क्या भ्रष्टाचार भारत की एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है? क्या अब यह एक राष्ट्रीय संस्कृति बन चुकी है? यदि यह
भ्रष्टाचार भारत की सबसे प्रमुख राष्ट्रीय समस्या है, तो इसके निवारण के लिए, यानि
इस राष्ट्रीय कोढ़ से मुक्ति पाने के लिए क्या क्या किया जाना समुचित एवं न्यायोचित
होगा? इस भ्रष्टाचार की प्रकृति क्या है, यानि इसका स्वभाव एवं गुणधर्म क्या है?
इसकी व्यापकता एवं इसके व्यापक प्रभाव क्या क्या है? इसके साथ सबसे बड़ा प्रश्न यह
है कि इसका स्थायी एवं प्रभावी समाधान यानि इसका निदान कैसे हो? उपरोक्त सब को
समझना जरुरी है, अन्यथा हमलोग भारत के विकास की सम्पूर्ण बातें सतही करते है, या
दिखावटी करते है, या सब कुछ एक महज तमाशा ही है| तो हमलोग भ्रष्टाचार पर आगे बढ़ते
हैं|
यह प्रश्न कि क्या अब यह एक राष्ट्रीय संस्कृति बन चुकी है, आपको आपत्तिजनक लग सकता है? लेकिन जब कोई संस्कृति राष्ट्रीय स्तर पर व्याप्त हो जाती है, तो उसे राष्ट्रीय संस्कृति ही कहा जायगा| संस्कृति क्या है? यह समाज द्वारा मान्यता प्राप्त या इनके मानको के अनुरूप भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों की अपेक्षा प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज से करता है| यही मानक संस्कृति के रूप में अदृश्य रह कर व्यक्ति एवं समाज को संचालित, नियंत्रित, नियमित एवं प्रभावित करती रहती है| आधुनिक शब्दावली में, इसे मानव समाज का 'साफ्टवेयर' भी कह सकते हैं| मैंने इस भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय संस्कृति इसलिए कहा, क्योंकि इस भ्रष्टाचार को लगभग प्रत्येक व्यक्त एक सामान्य जीवन मान चुका है, और कोई इस गंभीर समस्या पर विमर्श को ही आगे बढ़ाने को तैयार नहीं है| ऐसी स्थिति में इसे राष्ट्रीय संस्कृति ही कहना उपयुक हो जाता है|
भ्रष्टाचार को रोकने या समाप्त करने की बातें
सोचने से पहले हमें यह समझना होगा कि यह भ्रष्टाचार क्या होता है? वैसा आचरण या व्यवहार, विचार या भावना, जो भ्रष्ट हो गया है, यानि ऐसा आचरण जो उस समय प्रचलित सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों
में निर्धारित एवं नियमित मानको, यानि मानक व्यवहारों से विचलित या विपरीत हो गया
हो, भ्रष्टाचार कहते हैं। यदि
यही अवधारणा या परिभाषा ही भ्रष्टाचार की समुचित व्याख्या करता है, तो इस भ्रष्ट
आचरण का घेरा बहुत व्यापक और गहरा हो जाता है और इसमें सभी कामकाजी वर्ग या समूह
शामिल हो जाते हैं। किसी किसी राष्ट्र में ‘विधि
–व्यवस्था (Law n Order)’ में ‘विधि (Law)
का प्रावधान’ ‘विधि के लिए व्यवस्था (Order)’
से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, तो किसी अन्य राष्ट्र में ‘व्यवस्था (Order)’
से ज्यादा महत्वपूर्ण ‘विधि या कानून का प्रावधान’ ही हो जाता है| विश्व
में ऐसे देश बहुत ही कम हैं, जहाँ ‘विधि’ एवं ‘व्यवस्था’ दोनों में समुचित
संतुलन रहता है| भारत में तो ‘विधि –व्यवस्था (Law n Order)’ में ‘विधि’ का महत्व
है, लेकिन इसके लिए ‘व्यवस्था’ (Order/ System) की स्थिति पूरी तरह से “लचर”
है| इसीलिए भारत में ‘धडाधड’ कानून और नियम बनाये जाते रहते हैं, भले ही उसके लिए
कोई व्यवहारिक सुविधा या व्यवस्था या तंत्र नहीं दी जाती हो| भारत में किसी भी विधि के लिए कोई भी समुचित सुविधा या
व्यवस्था या तंत्र के प्रावधान की व्यवस्था किए बिना ‘विधि’ को लागू करने पर जोर
दिया जाता है, और उसका ही परिणाम होता है - नौकरशाही में व्यापक भ्रष्टाचार|
अब प्रश्न यह है कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानकों से ऐसे विचलित आचरण को कैसे रोका जाए?
स्पष्ट
है कि इस भ्रष्ट आचरण में,
यानि भ्रष्टाचार की परिधि में सामान्य जनता, सामान्य
मतदाता, सामान्य
सरकारी एवं गैर-सरकारी कर्मचारी एवं अधिकारी, राजनेता और मंत्री गण, सभी शामिल हो जाते हैं। जब इसमें
सामान्य जनता और मतदाता भी शामिल हैं,
तो स्पष्ट है कि किसी भी देश की सम्पूर्ण
आबादी ही अपवाद सहित या रहित इस भ्रष्टाचार में शामिल हो जाता है, यानि
भ्रष्टाचारी हो जाता है। शायद इसीलिए भारत में यह उक्ति प्रचलित है कि
जिन्हें भ्रष्ट आचरण करने का मौका नहीं मिलता है, वह अपने को तथाकथित ईमानदार समझ सकता है। कहने का तात्पर्य
यह है कि जब भ्रष्टाचार किसी देश का,
या किसी राष्ट्र का,
या किसी संस्कृति का,
या किसी समाज का सामान्य चरित्र बन जाता है, तो इस प्रकृति के भ्रष्टाचार की भयावहता के परिणाम व्यापक
और विस्तृत होता है|
जब भ्रष्टाचार किसी देश का, या किसी राष्ट्र का, या किसी संस्कृति का, या किसी समाज का सामान्य चरित्र बन जाता है, तो ऐसे नागरिकों के प्रति अन्य विकसित एवं समृद्ध नागरिकों का नजरिया और
दृष्टिकोण बदलने लगता है, यानि उनके प्रति नकारात्मक होने लगता है। तब
उस देश, राष्ट्र, संस्कृति और
समाज के बारे लोगों की यह धारणा मजबूत होने लगती है कि ऐसे भ्रष्टाचारी देशों, राष्ट्रों, संस्कृतियों
और समाजों की न्यायिक चरित्र विश्वनीय नहीं रह जाता है। परिणाम यह होता है कि ऐसे भ्रष्टाचारी संस्कृति वाला देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज को किसी भी लम्बी एवं विशाल
योजनाओं के लिए और वहाँ निवेश के लिए उपयुक्त एवं विश्वसनीय नहीं माना जाता हैं| ऐसे
देश, राष्ट्र, संस्कृति और
समाज ‘पूंजी’ के निवेश के लिए खतरनाक हो जाता है, या ऐसा माना जाता है। विदेशी तो विदेशी, ऐसा ही विश्वास वहां के भी स्थानीय सक्षम, योग्य और समृद्ध लोग भी करने लगते हैं, और अपने अगले निवेश के लिए विदेश को ही
उपयुक्त समझने लगते हैं| इसीलिए बेहतर विकल्प मिलने पर ऐसे स्थानीय सक्षम, योग्य और समृद्ध लोग उस देश, राष्ट्र, संस्कृति
और समाज को भी त्यागने लगते हैं। हाल के वर्षों में किसी देश की नागरिकता
त्यागने और दूसरे देशों की नागरिकता अपनाने की संख्या में वृद्धि होती जाने की
प्रक्रिया या घटना को इसी दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है। ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और
समाज में वही लोग उसी देश,
राष्ट्र, संस्कृति
और समाज में रहने को विवश समझते और मानते हैं, जिन्हें विकल्प तलाशने का समझ और सामर्थ्य नहीं होता है।
किसी भी भ्रष्टाचारी में न्यायिक चरित्र का अभाव रहता है|
इसीलिए जब भ्रष्टाचार किसी देश का,
या किसी राष्ट्र का,
या किसी संस्कृति का,
या किसी समाज का सामान्य चरित्र बन जाता है, तो स्पष्ट है कि न्यायिक चरित्र के अभाव में उस देश, राष्ट्र, संस्कृति एवं
समाज में बड़े निवेश से बचना चाहता है। इतिहास
गवाह है कि “सामुद्रिक परिवहन क्रांति” में और “उपनिवेशवाद” में अग्रणी रहने के
बावजूद भी, यानि इसकी शुरुआत करने वाले स्पेन और पुर्तगाल इसी न्यायिक चरित्र के
अभाव में पिछड़ता चला गया| इस नकारात्मक राष्ट्रीय चरित्र का परिणाम यह
हुआ कि “सामुद्रिक परिवहन क्रांति” में और “उपनिवेशवाद” में अग्रणी रहने
के बावजूद भी इसे बनाए रखने और इसे विस्तार के लिए आवश्यक आवश्यक धन एवं पूंजी के लिए
तत्कालीन वैश्विक पूंजी बाजार को ही विमुख कर दिया| इस
तरह अन्य नवोदित यथा इंग्लिश, डच, डेनिश, फ्रेंच उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी
देशों का उदय एवं विकास अपने मजबूत राष्ट्रीय चरित्र के कारण हो गया।
स्पेन और पुर्तगाल के ऐसे ही भ्रष्टाचार के राष्ट्रीय चरित्र की पहचान के कारण ही उसकी
यह स्थिति बन गई। स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार का
प्रत्यक्ष संबंध न्यायिक चरित्र से है, और निवेश से भी है। आप भी अपने आसपास यह देख सकते हैं कि बड़े और महत्वपूर्ण
वैश्विक निवेशक भी ऐसे देश,
राष्ट्र, संस्कृति
और समाज में बड़े और महत्वपूर्ण निवेश से बचते रहते हैं। ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और
समाज में यदि कोई महत्वपूर्ण निवेश होता भी है, तो वह विकल्पहीनता की स्थिति में होता है। यह स्थिति उस
आरोपित राष्ट्र या समाज या संस्कृति के लिए बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण होता है| यदि ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और
समाज को सोचने समझने का थोड़ा भी सामर्थ्य है, तो वह सब कुछ समझ सकता है।
जब
ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और
समाज में भ्रष्टाचार उसकी सामान्यीकृत स्वरुप धारण कर लेता है, तो यह कहा
जाना अनुचित नहीं होगा कि इससे “आचरण में दोहरापन”
आ जाता है। इसे ठेठ देशी भाषा में “दोगलापन”
भी कहा जाता है और अंग्रेजी में “दोहरा चरित्र” (“Double Character”)
कहते हैं। ‘आचरण में दोहरापन’ से
आशय यह है कि आप या हम जो बोलते हैं, आश्वासन देते हैं, लेकिन व्यवहार उनके अनुरूप नहीं होता है, या विपरीत भी होता है। यह “दोहरापन की समस्या”
भारत की राष्ट्रीय समस्या भी है। इसे अखंडता या सत्यनिष्ठा (Integrity) की समस्या भी
कहते हैं। इसी चरित्र के कारण जो मतदाता चार वर्ष ग्यारह महीने और पच्चीस दिन (भारत में लोकतांत्रिक निर्वाचन सामान्यतः पांच
वर्ष का होता है) आलोचना करता रहता है,
चुनाव में अपने जातीय,
धार्मिक या अन्य चश्मे से देखकर अपना मत उस निर्णय के विपरीत देता है, जैसा वह
सामान्यत: कहता रहता है। यह सामान्य जनता यानि सामान्य मतदाता का ‘दोहरा चरित्र’
हुआ, या
यह उनका भ्रष्ट आचरण हुआ। कहने का तात्पर्य यह हुआ कि यह दुहरापन जनता, नेता,
अधिकारी, कर्मचारी सभी का प्राकृतिक स्वभाव बन जाता है, अर्थात यह सब ‘स्वचालित’
हो जाता है और उसमे उसमे कोई भी असहजता नहीं होती है|
इसीलिए ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज भ्रष्टाचार के लिए निवारण के लिए, यानि इसके समाधान के लिए सम्बन्धी
प्राधिकार पर्याप्त नाटक करता रहता है| ऐसे ही नाटक को कुछ राजनेता या
कार्यपालिका- प्रधान “जीरो टोलरेंस” या ऐसा
ही भयानक अर्थ वाला नाम देता है| ऐसे आकर्षक नाम से सामान्य जनता उसे न्यायिक
चरित्र का बड़ा प्रतिमान या न्याय का मूर्ति समझ लेता है| ऐसे ही कुछ राजनेता “जनता दरबार” या “खुला
दरबार” का नाटक करता रहता है, जिसका कोई व्यावहारिक परिणाम नहीं निकलता
है, लेकिन ऐसे राजनेता मीडिया को नियंत्रित एवं प्रभावित कर जनता में अपना ‘इम्प्रेशन’
बनाता रहता है| ‘अनपढ़’ एवं “आलोचनात्मक चिंतन की
क्षमता -शून्य डिग्रीधारी” व्यक्ति तो ऐसे नाटकों से प्रभावित हो सकते हैं,
लेकिन “आलोचनात्मक चिंतन की क्षमता” वाले व्यक्तियों एवं समाजों को सब कुछ समझा
रहता है| कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे नाटकों को समझदार आदमी सब कुछ समझता
है और उसी के अनुरूप अपना भावी कार्यक्रम बनता है| इसीलिए ऐसे देशों एवं राष्ट्रों
से पलायन बढ़ता जा रहा है| ऐसे देशों एवं राष्ट्रों
का महत्व उनकी उपभोग –क्षमता (खाने और पचाने की क्षमता) से ही होती है, और उसमे
उनकी बुद्धिमता की कोई भूमिका नहीं होती है; यद्यपि उनको खुश रखने के लिए यह
दिखाया जाता है कि उनका यह महत्व उनकी बुद्धिमता के कारण है, जबकि वास्तव में ऐसा
नहीं होता है|
अधिकतर देशों में इस भ्रष्टाचार के निवारण के लिए पर्याप्त नियम /अधिनियम बना
दिए जाते हैं, लेकिन उसके पर्यवेक्षण के लिए उन्ही आरोपियों को अधिकृत कर दिया
जाता है| सामान्यत: ऐसा कोई भी नियामक प्राधिकार नहीं होता है,
जिसमे न्यायिक चरित्र हो| भारत में तो ऐसे अधिकांश नियामक प्राधिकार है, जो
नौकरशाही के ही पूर्व सदस्य होते हैं, और इसीलिए उनकी स्वाभाविक झुकाव नौकरशाही के
ही प्रति होती है| मैंने बहुतों मामलों में यह
अनुभव किया है कि उन न्यायिक प्राधिकारों मे प्राकृतिक न्याय की समझ ही नहीं होती
है| यदि आप कोई शिकायत दर्ज करते हैं, तो उस सरकारी प्रतिवादी पक्ष से
उत्तर मंगा कर उस वाद को ही समाप्त कर दिया जाता है, जबकि उस सरकारी प्रतिवादी पक्ष
यानि प्राधिकार के दिए गये उत्तर के संबध में वादी से भी उसका पक्ष जानना चाहिए|
ऐसा करना स्पष्टतया न्यायिक चरित्र का अभाव के कारण है, और वे प्राधिकार सिर्फ सारी
सुविधाएं भोग रहे हैं| बहुत से मामलों में
भ्रष्टाचार के राष्ट्रीय चरित्र के हो जाने के कारण न्यायिक प्राधिकार की भी रूचि
अपने लाभ से संचालित होने लगता है, यानि न्यायिक प्राधिकार ही भ्रष्टाचारी हो जाते
हैं|
प्रिंट एवं डिजीटल मीडिया पर प्रभावी एवं सख्त नियंत्रण भी भ्रष्टाचार की
व्यापकता एवं भयावहता को छिपाने में किया जाता है| इस भ्रष्टाचार
को मिटाने के लिए तो इस भ्रष्टाचार की परिभाषा ही बदल दिया जाता है| कुछ देशों में तो भ्रष्टाचार पर आवाज उठाने वाले को ही भ्रष्टाचारी
और अनैतिक साबित कर शासन प्रशासन प्रताड़ित करता रहता है| कुछ देशों में
तो भ्रष्टाचारी को ही सम्मानित कर, या विशिष्ट पद से देकर विराटकाय बना दिया जाता
है, जिससे सामान्य जनता की औकात ही नहीं होती, या हिम्मत ही नहीं होती कि वह
भ्रष्टाचारी पर कोई प्रश्न कर सके| नौकरशाही एक
स्थायी व्यवस्था होता है, और सामान्यत: स्थायी प्रकृति वाले सेवक से “अस्थायी”
सेवक भी डरते हैं, अर्थात राजनेता ही अपने को ‘अस्थायी’ समझ कर “स्थायी वरिष्ठ
नौकरशाहों” से डरे रहते हैं, और इनमे उनकी ‘सामाजिक पूंजी’ महत्वपूर्ण होती है|
कुछ अविकसित एवं तथाकथित विकासशील देशों में भ्रष्टाचारी और न्यायिक प्राधिकार
में “सामाजिक पूंजी” के आधार पर, या “सांस्कृतिक समानता” के आधार पर ‘गठजोड़’ बना
रहता है, जो उनके न्यायिक प्रवृति को विकृत कर देता है| “सामाजिक पूंजी” या
“सांस्कृतिक समानता” के मूलभूत आधार को भारत में ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘भाषा’ एवं ‘धर्म’के
आधार पर भी समझा जा सकता है|
अभी तक तो
हमने भ्रष्टाचार के समाधान के प्रमुख कारकों की ओर अंगुली से इशारा मात्र किया है,
क्योंकि उपर्युक्त सभी पक्ष सिर्फ ‘सतही’ स्पर्श मात्र है| यह भ्रष्टाचार
स्पष्टतया न्याय, स्वतंत्रता, समता व् समानता, एवं बंधुत्व विरोधी होता है, यानि
यह स्पष्टतया मानवता विरोधी होगा| इसलिए इस भ्रष्टाचार को अवश्य ही समाप्त किया
जाना चाहिए, यदि आप इस देश को और राष्ट्र को बहुत आगे और शिखर पर ले जाना चाहता
है| स्पष्ट कहा जाय तो किसी भी ‘राष्ट्रीय चरित्र’
के समाधान में ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ (National Culture) की भूमिका महत्वपूर्ण हो
जाती है| भारत की राष्ट्रीय संस्कृति का मूलभूत तत्व में प्रमुख ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’,
‘भाषा’ आदि है| यही सब तत्व भारत में “सांस्कृतिक
जड़ता” (Cultural Inertia) का निर्माण करता है, जो इन ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’, ‘भाषा’
से लाभान्वित व्यक्तियों एवं समाजों को उनके “सांस्कृतिक जड़ता” में ‘जड़’ (Fix) कर
देता है| भारत में यही ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’,
‘भाषा’ समाज में “सामाजिक पूंजी” (Social Capital) का निर्माण करता है|
भारतीय इतिहास को जला कर, नष्ट कर भारत के प्राचीन इतिहास को ही बदल गिया दिया
गया है| इस ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’ को सही
एवं समुचित ढंग से समझने के लिए इतिहास की
वैज्ञानिक व्याख्या करनी होगी, जो ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’ के इतिहास के नष्ट कर
दिए कड़ी (Chain) को ही खोल देता है और सब कुछ स्पष्ट कर देता है| बाजार की आर्थिक शक्तियों, यानि उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं
उपभोग के साधनों एवं शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों के आधार पर सब कुछ स्पष्ट हो
जाता है| ऐसी व्याख्या से ही भ्रष्टाचार
के बनावटी यानि कृत्रिम एवं मनगढ़ंत मिथकीय आधार को नष्ट किया जा सकता है, समाप्त
किया जा सकता है, जो आज इतिहास के रूप में मान्य एवं प्रचलित होकर भ्रस्ग्ताचार को
मजबूती दे रहा है| कोई भी दूसरा विकल्प भारत
को ठगने का एक कुत्सित प्रयास है| और
इसीलिए यह प्राचीन काल की ‘सोने की चिड़िया’ की यह दुर्दशा व्याप्त है|
आप इन सब पर थोडा ठहर कर गंभीरता से सोचिएगा|
आचार्य
निरंजन सिन्हा
भारतीय
संस्कृति के ध्वजवाहक
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