सोमवार, 3 जून 2024

बुद्ध उदास क्यों हैं?

बुद्ध आज जहां भी है और जैसे भी है, बहुत बहुत उदास हैं| हालांकि मुझे लग रहा था कि बुद्ध बहुत परेशान हैं, लेकिन सदैव मुस्कुराते रहने वाले बुद्ध तो परेशान हो ही नहीं सकते, इसीलिए मुझे लगा कि बुद्ध उदास ही होंगे। यह भी हो सकता है कि मेरा यह अनुमान गलत हो रहा है, और बुद्ध अभी भी मुस्कुरा रहे हैं, लेकिन क्यों? क्या यह हम भारतियों की नादानी ही उनके मुस्कुराने का कारण है? लेकिन मुझे तो लग रहा है कि इसे हम भारतीयों की मूर्खता ही माननी चाहिए, यह नादानी नहीं है। चूँकि हम भारतीयों के लिए मूर्खतापूर्ण शब्द का उपयोग करना बहुत से लोगों को आपत्तिजनक लग सकता है, इसलिए हमें नादानी शब्द से ही काम चला लेना चाहिए।

मैं यहां बुद्ध की इस उदासी का संदर्भ भारत से ले रहा हूं। बुद्ध इसलिए उदास हैं, क्योंकि उनकी बौद्धिकता को आज का भारत नहीं अपना रहा है, लेकिन विश्व के उदार विचार के लोगों ने अपनाया और वे सभी विश्व के विकसित देशों की संस्कृति बन गए हैं| कट्टरपंथी विचार के लोग और नादान लोग बुद्ध को यानि बुद्धि को समझ ही नहीं सके और इसीलिए ही ये अभी भी अविकसित देशों की संस्कृति बने हुए हैं। वैसे किसी भी संस्कृति के लोग अपनी खुशफहमी में अपने को विकासशील देश कह कर आनंदित हो सकते हैं, लेकिन ये सभी देश वास्तव में अविकसित हैं ही| बुद्ध का किसी भी  धर्म से कोई भी सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि बुद्ध के समय किसी भी परंपरागत धर्म की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी| सभी वर्तमान परंपरागत धर्मों की उत्पत्ति और विकास ही सामन्तवाद के उदय के कारण ही और इसीलिए उसी के साथ ही उदय हुआ है|

कृषि के उदय के साथ ही मानव की बुद्धि का विकास शुरू हुआ| मेहरगढ़ क्षेत्र में कृषि के व्यवस्थित उदय के साथ ही उन क्षेत्रों में बुद्धि का व्यवस्थित आगमन हो सका, और इसीलिए सिन्धु घाटी क्षेत्र में बुद्धि से जुड़े संस्थाओं (Institutions) एवं संस्थानों (Institutes) का उदय होने लगा| इसी के साथ ‘बुद्धत्व’ एवं ‘बुद्ध’ की अवधारणा स्थायी हो गई| बुद्धि के इसी परम्परा में गोतम 28वें ‘बुद्ध’ हुए| बुद्ध शब्द का संरचनात्मक अर्थ सिर्फ मानव की बुद्धि से जुड़ा हुआ है। विशिष्ट एवं उत्कृष्ट बुद्धि वाला ही “बुद्धत्व” के पद को प्राप्त कर कोई भी व्यक्ति बुद्ध बनता है, अर्थात ‘बुद्धि’ से ही ‘बुद्ध’ शब्द की उत्पत्ति हुई है| इसीलिए बुद्ध एक नहीं, अनेक हुए| किसी मानव की बुद्धि को ही परिष्कृत, उत्कृष्ट, और विवेकशील होने का तरीका यानि मार्ग ही तो बुद्ध का दर्शन है। इससे आगे बुद्ध नहीं है। आज के परम्परागत धर्म के संदर्भ में तो बुद्ध कहीं नहीं है। बुद्ध के नाम पर वर्तमान में प्रचलित परम्परागत धर्म का भी उदय भी सामन्तकाल में ही हुआ है| यही सब नाटक देख कर बुद्ध को अच्छा नहीं लग रहा है|

बुद्ध के उदासी के कारणों पर आने से पहले उनके व्यक्तिगत और संस्थागत योगदान पर नजर डाला जाय| मानवों में संज्ञानात्मक क्रान्ति, यानि बौद्धिक समझ बूझ कोई साठ हजार वर्ष पूर्व मानी जाती है| मानव के इतिहास में पहली बार इन बुद्धि के संस्थाओं ने इस संज्ञात्मक सूझ बुझ की क्रान्ति का सूत्रीकरण किया| यानि बुद्धि यानि बौद्धिक समझ के इस आविष्कार को व्यवस्थित किया, सरलीकृत किया, एवं एक सूत्र में पिरो दिया| यह सूत्र आज “बुद्धमं शरणम गच्छामि, धम्मं शरणम गच्छामि, संघं शरणम गच्छामि” के रूप में आया| अर्थात बुद्धि के शरण में आओ; उसमे में से जो धारणीय यानि धारण करने योग्य हो, उसे धारण करो; और उसे परिष्कृत एवं व्यवस्थित कने के लिए संघ यानि संगठन में जाओ|

आज लोग मानव की बौद्धिकता यानि बुद्धिमत्ता (Intelligence) के स्वरुप के बारे में बाते करते हैं| कोई बुद्धिमत्ता में सामने वाले की भावनाओं को ध्यान में रखने की बात करता है, तो कोई वर्तमान समाज के स्वरुप एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखने को रेखांकित करते हैं| बुद्ध की बुद्धि में तो इन सबो के अतिरिक्त ‘प्राकृतिक न्याय’, ‘मानवता’ एवं ‘प्रकृति’ अवश्य शामिल रहा है| कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्ध ने बुद्धिमत्ता के स्वरुप, गुणों एवं संरचना में ‘मानवता के भविष्य’ को बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान दिया है| आज वैश्विक संगठन UNDP भी अपने ‘16’ “धारणीय लक्ष्यों” में इसे शामिल किए हुए है|

बुद्धि की इसी परम्परा ने सबसे पहले ध्यान करने की एक विधि का ईजाद किया, जिसमे अपनी सांसों को नाक के माध्यम अन्दर जाने एवं बहार निकलने को स्पर्श करने की अनुभुति पर ध्यान देने की बात है| इसे ‘विससना’ कहा जाता है| कालांतर में इसी मूल स्वरुप के आधार पर कई अन्य स्वरुप विकसित होते गये| यह अपने स्वयं के अवलोकन की विधि है, जिससे मानव में संकेन्द्रण की क्षमता भी विकसित होती है| यह विधि शायद बुद्धों की परम्परा में गोतम ने सर्वप्रथम दिए| इस विधि से कोई भी अपने मूल एवं मौलिक स्वरुप को उसी अवस्था में देख, समझ एवं बदल सकता है| इससे जीवन के प्रति मानव का नजारिया बदल जाता है| यह विधि अपने ‘आत्म’ (Self) को ‘अधि’ (ऊपर) से यानि ‘अनन्त प्रज्ञा’ से जोड़ने की सरल, साधारण एवं सूक्ष्म प्रक्रिया को अपनाती है| इसी ‘आत्म’ को ‘अधि’ से जोड़ने को प्रक्रिया को “अध्यात्म” कहा जाता है|

बुद्ध ने मानव जीवन की सफलता के लिए एक आठ सूत्री (आष्टांग) मार्ग बताया. जो लोगों में “मध्यम मार्ग” के रूप में आज भी ज्ञात है| इसके प्रत्येक सूत्र का एक व्यापक, विषद एवं गहरा अर्थ निकलता है| ‘सम्यक’ एक ऐसा लचीला शब्द है, जिसे सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, वातावरण, पारितंत्र, आवश्यकता एवं ज्ञान के स्तर के अनुसार व्याख्यापित किया जा सकता है, या किया जाता है| इसके प्रत्येक सूत्र काफी ध्यान देने योग है, लेकिन इस पर इसके तथाकथित अनुयायी कभी चर्चा भी करते हों| यही सब सूत्र किसी के लिए भी व्यवहारिक सफलता के सूत्र हैं|

बुद्धों ने “विज्ञान” की नीव डाली| यदि आप लेखक फ्रांसिस बेकन पर ध्यान दें, तो आपको यह स्पष्ट होगा कि उसने बुद्धों के जीवन दर्शन को गहनता और गंभीरता से अध्ययन किया है| बुद्ध ने हर बातों एवं विचारों को तार्किकता की कसौटी पर कसने को कहा| हर घटना का कोई कारण अवश्य रहा है, जिसके परिणामस्वरूप वह घटना घटी| इसने हर विचारों एवं घटनाओं के कारणों को समझने के लिए ‘प्रश्न खड़ा करने’, यानी ‘शंका’ करने को प्रमुखता दिया| इन्होने ‘आस्था’ को महत्व नहीं दिया| यही सवाल खड़ा करना आज भी विज्ञान के विकास का मूल आधार है| इसने इसी तर्क के साथ किसी भी ‘ईश्वर’ की अवधारणा का खंडन किया| ‘ईश्वर’ एक ऐसा व्यक्ति होता है, जिसने विश्व का निर्माण किया, अभी भी सञ्चालन करता है, नियमन करता है, और कुछ अपने तथाकथित एजेंटों के माध्यम से सुनता भी है| इसी के साथ उसने किसी भी जीवात्मा’, उसके ‘पुनर्जन्म’ और ‘कर्म के किसी परिणाम का आत्मा के साथ ‘अंतरण’ यानि ‘यात्रा’ का खंडन किया हैं| इन्ही अवधारणाओं ने विज्ञान को अग्रसर होने का मार्ग प्रशस्त किया| आधुनिक विज्ञान इसके लिए बुद्धि के इस देव का आभारी है|

आधुनिक युग में तो मार्केटिंग की अवधारणा एवं तकनीक की धूम मची हुई है| आज वस्तुओं. सेवाओं, संपदाओं, व्यक्तित्व, घटनाओं, स्थलों, नीतियों, विचारों, आदर्शों, इत्यादि सभी को मार्केटिंग की आवश्यकता है| बदलते तकनिकी, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दौर में मार्केटिंग के स्वरुप बदलते जा रहे हैं, लेकिन इसकी मूल एवं मौलिक अवधारणा अभी भी स्थिर है| आधुनिक मार्केटिंग गुरु ‘फिलिप कोटलर’ ने तो मार्केटिंग के बदलते स्वरुप के आधार पर ‘मार्केटिंग -1’ से शुरू कर आज ‘मार्केटिंग -6’ की अवधारणा तक चले गये हैं| जब मैं बुद्धि के इन भारतीय सृजन कर्ताओं को देखता हूँ, तो पाता हूँ कि बुद्ध ने जिन विचारों की मार्केटिंग आज से ढाई हजार साल पहले इस तरह से की गयी थी कि हमलोग आज भी उस पर विमर्श कर रहे हैं| बुद्ध का दस ‘प्रज्ञा पारमिता’ हैं, जो सभी मार्केटिंग व्यक्तियों के अनिवार्य गुण एवं विशेषता हैं| आप कह सकते हैं कि बुद्ध मार्केटिंग के आज भी पितामह हैं| आप इनसे आज भी मार्केटिंग की विद्या ग्रहण कर अपने सफल बना सकते हैं|

बुद्ध ने ‘अनित्यवाद’ के सिद्धांत देकर सभी को यह स्पष्ट कर दिया कि कोई भी चीज नित्य या स्थायी यानि स्थिर नहीं रह सकता| आपकी सुख, दुःख, कष्ट आदि सभी कुछ बदलते रहने वाला है| इसके लिए आपको सिर्फ अपनी नजरिया बदलने हैं. सब कुछ बदलने लगता है| अल्बर्ट आइन्स्टीन ने “समय” को एक चौथा आयाम बता कर इनके अनित्यवाद को भौतिकी विज्ञान में भी स्थान सुनिश्चित कर दिया| सैद्धांतिक विज्ञानी अपनी गणितीय गणनाओं से अभी और आठ आयामों के अस्तित्व की घोषणा करते हैं, जो अभी भी भविष्य के गर्भ में है| आज भी न्यूकिलीयर वैज्ञानिक बुद्ध के ज्ञान एवं दर्शन में बहुत कुछ समझना चाहते हैं| दरअसल यह सब ज्ञान मानव के बुद्धि यानि बुद्धों के प्रारंभिक काल से संचित होता गया|    

भारतीय लोगों ने बुद्ध के यानि बुद्धि के मूल और मौलिक स्वरूप को छोड़कर बुद्ध के जीवन सिद्धांत, सफलता का विज्ञान और दर्शन को परम्परागत धर्म का स्वरूप दे दिया है। मानवीय बुद्धि के विकास में उनके योगदान को पूर्णतया छोड़ दिया है। बुद्ध की उदासी एक व्यक्ति के रूप में भी है और एक संस्था (Institution) के रूप  में है। ध्यान रहे कि मैंने एक संस्था के रूप में कहा है, किसी संस्थान (Institute) के रूप में नहीं। आज भारत में बुद्ध के दर्शन के अनुयायियों को एक ख़ास रंग के वस्त्र, एक ख़ास आकृति, कुछ कर्मकांड तक सीमित कर दिया है| आज भारत में बुद्ध के तथाकथित अनुयायियों में लगभग दो ही तरह के लोगों का बाहुल्य हैपहले में वैसे लोग हैं, जिनकी सामाजिक सांस्कृतिक स्तर ऐसा है कि वे किसी परंपरागत धर्म के बिना जी नहीं सकते और परम्परागत प्रचलित धर्म में उन्हें अपेक्षित सम्मान नहीं मिल रहा है, और दुसरे में वैसे लोग हैं जो अपने को बुद्ध के खानदान के समझ रहे हैं, यानि इनका आज की जाति बुद्ध की तथाकथित जाति से मिलती है, और इसीलिए वे उनके उपासक बनने की घोषणा किये हुए हैं| ध्यान रहे कि प्राचीन काल में किसी भी जाति या जाति की व्यवस्था का अस्तित्व ही नहीं था|

मतलब यह कि इन दोनों समूहों में से किसी ने भी बुद्ध के दर्शन, ज्ञान एवं समझ पर इनके अनुयायी नहीं हुए हैं, भले ही अब इनके बौद्धिकता के अनुयायी का गौरव मानते हैं| चूँकि इनके तथाकथित बौद्ध होने का आधार ही बुद्ध के दर्शन, ज्ञान एवं समझ नहीं है, इसलिए ये लोग कभी भी बुद्ध के दर्शन, ज्ञान एवं समझ पर विमर्श या परिचर्चा नहीं करते हैं| वे लोग सिर्फ बुद्ध के नाम पर एक पारंपरिक कथा उवाच ही करते पाए जाते हैं| चूँकि बुद्ध के नाम जोड़ लेने से ही इनको सम्पूर्ण बौद्धिकता के ज्ञान, समझ एवं अनुभव होने का गौरव प्राप्त हो गया है, इसलिए वे चाहते हैं कि भारत की बहुसंख्यक आबादी भी इनकी धारा से जुड़ जाय, लेकिन बहुसंख्यक आबादी इनसे दुरी बनाये हुए है| चूँकि एक के जुड़ाव का आधार बुद्ध के ‘शाक्य’ वंशीय होने के आधार पर है, और दुसरे का आधार परंपरागत धर्म में अपेक्षित सम्मान का अभाव है, इसलिए जिन शेष भारतियों को इन दोनों आधार की जरुरत दृष्टिगोचर नहीं होता है, वे बुद्ध के दर्शन, ज्ञान एवं समझ से दूर ही हैं| हद यह है कि ऐसे लोग अपने को समझदार भी समझते हैं, जिनके जुड़ने का आधार ही बुद्ध के दर्शन, ज्ञान एवं समझ नहीं है| अन्यथा ऐसे लोग बुद्ध के ज्ञान, विज्ञान और जीवन दर्शन पर विमर्श नहीं करते हैं, सिर्फ कथा उवाच करते रहते हैं|

इसलिए तो बुद्ध इन भारतियों की मानसिकता को देख समझ कर ही उदास हैं|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

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