मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

नालन्दा विश्वविद्यालय को क्यों जलना पड़ा?

ऐसा क्यों हुआ कि नालन्दा विश्वविद्यालय और भारत के ऐसे सभी संस्थानों के पालि एवं प्राकृत भाषा से सम्बन्धित उपलब्ध सारे साहित्यों एवं ग्रंथों को जल जाना पड़ा या नष्ट हो जाना पड़ा, लेकिन भारत की एक विशिष्ट भाषा ‘संस्कृत’ भाषा में रचित साहित्यों एवं ग्रंथो को जलने या नष्ट हो जाने से बच जाना पडा? ध्यान रहे कि भारत में वर्तमान सभी मौलिक प्राचीन पालि साहित्य एवं ग्रन्थ भारतीय राज्य सीमाओं से बाहर के देशों एवं क्षेत्रों से बहुत बाद के काल में भारत लाकर उसे पुनर्जीवित करना पडा. लेकिन संस्कृत को ऐसा आवश्यकता नहीं पड़ी? कहते हैं कि नालन्दा विश्विद्यालय आग में छह महीने तक जलता रहा| क्या तथाकथित ‘विदेशी आक्रान्ता’ इस विश्वविद्यालय को जला कर नष्ट करने के लिए नालन्दा में कैम्प कर दिया था या कोई स्थानीय आतताई इसे नष्ट कर रहा था?  यदि निश्चितया कोई विदेशी आक्रांता ही थे, तो उसने तथाकथित संस्कृत भाषा के साहित्यों एवं ग्रंथों को क्यों जलने से बचा दिया? क्या वह आक्रान्ता संस्कृत भाषा प्रेमी था? ध्यान रहे कि सामंतवादियों का कोई धर्म नहीं होता, इसलिए तो उनमे धर्म के परे भी वैवाहिक सम्बन्ध मजबूत रहे हैं। लेकिन ऐसा सिर्फ नालन्दा विश्वविद्यालय के साथ ही नहीं हुआ|

नालन्दा विश्वविद्यालय को नष्ट होना पड़ा, लेकिन यह जल कर नष्ट हुआ, जबकि अन्य भी नष्ट हुए, शायद अन्य को बिना जले ही नष्ट होना पडा | ऐसा क्यों? वास्तव में विश्वविद्यालय आधुनिक नाम दिया हुआ है, जिसका आशय एक विशाल अध्ययन केंद्र से है, जहाँ अध्ययन एवं गहन शोध होता रहा| उसकी भाषा माध्यम ‘पालि’ थी| भारत में ऐसे कई केंद्र रहे, जिनके अध्ययन संकुल में विद्यालय भी थे एवं विहार भी थे और इसी विहारों की बहुलता के कारण इस भौगोलिक क्षेत्र का नाम विहार पडा, जो भ्रमित होकर कालान्तर में ‘बिहार’ हो गया| बिहार के बेगूसराय जिले का ‘बिहट’ हो या बिहार के पटना जिले का ‘बिहटा’ हो, सभी ‘विहार’ ही तो थे, (जो विहार हट गए, विहार का हटना ही आज़ का बिहट और बिहटा है) जिन्हें भी नष्ट होना पडा| लेकिन निरंतरता यानि सनातनता सभी संस्कृति की खासियत होती है, जो कालान्तर में भ्रमित अवस्था में भी ‘मूल भाव’ को बचाए रखती है| राजस्थान का पाली हो, बिहार का पाली क़स्बा हो (पटना एवं आरा रेल खंड का पाली रेलवे हाल्ट) या पटना जिला का पालीगंज अनुमंडल नगर, सभी ‘पालि’ भाषा, साहित्य एवं दर्शन के प्रसिद्ध केंद्र रहे, जिन्हें भी नष्ट होना पड़ा| बुद्ध के सिद्धांतों या यों कहें बुद्ध के दर्शन के प्रचंड ज्ञाता ‘देव’ कहलाते थे, इसीलिए तो ऐसे समूहों के स्थायी आवास केंद्र ‘देवकुली’ (पटना जिले के बिहटा प्रखंड का एक गुमनाम कस्बा) या देवकुठार (देउर कोठार – मध्यप्रदेश के रीवा का एक स्थल) को भी उजड़ना पड़ा या नष्ट होना पड़ा| बात इतना ही नहीं है, बौद्ध ज्ञान के सभी अध्ययन केन्द्रों, शोध केन्द्रों, पुस्तकालयों, विहारों, स्तूपों, मंदिरों एवं अन्य सम्बन्धित स्थलों एवं भवनों को नष्ट होना पड़ा| किसी को जलना पड़ा, किसी को ध्वस्त होना पडा, किसी को उजाड़ना पड़ा और किसी में सम्बन्धित व्यक्तियों को ही भाग जाना पड़ा| यह सब एक छोटे काल में नहीं हुआ, अपितु सामन्तवाद के लम्बे अवधि होता रहा|

वह कौन सा आक्रान्ता था, जो शताब्दियों के काल में अपने आतंको में एक ही स्थिरता की गति की निरंतरता बनाए रखा था? चूँकि भारत एक छोटा सा देश या क्षेत्र नहीं था और आज भी नहीं है, भारत एक विविध संस्कृतियों को अपने में समेटे एक उपमहादीप आकार का एक एकात्म भाव लिए ‘भारत भूमि’ था और आज भी है, इसलिए इस विशाल महाद्वीप में, विशाल क्षेत्र एवं विविध संस्कृति में इतने विविध केन्द्रों को नष्ट होने में शताब्दियाँ लगी| 

एक चिकित्सक के तर्क विहीन भावनात्मक हो जाने से अपने रोगी का सम्यक विश्लेषण नहीं कर सकता है और  आवश्यक ईलाज या आपरेशन भी नहीं कर सकता है, ऐसे रोगी का रोग बढ़ता जाता है एवं जटिल भी होता जाता है| भारत की दुर्दशा का कारण भी कुछ ऐसा ही है, कि संस्कृति एवं धर्म की सनातना, निरन्तरता, गरिमा एवं गौरव के नाम पर हमें आवश्यक विश्लेषण, ईलाज या चिडफाड़ (आपरेशन) नहीं करने दिया जाता है| ऐसा नहीं है कि ऐसा सिर्फ भारत में हो रहा है| ऐसा सभी पुरानी संस्कृतियों के साथ होता है, जिसमे 'जड़ता' (Stagnation) का गुण जरुरत से बहुत ज्यादा होता है| ठेठ भाषा में कहें तो इसके अनुयायियों में ‘कट्टरता’ एवं ’अंधआस्था’ बहुत ज्यादा होता है| इसीलिए ऐसी संस्कृतियों के देशों में अपेक्षित विकास नहीं हो पाता है, इसी कारण ऐसे क्षेत्रो यानि ऐसी संस्कृतियों में व्यवस्था द्वारा किये गए प्रयास को कुछ लोग ‘विकास’ करने का ‘नाटक’ भी कहते हैं|

तो, नालन्दा विश्वविद्यालय को क्यों जलना पडा? यह संस्थान इतना बड़ा, इतना प्रसिद्ध एवं इतना गौरवशाली था, कि इसके 'जलने संबंधित' इस उत्तर से ही अन्य संस्थानों एवं सम्बन्धित केन्द्रों तथा स्थलों के नष्ट होने का उत्तर भी मिल जायगा| इसका उत्तर ‘सामन्तवाद’ के उदय एवं विकास में है| भारत में भारतीय सामन्तवाद का जितना अध्ययन होना चाहिए, उतना नहीं हुआ है| भारत में ‘इतिहास लेखनशास्त्र’ (Historiography) के पहले पुरोधा प्रो० दामोदर धर्मानन्द कोसाम्बी ने सबसे पहले भारतीय सामंतवाद पर 1954 में On the Development of Feudalism in India लिखी| भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् के संस्थापक अध्यक्ष प्रो० राम शरण शर्मा ने इसे आगे बढाते हुए 1965 में “भारतीय सामंतवाद” लिखी| लेकिन उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं संचार की शक्तियों एवं साधनों के अंतर्संबधों के आधार पर ही की गयी इतिहास की व्याख्या सब कुछ स्पष्ट कर सकता है|

‘सामन्तवाद’ में ‘समानता का अन्त’ होता है, अर्थात ‘अर्जित ज्ञान एवं कौशल’ के आधार पर योग्यता का निर्धारण ख़त्म हो जाता है| और इसके स्थान पर ‘जन्म आधारित विशेषाधिकार’ एवं ‘जन्म आधारित निर्योग्यता’ ही योग्यता के निर्धारण का मूल एवं मौलिक आधार बनता है या रहता है| ऐसे में न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के दर्शन को मिटने के लिए बाध्य कर दिया जाता है, या मिटा दिया जाता है, या मिटा ही दिया गया| प्राचीन काल से भारत में न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के दर्शन पर आधारित ‘बौद्धिक संस्कृति’ अपनी निरन्तरता यानि सनातनता बनाए हुए था| ‘विचारों के जड़त्व’ (Inertia of Thought) में ऐसा सशक्त जड़ता (Stupor/ Stagnation) होता है कि वह सामान्य इतिहासकारों को वही देखने को बाध्य करता है, जो परम्परा से वह मानता एवं जानता आया है| वह किसी मान्यता या जानकारी के समर्थन में ‘प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य’ (Primary Authentic Evidences) नहीं खोजना चाहता, बल्कि कागजी पौराणिक ग्रंथो को ही मौलिक आधार मान लेता है, जो स्वयं कागज़ के भारत आने के बाद लिखा गया है, और वह भी बिना किसी ‘प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य’ के आधार पर|

संस्कृत एक ऐसी भाषा है, जिसकी ‘बोली’ (Dialect) अब तक अज्ञात है, यानि इसकी कोई बोली नहीं है| भाषा के "प्राकृतिक उद्विकास" में क्रमानुसार सबसे पहले ‘बोली’ आता है, फिर उसके बाद उसका साहित्य बनता है, और फिर अन्त में, उच्चतर अवस्था में सुसंस्कृत हो जाता है और ‘विज्ञान एवं प्रावैधिकी’ का साहित्य भी हो जाता है| ‘संस्कृत’ भाषा एक ‘संस्कार युक्त’ उच्चतर अवस्था की भाषा है, अर्थात संस्कार कृत (संस्कारित) भाषा ही ‘संस्कृत’ हुआ| तो प्रश्न उठता है कि संस्कृत पूर्व से प्रचलित किस भाषा का संस्कारित उच्चतर अवस्था की भाषा हुई या बनी? क्या यह, जैसा अब अधिकतर विद्वान् कहने लगे हैं, कि यह ‘पालि’ भाषा का ही उच्चतर संस्कारित भाषा है, जो स्वयं ‘प्राकृत’ बोली से विकसित हुआ? 

इस तरह भाषा विकास के प्राकृतिक उद्विकास (Natural Evolution) में यह कड़ी सही बैठता है कि पहली अवस्था में यह बोली ’प्राकृत’ था, फिर साहित्यिक अवस्था में यह ‘पालि’ हुआ और अंतिम उच्चतर संस्कारिक अवस्था में ‘संस्कृत’ हुआ? तो क्या किसी विशिष्ट भाषा को विशिष्ट स्थान दिलाने के लिए ‘पालि’ भाषा साहित्य को नष्ट होना पडा, ताकि सामन्तवादियों की व्यवस्था निर्बाध गति से चलता रहे? ध्यान रहे कि पालि भाषा ही उस समय न्याय, स्वतंत्रता और समानता की दर्शन की भाषा थी, जो सामंतवाद के लिए अहितकर था। तो क्या ‘पालि’ भाषा के कुछ दार्शनिक एवं प्राकृतिक स्वरूप एवं स्वभाव के साहित्य एवं ग्रंथ आज भी कुछ दुसरे नामों में कुछ आवश्यक संशोधन, विलोपन, सम्पादन के साथ उपलब्ध हैं, जिसे संस्कृत भाषा ने सुरक्षित रखा है?

बहुत से प्रश्न है, जो अनुत्तरित हैं| बिना उत्तर के भी 'प्रश्न' बहुत महत्वपूर्ण होते हैं और बहुत उपयोगी होते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन और स्टीफन हाकिन्स ने भी बहुत से प्रश्न खड़े किए यानि अनुत्तरित प्रश्न छोड़ दिए, जिसके उत्तर बाद में मिलते जा रहे हैं, और विज्ञान की गुत्थियाँ सुलझती जा रही है, विज्ञान विकसित होता जा रहा है|

आइए, आप भी भारत की विकास की गुत्थियों को सुलझाने में सहयोग कीजिए और भारत को अपनी प्राचीन गौरव पाने में मदद कीजिए एवं भारत को फिर से वैश्विक गुरु बनाने के रास्ते तैयार कीजिए|

आचार्य निरंजन सिन्हा।

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सोमवार, 26 दिसंबर 2022

कुत्ता क्यों मरा?

कहते हैं कि एक बार पंजाब के मुख्यमंत्री माननीय प्रताप सिंह कैरो कहीं सड़क के रास्ते से जा रहे थे| अचानक एक कुत्ता उनके गाड़ियों के काफिले की चपेट में आ गया और वह कुत्ता वहीं मर गया| कैरो साहब ने अपने मित्रों से प्रश्न किया कि ‘कुत्ता क्यों मरा’? उनके सहयात्री मित्रों ने तत्काल इसका कोई उत्तर नहीं दिया और एक सटीक उत्तर के इन्तजार में थे| तब तुरंत ही कैरो साहब ने कहा कि कुत्ता इसलिए मरा  क्योंकि  कुत्ते ने अपने निर्णय लेने में देरी कर दी कि वह दाएँ (Right) किनारे जाए या वह बाएँ (Left) किनारे जाए? इस सन्दर्भ में इस लोकप्रिय नेता का कहना था कि जो राजनीतिक दल भी ऐसे निर्णय लेने में देर कर देती है कि कौन सा राजनीतिक किनारा (दाएं यानि सनातनी या बाएं यानि क्रांतिकारी) पकड़ा जाय, उस दल की भी मौत इसी कुत्ते की तरह होती है, बुरी मौत होती है|

आप भी जानते हैं कि राजनीति के बाएं दल (Left Party) कहने की परम्परा फ़्रांस की संसद में तीव्र सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन के समर्थक सदस्यों के संसद सदन में बाएँ ही बैठने से ही शुरू हुई और ऐसा कहने की परम्परा उसी समय से चल पड़ी है| इसीलिए सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक क्रांतिकारी परिवर्तन के समर्थक राजनीति दलों को बाम दल (Left Parrty) यानि लेफ्ट पार्टी कहा जाने लगा| यदि हम ब्रह्माण्ड में प्रकृति का भी अवलोकन करे, तो सब जगह सममिति (Symmetry) ही पाएंगे| मतलब कि राजनीति में भी वस्तुत: दो ही किनारे होते है, बाकी जितने भी किनारे दिखते हैं, सब के सब इन दोनों किनारे से ही जुड़े होते हैं| लोकतान्त्रिक पद्धति में अपने विरोधियों के मतों के विभाजन (Vote Division) यानि खंडित कराने की आवश्यकता हो जाती है| इसके लिए कई भावनात्मक मुद्दों पर और कई अनावश्यक मुद्दों के नाम पर “मत विभाजक दल” (आम जनता इन्हें वोट कटवा पार्टी कहती है) बनाए एवं संचालित कराए जाते है| इनमे अधिकतर पार्टी तथाकथित मानवीय मूल्यों पर आधारित सिद्धांतों एवं न्यायिक मान्यताओं की दुहाइयों के नाम पर होता है, लेकिन स्पष्टतया पूरा मसला ही भावनात्मक होता है, जिसके केन्द्र में जाति, वर्ण, धर्म, पंथ, भाषा या क्षेत्र ही होता है| मैं मुद्दे से थोड़ा भटक गया था, मुद्दा था कि कुत्ता क्यों मरता है? हाँ, तो कैरो साहब का इशारा ही कुछ इसी तरफ था और इसी कारण मैं भी कैरो साहब के साथ बह गया|

स्टीफन हाकिन्स ने बताया कि 1642 में भीड़ ने महान वैज्ञानिक गैलेलियो को मार दिया, हालांकि अधिकतर विद्वानों का मामला है कि उन्हें ताउम्र हाऊस अरेस्ट किया गया था| इन्होने एक सनातनी मान्यता यानि निरंतरता की परम्परा का खंडन कर दिया था, जो उस समय संस्कृति और धर्म में भी स्थापित हो गया था। वह सनातनी मान्यता यह था कि यह ब्रह्माण्ड पृथ्वी केन्द्रित (Geo Centric) नहीं है, बल्कि सूर्य केन्द्रित (Helio Centric) है और पृथ्वी ही सूर्य का चक्कर लगाती है| स्टीफन हाकिन्स के अनुसार यदि वे मार दिए नहीं जाते, तो आज ब्रह्मांडीय ज्ञान किसी और ऊंचाई पर रहता| लेकिन गैलीलियो आज़ भी सम्मान के साथ जीवित है, और वह मारने वाली भीड़ ही मर गयी है| इतिहास उस भीड़ की इस मौत को ‘कुत्ते की मौत’ कहता हैं और गैलीलियो को बड़ा सम्मान देता है| 

आज भी यदि कोई अवैज्ञानिक एवं अतार्किक बातों या आदर्शो या विचारो का सिर्फ सनातनी परम्परा या निरंतरता की मान्यता या तथाकथित प्राचीन संस्कृति के नाम पर उग्र समर्थक बनता है, तो स्पष्ट है कि इतिहास उसके कृत को  कभी भी मानवीय कृत का दर्जा नहीं देगा| और उसी के भविष्य के उत्तराधिकारी या उसके वंशज ही उनका नाम अपने खानदान से जोड़ने में घृणा महसूस करेगा| ऐसे लोगों की मौत के लिए भविष्य का इतिहास कोई सम्मानजनक शब्द नहीं ही देगा, जैसे आज जर्मनी के हिटलर की मौत को नहीं मिलता है| इसीलिए ऐसे लोगों के वंशज अज्ञात ही रहते हैं। 

बात जब हिटलर की आती है, तो उसके जीवन के अंत का समय सबको याद आता है| इसकी मौत की तुलना किससे किया जाता है? मैं तो घृणित शब्द के किसी भी 'संज्ञा' के उल्लेख से बचना चाहता हूँ| घृणित तानाशाहों’ की मौत की तुलना इतिहासकार या भविष्य का अवाम 'कुत्ते की मौत' से ही करता है| ऐसे लोगों के लिए उनके जीते जी या उनके मरने के बाद अवाम कोई ‘सम्मान का संबोधन’ नहीं देता है, यानि उनके प्रति ‘सम्मान का बोध’ ही खत्म हो जाता है| अब पाठकों को ‘घृणित तानाशाह’ एक अलग एवं विशिष्ट शब्द या अवधारणा लग रहा होगा| इससे यह स्पष्ट है कि तानाशाह यदि घृणित हो सकता है, तो कोई तानाशाह घृणित नहीं भी हो सकता है| हालाँकि हर तानाशाह को लगता है कि वह समाज के लिए, संस्कृति के लिए और राष्ट्र के लिए अद्वितीय योगदान दे रहा है, लेकिन इतिहास इनके कृत्यों में विशेषण लगा कर उसे सकारात्मक और नकारात्मक रूप में ही वर्गीकृत करता है|

स्पष्ट है कि घृणित तानाशाह का एजेंडा अवैज्ञानिक होगा, अतार्किक होगा, और अमानवीय भी होगा| अमानवीय से तात्पर्य मानवीय गरिमा के विरुद्ध होता है और आम नागरिक के बहुमुखी व्यक्तित्व विकास में बाधक होता है| कोई भी चीज यदि अवैज्ञानिक होगा, तो स्पष्टतया वह चीज अतार्किक भी होगा और इसीलिए प्रामाणिक साक्ष्य से विहीन होगा और इसीलिए वह मात्र झूठ का पुलिंदा भी होगा| जिस तानाशाह में विश्लेष्ण करने की क्षमता नहीं होती और मूल्याङ्कन करने की क्षमता नहीं होती, वह आसानी से यथास्थितिवादियों से घिर जाता है और वह मात्र वही देख पाता है, जितना उसे दिखाया जाता है यानि जितना उसे देखने दिया जाता है एवं वह भविष्य में उतनी ही दूर देख पाता है, जितनी दूर उसे देखने दिया जाता है| मतलब कि ऐसे लोगों में अपनी प्रक्षेपण (Projection) क्षमता नहीं होती है। आज के आधुनिक युग में यथास्थितिवादियों को अपने आदर्शों एवं सिद्धांतों के पक्ष में कोई तार्किकता नहीं होती, कोई वैज्ञानिकता नहीं होती, कोई प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य नहीं होता, सिर्फ और सिर्फ मिथकीय कथ्यात्मक कागज़ी ग्रन्थ ही होते हैं| इसीलिए ऐसे तानाशाहों को यथास्थितिवादी अपनी मंशा एवं आदर्श के अनुसार बहा ले जाते है, विश्व ऐसे उदहारण से भरे पड़े हैं|

इतिहास ऐसे तानाशाहों की मौत को भी “कुत्ते की मौत” ही कहते हैं| इस तरह 'कुत्ते की मौत' एक मुहावरा बन गया है, जिसे मानवीय गरिमा और सम्मान के विरुद्ध माना जाता है| स्पष्ट है कि बुरी तरह मरना ही ‘कुत्ते की मौत’ है| बुरी तरह मरना अर्थात उसकी मौत के बाद उससे घृणा करना| जब घृणित तानाशाह की मौत कुत्ते की तरह हो जाती है, तो उसके अंध समर्थक लोगों, या समुदायों या राष्ट्रों की क्या दुर्गति होती है? द्वितीय युद्ध के बाद जर्मनी, वियतनाम और कोरिया को भी विभाजित हो जाना पड़ा|

अत: किसी भी तानाशाह को चाहिए कि वह “घृणित तानाशाह“ नहीं बने, यानि समय रहते अपने तानाशाही का व्यापक उपयोग व्यापक समाज के लिए करे, किसी ख़ास व्यक्ति या किसी खास समुदाय या किसी खास क्षेत्र के हितों तक ही अपने को सीमित नहीं रखे| आज मानवता की बात हो रही है, जिसमे हर मानव का हित शामिल है| एक ‘राष्ट्र’ भी ऐतिहासिक एकत्व की भावना है, जो ऐतिहासिक काल में एक साथ रहने से आती है| इस तरह एक तानाशाह को चाहिए कि वह समाज को प्रगतिशील एवं विकसित बनाए| इसके लिए समाज में संस्कृति की परंपरागत निरन्तरता यानि उसके सनातनता के नाम पर फैले एवं व्याप्त पाखण्ड, ढोंग, अंधविश्वास, अनावश्यक कर्मकांड, एवं घृणा को मिटाने का कार्य करे; अन्यथा इतिहास उसके मौत के बाद उसको कोई सम्मान नहीं देगा| इतना ही नहीं उसके उत्तराधिकारी एवं उसके वंशज भी उनके नाम को घृणा से देखेगा| 

हमें इतिहास के अध्ययन से यही समझ मिली है| किसी भी संस्कृति की पौराणिकता और सनातनी दावे को वैज्ञानिक, तार्किक और प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य के आधार पर खुले मन से एवं पूरी ईमानदारी से अवश्य जांचना चाहिए। वैसे आप भी विचार एवं मनन कीजिए|

आचार्य निरंजन सिन्हा

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कलियुग को क्यों आना होता है?

ब्रह्माण्ड में कुछ भी नित्य नहीं है, अर्थात सब कुछ ‘अनित्य’ है| इसलिए युग भी बदलता रहता है यानि युग को भी बदलना पड़ता है| भारत में हर कोई जानता है कि युग के चार नाम हैं, जो क्रमश: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, एवं कलियुग है| यह युग सतयुग से शुरू होता है और कलियुग तक चलता है, जो एक वृताकार पथ यानि चक्रीय पथ का अनुगमन करता है| आप भी जानते हैं कि सतयुग को सत्य का युग अर्थात सच्चाई का युग माना जाता है और कलियुग को एक काला युग यानि अन्धकार का युग माना जाता है, अर्थात सभी ‘नैतिक अनर्थो’ का युग माना जाता है| युग का बदलना एक वैश्विक प्रक्रिया है, जो मानव स्वभाव यानि मानवीय मनोविज्ञान के अनुसार बदलता रहता है| ध्यान रहे कि इन युगों का बदलना सिर्फ भारत में ही नहीं होता, बल्कि यह प्रक्रिया जहां भी मानव समाज है, वहां होता रहता है, भले ही उसके लिए प्रयुक्त शब्दावली अलग अलग हो जाए, परन्तु भावार्थ अर्थात आशय एक ही होता है| तो, कलियुग को क्यों आना होता है?

बीसवीं शताब्दी तक स्थापित साम्राज्यवादियों का एकाधिकार निर्बाध गति से आगे बढ़ रहा था| उसके बाद विश्व पटल पर विश्व व्यवस्था के बदलने की आहट स्पष्ट हो गया , या यों कहें कि विश्व व्यवस्था बदलने लगी| वैश्विक शक्तियों में पहले सोवियत संघ (वर्तमान रूस), जर्मनी, जापान, इटली आदि का स्पष्ट उभार हो गया| उसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्ति से ही भारत, चीन एवं इजरायल का तेजी से उदय हुआ| इन सभी ने वैश्विक  स्तर पर आर्थिक एवं सामरिक संतुलन बदलने को बाध्य कर दिया| इससे साम्राज्यवादियों का यह भाव (Ego/ Importance) दरकने लगा| उन साम्राज्यवादियों का यह भाव भी था कि वे विश्व की सर्वश्रेष्ट, विशिष्ट एवं उत्कृष्ट समुदाय (या कुछ लोगो के लिए प्रजाति) है| इस वैश्विक व्यवस्था में बदलाव से ऐसी मान्यता के लोगों को, समूहों को, समुदायों को एवं राष्ट्रों को गहरी निराशा होने लगी, वे हताश एवं उदास हो गए| उन्हें लगा कि उनका सतयुग समाप्त हो रहा था| उनके अनुसार वैश्विक समाज के हीन, निकृष्ट और निम्न (इनमे जो भी समुचित हो) स्तरीय समाजों एवं राष्ट्रों के अधीन विश्व व्यवस्था जा रही है, तो उनके अनुसार वैश्विक समाज का नैतिक पतन हो जायगा| स्पष्टतया इनके लिए ‘कलियुग’ ही आ रहा था, या आ गया है| इसी आशय का स्पष्ट शब्दों में प्रो० ई० एच० (एडवर्ड हैलेट) कार ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक – “What is History” की भूमिका में प्रस्तावित किया है|

अब बहुत कुछ स्पष्ट हो गया कि कलियुग क्यों आता है? फिर भी इसे शब्दों में और स्पष्ट करना चाहिए कि भारत में क्या हुआ कि कलियुग को आना पड़ा? भारत का सन्दर्भ इसलिए कि इन युगों की अवधारणा भारतीय है, और इसीलिए भारतीय सन्दर्भ एवं पृष्ठभूमि के आलोक में इसे प्रस्तुत करना चाहिए| आप ऊपर एक वैश्विक उदाहरण में देख रहे हैं कि जब विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति, या समाज, या राष्ट्र का सनातनी यानि निरंतरता वाली सर्वश्रेष्ठता एवं उत्कृष्टता का लाभ, भाव (Gesture), महत्व एवं विशेषाधिकार टूटने लगता है, दरकने लगता है, सरकने लगता है और तहस नहस होने लगता है, तब उनके लिए ‘कलियुग’ का आगमन होने लगता है| अल्बर्ट आइन्स्टीन ने अपनी दोनों सापेक्षता के सिद्धांत (Theory of Relativity) में स्पष्ट किया कि इस ब्रह्माण्ड में सब कुछ सापेक्ष (Relative) है, समय (Time) भी सापेक्ष है और स्थान (Space) भी सापेक्ष है| यह सापेक्षता किसी अवलोकनाकर्ता/ प्रेक्षक/ देखनेवाला  (Observer) के सन्दर्भ में होता है, चाहे अवलोकनाकर्ता कोई भी हो| स्पष्ट है यह ‘कलियुग’ भी सापेक्ष होगा, अर्थात किसी के लिए यही ‘कलियुग’ दुसरे अन्य के लिए इसके सापेक्ष में उतना ही ‘सतयुग’ होगा| मतलब एक ही युग यानि एक ही व्यवस्था किसी के लिए यदि कलियुग है, तो यही युग यानि व्यवस्था किसी अन्य के लिए सतयुग होगा| युग क्या है? युग किसी सभ्यता का एक सामयिक अवधि है, जो किसी खास क्षेत्र में कोई खास काल का यानि समय का अवधि है|

तो भारत में सतयुग का क्या अर्थ हुआ? इसी सतयुगी व्यवस्था के दरकने से ही तो कलयुग का आगमन होने लगा| अब तक यह सपष्ट हो गया कि कोई निरपेक्ष सतयुग या कलियुग नहीं होता है, बल्कि किसी भी काल के “सन्दर्भ व्यक्ति” का एक मनोवैज्ञानिक  समझ है या व्याख्या है| यह काल वर्तमान का हो सकता है, या भविष्य का हो सकता है या भुत यानि इतिहास का भी हो सकता है| अत: जिस भी काल या क्षेत्र में हमारी तथाकथित सर्वश्रेष्टता के भाव का या उसके सम्मान का हानि होने लगे और हमारे अवैज्ञानिक एवं अलोकतांत्रिक विशेषाधिकारों का हनन होने लगे, तब हमरे लिए तो यह ‘कलियुग’ आ ही गया| ऐसा जब दूसरों के साथ होता है, तब उनके लिए भी ‘कलियुग’ आ जाता है| ध्यान रहे कि मैंने ऐसे ‘विशेषाधिकारों’ की विशेषता में दो विशेषण दिए हैं - अवैज्ञानिक एवं अलोकतांत्रिक| अर्थात मैंने जन्म आधारित एवं जबरदस्ती प्राप्त विशेषाधिकारों को शामिल किया है, जो अवैज्ञानिक भी है, अलोकतांत्रिक भी है और संविधान विरोधी भी है| मतलब यह हुआ कि ‘ज्ञान’ एवं ‘कौशल’ आधारित विशेषाधिकारों एवं लोकतान्त्रिक तथा संवैधानिक विशेषाधिकारों का तथाकथित ‘सतयुग’ एवं ‘कलियुग’ से कोई लेना देना नहीं है| लोकतान्त्रिक विशेषाधिकारों में लोगो (People), या व्यक्तियों (Persons) या नागरिको (Citizens) के द्वारा वैधानिक तरीके से चयन शामिल है, और इसमें वंशागत चयन शामिल नहीं है, भले ही वह वैधानिक एवं संविधानिक हो||

हमलोग त्रेता एवं द्वापर के युग छोड़ देते हैं, क्योंकि ये मात्र संक्रामक (Transition) युग को स्पष्ट करते हैं| इसीलिए यह सामान्य जीवन के प्रसंग में नहीं आते हैं| सतयुग एवं कलियुग ही युग के अतिकिनारों (Extreme Edeges) को स्पष्ट करते हैं| एक सतयुग - सत्य का युग है और दुसरा कलियुग – सतयुग का अति विरोधी, जितना हो सकता है| हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि यह ‘सतयुग’ एवं ‘कलियुग’ की अवधारणा या कल्पित व्यवस्था ‘सामन्तवाद’ की ऐतिहासिक उपज है और इसीलिए यह मध्यकालीन यानि मध्ययुगीन है| और इसीलिए इसके कोई ‘ऐतिहासिक साक्ष्य’ यानि ‘प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य’ प्राचीन काल में नहीं मिलता हैं, भले ही कोई इसे मिथकीय पौराणिक काल में हजारों, लाखों या करोड़ों वर्ष पीछे लेकर चलें जाएँ| इनके ऐतिहासिक दावों का आधार कागजों पर अभिलिखित ग्रन्थ ही हैं, जो स्पष्टतया कागज के चीन में आविष्कार के होने और इसके भारत आने के बाद के ही होंगे, शिला लेखिय प्रमाण तो हैं नहीं और वानस्पतिक प्रमाणों की जांच वैज्ञानिक ‘कार्बन डेटिंग’ पद्धति’ से कराइ जा सकती है|

अत: जो युग जन्म आधारित जाति व्यवस्था एवं जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था के अनुसार कार्य, व्यवहार, चिंतन एवं आदर्श को मानता रहा हो, उस समय यही समाज का ‘धर्म’ का था| यह ‘धर्म’ ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म एवं कर्मवाद पर आधारित था| इसी धर्म के पतन या अव्यस्था को ही ठीक करने के लिए ‘ईश्वर’ का आगमन होता रहा| और यह सब जन्म आधारित विशेषाधिकार का पतन यानि इसका दरकना, इसका सरकना, या इसका ध्वस्त होना ही कलियुग का आगमन है| हालाँकि वैज्ञानिक एवं तार्किक आधार पर यह स्पष्ट है कि ये जन्म आधारित विशेषाधिकार गलत है, मानव की गरिमा का विरोही है, अलोकतान्त्रिक है, और संविधान विरोधी भी है| यह न्याय, स्वतंत्रता, समता एवं बंधुत्व का विरोधी है|

अब आप समझ गए होंगे कि ‘कलियुग’ क्यों आता है?

आचार्य निरंजन सिन्हा  

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मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध संस्थान क्यों?

भारतीय संस्कृति

हमारी विरासत

भारतीय संस्कृति ही हमारी विरासत है| इसे अच्छी तरह से समझना होगा| शब्द भारतीय संस्कृति का प्रतिस्थापन कोई भी दूसरा शब्द नहीं कर सकता है| यदि ऐसा प्रतिस्थापन कोई करता है, तो स्पष्टतया वह प्रतिस्थापन किसी गलत उद्देश्य से किया गया है| इसे गंभीरता से जानने एवं समझने के लिए और इसकी क्रियाविधि को गंभीरता से देखने के लिए ही यह आलेख है|

जीवन के प्रमुख अवस्थाओं एवं परिस्थितियों में कुछ  संस्कार कराने को जरुरत होती है, लेकिन संस्कार विधि को शुद्ध, पूर्ण, सही, समेकित और सम्यक होना चाहिए। इसके लिए हमारे संस्कारको को शिक्षित, प्रशिक्षित, संस्कारी, ज्ञानी और विवेकशील होना चाहिए, ताकि संस्कार विधि हमारे गौरवशाली अतीत के अनुरूप और अनुकूल हो।

हमारे भारतीय समाज को संस्कारित करने के लिए तथा उसकी दिन प्रतिदिन की संस्कार क्रिया सम्बन्धी तमाम सारी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए  संस्कारी और विद्वान पुरोहितों को उचित प्रशिक्षण के माध्यम से तैयार करने की, आज नितान्त आवश्यकता हैइसके लिए बहुत से लोग एवं बहुत से समुदाय "पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध संस्थान" स्थापित करने एवं संचालित करने का अभियान चला रहे हैं। इससे भारत को अपनी पुरानी गरिमामयी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित एवं स्थापित करने में मदद मिलेगीइस अभियान को बहुत व्यापक समर्थन मिल रहा है, और परिणाम भी काफी सकारात्मक आ रहे हैं। इससे कई सकारात्मक एवं सृजनात्मक बदलाव देखने को मिल रहा है| यदि आप थोड़ा ठहर कर विचार करेंगे, तो आपको भविष्य का सुनहरा भारत भी देखने को मिलेगा| सबसे सुखद और महत्वपूर्ण बात यह है कि यह पूर्णतया संवैधानिक है, और इसीलिए वैधानिक भी है|

कोई भी व्यक्ति यदि शिक्षित और संस्कारी है, तो वह संस्कारक / पुरोहित बन सकता हैयदि आप चिकित्सक, अभियन्ता, शिक्षक, क्षेत्र विशेष में विशिष्ट सलाहकार, सरकारी सेवक या अन्य सेवा प्रदाता बन सकते हैं, तो यह भी आपका संवैधानिक अधिकार है, कि आप भी शिक्षित, संस्कारित एवं शास्त्रीय पद्धति का एक संस्कारक एवं पुरोहित बन सकते हैं|

इस मिशन का मुख्य उद्देश्य  होना चाहिए कि प्रशिक्षण द्वारा सभी प्रचलित संस्कारों के लिए सभी प्रचलित रीतियों के संस्कारक/ पुरोहित तैयार करनाइसलिए  बौद्धिक (बुद्ध का) परंपरा में, वैदिक परम्परा में, अर्जक रीति  में, गायत्री परिवार रीति में, आर्य समाजी रीति में या अन्य और वैधानिक (सरकारी कानूनी) रीति में संस्कारक / पुरोहित तैयार किए जाने हैंये संस्कारक / पुरोहित व्यक्ति को, परिवार को, एवं समाज को अन्य सुविधाएं, सलाह और मार्गदर्शन भी उपलब्ध कराएँगे, क्योंकि ये शिक्षित, अनुभवी, प्रशिक्षित एवं संस्कारी भी होंगे| *और ऐसा संस्कारक / पुरोहित सर्व वर्ग समाज के सहयोग से व्यापक स्तर पर उपलब्ध कराएंगे।*

तो सबसे पहले यह समझा जाय कि एक संस्कारक एवं एक पुरोहित कौन होता है, और समाज को इसकी आवश्यकता क्यों होती हैजीवन के किसी भी तरह के संस्कार की प्रक्रिया या विधिनुसार विधान कराने वाले को 'संस्कारक' कहते हैं'पुरोहित' का शाब्दिक अर्थ होता है - 'पुर' एवं 'हित' अर्थात 'पुर' यानि किला यानि बस्ती का 'हित' देखने वाला यानि रखने वाला व्यक्ति। स्पष्ट है कि यह एक अतिमहत्वपूर्ण पद हैजो समय के साथ कई तरह के संस्कारों के साथ जुड़ गया। पुरोहित को अंग्रेजी में Priest कहते हैं। इसे पुजारी भी कहा जाता है, जो पूजा इत्यादि संस्कार कराता है। परिभाषा अनुसार जो धार्मिक कर्म, धार्मिक कृत्य एवं अन्य संस्कार कराता है, वह पुरोहित है, संस्कारक है परिभाषा से ही स्पष्ट है कि ऐसा व्यक्ति ज्ञानी होगा, संस्कारी भी होगा और समाज का कल्याण करने वाला भी होगा। 

अतः स्पष्ट है कि एक संस्कारक/ पुरोहित/ पुजारी एक पद है, एक उपाधि है, जो वैसे संस्कारों को विधि अनुसार सम्मपन्न कराता है। पालि भाषा में यानि कि बौद्धिक काल (प्राचीन काल) के दरम्यान  विद्वान व्यक्ति की उपाधि ही बाम्हण’, ‘बामण (ब्राह्मण नहीं) इत्यादि था, जो मध्य काल के सामंतवादी व्यवस्था में जन्म आधारित ब्राह्मणकहलाया। इस मध्यकालीन सामन्ती विरूपण (Distortion) को हमें सुधारना है, और आधारभूत, मौलिक एवं प्राचीन सनातनी परम्परा को पहचान कर उसे शनै: शनै: योजनाबद्ध तरीके से पुनः स्थापित करना है। आजकल उपलब्ध अधिकतर पुरोहित प्रायः अल्प बुद्धि वाले, संस्कारहीन, स्वार्थी एवं अप्रशिक्षित होते हैं|

लोग इस प्रशिक्षण अभियान को क्यों बढ़ाना चाहते हैं? इसे निम्न बिन्दुओं पर समझा जाय ......

1. आजकल उपलब्ध सभी पुरोहित ज्ञानी और संस्कारी नहीं होतेअपितु उनमें से अधिकांश अल्प बुद्धि वाले हैं, और साथ ही साथ संस्कारहीन और स्वार्थी भी हैं। इनमें अधिकतर बेरोजगारी की विकल्पहीनता की स्थिति में ही आते हैं। 

इन संस्थान के द्वारा उपलब्ध  पुरोहित विद्वान होंगे और साथ ही साथ यह संस्कारी भी होंगे और उनके प्रशिक्षण के दौरान यह विशेष रूप से ध्यान दिया जायेगा कि वे स्वार्थी बिल्कुल न बनें। ये प्रशिक्षित पुरोहित समाज के व्यापक हित के लिए समर्पित पवित्र योद्धा (Sacred Worrier) होंगे। यह लोग अपने समुदाय/ समाज का पुरोहित संस्कार कराने के साथ-साथ उनको अनावश्यक आडंबर और दिखावे के कारण आर्थिक तंगी से निकालने हेतु सही सलाह भी देंगे, जो आज प्रत्येक समुदाय/ समाज की अनिवार्यता हो गयी हैये अपने समुदायों में "देवदूत" साबित होंगे, जिनकी सम्मानीय पहुंच अपने समुदाय में गहराई तक व्याप्त होगी और समाज का व्यापक का कल्याण होगा।

2. पुरोहित का कार्य एक सम्मानित और सकारात्मक सामाजिक कृत्य है, जो उनको व्यस्तता और रोजगार के अतिरिक्त धन, सम्मान और पहचान उपलब्ध कराता है। इन संस्कारित कृत्यों यानि कर्मकांडों (धरम करम) में व्यय होने वाला समुदाय /समाज का धन उसी समुदाय/ समाज के पास रहेगा| इससे यह धन, समय एवं समर्पण उसी समुदाय/ समाज के व्यापक लाभकारी, रचनात्मक एवं सृजनात्मक हितों का साधक साबित होगाइससे हज़ारो करोड़ के व्यवसाय में उसी समुदाय/ समाज को हिस्सा मिलेगा।

3. जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव या मोड़ पर यानि विशिष्ट अवसरों एक संस्कार कार्यक्रम की आवश्यकता होती है, जो परिवार और समाज के उपस्थित लोगों को कुछ समय के लिए व्यस्त रखता है, और वे लोग इन विशिष्ट अवसरों के सहभागी एवं गवाह भी बनते हैं। इस कर्मकांड के द्वारा उस विशेष घटना को विशिष्ट एवं विशेष बनाया जाता है।  यह समाज को संस्थाओं (Institutions) द्वारा एकीकृत करने का कार्य भी करता है।

4. मानवीय मूल्यों (Human Values) और प्रतिमानों (Norms) में कोई भी रूपांतरण (Transformation) यानि बदलाव एक झटके में नहीं किया जा सकता है, क्योंकि मानवीय मनोविज्ञान "शून्यता" (Vaccum) को बर्दाश्त नहीं कर पाता है, और वह खालीपन उसको बेचैन कर देता है। ऐसे ही अवस्था यानि परिस्थिति में हमारे प्रशिक्षित पुरोहित वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध कराएंगे, जो उनकी इच्छानुसार होगा और इसीलिए यह उनके लिए सुविधाजनक एवं व्यवहारिक होगा। इसके अतिरिक्त समाज में उपलब्ध अन्य विकल्प और उसके लाभ - हानि एवं उपयोगिता संबंधित विमर्श को आगे बढ़ाएंगे।

5. इसमें कोई पाखंड नहीं किया जाएगा और पूरी शास्त्रीय रीति का विद्वतापूर्ण ढंग से अनुपालन किया होगा। इसमें कोई अस्पष्टता नहीं होगी, कोई अशुद्धियां नहीं होंगी, कोई अनावश्यक तामझाम एवं परेशानी नहीं होगी।

6. जब सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शामिल पुरोहित उसी समुदाय/ समाज के लोग होंगे, तो सांस्कृतिक विरासत (Cultural Heritage) और सांस्कृतिक व्यवस्था (Cultural Pattern/ Organization) उसी समुदाय/ समाज के नियंत्रण में होगी। तब कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं व्यवस्था के नाम पर "सांस्कृतिक साम्राज्यवाद"  (Cultural Imperialism) स्थापित नहीं कर पाएगा और "सांस्कृतिक अराजकता" (Cultural Anarchy) भी दूर होगी।

7. तब हमारा परिवार, हमारा समाज, हमारा राष्ट्र अपनी पुरातन, सनातन, और गौरवशाली विरासत को पुनः प्राप्त करेगा। तब ही सुख, शान्ति, समृद्धि और प्रगतिशीलता स्थापित हो सकेगा।

8. इससे सेवानिवृत स्वजनों को सम्मान मिलेगा, उनको एक सम्मानजनक व्यवस्तता मिलेगी, उनके विस्तृत ज्ञान एवं लम्बे अनुभव का पूरे समाज को सकारात्मक एवं रचनात्मक मार्गदर्शन मिलेगा, और इनको अपने समुदाय/ समाज में  स्वीकरण” (आत्मसिद्धि – Self Actualization) भी प्राप्त होगी। यह स्वीकरण (आत्मसिद्धि) की आवश्यकताहै, जिसे महान मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैसलों ने आवश्यकताओं के पदानुक्रम पर आधारित अपने अभिप्रेरणा के सिद्धांत’ (Theory of Motivation based on heirarchey of Needs) में दिया था|

9. इससे युवाओं को रोजगार मिलेगा, सम्मान मिलेगा, संस्कार मिलेगा, पहचान मिलेगा, आत्मविश्वास बढेगा, और अपने समुदाय के अनुभवी एवं ज्ञानी लोगों का मार्गदर्शन भी मिलेगा| इससे सम्बन्धित समुदाय/ समाज  की व्यवसायिक समझ बढ़ेगी, इन समुदायों/ समाजों के सम्बन्धित सदस्यों को उद्यम मिलेगा और इन उद्यमियों / व्यवसायियों का व्यापार बढेगा| यह इन लोगों में व्यवसायिक एवं उद्यमिता प्रशिक्षणका प्राक (Pre) स्वरुप साबित होगा|

10.. इससे समुदाय/ समाज का क्षेत्रीय परम्परा, पंथ, धर्म, संस्कार किसी भी अन्य वर्ग/जाति विशेष के कब्जे से समाज मुक्त होगा.....  इससे सभी की पैत्रिक रिवाज, क्षेत्रीय परम्परा, पंथ, धर्म, संस्कार का संरक्षण होगा, संवर्धन होगा, सञ्चालन होगा, और उसमे जीवन्तता एवं निरंतरता आएगीइससे किसी में भी हीनता का अपराध बोध नहीं जन्म लेगा और भारत में विशाल मानव सम्पदा का आत्मविश्वास बढ़ेगा| इससे समुदाय, समाज, राष्ट्र एवं मानवता समृद्ध होगा, सुखमय होगा, विकसित होगा, और जीवन शांतिमय चलेगा|

11. इससे समुदाय/ समाज में सामाजिक आध्यात्मिक समानता स्थापित होगी। इससे समुदाय/ समाज धार्मिक आध्यात्मिक... दृष्टि से भी आत्मनिर्भर बनेगा। यही धार्मिक एवं आध्यात्मिक सोच, आदर्श एवं व्यवहार ही समुदाय/ समाज का संस्कृतिहै, जो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक व्यव्स्स्था का साफ्टवेयरहै, जो व्यवस्था को चुपचाप संचालित एवं नियंत्रित करता रहता है| इससे हमारी संस्कृति का संवर्धन यानि उन्नयन होगा|  

तो आईए,

हमलोग एक बेहतर, समृद्ध, सुखमय, शांतिमय भविष्य बनाएँ और अपने भविष्य को संवारें। तब हमारा परिवार और समाज और राष्ट्र समृद्ध होगा, सुखमय होगा और विकसित भी होगा इस दिशा में कई लोग अपने स्तर से इस भागीरथ प्रयास में लगे हुए हैं, जिनमें मध्यप्रदेश के रीवा के श्री जनार्दन पटेल (संपर्क ईमेल – indianpurohit1@gmail.com) प्रमुख नाम हैं| श्री जनार्दन पटेल हमारे आपके सहयोग से “पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध संस्थान संचालित करा रहे हैं| इनको मेरी अग्रिम शुभकामनाएँ हैइसमें आपके बहुमूल्य सुझाव के साथ साथ समाज का सहयोग, समर्पण और दिशा निर्देश अपेक्षित है।

सादर।

आचार्य निरंजन सिन्हा।

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक

 

मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

पाखण्डवादी यानि ब्राह्मणवादी कौन है ?

भारत में ब्राह्मणवादऔर ब्राह्मणवादीशब्द बहुप्रचलित हैं, लेकिन सामान्य लोगों में इसके बारे में अवधारणा स्पष्ट नहीं है|... तो आइए हम लोग इस शब्द एवं अवधारणा का विश्लेषण करते हुए इसके साथ ही अन्य कई सम्बन्धित शब्दों एवं अवधारणाओं को भी समझने का प्रयास करते  हैं, जैसे पाखण्डवाद, बुद्धिवाद या बौद्धिकवाद, आधुनिकवाद, विज्ञानवाद, आध्यात्मवाद और ढोंग, अंधविश्वास, कर्मकाण्ड, धर्म, ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म का सिद्धांत यानि कर्मवाद, वर्ण तथा जाति, जो पाखण्डवाद से जुड़ा हुआ नकारात्मक यानि विध्वंसात्मक शब्द है|

उपरोक्त सभी अवधारणाओं को समझ लेने के बाद पाखण्डवादया ब्राह्मणवादको समझ लेना सरल होगा। लेकिन उचित होगा कि हम लोग पहले ब्राह्मणवाद को ही समझ लें, तो अन्य चीजों को समझना काफी आसान हो जाएगा|

ब्राह्मणवाद एक ऐसी अवधारणात्मक संरचना है, जिसके लिए भाषा के संरचनावाद’ (Language Structuralism) का सहारा लेना होगा| ब्राह्मणवादएक ऐसी सांस्कृतिक व्यवस्था है, जिसमें ब्राह्मणको सर्वोच्च स्थान दिया गया है| इसी सर्वोच्चता की स्थापना एवं निरन्तरता के लिए अन्य सम्बन्धित उपागम/ साधन भी सृजित किए गये हैं| चूँकि संस्कृतिही किसी भी व्यवस्था को संचालित एवं शासित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण, मौलिक एवं प्रधान साफ्टवेयरहोता है, इसीलिए एक सांस्कृतिक व्यवस्था का प्रभाव सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, एवं राजनीतिक स्तर पर व्यापक होता है| और इन्हीं कारणों से इसका आर्थिक प्रभाव भी व्यापक होता है| इसी कारण बहुतेरे लोग ब्राह्मणवादको सांस्कृतिक साम्राज्यावाद’ (Cultural Imperialism) भी कहते हैं| चूँकि सांस्कृतिक साम्राज्यवादको धार्मिक आवरण’ (Religious Veil) दिया गया होता है, इसीलिए इसमें छेड़छाड़ यानि विश्लेषण (Analyse) करना आस्थापर आघातमान लिया जाता है| मैं भी इस सांस्कृतिक साम्राज्यवादका विश्लेषण नहीं करना चाहूंगा| इसी सांस्कृतिक साम्राज्यवादको वैश्विक स्तर पर पाखण्डवादभी कहा जाता है|ब्राह्मणवादका क्षेत्र प्रसार जहां भारत तक सीमित है, वहीं पाखण्डवाद का क्षेत्र विश्व व्यापी है|

इसलिए हम पाखण्ड वादका ही विश्लेषण करना चाहेंगे। आप वैश्विक स्तर पर 'पाखण्ड वाद' के न्यूनतम पांच ही मौलिक एवं प्रधान आधार (Base) पायेंगे, जिस पर कोई भी पाखण्डवाद कार्यरत (Functional) है| इसमें क्षेत्र एवं काल के अनुसार इसके नामकरण में शब्दों एवं अक्षरों का हेर-फेर दिख सकता है, परन्तु संरचना एवं भाव में कोई अन्तर नहीं मिलेगा| इसके पाँच आधार 1. ईश्वर, 2. आत्मा, 3. पुनर्जन्म, 4. कर्म का सिद्धांत यानि कर्मवाद और 5.  जन्म पर आधारित सामाजिक विभाजन|

हमलोग भारतीय हैं, इसीलिए इसे भारतीय सन्दर्भ में समझना आसान होगा| भारत में सामाजिक विभाजन के 'जन्म आधार' को ही वर्ण व्यवस्थाएवं जाति व्यवस्थाकहते  हैं, और इसीलिए इसे अलग से समझना होगा|

हमें पाँचों अवधारणाओं को एक बार फिर से समझ लेना चाहिए| ईश्वर’ (God) प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकृत (Humanization) स्वरूप है, यानि प्राकृतिक शक्तियों का मानवीयकरण (Personification) है| मतलब यह कि प्राकृतिक शक्तियांहोती है, जिसे अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligence) भी कहा जाता है| इसकी उपयोगिता होती है, इसका उपयोग भी किया जाना चाहिए और इसके उपयोग करने की वैज्ञानिक क्रियाविधि (Methodology) होती है| लेकिन इन प्राकृतिक शक्तियों का मानवीयकरण करने में बहुत बड़ा षड़यंत्र छिपा हुआ है| जब प्राकृतिक शक्तियों को मानव मान लिया जाता है, तो उस तथाकथित ईश्वर (प्राकृतिक शक्तियों) को भावनात्मक” (Emotional) भी मान लिया जाता है, और वह कृपा बरसाने वाला भी हो जाता है, और दण्डित करने वाला भी हो जाता है| यहां गौरतलब बात यह है कि, जब वह मानव (Person) बना दिया जाता है, तो इस धरती पर कोई व्यक्ति उसका एजेंट या कर्ता भी बन सकता है| इसलिए ईश्वर मान लिए जाने से इस धरती का कोई विशिष्ट व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह उस ईश्वर का एजेंट (माध्यम) बन जाता है, जिसे सामान्यतः पुरोहित समुदाय माना जाता है| जबकि प्राकृतिक शक्तियों के आधुनिक वैज्ञानिक उपयोग में  जिन व्यक्तियों को माध्यमबनना पड़ता है, वे आज वैज्ञानिक, चिकित्सक या इंजिनियर आदि कहलाते हैं, और ये लाभार्थियों के एजेंट होते हैं, न कि उन प्राकृतिक शक्तियों के एजेंट | इस तरह ईश्वर के मामले में किसी व्यक्ति को ईश्वर का एजेंट बनकर ईश्वर को खुश करना या ईश्वर को प्रभावित करना होता है, जो स्पष्ट्या पाखंडहै| प्राकृतिक शक्तियाँ एक व्यक्ति की तरह भावनात्मक नहीं हो सकती, लेकिन पाखण्ड के लिए प्राकृतिक शक्तियों को मानवीय स्वरूप देकर एवं भावनात्मक बना कर पाखण्ड किया जाता है|

‘आत्मा, पुनर्जन्म और कर्म का सिद्धांत यानि ‘कर्मवाद’ एक दूसरे के साथ परस्पर गुथे हुए हैं| आत्माही पुनर्जन्मको सफल बनाता है। अत: आत्माही वह मूल आधार है जिसके कारण पुनर्जन्महोता है, और इन दोनों के आधार पर ही कर्म का सिद्धांतयानि कर्मवाद कार्यरत हो पाता है| आत्मा ही इस लोक को अन्य लोक से जोड़ता है, यानि मृत्यु के बाद निरंतरता देता है, जो उपर्युक्त के अलावा स्वर्ग और नर्क भी ले जाता है। भारत में आत्म’ (Self) शब्द भी प्रचलित है और आत्मा (एक विशिष्ट भारतीय शब्द जिसका शायद उपयुक्त शब्द अंग्रेजी में नहीं हो) शब्द भी प्रचलित है| ‘आत्मा’(Soul, वैसे इसका भी अंग्रेजी अनुवाद ‘Atma’ होना चाहिए, जो ‘Atm’ से अलग है) आदिम अवस्था का अवधारणा हो सकता है, जबकि आत्म (Self) बौद्धिक काल की उपज है| इस आत्मएवं आत्मा’(Self & Soul) में घालमेल मध्यकाल में सामन्तवाद के उदय एवं विकास के साथ सामन्तवादी आवश्यकतानुसार हो गया| ऐसा घालमेल सांस्कृतिक सामन्तवाद या साम्राज्यवादके लिए अनिवार्य रहा| आज भी कुछ भारतीय लोग विदेशी वैज्ञानिक प्रयोगों में प्रयुक्त ‘Soul’ एवं ‘Spirit’ का हिंदी अनुवाद आत्म’, ‘चित्त’, या चेतनानहीं कर आत्माही करते हैं, ताकि सांस्कृतिक सामन्तवादयानि सांस्कृतिक साम्राज्यवादकी निरंतरता बनी रहे|आत्म” (Self) की तो वास्तविकता है, परन्तु इसी से घालमेल कर यह आत्मा’(Soul) अवैज्ञानिक समझ है, और इसीलिए यह पाखण्ड है, और पाखण्ड का मूल आधार भी है|

कोई भी ईश्वर’, ‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’, ‘कर्म का सिद्धांतएवं जाति- वर्ण व्यवस्थाको अलग अलग कर समझना चाहेगा, तो उसे इनकी अवधारणा स्पष्ट नहीं हो पायेगी, क्योंकि यह सभी परस्पर गुंथी हुई हैं| इन पाँचों को एक ही सन्दर्भ में और एक ही पृष्ठभूमि में समझना होगा, क्योंकि ये पाँचों संरचनात्मक रूप से एक दुसरे पर निर्भर हैं| कोई भी व्यक्ति किसी भी जाति’ (Jati, not Caste) या वर्ण’ (Varna, not Group) में जन्म लेता है, यह उसके तथाकथित पूर्व जन्म का तथाकथित परिणाम होता है| जिस व्यक्ति का जन्म जिस वर्ण या जाति में होता है, उस व्यक्ति को उसके वर्ण या जाति के अनुसार निर्धारित कार्यमनोयोग से करना ही उस व्यक्ति का धर्म है| इसी धर्म की स्थापना के लिए तथाकथित ईश्वर यदाकदा इस धरती पर तथाकथित तौर पर अवतरित होते रहते हैं| हर वर्ण एवं जाति का कार्य निर्धारित है, जिसे करना उस व्यक्ति या समुदाय का मौलिक एवं मुख्य कर्तव्य है, और स्पष्टतया यही उसका एकमात्र धर्म है| इस धर्म का सही ढंग से पालन करने पर यानि अपनी जाति या वर्ण के अनुसार कार्य करने पर ही उसका पुनर्जन्म उच्चतर वर्ण या जाति में हो सकता है| इस तरह कर्म के सिद्धांतयानि ‘कर्मवाद’ के अनुसार किसी भी व्यक्ति को इस जन्म में किये गये कर्म का फल अगले जन्म में ही मिलेगा, इस जन्म में इस कर्म का फल मिलने की कोई संभावना नहीं है| पुनर्जन्म की वास्तविकता के बारे में आप भी वैश्विक वैज्ञानिक जनमत की राय जानते होंगे| तथाकथित ईश्वर इसी तथाकथित धर्म की रक्षा के लिए ही स्थापित किये गए हैं| अब आप आत्माकी अवधारणा तथा उसका विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण प्रकार्य (Function) समझ गए होंगे|

अब संक्षेप में जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था को भी समझ लिया जाय| जाति व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था का उद्विकास (Evolution) मध्यकाल (9वीं से 15वीं शताब्दी की कालावधि) में सामन्तवाद के उदय एवं विकास के साथ साथ हुआ| मध्यकाल में सामन्तवाद का वैश्विक उद्विकास हुआ| इससे जन्म आधारितएक शासक वर्ग का उदय हुआ और दूसरा जन्म आधारितशासित वर्ग का उदय हुआ| अर्थात एक जन्म आधारितशोषक वर्ग हुआ और दूसरा जन्म आधारितशोषित वर्ग हुआ| इस जन्म आधारितशासक वर्ग की अर्थव्यवस्था अब जन्म आधारितशासित वर्ग पर आधारित यानि आश्रित हो गया| शासक वर्ग में जन्म आधारित सामाजिक विभाजन को वर्ण व्यवस्था कहा गया और शासित वर्ग में जन्म आधारित सामाजिक विभाजन को जाति व्यवस्था कहा गया, जो सामान्यत: अवर्णश्रेणी में माने गये| इस तरह वर्ण व्यवस्था का आर्थिक आधार जाति व्यवस्था हुआ, अर्थात वर्ण व्यवस्था अपनी आर्थिक आवश्यकताओं के लिए जाति व्यवस्था पर निर्भर था।  इस विभाजन और विभाजन आधार को इत्मीनान से समझना चाहिए। भारतीय सामन्तवादी विद्वानों ने अंग्रेजी में वर्णको ‘Varna’ ही कहा, लेकिन जातिको एक बौद्धिक षड़यंत्रके तहत् अंग्रेजी में ‘Caste’ बना दिया, जो कि मूलत: एक पुर्तगाली शब्द है| यहां Caste के संबंध में ध्यान देने वाली बात यह है, कि ‘Caste’ को इस जन्म में भी बदला जा सकता है, जबकि जाति को इस जन्म में नहीं बदला जा सकता है| अत: वर्ण की ही तरह जाति का अंग्रेजी ‘Jati’ ही होना चाहिए न कि Caste, ताकि गैर भारतीयों को इस भारतीय 'जाति व्यवस्था' की सम्यक समझ हो सके, और वे भ्रमित होने से बच सकें|

वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्रकुल चार समूह हुए, जिनके कार्य क्षेत्र क्रमश: ज्ञान, शासन, व्यवसाय एवं व्यक्तिगत सेवा प्रक्षेत्र (Sector) हुआ| वर्ण व्यवस्था के लोग अर्थव्यवस्था के पूर्णतया तृतीयक प्रक्षेत्र (Tertiary Sector- व्यवसाय एवं संबंधित), चतुर्थ प्रक्षेत्र (Quaternary Sector - ज्ञान संबंधित) और पंचक प्रक्षेत्र (Quinary Sector - नीति निर्धारण संबंधित) में कार्यरत थे, प्राथमिक और द्वितीयक प्रक्षेत्र में कार्यरत नहीं थे। शूद्र चूँकि व्यक्तिगत सेवक थे, और इसी कारण इनकी संख्या नगण्य थी, जैसा कि आज भी होता है, यानि कि इनकी जनसंख्या पहले भी बहुत कम थी और आज भी बहुत कम होती है अर्थात ये संख्या-अनुपात में अत्यंत क्षुद्र (नगण्य) थे| ये शूद्र आबादी के बदलते परिवेश और नगण्य संख्या के कारण ब्रिटिश काल में लुप्तप्राय हो गए, लेकिन फिर भी आज कुछ लोग इसके वंशज होने का दावा करते हैं|

अवर्णअर्थात वर्ण व्यवस्था से बाहरके लोग कौन हैं, अब हम इन्हें समझते हैं। अवर्ण वर्ग में सामन्ती व्यवस्था से बाहर दूरस्थ जंगलों में रहने वाले वनवासी हुए, जिन्हें आजकल अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है| अवर्ण वर्ग में वे समूह भी शामिल हैं, जिन्हें सामन्तों ने सामन्तवादी व्यवस्था  का उग्र, लगातार एवं सशक्त विरोध करते रहने के कारण अछूत मान लिया और जिन्हें समाज, सम्पत्ति, शिक्षा, सम्मान, सत्ता, आदि से वंचित कर हाशिए पर ठेल दिया गया| इन्हें आज अनुसूचित जाति के नाम से जाना जाता है|  

इसी सामन्ती सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था से बाहर, लेकिन सामन्ती व्यवस्था का आर्थिक आधार इन्हीं वस्तुओं (अनाज, सब्जी, दूध, मछली, लकड़ी, बर्तन, उपकरण, हथियार आदि आदि) की उत्पादक जातियाँ  एवं सेवाओं (कपडा धोना, पालकी ढोना, बाल काटना, आदि आदि) की प्रदाता जातियाँ  ही रही| ये आधुनिक भारत के अन्य पिछड़ा वर्ग कहलाते हैं। ये वर्ग प्रमुखत: अर्थव्यवस्था के प्राथमिक प्रक्षेत्र (कृषि, पशुपालन, मत्स्य पालन, खनन, वनोत्पाद संग्रहण, आदि संबंधित) तक ही सीमित रहे और द्वितीयक प्रक्षेत्र (कृषि एवं अन्य उपकरण, हथियार, घर के उपयोग की वस्तुएं आदि संबंधित) में बहुत कम वस्तुएं ही उत्पादित की जाती रही| यही लोग आज के "अन्य पिछड़ा वर्ग" हैं, जो आज भी अर्थव्यवस्था के तृतीयक प्रक्षेत्र, चतुर्थक प्रक्षेत्र और पंचक प्रक्षेत्र की ओर ध्यान ही नहीं दे रहें हैं। इस तरह ये उत्पादक एवं सेवा प्रदाता जातियाँ, अनुसूचित जातियाँ, एवं अनुसूचित जनजातियाँ सदैव वर्ण व्यवस्था से बाहर रहीं, जिन्हें आज की जाति व्यवस्था और जनजाति व्यवस्था कहा जाता है। आजकल इन अवर्ण वर्ग यानि इस समुदाय की शूद्रीकरण करने की प्रक्रिया कर के वर्ण व्यवस्था में शामिल किए जाने का वृहत् अभियान चलाया हुआ है|

अब हमलोग पाखण्डवाद, बुद्धिवाद यानि बौद्धिकवाद, आधुनिकतावाद, विज्ञानवाद, एवं आध्यात्मवाद की अवधारणा के साथ ढोंग, अंधविश्वास, कर्मकाण्ड को भी समझते हैं| ढोंग वह अवधारणा है, जिसमें कोई व्यक्ति या समूह जो वह वास्तव में नहीं है, और उसके विपरीत या उससे भिन्न दिखने या दिखाने का प्रयास करता है| जैसे कोई लुटेरासमाज में समाज सहयोगीबनने या दिखने का प्रयास करता है, ढोंग का एक उदहारण है| ढोंग का दूसरा उदहारण यह है कि कोई व्यक्ति या समूह ऐसी किसी अलौकिक मानवीकृत शक्ति (कुछ लोग इसे ही ईश्वर कहते हैं) का प्रतिनिधित्व या एजेंटी करता है, जो वास्तव में संभव ही नहीं है| पाखण्ड इसी ढोंगसे मिलता जुलता शब्द है| पाखण्ड  एक झूठा यानि जानबूझकर किया गया क्रिया’ (Action) या प्रक्रिया’ (Process) है, जो दूसरे अज्ञानी व्यक्ति या समूह को ठगने या मुर्ख बनाने के लिए किया जाता है| यह पाखण्ड किसी ढोंग से इतना ही अलग होता है, कि ढोंग कोई व्यक्ति या समूह अपने को वास्तविकता से अलग दिखाने के लिए करता है और पाखण्ड  वह क्रियात्मक (Functional) स्वरूप है, जिसे कोई ढोंगी या अन्य व्यक्ति या समहू करता है| इसे इस तरह समझा जाय कि जैसे किसी को यह पता है कि ईश्वर नाम का कोई अलौकिक व्यक्ति’ (ध्यान रहे कि मैंने अलौकिक शक्तिनहीं कहा है) नहीं होता है, फिर भी उस अलौकिक व्यक्ति को खुश करने के लिए अपने को सक्षम दिखाता है, ढोंग है| और उस ढोंगी द्वारा ऐसा करने में सक्षमता (Capability) दिखाने की क्रिया या प्रक्रिया ही पाखण्ड  है| ‘ढोंगएवं पाखण्डदोनों का मकसद दूसरे को ठगना ही होता है|

किसी भी संस्कार (Rituals /Sacrament/ Ordination) में किये जाने वाले किसी भी प्रक्रियात्मक व्यवहार (Functional Activities) को कर्मकाण्ड  कहते है| जीवन के कुछ निर्णायक मोड़ पर या जीवन के महत्वपूर्ण अवसरों पर समाज के समक्ष कुछ प्रक्रियात्मक व्यवहार किया जाना होता है, जिससे वह समाज की जानकारी में स्थापित हो जाए| समाज के सदस्यों की उपस्थिति को सहभागी बनाने के लिए ऐसा किया जाना व्यवहारिक रूप में अनिवार्य होता है| परन्तु ऐसे प्रक्रियात्मक व्यवहार को अनावश्यक रूप से खर्चीला और अनावश्यक रूप से लम्बा करना अनावश्यक कर्मकांड में आता है| यानि कर्मकांड जीवन का एक महत्वपूर्ण अवसर है, जिसे विकृत नहीं किया जाना चाहिए|

अंधविश्वास बिना किसी तर्क या आधार के किसी भी बात को सत्यमान लेना या उस पर विश्वास कर लेना है| अंधविश्वास का आधार उस बातके प्रति या उसे कहने वाले के प्रति गहरी आस्था होती है| एक अन्धविश्वासी को पशुवतभी मान लिया जाता है, क्योंकि इनमें तर्क करने की समझ नहीं होती| एक पशु सोच सकता है, परन्तु वह अपने सोच पर फिर सोच नहीं सकता है यानि कोई तर्क नहीं कर सकता है|आस्थामें भी तर्क को कोई स्थान नहीं है| इसीलिए एक आस्थावान को पशुवत व्यवहार करने वाला मान लिया गया है| आस्था के मूल में अंध श्रद्धाहोता है| ‘आस्थाको विश्वास से अलग रखा गया है, क्योंकि विश्वासमें जानकारी होता है, ज्ञान होता है और इसीलिए इसमें तर्क भी समाहित है|

बौद्धिकवाद ‘(Intellectualism) वह अवस्था है, जब कोई विचार प्रक्रिया में तथ्य आधारित’ ‘कार्य-कारण तर्कअपनाता होता है, और निर्णय लेने में विवेकशीलताका उपयोग करता है| इसी विशिष्ट बुद्धि के ज्ञाता को बौद्धिक काल में बुद्ध(ध्यान रहे कि गोतम यानि गौतम 22वे बुद्ध थे ) कहा जाता था| विज्ञानवाद’ (Scientism)  में विषय को तथ्य एवं तर्कपर क्रमबद्ध एवं व्यवस्थिततो किया ही जाता है, इसके साथ ही इसकी विधियों’ (Methodology) में प्रयोगएवं निरीक्षणको भी अनिवार्य रूप से अपनाया जाता है| इसलिए इसमें विवेकशीलताअनिवार्य पक्ष नहीं हो पाता| विज्ञानवादीवह है, जो बौद्धिकवादीतो है परन्तु उसमें विवेकशीलताआवश्यक शर्त नहीं होता है| इसी कारण से विज्ञान का नकारात्मक यानि विध्वंसात्मक स्वरूप भी देखने को मिलता है। 'बौद्धिकवाद' में इसी विवेकशीलता के कारण इसका कोई नकारात्मक यानि विध्वंसात्मक स्वरूप देखने को नहीं मिलता है|

'आधुनिकतावाद'   (Modernism) में कोई अपने विचार, व्यवहार एवं आदर्श में तर्क के साथ-साथ विज्ञान को आधार के रूप में स्वीकार करता हुआ होता है| आजकल यही प्रगतिशीलता एवं समझदारी की पहचान मानी जाती है|

आध्यात्मया अध्यात्मवाद’ (Spiritualism) में किसी की चेतनता को अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) से सम्बन्धित होना स्वीकार किया जाता है| आप भी जानते हैं कि चेतना का स्तर क्रमानुसार अचेतन (Unconscious), ‘अवचेतन (Sub-conscious), ‘चेतन (Conscious) एवं अधिचेतन (Super-Conscious) होता है| और जब किसी के आत्म’ (Self) या चेतना (Consciousness) का इसी अधिचेतन अवस्था यानि अधिया सर्वोच्च स्तर यानि 'अनन्त प्रज्ञा' से जुड़ाव हो जाता है, वैसी ही  चेतना को अध्यात्म (Super Self) कहते हैं| यह ज्ञान की वह उच्चतर अवस्था है, जिसमे ज्ञानदेने वाला और ज्ञानपाने वाला एक ही व्यक्ति होता, यानि स्वयं होता है| ज्ञान के सामान्य स्तर में एक ज्ञानदेने वाला होता है और दूसरा ज्ञानप्राप्त करने वाला होता है| इसी कारण अध्यात्मसे जुड़े हुए कई बौद्धिक षड्यंत्र किए गए हैं, और इसका दुरूपयोग सांस्कृतिक साम्राज्यवादियोने धड़ल्ले से किया है| इसके चेतना के उच्च स्तरीय आयाम से जुड़ा हुआ होने के कारण, यह सामान्य लोगों के लिए अत्यंत जटिल है, और इसी कारण पाखंडी लोग  इसका खूब दुरूपयोग करते रहते हैं|

किसी आभास’ (Realization) को समझ लेना, कोई बिल्कुल ही नयी सूझ’ (Innovation) आ जाना अथवा किसी सर्वथा अप्रत्याशित अंतर्ज्ञान (Intution) को प्राप्त कर लेना ही अध्यात्मसे जुड़ी परिघटनाएं हैं, जिसका उपयोग अल्बर्ट आइन्स्टीन और स्टीफन हॉकीन्स ने बखूबी किया है| आध्यात्मिक भाषा-शैली में ऐसे लोगों को पहुंचे हुए महान लोगों की संज्ञा दे दी जाती है। सरल शब्दों में इसका मतलब यह है, कि ऐसे लोगों की चेतना के विकास का स्तर अपने समय के अन्य मनुष्यों की तुलना में अप्रत्याशित रूप से बहुत ऊंचा होता है, और यह लोग समकालीन सामान्य जनों को 'अनन्त प्रज्ञा' से जुड़े हुए महामानव प्रतीत होते हैं। आदि- कालीन विभिन्न मानव कबीलों के मुखियातथागत गौतमबुद्ध, महावीर स्वामी, हजरत मूसा, हजरत ईसा, हजरत मोहम्मद, सन्त कबीरइत्यादि ऐसे ही आध्यात्मिक महामानवों के क्लासिकल श्रेणी के उदाहरण हैं।

उपरोक्त विश्लेषण और समझ के आधार पर भारत की लगभग नब्बे प्रतिशत आबादी पाखण्डवादी है, यानि कि इसके मौलिक एवं महत्वपूर्ण तत्वों को सही मानते हुए अनुपालन करने वाला ब्राह्मणवादी है| अर्थात कोई भी, जो जातिया वर्णमें दैवीय शक्ति की सत्यता मानता है, पाखण्डवादी है; ‘ईश्वरया उससे जुड़ी किसी अवधारणा में भी सत्यता मानता है, पाखण्डवादी हैं; और आत्माया उस पर आधारित किसी भी बात को भी सही मानने वाले पाखण्डवादी हैं| और भारत में पाखण्डवाद को मानने वाले को ही ब्राह्मणवादी कहा जाता है| इस आधार पर भारत की लगभग नब्बे प्रतिशत आबादी ब्राह्मणवादी है, और बाकी के लगभग दस प्रतिशत आबादी में सामन्तवादी भी हैं और मानवतावादी भी हैं| इस पर भी गंभीर विचार विमर्श किया जाना चाहिए| अत: जिस भी व्यवस्था में, जिस भी विचार में, जिस भी आदर्श में, जिस भी ग्रन्थ में, जिस भी पंथ में और जिस भी व्यवहार में उपरोक्त वर्णित (ईश्वर, आत्मा, जाति या वर्ण, पुनर्जन्म, कर्म का सिद्धांत यानि कर्मवाद) पाँचों तत्व या इनमें से कोई भी एक तत्व मौजूद है, तो निश्चितया वह व्यवस्था, वह आदर्श, वह ग्रन्थ, वह पंथ, और वह व्यवहार पाखण्ड है, और इसके किसी तत्व को सही मानने वाले पाखण्डवादी है|

भारत में एक विचित्र तथ्य यह है, कि भारत की अधिकांश आबादी ब्राह्मणवाद का सैद्धांतिक रूप में विरोध करता है, लेकिन ये विरोध करने वाले लोग ही वास्तव में शुद्ध ब्राह्मणवादी है।

इसे समझिए और मनन मंथन कीजिए|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक

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‘ सत्ता ’ में शामिल लोग ही असली ‘ शासक ’ ‘ वर्ग ’ कहलाते हैं , होते हैं।   तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि   ‘ सत्ता ’   क्या है और   ‘ शासक ...