गुरुवार, 30 मई 2024

हमलोग परेशान क्यों हैं?

दरअसल परेशानी से ही हमारा उद्विकास (Evolution) हुआ है| अर्थात हमारे होमो सेपियंस (पशु मानव) बनने की कहानी भी हमारी परेशानी से ही शुरू हुआ है| जब हमारे पूर्वज वानर (Ape) थे, और पेड़ों पर जीवन व्यतीत कर रहे थे, उसी समय कोई मजबूत वानर या बन्दर या कोई अन्य ने एक कमजोर वानर को पेड़ से धकेल कर गिरा दिया और फिर उसे पेड़ों पर चढ़ने भी नहीं दिया| वह कमजोर और डरा हुआ वानर धरती पर विचरण करने वाले अन्य घातक एवं हिंसक जीवों से अपनी जान बचने की जुगत करने लगा| इसी जुगत में उसे बार बार पिछले टांगों पर खड़े होकर अपने आसपास के खतरों का मुआयना  करना उसके लिए बहुत जरुरी हो गया| इससे उसके अगले दोनों पैर अन्य कामों के लिए स्वतंत्र हो गया और वह ‘’हाथ’’ के रूप में विकसित होने लगा| एक डरे हुए वानर को अपनी अस्तित्व बचाने के लिए मानसिक रूप से सक्रिय, सजग एवं सचेत रहना पड़ा, और इसी प्रक्रिया ने उसे बौद्धिक भी बना दिया|

जीवन की इसी परेशानी ने हमें वानर जैसे एक पशु से ‘होमो सेपियंस’ (बुद्धिमान मानव), ‘होमो सोसियस’ (सामाजिक मानव), ‘होमो फेबर’ (निर्माता मानव) और अब “होमो साइन्टिफिक” (वैज्ञानिक मानव) बना दिया| आज भी परेशानी यानि समस्याएँ ही हमें इनके निराकरण के लिए प्रेरित करते हैं, जो आविष्कार और खोज के रूप में हमारे सामने आकर समस्यायों का समाधान देते हैं और बौद्धिक रूप में अग्रसर होने देते हैं| इसलिए परेशानी को किसी बड़े संभावना के यानि किसी अवसर के रूप में देखना चाहिए| जब हम किसी स्थिति में परेशान होते हैं, तभी ही हम उसके समाधान के लिए प्रेरित होते हैं, तत्पर होते हैं और उसका समाधान निकाल कर समग्र मानवता को अग्रसर भी करते हैं| वैसे परेशानियाँ दूसरे से तुलना करने और अपनी इच्छाओं को तीव्र करने से भी आती है, हालांकि यही प्रेरणा का भी कार्य करता है। यह सब हमारे नजरिया पर भी निर्भर करता है। 

लेकिन यहाँ यह सन्दर्भ नहीं है| अभी हमलोग जो वर्तमान में परेशान है, उसके बारे में समझना जानना चाहते हैं और उसका समाधान खोजना चाहते है| तो हमलोग वर्तमान मानव की वर्तमान परेशानियों की जड़ों को खोजने की ओर चलते हैं, जहाँ से ही हमें इसका समुचित समाधान मिल सकता है| जब हम वर्तमान समस्यायों का विश्लेषण तथा मूल्याङ्कन करते हैं एवं उस पर विभिन्न दृष्टिकोणों से सवाल खड़ा करते हैं, तब ही हम उनकी जड़ों तक पहुँच पाते हैं| कोई भी आदमी उसी समय परेशान होता है, जब वह बदलते हुए परिवार, समाज, संस्कृति, सन्दर्भ, वातावरण और परितंत्र की जड़ता (Inertia) में होता है| अर्थात वह बदलती हुई परिवार, समाज, संस्कृति, सन्दर्भ, वातावरण और परितंत्र के मूल्यों, मानकों और प्रतिमानों के अनुरूप अपने को अनुकूलित (Adoptation) यानि ढाल नहीं पाता है| यानि वह बदलते हुए माहौल मे समायोजन (Adjust) नहीं कर पाता है| वह बदलते हुए परिवार, समाज, संस्कृति, सन्दर्भ, वातावरण और परितंत्र के मूल्यों, मानकों और प्रतिमानों के अनुरूप अपने को इसलिए ढाल नहीं पाता है, क्योंकि वह इसकों बदलने वाली शक्तियों, प्रक्रियायों और प्रभावों को ही नहीं जानता और समझता है|

व्यक्ति, परिवार, समाज, संस्कृति, सन्दर्भ, वातावरण और परितंत्र को बदलने वाली शक्तियों को समकालिक या समकालीन शक्तियां कहते हैं| यह ‘बाजार की शक्तियां’ (Market Forces) होती है, जो उपभोग, उत्पादन, वितरण एवं विनिमय के साधनों एवं शक्तियों द्वारा संचालित, नियमित, नियंत्रित एवं प्रभावित होती है| यही ‘आर्थिक शक्तियों’ (Economic Forces) हुई| इसका प्रभाव सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, धार्मिक पर आच्छादित होता हैं| यह प्रभाव अपने परिणाम में इतने सूक्ष्म (Micro) होता है, कि इसका अहसास सामान्य आदमी को अपने जीवन में अपनी शारीरिक संवेदनाओं से नहीं हो पाता है| इसके तत्काल प्रभाव को जानने और समझने के लिए मानसिक संवेदनाओं को सक्रिय करना पड़ता है| यहाँ मानसिक संवेदनाओं से तात्पर्य आपकी ‘आलोचनात्मक चिंतन’ (Critical Thinking) है, या हो सकता है| यही सूक्ष्म प्रभाव इतिहास के लम्बे काल में समेकित होकर स्थूल (Macro) हो जाता हैं, और तब इसे कोई भी शारीरिक आँखों से देख समझ सकता है| इन्हीं शक्तियों की क्रियाविधि और प्रभावों को नहीं जान पाने के कारण ही साधारण मानवों की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, धार्मिक जड़ता आ जाती है| इस जड़ता का अहसास डिग्रीधारी व्यक्तियों को भी नहीं हो पाता है| ऐसा ही व्यक्ति अपने बदलते हुए परिस्थितियों नहीं समझ पाने के कारण ही अपने को बदलने की तैयारी भी नहीं कर पाता है|  इसलिए सभी को चाहिए कि वह बाजार की शक्तियों की क्रियाविधि, प्रक्रिया एवं प्रभावों को जाने और समझें|

ऐसा ही अज्ञानी और जड़ता में जड़ा हुआ आदमी अपने परिवार, समाज, संस्कृति, सन्दर्भ, वातावरण और परितंत्र में दोष ही देखता रहता है, और दोषारोपण करते हुए इस धरती से विदा भी हो जाता है, लेकिन अपनी समझ में दोष नहीं देख पाता है| चूँकि वह बाजार की शक्तियों को ही नहीं समझ पा रहा है, तो वह अपने परिवार, अपने समाज और अपनी संस्कृति के सदस्यों को क्या समझा पायेगा? ऐसा व्यक्ति अपनी समस्यायों की जड़ यानि कारण दरअसल अपने अग्रेत्तर वंश, यानि अपने बेटें, बहुए, बेटियों और दामाद या परिवार के अन्य सदस्यों में ही खोजने तक सीमित रहता है| वह अपनी सारी समस्यायों का सूत्र उसी में खोजता और देखता रहता है, और उसे बदलते समय में अपने में कोई भी कारण नहीं दिख पाता है| ऐसा व्यक्ति जब उन शक्तियों की क्रियाविधि को ही नहीं समझ है, तब वह व्यक्ति नहीं तो खुद को बदलाव के लिए तैयार कर पाता है और नहीं ही अपने अगले पीढ़ी को ही इसके लिए तैयार कर पाता है| ऐसा व्यक्ति यह समझता है कि बच्चों को पालना, पढ़ाना,और अपने परिवार को पोषने लायक बना देना ही उसके जीवन उद्देश्य का इतिश्री है| वह सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों और उनकी आवश्यकताओं को नहीं समझता है और इसीलिए उन्हें ऐसे संस्कार भी नहीं दे पाता है|  इसीलिए कहा गया है कि ‘रोपे पेड़ बबूल के, आम कहाँ से होय”|

ऐसा ही व्यक्ति पशुवत होता है, जो एक पशु की तरह बच्चे जनता है, पालता है, और उसे ही देखते हुए मर भी जाता है| मानव तो वह होता है, जिसके सोच में, यानि मानसिकता में समाज, मानवता और प्रकृति समाया हुआ होता है| आप इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि एक मानव की मानसिकता में जब मानवता का भविष्य समाहित रहता है, तभी यह मानसिकता किसी भी व्यक्ति या सामज को महान बना देता है, अन्यथा वह तो एक साधारण पशु मात्र है| इसीलिए समाज, मानवता और प्रकृति के कल्याण को जीवन का उद्देश्य बनाने के लिए कहा जाता है| यही जीवन उद्देश्य जीवित रहने और कार्यशील रहने की प्रेरणा देता रहता है और ऐसा ही आदमी ज्यादा दिनों तक कार्यशील भी रहता है|

बुद्ध ने तो परेशानियों के समाधान के लिए “आत्म अवलोकन” की विधि बतायी है, जिसे ‘विपस्सना’ भी कहा जाता है|  इसमें ‘आत्म’ का ‘अवलोकन’ किया जाता है| इसमें ‘स्वयं’ को जाना समझा जाता है| जो अभी आपको बहुत परेशानी दे रहा है, वह सिर्फ सन्दर्भ बदल देने से यानि नजरिया बदल लेने से ही बदल जाता है, यानि समाप्त हो सकता है| आप चीजों को ‘सापेक्षता’ (Relativity) के सन्दर्भ में समझना शुरू कीजिए, सब कुछ बदल जायगा| आप अपने को बदलते हुए वातावरण में यानि सन्दर्भ में अपने को समायोजित करना सीखिए| आप बाजार की शक्तियों को बदल नहीं सकते, सिर्फ समझ सकते हैं और अपने को अनुकूलित कर सकते हैं| इसीलिए समायोजन करना ही एक समुचित मार्ग है| समय से पूर्व इसकी तैयारी भी एक विकल्प है| आप समस्यायों में संभावना खोजिए, आप आनन्दित रहिएगा| यदि आप ऐसा नहीं करना चाहते हैं, तो माध्यम मार्गी बनिए| आपकी परेशानियां आपसे दूर रहेगी| 

आचार्य निरंजन सिन्हा

 

 

 

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही अच्छा और संसार सागर के बंधनों से मुक्ति दिलाने वाला आलेख।

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