प- शिक्षित, संस्कारविहीन, कामी, लोभी और अज्ञानी
लोगों की भीड़ बढती जा रही है| इसमें ऐसे लोगों की बहुलता हो गई है, जिनको भारतीय
महान संस्कृति के तत्व, दर्शन और आधार की कोई समझ या जानकारी ही नहीं है| यही
स्थिति भारतीय शानदार संस्कृति का सबसे दुखदायी पक्ष है और स्थिति है| और हमलोगों
को इस पक्ष एवं स्थिति पर गंभीरता से तत्काल विमर्श करना चाहिए, या कहें कि इस की
गई शुरुआती विमर्श में सक्रिय सहभागी बनना चाहिए| इसके लिए यानि इसकी पुनर्स्थापना
के लिए भारत के सभी वर्गों, सभी समाजों, सभी पंथों एवं धर्मों, सभी क्षेत्रों एवं
सभी संस्कृतियों के लोगों की सक्रिय भागीदारी की अनिवार्यता है|
मैं भारतीय
संस्कृति की बात कर रहा हूँ, जिसे मध्य काल में ‘हिन्द’ की संस्कृति भी कहा गया|
यह ‘हिन्द’ या ‘हिन्दू’ शब्द एक भौगोलिक भावार्थ का बहुत ही व्यापक एवं विस्तृत
अवधारणा है| इस तरह ‘हिन्द या हिंदवी’ संस्कृति और भारत की संस्कृति कई अर्थों में
एक ही है| चूँकि यह शब्द इधर एक शताब्दी से धार्मिक स्वरुप भी ले लिया है, इसीलिए
विवादस्पद मानते हुए इसे फिलहाल आगे के विमर्श के लिए स्थगित कर देना चाहिए| कहने
का तात्पर्य यह है कि यह भारतीय संस्कृति ही हमारी संस्कृति है, और इसीलिए हमारी
गौरवशाली विरासत भी है| संस्कृति एक व्यापक और गहन भावार्थ का अवधारणा है, जिस पर अल्प
जानकार लोग बड़ी बड़ी भावनात्मक व्याख्या देते रहते हैं, हालाँकि उनको संस्कृति के
बनावट, निर्माण एवं विकास की प्रक्रियायों की अच्छी समझ नहीं होती है| यदि हम भारत
के सभी संस्कृतियों को ध्यान में रख कर यह पुरोहित एवं संस्कारक का प्रशिक्षण एवं
शोध मिशन को आगे बढ़ाते हैं, तो जल्दी ही भारत विश्व के सभी धर्मों –पंथों के
संस्कृतियों के लिए पुरोहित एवं संस्कारक ही तैयार नहीं करेगा, अपितु यह यह संसार
के विविध समस्यायों एवं पहलुओं को कई पक्षों, संदर्भो एवं नजरियों से देखने समझने
और उसके समाधान प्रस्तुत करने में भी सहयोग एवं पथ प्रदर्शन करेगा| यह वास्तव में
मानवता और प्रकृति की अपूर्व सेवा होगा| इस तरह भारत एक बार फिर से वैश्विक गुरु
की भूमिका में आ जायगा| आज वैश्विक संगठन “संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम” (UNDP)
के सोलह “धारणीय” (Sustainable) लक्ष्यों में भी यह मिशन कई लक्ष्यों में भी सहयोग
करता दिखता है, क्योंकि यह विविध संस्कृतियों को समझने में सहयोग करेगा|
"पुर"
अर्थात ''बसावट, यानि 'बसी हुई
आबादी', या 'किला ' का
"हित" यानि 'हितों' का संरक्षक, सम्वर्द्धन
करने वाला व्यक्ति ही ‘पुरोहित’ होता है। यानि एक पुरोहित किसी बसावट, यानि गांव, नगर आदि के
विकास और उत्थान के लिए प्रयासरत व्यक्ति ही होता था, जो आज उन
हितों को कुछ कर्मकाण्डीय प्रक्रियाओं तक सीमित कर लिया है। आज भी भारतीय सभ्यता
और संस्कृति में कई आबादी की बसावट को "पुर" के नाम से जाना जाता है, जैसे शोलापुर, जबलपुर, जयपुर, गोरखपुर, कानपुर, भागलपुर, बुरहानपुर, खडगपुर, सम्बलपुर, बिलासपुर, जमशेदपुर, नागपुर आदि
आदि। इस तरह इन नगरों के व्यापक हित सम्वर्द्धन करने वाले ही पुरोहित होते थे, जो सामंती
काल में अन्य रुपांतरण के साथ इस सांस्कृतिक रुपांतरण में यह कुछ कर्मकाण्डीय
प्रक्रियाओं तक सीमित हो गया। दरअसल सांस्कृतिक उद्भव एवं विकास की प्रक्रिया में
शुरुआती समय से पुरोहित एक व्यापक और गहन हितों के उत्तरदायित्व से जुड़ा हुआ एक
महत्वपूर्ण अवधारणा था,
जिसके पुनरोद्धार और पुनरोत्थान की आज फिर अनिवार्यता हो गई है।
इसी तरह
"संस्कारक" शब्द की अवधारणा भी
भारतीय संस्कृति और सभ्यता से बहुत गहराई और व्यापकता से घुली मिली है, जिसे भी
स्थिरता से जानना और समझना चाहिए। 'संस्कार' से ही
संस्कृति और संस्कृत शब्द की अवधारणा उत्पन्न और विकसित हुई है। संस्कार मानवीय
विचारों , भावनाओं
एवं व्यवहारों की एक संयुक्त यानि सम्मिलित प्रक्रिया और उसकी अभिव्यक्ति है, जो सामाजिक
मूल्यों, प्रतिमानों, भावनाओं और
अभिवृत्तियों का विकास और सम्वर्द्धन करता है। आप संस्कार को संवेदना को आकार देने वाली अभिव्यक्ति कह सकते हैं। स्पष्ट है कि किसी भी व्यक्ति, समाज, संस्कृति, राष्ट्र या
क्षेत्र की संस्कृति उन लोगों के संस्कारों के ऐतिहासिक समुच्चय से बनता है।
मतलब किसी भी संस्कृति का निर्माण इकाई
उसका संस्कार ही है, अर्थात
संस्कार ही किसी उत्कृष्ट,
उच्च, विकसित
एवं सभ्य समाज की निर्माता ईंट के रूप में इकाई हुईं। इन्हीं संस्कारों से कोई
व्यक्ति, समाज, संस्कृति, राष्ट्र, मानवता और
प्रकृति पल्लवित, विकसित
और अग्रणी होता है। इन्हीं संस्कारों से कोई समुचित और सार्थक रुप से शिक्षित होता
है। ऐसे ही लोग सुसंस्कृत कहलाते हैं। इस तरह संस्कार समेकित एवं उत्कृष्ट शिक्षा
से संबंधित है। इसी संस्कार को उत्पन्न,
विकसित और सम्वर्द्धन करने वाले को ही एक "संस्कारक" कहते हैं, जो स्वत:
स्पष्ट है कि यह मानव जीवन में कितना महत्वपूर्ण है।
स्पष्ट है कि
हमलोगों को पुरोहिती और संस्कार को प्राचीन भारतीय संस्कृति के मौलिक दर्शन के
आलोक में पुनर्व्याख्यायित करना चाहिए,
पुनर्स्थापित करना चाहिए, ताकि भारतीय सांस्कृतिक गौरव को पुनर्सम्मानित किया
जा सके। इसीलिए हमलोगों ने शोध मिशन को भी अपनी प्राथमिकता में स्थान दिया है। अतः
यह भी स्पष्ट है कि भारत के पुनः विश्वगुरु बनने की अनिवार्य शर्त में पुरोहित और
संस्कारक की भूमिका महत्वपूर्ण है। ऐसी स्थिति में इस पर शोध भी करना होगा, इसे एक मिशन
के रूप में लेना होगा,
और इसके लिए उत्कृष्ट और उच्च स्तरीय प्रशिक्षण की भी व्यवस्था करनी होगी। इसकी
महत्ता और अनिवार्यता से यह भी स्पष्ट है कि इसमें बहुत बड़ी संख्या में हम
भारतीयों की समर्पित सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी। इसके लिए सुझाव और सहयोग के साथ सक्रिय समर्थन और समर्पण भी चाहिए, और यह उसी
समय संभव है, जब
हमलोग इस मिशन अभियान में शामिल होंगे,
इस अभियान से जुड़ेंगे और इस पर संबंधित प्रश्न करने एवं सुझाव देने के लिए
इसमें शामिल होकर सुनेंगे।
लेकिन सभी
अभियान या मिशन की सफलता के प्रमुख अनिवार्यताओं में अनुशासन सबसे प्रमुख होता है।
किसी भी प्रश्न को उठाने के लिए पहले उसे सुनना होता है, उसे समझना
होता है और उसके बाद ही उससे संबंधित प्रश्न पुछा जाना समुचित और उपयुक्त होता है।
इससे संबंधित संवाद को अनिवार्य रूप से "विमर्श" के रूप में होना चाहिए, नहीं कि
"बहस" के रूप में। विमर्श में मुद्दा प्रमुख होता है और यह विमर्श
मुद्दे में निखार और विकास के लिए होता है,
जबकि बहस में, यानि
बहसबाजी में मुद्दा गौण हो जाता है और बहस में शामिल व्यक्ति का जीतना हारना ही
प्रमुख उद्देश्य हो जाता है। स्पष्ट है कि हमलोग व्यक्तियों के हारने जीतने के लिए
बैठकें नहीं करते हैं,
बल्कि हमलोग भारतीय संस्कृति को पुनर्स्थापित और पुनर्जीवित करने के लिए
बैठकें करते हैं। यह मूल बातें सभी प्रतिभागियों, समर्थको और समर्पितों को स्पष्ट रहना चाहिए और उन्हें अपने
विचार, भावनाएं
और व्यवहार (अभिव्यक्ति) वहीं तक सीमित रहने चाहिए। अन्य महत्वपूर्ण विषयों के लिए
और भी फ़ोरम या प्लेटफार्म हो सकते हैं,
होते हैं और होने भी चाहिए,
लेकिन इसे इसी मिशन तक सीमित रखा जाएगा।
चूंकि भारतीय
संस्कृति हमारी विरासत है,
हमलोगों की थाती है,
हमलोगों का गौरव है,
हमलोगों का सम्मान है,
इसीलिए हम समस्त भारतवासियों की जबावदेही बनती है कि इस गौरवशाली, प्राचीन, और विस्तृत
संस्कृति का संवर्द्धन करें,
पुनर्स्थापित करें,
पुनर्जीवित करें और पुनः गौरवान्वित करें। लेकिन इसके लिए हमलोगों को संयुक्त
रूप में आगे आना होगा,
संयुक्त रूप में सक्रिय होना होगा,
और सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। भारतीय उपमहाद्वीप एक विविध
संस्कृतियों, विविध
भाषाओं, विविध
पंथों एवं धर्मों और विभिन्न भौगोलिक अनिवार्यताओं के क्षेत्रों का संकलन यानि
समुच्चय है। भारत एक ऐसा विशाल और बहुविध पंथों और धर्मों का देश है, जहां विश्व
के सभी धर्मों की परम्परा अपने गौरव और सम्मान के साथ प्रचलित और सक्रिय है; ऐसा कोई अन्य
उदाहरण विश्व में और कहीं नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि हमलोगों के इस
सांस्कृतिक विरासत के पुनरोत्थान अभियान में सभी संस्कृतियों, सभी
क्षेत्रों, सभी
धर्मों, सभी
पंथों, और
सभी भाषायी वर्गों की सहभागिता,
समर्थन, समर्पण, सुझाव, सहयोग अवश्य
ही चाहिए, वरना
यह गौरवमयी सांस्कृतिक अभियान सफल नहीं
मानी जा सकती है। स्पष्ट है कि यह अभियान किसी भी वर्ग, या समूह, या जाति वर्ण
के सापेक्ष नहीं है, यानि
किसी के विरुद्ध या किसी के समर्थन में नहीं है, यानि कोई भी विशेष वर्ग इसके लक्ष्य में नहीं है। इसमें सभी
परम्परागत और गैर परम्परागत वर्ग,
समूह और समाज की सक्रिय भागीदारी अपेक्षित है और किसी को इससे अलग नहीं होना
चाहिए|
पुरोहिताई और
संस्कारक एक कौशल है, एक योग्यता है, एक ज्ञान है, जिसे कोई भी प्रशिक्षित होकर
सीख सकता है, पारंगत होता है, या हो सकता है| यदि आप किसी पेशे में, किसी सेवा
में, किसी व्यवसाय या उद्यम में कुशल और सक्षम हो सकते हैं, तो आप इसमें भी कुशल,
सक्षम, योग्य, पारंगत और व्यवहारिक हो सकते हैं| यह पुरोहिताई और संस्कारक भी एक
पेशा है, एक सेवा है, एक उद्यम है, एक व्यवसाय है, जिसमे सम्मान, प्रतिष्ठा, समृद्धि,और
आत्मसंतुष्टि जुड़ा हुआ है| यह आध्यात्मिक क्षेत्र का प्रवेशद्वार भी है| आध्यात्म क्या
है, यह एक अलग विषय है, जिस पर मैं अलग से लिख चुका हूँ| चूँकि यह महान संस्कृति
आपकी भी विरासत है, इसीलिए इसके उत्तरदायित्व में आप भी शामिल हैं, और आपको भी
शामिल होना चाहिए|
इस संस्कृति
में संस्कारक एवं पुरोहिताई की एक विशाल एवं शानदार अर्थव्यवस्था है, जिसमे सभी
सामाजिक वर्गों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए| इससे अर्जित धन से सभी
सामाजिक वर्गों के विकास में भूमिका होनी चाहिए, या मिलनी चाहिए| इसके लिए ही सभी
सामाजिक वर्गों के समझदार, जागरूक एवं प्रबुद्ध सदस्यों को आगे आना चाहिए| लगभग
सभी सामाजिक वर्गों में सेवा निवृत सदस्य उपलब्ध होते हैं, जिनके पास ज्ञान आधारित
योग्यता के साथ साथ विशाल कार्य अनुभव भी होता है, जिसका लाभ वह सामाजिक वर्ग उठा
सकता है| इन सेवा निवृत सदस्यों की सक्रियता और समर्पण से बहुत कम लगत से या बिना
लगत के सामाजिक पूंजी का निर्माण होता है, और इन सेवा निवृत सदस्यों की उम्र भी बढ़
जाती है| इस अभियान से समाज को और राष्ट्र को एक सुसंस्कृत, शालीन. शिष्ट, शिक्षित
और संस्कारी पुरोहित एवं संस्कारक मिलता है|, और समाज एक कामी, लोभी, अशिक्षित,
संस्कारविहीन और भ्रष्ट पुरोहित एवं संस्कारक के दुष्प्रभाव से बचता है| ऐसे लोग
हमारी महान भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का अपमान भी करते होते हैं|
चूँकि यह एक
सेवा है, एक व्यवसाय है, एक उद्यम है, एक कौशल है, इसलिए यह हमारे युवाओं के लिए प्रशिक्षण
का एक शानदार सम्मानित एवं प्रतिष्ठित अवसर भी है| ये युवा हमरे व्यापक शोध मिशन
को आगे बढ़ा सकते हैं, या बढ़ाएंगे ही| इससे हमारे राष्ट्र के सभी सामाजिक वर्गों का
सांस्कृतिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक मूल्यवर्धन होगा, और सभी सामाजिक वर्ग ‘आध्यात्मिक’
रूप में समृद्ध, संपन्न और आत्मनिर्भर भी होगा| इससे हमारी संस्कृति कई अर्थों में
संपन्न और व्यापक होगा| हमारे प्रशिक्षित संस्कारक समाज को ढोंग, पाखंड,
अंधविश्वास एवं अनावश्यक कर्मकांड से उबरने में सहायक भी होंगे| हमरे संस्कारक
समाज में शिक्षा एवं विविध सेवाओं के प्रसारक एवं प्रचारक भी बनेंगे| ये संस्कारक
कई ऐसे कार्य भी करेंगे, या कई ऐसे क्षेत्रों के सूत्रधार भी बनेंगे, जिन्हें
हमलोग आपके सहयोग एवं सलाह से सुनिश्चित और निर्धारित करेंगे| चूँकि एक संस्कारक
एवं पुरोहित अपने अपने कार्य क्षेत्रों में प्रभावशाली एवं नियंत्रणकारी होते हैं,
इसीलिए ये संस्कारक एवं पुरोहित अपने अपने कार्य क्षेत्रों में सामाजिक,
सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि कई क्षेत्रों के बदलाव के क्रान्तिकारी प्रकाश
स्तम्भ साबित होंगे| यह सब भविष्य के गर्त में है, जो आपके सहयोग, समर्थन, समर्पण
से ही आगे निकल सकता है, आगे बढ़ सकता है| इस क्षेत्र में पहले भी कई महानुभावों ने
शुरुआत भी किया था, जैसे गायत्री परिवार, आर्य समाज, अर्जक संघ, बौद्ध परम्परा, रामकृष्ण मिशन, सांविधानिक प्रक्रिया, वैदिक रीति आदि आदि। लेकिन आज की अपेक्षित गतिशीलता आपके बिना संभव भी नहीं है|
इसलिए आप सभी
भारतीय इसमें आगे आइए| एक फिर से भारतीय संस्कृति को वैश्विक पटल पर स्थापित करने
में मदद कीजिए|
आचार्य
निरंजन सिन्हा
भारतीय
संस्कृति का ध्वजवाहक
सिन्हा जी धन्यवाद। भारतीय सांस्कृतिक विरासत के पुनर्लेखन और पुनर्स्थापन समय कुछ मांग है लेकिन आपने जो कुछ संगठनों के नाम लिए हैं उनमें एकरुपता नहीं है, कहीं कहीं तो भिन्नता भी है। ऐसे में सांस्कृतिक विरासत को भी समझाने की जरूरत है।
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