सवाल यह है कि ‘जाति’ यानि ‘जाति व्यवस्था’ हमारे लिए क्यों बहुत जरुरी है? मैंने
समाज में ध्यान दिया है कि यदि समाज से ‘जाति’ की व्यवस्था ही समाप्त हो जाए, तो इसके
क्या क्या परिणाम हो सकता है? ‘जाति’ के समाप्त हो
जाने की स्थिति में हमारे समाज में सामाजिक उत्थान करने के नाम पर कार्यरत सारे
ऐसे सारे सामजिक नेता बेरोजगार हो जायेंगे, क्योंकि उनकी सारी गतिविधियाँ
ही इसी ‘जाति’ और ‘जाति व्यवस्था’ के केंद्र के चारो ओर घुमती रहती है| इन्ही लोगों के रोजगार के लिए ही जाति व्यवस्था की अनिवार्यता है, अन्यथा यह मानवता के मुखड़ा पर मवाद भरा जख्म है, एक सडांध है। वे लोग कभी यह बात नहीं करते कि भारत में ‘जाति व्यवस्था’
कैसे समाप्त किया जा सकता है? वे
लोग तो ‘जाति’ को मजबूत करने के नाम पर ‘जाति
व्यवस्था’ को ही मजबूत करने पर लगे हुए हैं|
दरअसल भारत
में एक जाति को एक ‘विस्तारित परिवार’ (Extended Family) ही माना जाता है| अर्थात
एक ही जाति के सभी लोग एक ही विस्तारित परिवार के सदस्य माने जाते है| इसे ‘संयुक्त
परिवार’ नहीं समझा जाय| अब तो ये जातिवादी सामाजिक नेता समाज के अन्य मुद्दे को भी
जाति से जोड़ने लगे हैं, जिनमे सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक आदि क्षेत्र
भी समाहित होता जा रहा हैं| भारत में यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सभी
जातियों में ऐसे ही नेतृत्व की प्रवृति हो गई हैं| ऐसे सभी नेतागण आपको कई उदाहरण
से संतुष्ट कर देंगे कि वे कोई असामाजिक और राष्ट्र विरोधी हरकत नहीं कर रहे हैं| यही जाति तो इन सामाजिक नेताओं के आगे बढ़ने की राजनीतिक सीढियाँ
है| इसे आप उस जाति वर्ग का “सामाजिक
पूंजी” (Social Capital) बनाना भी समझ सकते है| इन सामाजिक नेताओं के कार्य
या कार्य पद्धति की एक ख़ास विशेषता यह है कि यह सब ‘जाति व्यवस्था’ को नष्ट करने
और जाति मुक्त एक प्रगतिशील एवं सशक्त राष्ट्र के निर्माण के नाम पर यह सब कर रहे है|
‘जाति’ के कथाकथित समाज के ‘उत्थापक नेता’ अपने को जाति व्यवस्था’ के सख्त विरोधी
भी दिखाने का भरपूर प्रयास भी करते होते हैं|
अब तो भारत में ‘जाति’ और परंपरागत ‘धर्म’ राजनीतिक हितों को
साधने के महत्वपूर्ण ‘उपकरण’ (Tools) हो गये हैं| हालाँकि भारत में
इसका विकास आजादी के कुछ वर्षों बाद हुआ है, पर अब यह अपने पुरे आवेग में है| अब सभी राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठन एवं दल ‘जाति’ और ‘परंपरागत
धर्म’ को एक घातक ‘हथियार’ (Weapon) के रूप में प्रयोग करने लगे हैं,
और इसीलिए इसे ‘उपकरण’ कहने से एक नाइंसाफी हो जाता है| आज के सभी सफल राजनीतिक
संगठन एवं दल अपने उम्मीदवारों का चयन भी इसी ‘जाति’ और ‘परंपरागत धर्म’ को ध्यान
में रख कर करते हैं और सफलता भी पाते हैं| सामान्य लोगों को एवं तथाकथित
बुद्धिजीवी लोगों को भी इस ‘जाति’ और ‘परंपरागत धर्म’ की भावनात्मक हवा में उड़ा ले
जाना बहुत आसन होता है| इसके लिए भी जाति आधारित समूह और संगठन की आवश्यकता हो
जाती है और इसीलिए सभी राजनीतिक दलों के लिए भी यह ‘जाति व्यवस्था’ जरुरी हो जाता
है| इसीलिए भी कोई राजनीतिक दल इसे राष्ट्र के विरुद्ध होने के बावजूद भी इस ‘जाति’
और ‘परंपरागत धर्म’ की व्यवस्था को मजबूत बनाए रखना चाहते हैं|
इसीलिए समाज
के तथाकथित बड़े बड़े बुद्धिजीवी और सामाजिक संगठन भी जिस राजनीतिक दल एवं संगठन का पुरे
चार साल ग्यारह महीने और उनतीस दिन तक नकारात्मक आलोचना करते रहते हैं, वे सभी बुद्धिजीवी
और सामाजिक संगठन चुनाव में अपने ‘मत’ के उपयोग में इसी ‘जाति’ और ‘परंपरागत धर्म’
के चश्मे का प्रयोग करते हैं और अपने तथाकथित सिद्धांतों के विरुद्ध ‘मत’ देते
हैं| ‘जाति’ और ‘परंपरागत धर्म’ के सम्बन्ध में
हमारा यह चरित्र अब भारत का राष्ट्रीय चरित्र बन चुका है| यही हमारा “दुहरापन”
(Dual) का चरित्र भी अब राष्ट्रीय चरित्र बन गया है, लेकिन ऐसे मामलें में हम
राजनीतिक नेताओं को भरपेट कोसते रहते हैं| हमारे ये तथाकथित बुद्धिजीवी और सामाजिक
संगठन यह समझना ही नहीं चाहते हैं कि हमारे ये नेता भी हमारे ही राष्ट्रीय चरित्र
की उपज हैं, जिसको हम आम आदमियों ने ही जन्म दिया और पाला पोसा है| इसीलिए हमारे नेतागण
भी इसी दोहरेपन को लिए चलते हैं|
ये
जातिगत नेता अब जमात यानि बड़े सामाजिक वर्ग की राजनीति छोड़ कर अपनी ‘जाति’ तक ही
सीमित होने लगे हैं| इसीलिए वे अपनी जाति के इतिहास को गौरवमयी बनाने के लिए
अपनी जाति के इतिहास को सूरज और चाँद की उत्पत्ति तक, तो कुछ तथाकथित सामाजिक
विद्वान् इस इतिहास को अन्गारालैंड एवं गोंडवानालैंड की उत्पत्ति तक ले जाते हैं,
मानों कि होमो सेपियंस यानि हम मानवों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी और जाति की
व्यवस्था अपने अस्तित्व में आ गया था| मुझे ऐसे अतार्किक एवं तथ्यहीन बातों को
कहने वाले महानुभावों पर कोई टिपण्णी नहीं करनी चाहिए| यदि कोई अपने ‘पेशा’ का
इतिहास लिखे, तो उसका कोई इतिहास हो सकता है, लेकिन एक
जाति का इतिहास तो प्राचीन काल में जा ही नहीं सकता|
जाति व्यवस्था भारत में कुछ शताब्दियों से व्याप्त है, लेकिन
अधिकतर ग्रंथों में इसे सहस्त्राब्दी पुरानी भी बताई जाती है, जिसका कोई भी ‘प्राथमिक
प्रमाणिक साक्ष्य’ नहीं मिलता है| इसके सहत्राब्दी पुराने होने का कोई भी
पुरातत्विक प्रमाण नहीं है, और इसीलिए इसका ‘द्वितीयक प्रमाणिक साक्ष्य’ भी
प्रमाणिक नहीं है| इसके सहत्राब्दी पुराने होने की बात सभी ग्रंथों में बिना किसी
प्रमाणिक साक्ष्य के सिर्फ मिथकों के आधार पर ही रच दिया गया है| दरअसल इस ‘जाति व्यवस्था’ की उपज ही सामन्तवादी शक्तियों के उदय एवं
विकास से हुआ और इसी के साथ ही और विकसित होता गया| कोई भी ‘जाति’
प्राचीन काल में नहीं रहा है|
भारत की यह जाति व्यवस्था विश्व में और कहीं नहीं है| यह सिर्फ वर्ग विभाजन का
एक समूह नहीं है, बल्कि यह कभी नहीं बदलने एक स्थायी और स्थिर वर्गगत ढाँचा भी है,
जो इस जन्म में कभी भी और किसी भी परिस्थिति में नहीं बदल सकता है| इसकी
सबसे बड़ी विशेषता यह है जी इसमें एक निश्चित ‘स्तरीकरण’ (Stratification) होता है,
जिसमे एक सर्वोच्च को छोड़ कर हर कोई किसी अन्य से नीचे रहता है| ऐसी विशिष्ट व्यवस्था
विश्व के अन्य किसी भी हिस्से में नहीं पाया जाता है|
दरअसल ‘Caste’ एक पुर्तगाली उत्पत्ति का एक ‘वर्ग विभाजन’ करने वाली संरचना
लिए एक शब्द है, लेकिन इस Caste को कोई भी अपनी सामर्थ्य, योग्यता एवं उपलब्धि से अपने
इसी जीवन में बदल सकता है| लेकिन भारत में कोई भी
अपनी जन्मगत जाति को कभी भी बदल ही नहीं सकता हैं| इसी कारण कुछ समाजशास्त्री इसका अंग्रेजी अनुवाद “Caste” को “पश्चिमी
जगत” को भरमाने के लिए एक गहरा और भयानक बौद्धिक षड़यंत्र भी मानते हैं| ऐसे
समाजशास्त्री इसका अंगेजी अनुवाद “Jati” ही रखना चाहते हैं, जैसे भारतीय साड़ी,
धोती आदि का अंग्रेजी अनुवाद होता है|
‘राष्ट्र’ हित में, ‘मानवता’ के हित में और ‘प्राकृतिक न्याय’ (Natural
Justice) के हित में इस ‘जाति’ एवं ‘जाति व्यवस्था’ को समाप्त होना चाहिए| लेकिन
इसके समापन के लिए भी इसकी उत्पत्ति एवं विकास के वैज्ञानिक कारण यानि सिद्धांत समझने
होंगे| वैज्ञानिक यानि विज्ञान आधारित कहने का तात्पर्य इस सिद्धांत यानि कारण को
तार्किक, विवेकशील. व्यवस्थित होने के साथ साथ इसे तथ्यात्मक, यानि सक्ष्यात्मक भी
होना चाहिए| वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के सिद्धांतों की व्याख्या, यानि इन सिद्धांतों
की उत्पत्ति की व्याख्या कई बार पहले तार्किक आधार ही होता हैं और उसके सक्ष्यात्मक
आधार बाद में जुड़ते हैं| मैंने भी जाति उत्पत्ति की सैद्धांतिक व्याख्या की है, जो
तार्किक भी है|
जाति व्यवस्था
की उत्पत्ति एवं विकास का मध्य काल में होने के सम्बन्ध एक वैज्ञानिक प्रसंग देना
चाहूंगा| इस प्रसंग में मैं महान वैज्ञानिक पीटर हिग्स (Peter Higgs)
का एक उदहारण पेश करना चाहूंगा| इन्होने “हिग्स बोसॉन” कणिकाओं के अस्तित्व
की सैद्धांतिक व्याख्या 1964 में ही कर दी थी, जिसका प्रायोगिक प्रमाण जेनेवा
के महान प्रयोगशाला सर्न (CERN) ने 2013 में अंतिम रूप से किया गया और इसके
लिए ही उन्हें 2013 का भौतिकी का नोबल पुरस्कार भी मिला| आज यही कण “गाड़ पार्टीकल”
(GOD PARTICLE) के नाम से विख्यात है| कहने का तात्पर्य यह हुआ कि उनकी
तार्किक बातों को सैद्धांतिक रूप में भी 48 वर्षों तक नहीं माना गया, लेकिन जब
उनके प्रमाणिक साक्ष्य मिले, तो उनके सिद्धांत
को मान्यता भी मिली| यही बात मेरी जाति की उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धांत की है,
जिसके साक्ष्य नजरिये को बदलने से मिलेंगे| वैसे इस सिद्धांत के भी प्रमाण भारत
में बिखरे पड़े हैं, सिर्फ उसे तलाशने की नजरिए से तलाशना है|
‘जाति
व्यवस्था’ के विनाश के लिए एक ही “माडल” काफी है, जिसे प्रशासनिक तंत्र ही सफल करा
सकता है| इस ‘जाति व्यवस्था’ को कोई भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था एक
झटके से समाप्त कर सकता है, यदि वह ऐसा करने की मंशा रखता है|
आचार्य
निरंजन सिन्हा
भारतीय
संस्कृति का ध्वजवाहक
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