आजकल शूद्र और मूल निवासी आदि शब्दों का समाज में प्रचलन काफी बढ़ गया है। मुझे समाज में कुछ ख़ास
एवं विशिष्ट बुद्धिजीवियों से भेंट हुई है, तो कुछ तथाकथित क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों
से भी पाला पड़ा है| इनकी बातों को
सुनकर मैं हैरत में पड़ गया, क्योंकि ये जो बोल और कर रहे हैं, वह उनके जीवन लक्ष्य
के ही विरुद्ध जा रहा है| मतलब वे जिस लक्ष्य के
लिए समर्पित हैं, उसी के विरुद्ध लगे हुए हैं और चीखते – चिल्लाते भिड़े हुए भी हैं|
उन्हें इसकी समझ ही नहीं है, कि वे कैसे अपने ही विरुद्ध कार्यरत हैं? इसे गंभीरता
एवं स्पष्टता से समझने के लिए कुछ वैज्ञानिक उपकरणों (Tools, not Instruments) एवं
अवधारणाओं (Concepts) की चर्चा बाद में किया जाएगा, पहले कुछ उदाहरण को देख लिया
जाय|
मेरे एक मित्र हैं, - तथाकथित एक राष्ट्रीय
संगठन के प्रांतीय अध्यक्ष| अपने को बताते हैं कि वे ईश्वर और उनसे सम्बन्धित कथाओं
में विश्वास नहीं करते| यानि एक क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी हैं| मैंने उन्हें ‘रंगों के उत्सव’ ‘होली’ के अवसर पर शुभकामना
सन्देश भेजा| उन्होंने तुरंत एक प्रतिउत्तर भेजा – “मैं
एक महिला (होलिका) के दहन के वर्षगाँठ पर आपकी शुभकामना सन्देश को स्वीकार नहीं कर
सकता|” मैं उनकी वैज्ञानिकता एवं तार्किकता को देख कर थोडा आश्चर्य में
पड़ गया| मैंने उन्हें तत्काल लिखा- “मतलब आप होली उत्सव से जुड़े ‘होलिका’ की
ऐतिहासिकता और उसकी दहन की कहानी की सत्यता को स्वीकार करते हैं, अर्थात आप
उससे जुड़ी ‘नरसिंहावतार’ की घटना को भी ऐतिहासिक एवं सत्य मानते होंगें, अर्थात आप
भगवान विष्णु एवं उनके अवतार को भी ऐतिहासिक एवं सत्य मानते हैं, तो फिर किस आधार
पर ईश्वर का विरोध करते हैं और क्यों?” ध्यान रहे कि वे अपने को एक क्रान्तिकारी
माने जाने वाले योद्धा के रूप में जताते रहते हैं, जो ईश्वर के किसी अस्तित्व को
स्वीकार नहीं करता| तब उन्होंने उत्तर दिया कि वे इस तरह से नहीं सोचे थे| एक और
उदहारण देखें|
आजकल समाज में कुछ समूहों द्वारा “मूल निवासी” शब्द का प्रयोग बड़े गर्व के साथ किया जाता
हैं, मानों यह एक क्रान्तिकारी और एक वैज्ञानिक अवधारणा है, जिसे उन्होंने अभी हाल
ही में जाना है| इस कारण वे अपने को एक क्रान्तिकारी और पहुंचे हुए बुद्धिजीवी मानते
हैं| उन्हें यह पता ही नहीं है कि यह शब्द और अवधारणा उन्हीं के विरुद्ध प्रयुक्त
है, जिसका वे बड़े जोर -शोर से समर्थन कर रहे हैं| ‘मूल निवासी’ का अर्थ है – ऐसा
मानव समूह जिसकी जीनीय शुद्धता शुरू से अभी तक यथावत बनी हुई है| ‘मूल निवासी’
की सापेक्षता (Relativity) के अनुसार “आर्यों की कहानी” भी उसी तरह सही, शुद्ध और
ऐतिहासिक है, जिसके अनुसार वे भारत में सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत किये, और
जो आज भी सनातन है| इस कहानी के अनुसार तथाकथित ‘आर्य’ आक्रमणकारी ही शासक एवं
शासक वर्ग हुए, जिनकी जीनीय शुद्धता आज भी यथावत है| इस कथा के समर्थन का अर्थ है,
कि यह सब कहानी सत्य और ऐतिहासिक है| मतलब कि तथाकथित
आर्यों की जीनीय शुद्धता शासन करने के लिए और मूल निवासियों की जीनीय शुद्धता
शासित होने के लिए अभी भी वैसे ही यथावत है| अब यह अर्थ यदि उन
बुद्धिजीवियों को बताए/ दिखाए जाते हैं, तो उन्हें ख़राब लग जाता है| लेकिन उसका
यही सही और एकमात्र अर्थ है| यही तो स्थापित करना किसी (उनके विरोधियों) का मुख्य
एजेंडा भी है, जिसको भारत के एक राज्य में धीरे धीरे लागू भी किये जाने की चर्चा है|
इस तथाकथित उपक्रम में, जैसे नाई को ऐतिहासिक मूलनिवासी मानते हुए समाज एवं
राष्ट्र हित में उसकी ऐतिहासिक कौशल की जीनीय शुद्धता के विकास के लिए सरकारी
बोर्ड/ निगम बनाये जा रहे हैं| इसी प्रकार फिर अन्त में शासन करने वालों की जीनीय
शुद्धता के नाम पर उन्हें शासन करने के लिए उपयुक्त माना जायगा| तब ‘मूल निवासी’
आन्दोलन चलने वालों को इस आन्दोलन का वह परिणाम प्राप्त होगा, जो परिणाम वे नहीं चाहते
हैं| तो यह है उनके बुद्धि का हाल|
इसी तरह ‘शूद्र’ शब्द का भी आजकल ‘चटक
बौद्धिकता’ में बहुत उपयोग किया जाने लगा है| शूद्र एक वर्ग
था, जो वर्ण व्यवस्था का निम्नतर (छोटी) भूमिका एवं नगण्य (क्षुद्र) संख्या के
कारण एक निम्नतर स्तर का वर्ग रहा| ये सामन्ती
शासन व्यवस्था में सामंतों के व्यक्तिगत सेवक थे, जो ब्रिटिश काल में अपनी पहचान
खो दिए यानि विलुप्त हो गये| भारत की
शेष वृहत आबादी, जो वस्तुओं के उत्पादक एवं सेवाओं के प्रदाता रहे, पर सामन्तों की
सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था टिकी हुई थी| और
इसी कारण ये समस्त वृहत आबादी वर्ण व्यवस्था से बाहर थी| अर्थात शासकों का
वर्ण व्यवस्था था और शासितों का जाति व्यवस्था| इस तरह इस जाति
व्यवस्था का वर्ण व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं था| अर्थात दोनों कभी नहीं मिलने वाली एक समानान्तर संगठित व्यवस्था
थी| यह तो आधुनिक लोकतंत्र के चुनावी
अंकगणित का खेल है, जिसमें ये तथाकथित ‘चटक बुद्धिजीवी’ पूरे समाज को उलझाए हुए हैं
और खुद उसी में उलझे हुए हैं| कोई देश या समाज या संस्कृति अपने लोगों
की उत्पादकता में संवृद्धि करने हेतु उनके मनोबल को बढाने में लगा हुआ रहता है, तो
इसके विपरीत भारत में लोगों का मनोबल तोड़ने के लिए
क्षुद्रीकरण यानि निम्नीकरण का अभियान चलाने में ये ‘चटक बुद्धिजीवी’ लगे हुए हैं|
ध्यान रहे कि ‘हिन्दू’ शब्द का धर्म के सन्दर्भ में उपयोग का इतिहास दो शताब्दी से
भी कम पुराना है| तो आइए, समझते हैं कि वास्तविक ‘बुद्धिजीवी’ कौन हैं?
बुद्धिजीवी वे होते हैं, जिनकी
जीविका का मुख्य आधार बुद्धि का प्रयोग यानि उपयोग होता है, यानि जो बौद्धिक
श्रम करते हैं| इस प्रकार का श्रम करने वालों को आप अर्थव्यवस्था के चौथे
प्रक्षेत्र (Quaternary Sector) एवं पांचवे प्रक्षेत्र (Quinary Sector) में रख
सकते हैं| आजकल के चटक श्रेणी के
बुद्धिजीवियों की एक खास विशिष्टता यह होती है कि ये अन्य बुद्धिजीवियों को
‘परजीवी’ (Parasite) समझते हैं| ये शारीरिक श्रम को सम्मानीय मेहनत और बौद्धिक
श्रम को परजीविता का पर्याय समझते हैं| इन्हें इसका ध्यान ही नहीं रहता कि
‘बौद्धिक श्रम’ तो ‘शारीरिक श्रम’ से भी कठिन होता है, और इसीलिए इस तरह के श्रम
करने वालों की संख्या अति अल्प होती है| इसी प्रकार इन चटक श्रेणी के
बुद्धिजीवियों को यह भी नहीं पता होता कि मानसिक श्रम शारीरिक श्रम की अपेक्षा कई
गुण श्रेष्ट होता है| इसी कारण ‘बौद्धिक श्रम’ वाले ‘शारीरिक श्रम’ वालों पर सदैव
शासन करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे, भले ही उनकी संख्या अति अल्प हो, और
शासन प्रणाली लोकतान्त्रिक हो|
तो ‘बुद्धि’
क्या है? अपने ज्ञान एवं अनुभव का समझदारी के साथ प्रयोग या उपयोग
करना ही ‘बुद्धि’ है| तो समझदारी क्या है? विवेक (Rationality) के साथ
वैज्ञानिकता (कार्य- कारण सम्बन्ध) का प्रयोग करना ही समझदारी है| इसीलिए भारत
में ‘बुद्धि’ के ‘विशिष्ट उच्चस्थ ज्ञाता’ को “बुद्ध”
कहा जाता रहा| बुद्धों की इसी परम्परा में गोतम यानि गौतम बुद्ध 28वें बुद्ध
हुए| बौद्धिक काल यानि प्राचीन काल में बुद्धि के “विशिष्ट स्थापित जानकार” को “बाह्मण” (ध्यान रहे कि उस काल में ब्राह्मण का उदय नहीं
हुआ था), या ‘बमण’, या ‘बाभन’
कहा जाता रहा| ये सभी शब्द ‘बुद्धि’ के उपाधि
थे, जो अर्जित योग्यता के आधार पर मिलते थे| ये शब्द उस समय पालि के
थे, जो समय के साथ बाद में सामन्तकाल में संस्कारित होते हुए संस्कृत की शब्दावली
में बदल गये| पालि भाषा का चरम संस्कार यानि सुसज्जिकरण यानि अलंकरण मध्य काल में
हुआ और यह पालि भाषा ही बदल कर संस्कृत भाषा हो गई|
यह समय मध्यकाल का था, जब सामन्तवाद पूर्णतया स्थापित हो चुका था| सामन्तवाद में यह पद अन्य समस्त पदों की तरह ही ‘अर्जित
योग्यता’ के बदले ‘जन्म के वंश के आधार’ पर निर्धारित किये जाने लगे और योग्यता का
पद ‘बाह्मण’, तब वंश के आधार पर ‘ब्राह्मण’ में बदल गया| स्पष्ट है कि
बौद्धिक काल यानि प्राचीन काल में जन्म आधारित ब्राह्मण वर्ग था ही नहीं| ‘बुद्धू’ शब्द भी इसी बुद्धि यानि बुद्ध से चिढ़े
हुए लोगों ने दिया| तय है कि यह शब्द भी मध्य काल में ही आया| इसके बाद हमें यह समझना चाहिए कि किसी भी चीज की
वैज्ञानिकता को समझने का क्या आधार होना चाहिए?
किसी भी चीज की
वैज्ञानिकता को समझने के लिए हमें चार्ल्स डार्विन का
विकासवाद (Evolutionism), सिगमंड फ्रायड का
आत्मवाद (Selfism) यानि चेतनावाद (Consciousnessism), कार्ल मार्क्स का आर्थिकवाद (Economicism), अल्बर्ट आईन्स्टीन का सापेक्षवाद (Relativitism) एवं
फर्डीनांड डी सौसुरे का संरचनावाद (Structuralism)
समझना चाहिए| यदि कोई इन सभी
को समझता है, तो वह किसी भी चीज का आलोचनात्मक विश्लेषण कर सकता है और इसीलिए वह
उसे सम्यक ढंग से यानि पूरी वैज्ञानिकता से समझ भी सकता है| आइए, इसे अभी संक्षेप
में ही समझें|
चार्ल्स
डार्विन का विकासवाद समझाता है, कि सभी चीजों का क्रमिक विकास सरलतम अवस्था एवं संरचना से
जटिलतम अवस्था एवं संरचना में होता है, जिसे उद्विकास (Evolution) भी कहा जाता है|
यदि कोई आपको यह समझा रहा है कि किसी भी संरचना या चीज का उद्विकास जटिलतम अवस्था
में सरलतम अवस्था की ओर होता है, तो समझ
लीजिए कि यह एक बौद्धिक षड़यंत्र है| ऐसी स्थिति में सावधान रहना होगा| संस्कृत भाषा के उद्विकास क्रम में यह समझाया जाता
है कि ‘पहले संस्कृत भाषा जटिलतम अवस्था में अवतरित हुई, क्योंकि यह दैवीय शक्ति
से उत्पन्न थी| फिर संस्कृत जटिलतम से सरल होकर प्राकृत एवं पालि भाषा बनी| इस
प्रकार यह विश्व में स्थापित विकासवाद के विपरीत स्थापना है, और हमें ऐसी कपोल
कल्पित एवं षड़यंत्रयुक्त कथाओं की मान्यताओं से सावधान हो जाना चाहिए|
सिगमंड
फ्रायड का आत्मवाद यानि चेतनावाद समझाता है कि किसी का आत्म
(Self, आत्मा नहीं) यानि चेतना (Consciousness) उसकी इड (Id), ईगो (Ego) और सुपर
इगो (Super Ego) से क्रिया एवं प्रतिक्रिया कर अपना ज्ञान, अनुभव एवं व्यवहार
निश्चित करता है| हम जानते हैं कि किसी का आत्म यानि चेतन का विकास
उसके ज्ञान, अनुभव एवं समय के साथ - साथ होता है, अर्थात उसकी आवश्यकताओं की समझ के
अनुरूप होता है| समय परिवर्तनशील है, और इसी के अनुरूप स्थितियाँ भी बदलती रहती
है| कोई भी किसी अवस्था एवं स्थिति को अपनी चेतना यानि अपनी आवश्यकताओं की समझ के
अनुसार समझता है, और इसीलिए कोई इतिहासकार या राजनेता या कार्यकर्ता आदि यदि कोई
चीज कह रहा है, या कर रहा है, तो वह उसकी चेतन की आवश्यकता से निर्देशित एवं
नियंत्रित होगा| इसलिए सदर्भ के व्यक्तियों की चेतन अवस्था को समझा जाना चाहिए|
कार्ल
मार्क्स का आर्थिकवाद यह समझाता है कि
हमारी मानसिक और आध्यात्मिक अवस्था भी हमारी भौतिक
अवस्था यानि शारीरिक संरचना में ही निवास करती है और उसी शरीर से ही सभी कुछ
क्रियान्वित एवं संचालित होता है| और इसीलिए किसी भी मानव या मानव समूह का समस्त अस्तित्व
उसकी भौतिकता से ही संचालित एवं नियंत्रित होता है, जो उसकी आर्थिक
शक्तियों से निर्देशित एवं नियंत्रित होता है| आर्थिक शक्तियों से तात्पर्य है –
उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग की शक्तियाँ एवं साधन और उनके आपसी अंतर्संबंध|
अत: किसी भी ऐतिहासिक अवस्था, घटना या प्रक्रिया को वैज्ञानिक ढंग से समझने का
आधार यही उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग की शक्तियों एवं साधनों और उनके आपसी
अंतर्संबंध होते हैं| यही इतिहास को सम्यक ढंग से समझाता है| इसे बड़े ध्यान से
समझे एवं मनन मंथन करें|
अल्बर्ट
आईन्स्टीन का सापेक्षवाद यह समझाता है कि
कोई भी चीज निरपेक्ष (Absolute) नहीं है, अर्थात
कोई भी चीज वस्तुनिष्ठ (Objective) नहीं है, अपितु हर चीज किसी के सापेक्ष (Relative)
ही है| आपको किसी भी बात या स्थिति को समझने के लिए किसी भी बात या स्थिति का
सन्दर्भ बिंदु (Point of Reference) तलाशना होगा| यदि कोई समाज शक्ति
में यानि सता (Power) में आपसे ज्यादा समर्थवान एवं बुद्धिमान है, और वह किसी बात
या प्रसंग को समाज में छोड़ (Circulate) रहा है या समर्थन कर रहा है या विरोध होने
दे रहा है, तो निश्चितया इसे बड़े ही विवेकपूर्ण और सुविचारित तरीके से आयोजित किया
गया होगा| ऊपर जो दो या तीन प्रसंग या उदाहरण दिए गए हैं, वह अपने सापेक्ष क्या समझाना चाह रहे
हैं, समझ गए होंगे| यदि आप किसी भी बात या स्थिति का सन्दर्भ नहीं तलाश पा रहे
हैं, तो उसे तलाशना शुरू कीजिए| और यह एक प्रकार का बौद्धिक श्रम है|
फर्डीनांड
डी सौसुरे का संरचनावाद यह समझाता है कि
किसी के अभिव्यक्ति के हर शब्द एवं वाक्य का एक निश्चित
संरचना (Structure) होता है| अर्थात अभिव्यक्ति का हर शब्द या वाक्य एक
आइसबर्ग (Iceberg) का उपरी दिखता टिप (Tip) है, और बाकी आइसबर्ग का संरचना तो पानी
में डूबे हुए होने के कारण अदृश्य रहता है| शब्द एवं वाक्य के इसी संरचना के कारण
कोई इन शब्दों या वाक्यों का निहित (Implied) अर्थ समझ लेता है, तो कोई इसी
संरचनावाद के कारण शब्दों या वाक्यों के बीच के विलुप्त शब्द या वाक्य को पढ़ लेता
है, जिसे ‘Between the Lines’ पढ़ना भी कहा जाता हैं|
आपको यह सब समझना होगा, अन्यथा आपको अपनी बौद्धिकता पर विचार करना चाहिए| मैंने
ऊपर ‘मूल निवासी’ शब्द का संरचनात्मक भावार्थ समझाया है, वैसे ही यह और कई अन्य भावार्थो
के सन्दर्भ में भी सही है|
अत: किसी को अपने ‘अंकपत्र’
(Marksheet) यानि उसके शैक्षणिक प्रमाणपत्र (Certificate) से या उसके द्वारा अधिग्रहित
पद (Hold Post) से अपनी बुद्धि का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं जोड लेना चाहिए| यह तो अनुभव एवं सजग
ज्ञान से किसी को भी उपलब्ध हो जाता है| इसीलिए
किसी भी विकसित देश के संविधान में किन्ही भी सर्वोच्च सार्वजनिक पदों या मुख्य
पदों के लिए परीक्षा आयोजित नहीं की जाती या कोई उपाधि या योग्यता सम्बन्धी प्रमाण
पत्र की बाध्यता नहीं होती है| हाँ,
उच्चस्थ एवं निम्नतम सेवकों के लिए परीक्षा या कोई उपाधि या योग्यता सम्बन्धी
प्रमाण पत्र की बाध्यता होती है| कोई भी परीक्षा या कोई उपाधि या
योग्यता सम्बन्धी प्रमाण पत्र की बाध्यता को बुद्धि का प्रमाण नहीं समझना चाहिए|
इसीलिए किसी को
भी बुद्धि पाने के लिए “आलोचनात्मक चिन्तक” (Critical Thinkar) बनना ही होगा,
अन्यथा कोई भी अपने सम्बन्ध में कोई भी भ्रम पालने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र
है| तो आलोचनात्मक चिंतन क्या होता है? किसी भी
विषय का “A, E, I, O, U” (सभी Vowels) के अनुसार समझ विकसित करें| यह
क्रमश: विश्लेषण (Analyse), मूल्याङ्कन (Evaluate),
व्याख्या (Interpret), संगठित करना (Organise) और एक
सूत्र में पिरोना (Unify) हुआ| किसी भी विषय का उसके घटक तत्वों
(Components) में विश्लेषण (Analyse)
करें| तब उपरोक्त पाँचों (चार्ल्स डार्विन का विकासवाद, सिगमंड फ्रायड का आत्मवाद
यानि चेतनावाद, कार्ल मार्क्स का आर्थिकवाद, आइन्स्टीन का सापेक्षवाद एवं फर्डीनांड डी सौसुरे का संरचनावाद, जो भी
समुचित हो) के आधार पर किये गये विश्लेषण का मूल्याङ्कन
(Evaluate) करें| तब सभी की व्याख्या (Interpret)
दिए गए सन्दर्भ या परिस्थिति के अनुरूप करें| उसके बाद सभी को प्रश्नगत सन्दर्भ के
अनुसार या प्रश्नगत पृष्ठभूमि के अनुरूप संगठित (Organise)
कर एक विशिष्ट संरचना तैयार करें| अन्त में, सभी को एक सूत्र में पिरोकर (Unify) अपने उपयोग यानि
अपने प्रयोजन के हित में समेकित करना ही किसी की बुद्धि है| मैं समझता हूँ कि कोई
भी उपर्युक्त सभी आधारों पर किसी भी चीज यानि विषय को सम्यक और उपयुक्त तरीके से पूरी
तरह से समझ सकता है| यही बुद्धि का उपागम (Approach)
है|
मैं आप सबों से इस ब्लॉग पर ‘उपलब्ध टिप्पणी
बाक्स’ में आपके सुझाव आमंत्रित करता हूँ, ताकि मैं उसका ध्यान रख सकूँ|
आचार्य निरंजन
सिन्हा